Sunday, March 21, 2010

जनता, संवाददाता और कानून

लेखक और संवाददाता में कई बुनियादी फर्क हैं। कोई कहानीकार सत्यकथाएं लिख सकता है, सत्य पर आधारित कथाएं लिख सकता है, जिनमें सत्य और कल्पना का रुचिकर संगम हो। अपनी कल्पनाशक्ति से पूरा का पूरा कथानक गढ़ सकने के लिए भी वह पूर्णत: स्वतंत्र होता है। संवाददाता को यह स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं है। साहित्य विशुद्ध सूचना नहीं है परंतु समाचार विशुद्घ सूचना है, अत: इसका तथ्यपरक होना नितांत आवश्यक है। इसमें कल्पना की ज्यादा गुंजायश नहीं है। अक्सर समाचारों में संवाददाता अपनी टिप्पणियां नहीं जोड़ता, पर किसी घटना का विश्लेषण करते समय अथवा उसकी पृष्ठभूमि बताते समय उसे कुछ सीमा तक यह स्वतंत्रता हासिल है। समाचारों में किसी एक घटना-विशेष का विवरण होता है इस कारण उस घटना से जुड़े लोगों के नामों का उल्लेख भी समाचारों में आता है। ध्यान देने की बात यह है कि जब हम किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख करते हुए उसके बारे में कुछ लिखते हैं तो उसके सम्मान, उसकी प्रतिष्ठा और उसकी निजता के अधिकारों का प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो उठता है। एक दूसरा अंतर यह है कि एक लेखक को बिना किसी समय सीमा के अपनी रचना पूरी करने का अधिकार है जबकि संवाददाता को समय सीमा के भीतर रहकर ही काम करना होता है। उसकी योग्यता ही इसमें निहित है कि वह अपने क्षेत्र में घटने वाली हर महत्वपूर्ण घटना की जानकारी अपने समाचारपत्र को तुरंत दे। परंतु संवाददाता को एक सुविधा भी है। लेखक को सजग रहकर अपने लेखन के लिए विषय ढूंढऩे पड़ते हैं और उन्हें पठनीय बनाने के लिए उनमें कल्पना के रंग भरने पड़ते हैं जिसमें ज्यादा कौशल की आवश्यकता होती है जबकि संवाददाता चूंकि घटी हुई घटनाओं का ब्योरा देता है, अत: उसे सिर्फ भाषा, शब्दों के प्रयोग तथा सूचनाओं की पूरी जानकारी की आवश्यकता होती है। पत्रकारिता एक प्रकार से जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य है और दोनों का लक्ष्य लोकरंजन एवं लोक कल्याण ही है।

मूल आवश्यकता यह है कि संवाददाता को अपने व समाचार में उल्लिखित लोगों के कानूनी अधिकारों तथा सीमाओं की जानकारी हो, अन्यथा यह संभव है कि वह किसी की मानहानि कर बैठे और फिर अदालतों के चक्कर काटता रहे। संवाददाता की ओर से किसी गैरजिम्मेदार व्यवहार के कारण उसे अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ सकती है।

संवाददाताओं को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला वर्ग उन संवाददाताओं का है जो किसी समाचार पत्र के पूर्णकालिक कर्मचारी हैं और सिर्फ उसी समाचारपत्र के लिए कार्य करते हैं। संवाददाताओं की दूसरी श्रेणी अंशकालिक संवाददाताओं की है जो एक (या अधिक) अखबारों के लिए कार्य करते हैं और उन्हें एक निश्चित धनराशि के अतिरिक्त प्रकाशित समाचारों पर पारिश्रमिक भी मिलता है। अपवादों को छोड़ दें तो इन दोनों वर्गों के पत्रकारों को केंद्र, राज्य अथवा जिला स्तर की सरकारी मान्यता एवं कई अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं। मान्यता-प्राप्त संवाददाताओं में भी दो तरह के लोग होते हैं, एक वे जिन्हें पूर्ण एक्रीडिटेशन प्राप्त है जबकि दूसरे वर्ग के संवाददाता रिकग्नाइज्ड तो होते हैं पर वे एक्रिडिटेटिड नहीं होते।

तीसरे वर्ग में हम उन संवाददाताओं को रख सकते हैं जो किसी अखबार विशेष से जुड़े हुए नहीं हैं और वे स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए एक साथ कई अखबारों को अपने समाचार भिजवाते हैं। स्वतंत्र संवाददाताओं को मात्र प्रकाशित समाचारों पर ही पारिश्रमिक या मानदेय मिलता है, हालांकि ऐसे अखबारों की कोई कमी कभी नहीं रही जो समाचार प्रकाशित करने के बावजूद न पारिश्रमिक देते हैं, न सूचना देते हैं और न ही प्रकाशित समाचार की कतरन अथवा अखबार की प्रति भिजवाते हैं। ऐसे संवाददाताओं के पारिश्रमिक का मामला बहुत कुछ संवाददाता की स्थिति और अखबार-विशेष की नीति पर भी निर्भर करता है।

एक सफल संवाददाता को अपने उत्तरदायित्वों तथा अपनी सीमाओं का स्पष्टï ज्ञान होना चाहिए। अखबारों में प्रकाशित समाचारों पर लोगों को विश्वास होता है और सामान्य जन पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ता है, अत: एक संवाददाता को यह याद रखना चाहिए कि पत्रकारिता लोगों को जोडऩे के लिए है, तोडऩे के लिए नहीं। यह एक मान्य तथ्य है कि एक झूठ सौ बार बोलने से वह झूठ भी सच जैसा प्रभावी बन जाता है अत: यह ध्यान रखने की बात है कि अखबार को किसी दुष्प्रचार का साधन नहीं बनने देना चाहिए। समाज को सूचनाएं -- सही सूचनाएं -- देना संवाददाता का पावन कर्तव्य है। समाचार निष्पक्ष और मर्यादित होने चाहिएं ताकि उनसे समाज में अव्यवस्था या उत्तेजना न फैले। आधुनिकता के इस युग में अधिकांश देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है। भारतवर्ष में भी संवाददाताओं को खासी स्वतंत्रता प्राप्त है। परंतु संवाददाताओं को यह याद रखना चाहिए कि उनकी स्वतंत्रता किसी दूसरे की स्वतंत्रता में खलल नहीं डाल सकती। इसके अतिरिक्त संवाददाताओं को कुछ कानूनी प्रावधानों का भी ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। इनका मोटा-मोटा विवरण इस प्रकार है ::

# बलात्कार का समाचार देते समय समाचार में बलात्कार की शिकार महिला का नाम नहीं दिया जा सकता।
# दंगे अथवा तनाव की स्थिति में किसी संप्रदाय विशेष का जिक्र नहीं किया जा सकता। उत्तेजना व अशांति भडक़ाना भी जुर्म है।
# किसी सांसद द्वारा संसद में अथवा किसी विधायक द्वारा विधानसभा में कही गई किसी आपत्तिजनक बात के कारण संबद्घ सांसद अथवा विधायक पर मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता परंतु उसकी कही गयी बात को ज्यों का त्यों छाप देने पर संवाददाता पर मुकद्दमा चलाया जा सकता है। कुछ विधानसभाओं ने प्रस्ताव पास करके संवाददाताओं को भी इस मामले में संरक्षण देने का प्रावधान बना रखा है अत: संवाददाता को इस संबंध में अपने राज्य के नियमों की जानकारी होना आवश्यक है। वैसे भी एक व्यक्ति दूसरे की आलोचना में कोई अपशब्द इस्तेमाल करे तो उसके शब्दों को हम हूबहू नहीं छाप सकते, छापें तो मानहानि का दावा हो सकता है। लिखित शब्द की कीमत ज्यादा होती है, लिखित अथवा प्रकाशित बात से हम प्रतिबद्घ हो जाते हैं, इसलिए लिखते समय भाषा, उसके संतुलन तथा कहीं न फंसने वाली शब्दावली का प्रयोग आवश्यक है।
# आरोपों की पुष्टि न हो सकने की स्थिति में आरोपी का नाम लिखने के बजाए ‘एक मंत्री’ अथवा ‘एक बड़े अधिकारी’ आदि लिखना चाहिए।
# अदालती फैसलों की सीमित आलोचना ही संभव है। इस आलोचना में जज या मजिस्ट्रेट की नीयत पर संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता वरना वह अदालत की तौहीन मानी जाएगी।
# कोई मामला अदालत के विचाराधीन होने पर उसके पक्ष-विपक्ष में टिप्पणी नहीं की जा सकती।
# समाचारों में अश्लीलता एवं अभद्रता नहीं होनी चाहिए। गरिमा का ध्यान रखना जरूरी है।
# राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मामलों में सूचना का अधिकार असीमित नहीं है। राष्टï्रीय सुरक्षा एवं उसके हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
# बहुत से अखबारों की नीति है कि वे वीभत्स चित्र (मृतकों आदि के चित्र) नहीं छापते। औचित्य की दृष्टिï से भी वीभत्स रस से बचना चाहिए।
# यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे पर कोई आरोप लगाए (चाहे वह हस्ताक्षरित बयान ही क्यों न हो) तो देखना चाहिए कि वे आरोप प्रथम दृष्ट्या छपने लायक भी हैं या नहीं। इसके अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि आरोप लगाने वाले व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा कैसी है? वह कितना जिम्मेदार व्यक्ति है? जिस पर आरोप लगाया जा रहा है, उसकी व्यक्तिगत-सामाजिक स्थिति कैसी है? वगैरह, वगैरह। अन्यथा ऐसे आरोपों का जिक्र करते समय किसी का नाम न लेने की सुरक्षित राह अपनानी चाहिए।
# इसी प्रकार समाचार लिखते समय संवाददाता द्वारा किसी को आतंकित करने के लिए, ब्लैकमेल करने के लिए, किसी की प्रतिष्ठा को अकारण चोट पहुंचाने के लिए, कोई लाभ प्राप्त करने के इरादे से, व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण, बदनीयती से अथवा तथ्यों के विपरीत किसी बात का उल्लेख नहीं करना चाहिए। ऐसा होने पर उसके विरुद्घ अदालती कार्यवाही की जा सकती है। यूं इस मामले में व्यावहारिक स्थिति यह है कि किसी संवाददाता के विरुद्घ मानहानि का दावा कर देना आसान नहीं है। मानहानि का दावा करने वाले व्यक्ति को हर पेशी पर अदालत में उपस्थित होना पड़ता है और अदालतों के चक्कर में काफी समय बर्बाद करना पड़ता है जिसके कारण हर व्यक्ति मानहानि का दावा करने अथवा दावा करने के बाद उसे चलाते रह पाने का साहस नहीं कर पाता।

कानूनी नियम सभी संवाददाताओं के लिए एक जैसे हैं चाहे वे किसी अखबार के संवाददाता हों अथवा किसी टीवी चैनल या केबल टीवी के प्रतिनिधि हों। मुख्य बात है मर्यादा और संयम के साथ रचनात्मक समाचार दिये जाएं। किसी भ्रष्टाचार अथवा षड्यंत्र के भंडाफोड़ का समाचार देते समय भी संयमित भाषा तथा तथ्यों पर आधारित जानकारी का प्रयोग करना चाहिए। भारतीय प्रेस परिषद् ने इस विषय में विस्तृत निर्देश जारी किये हैं। अगले अध्याय में भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा जारी दिशा-निर्देश हू-ब-हू दिये जा रहे हैं। हर संवाददाता को इन नियमों की जानकारी होनी चाहिए और उनका पालन करना चाहिए।

मेहनत, लगन और अभ्यास से हर काम में सफलता पाई जा सकती है। पत्रकारिता का क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। यह एक प्रतिष्ठिïत व्यवसाय है और इससे जुड़े लोगों का भविष्य उज्ज्वल है। साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि इस व्यवसाय की प्रतिबद्धता समाज और देश के प्रति है। समाज में स्वस्थ माहौल, पारस्परिक सदाशयता तथा शांति की स्थापना में योगदान पत्रकार एवं समाचारपत्र का कर्तव्य है। संवाददाता की लेखनी का भटकाव समाज में विषाक्त माहौल न बनाये, यह आवश्यक है। पत्रकार की कलम अन्याय, दमन, ज्यादती, राष्ट्रघात, शोषण, विषमता एवं विद्वेष को बढ़ावा देने वाली शक्तियों के खिलाफ चलनी चाहिए। यह कहना समीचीन होगा कि पत्रकार की कलम न अटके, न भटके, न रुके और न झुके बल्कि मानवता के हित में चलती रहे तभी इस व्यवसाय को अपनाने की सार्थकता है। ***



अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...

Wednesday, March 10, 2010

लेखन, पत्रकारिता और शैली पुस्तिका

पीके खुराना

शैली पुस्तिका ऐसे नियमों और प्रयोगों का एक संकलन होती है जिसमें उन शब्दों की चर्चा होती है जिनके एक से ज्यादा रूप प्रचलन में होते हैं या हो सकते हैं। जैसे हिंदी में बरतन लिखा जाता है और बर्तन भी। अमरीका लिखा जाता है और अमेरिका भी। ऐसे दोहरे-तिहरे रूपों की समस्या सिर्फ भाषा और वर्तनी में ही नहीं होती। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नामों के उच्चारण, माप-तौल की प्रणालियों, विराम चिन्हों के प्रयोगों और अक्षरों के आकार-प्रकार में भी होती है। शैली पुस्तिका में इनके मानक और मान्य रूप दिए जाते हैं। ऐसी प्रविष्टियां सौ-पचास नहीं होतीं, बल्कि हजारों में भी हो सकती हैं। लेखन या प्रकाशन में वे सारे प्रयोग, जिनकी वजह से भ्रम हो सकता है, उनके बारे में स्पष्ट निर्देश शैली पुस्तिका में दिये जाते हैं। शैली पुस्तिका का उद्देश्य होता है आपके लेखन, संपादन और प्रकाशन में एकरूपता लाना। यह एक संदर्भ ग्रंथ है जिसके आधार पर किसी पत्र अथवा पत्रिका की भाषा का मानकीकरण (स्टैंडर्डाइज़ेशन) किया जाता है। अंग्रेज़ी में इसे स्टाइल बुक या स्टाइल मैन्युअल कहा जाता है।

किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह सारी चीजें याद रखे। विदेशों में हर लेखक, संपादक और प्रकाशन समूह अपने लिए स्टाइल बुक अवश्य रखते हैं। वहां बिना शैली पुस्तिका के अखबार और पत्रिकाएं निकाली ही नहीं जातीं। भारत में अब तक हमारा संपादन और प्रकाशन इतना वैज्ञानिक और व्यवस्थित नहीं रहा है। लेकिन अब नये युग की शुरुआत हो रही है। अनके संस्थाएं अपनी-अपनी शैली पुस्तिकाएं विकसित कर रही हैं।

शैली पुस्तिका किसी भाषा में तब जरूरी हो जाती है जब वह भाषा जनसंचार का साधन बनती है। एक ऐसी भाषा के लिए जो अनेक समुदायों से बने एक बहुत बड़े समाज के बीच संचार माध्यम है, एकरूपता का अनुशासन और सटीक प्रयोग का बंधन आवश्यक है ताकि नए शब्दों और उनके अर्थों को लेकर कोई भ्रम न रहे। अखबारों के लिए तो यह और भी आवश्यक है क्योंकि वह अपने पाठकों के एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचता है। इसलिए उसके प्रस्तुत करने के ढंग और शब्दों के प्रयोगों में एकरूपता होनी ही चाहिए। अखबार के दफ्तर में बहुत बड़ी तादाद में लोग काम करते हैं। उनमें से कई एक ही क्षेत्र और विषय पर काम करते हैं। अगर उनके काम में एकरूपता नहीं हुई तो वहां अराजकता होगी।

हिंदी एक जीवंत भाषा है जिसने न सिर्फ अपने में विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक धाराओं को संजो रखा है, बल्कि उसका संपर्क देश-विदेश की दूसरी अनेक भाषाओं से भी बना हुआ है। भाषा के सही-सही प्रयोग के लिए तथा उन प्रयोगों में एकरूपता बनाये रखने के लिए अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी और संस्कृत तथा अन्य भाषाओं के शब्दों के हिज्जों के बारे में स्पष्ट नियमों का उल्लेख आवश्यक है।

भाषा को विद्वान भाषा-शास्त्री नहीं बनाते, भाषा बोलने वाले लोग बनाते हैं। वही शब्दों को अर्थ देते हैं और उन्हीं के लगातार बरतने से नए मुहावरे बनते हैं। व्याकरण वाले भाषा की बहती नदी के किनारे तटबंध बांध सकते हैं, कहीं पुल बना सकते हैं, लेकिन वे उसी का नियम बना सकते हैं जो चलन एवं बहाव में है, और जो लगातार बहता है वह लगातार बदलता भी रहता है। शब्दों को ढालने और घिसने का काम कानून से नहीं, प्रचलन से ही होता है।

कुछ वर्ष पूर्व तक पत्रकारिता में संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रचलन था। इस मामले में हिंदी अखबारों में पंजाब केसरी का अपना अलख रुख रहा है। पंजाब केसरी में शुरू से ही सदैव बोलचाल वाली आसान हिंदी का प्रयोग होता रहा है। दैनिक भास्कर ने इससे भी एक कदम आगे बढक़र हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेज़ी शब्दों का समावेश किया। शेष अखबारों ने शुरू में तो इसे भाषा का भ्रष्टाचार कहा और माना पर समय के साथ-साथ वे बदले और अन्य अखबारों ने भी इसे अपना लिया। आज आपको हिंदी के अखबारों में अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार मिलेगी, कभी-कभार तो अनावश्यक भी, पर अब यह चलता है।

पूरे हिंदी इलाके में भी एक ही भाषा नहीं बोली जाती। अवधी के मूल संस्कार वालों की हिंदी वही नहीं है जो मगही के बोलने वालों की है। अंतर सिर्फ उच्चारण का ही नहीं, शब्दों के प्रयोग, मुहावरों और शब्दों का भी है। पंजाबी के संस्कार वाले की हिंदी, पटना के लोगों को समझ ही न आए, ऐसा तो नहीं है, लेकिन वह उन्हें अटपटी जरूर लगती है, और ऐसे कई शब्द हैं जो उन्हें समझ नहीं आते। इसी विविधता के कारण एक अखबार में एक मानक भाषा का प्रयोग नितांत आवश्यक है।

यह संतोष की बात है कि हिंदी पत्रकारिता अब भाषा और साहित्य के दुराग्रहों से निकल कर उन सब क्षेत्रों में फैलने और उन्हें समेटने की कोशिश कर रही है जिनमें हिंदी बोलने वालों की रुचि है। पत्रकारिता में शब्दों, वाक्यांशों, मुहावरों और लोकोक्तियों के एक-से प्रयोग से अखबार का अपना एक अलग चरित्र बनता है और पाठक को भी उसमें सुविधा रहती है। जो अखबार अपनी शैली पुस्तिका विकसित करता है और लगातार नई जरूरतों के अनुसार उसमें संशोधन और परिवर्तन करता है, वह दरअसल अपने को एक चरित्र, एक पहचान देने की कोशिश करता है।

क्या होती है शैली पुस्तिका?
शैली पुस्तिका के नियम पांच या दस नहीं होते। शोधकर्ताओं की एक टीम सालों काम करती है। वे देखते हैं कि संपादन करने या कापी फाइल करने वालों के सामने क्या-क्या परेशानियां आती हैं, मशीन पर क्या-क्या संभव है, पढऩे वाले के सामने क्या समस्याएं होती हैं, व्याकरण में क्या नियम हैं, प्रचलन में क्या है। इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर वे एक ऐसी किताब तैयार करते हैं जो प्रकाशन में लगे व्यक्तियों के लिए एक संविधान की तरह हो।

अपने अखबार में हम ‘एक-सा’ लिखेंगे या ‘एक सा’, यानी, हाइफन लगाएंगे या नहीं, ‘डेमोक्रेसी’लिखेंगे, ‘डैमोक्रेसी’लिखेंगे या फिर ‘डिमाक्रेसी’लिखेंगे। कुछ लोग शैली पुस्तिका के नाम से बिदक सकते हैं। वे समझते हैं कि यह व्याकरण की किताब है। वे इसे नियमों की ऐसी किताब मान सकते हैं जो उनके लेखन पर अंकुश लगा देगी और उन्हें एक खास ढांचे में लिखने को बाध्य करेगी। परंतु यह अंकुश न होकर एक बेहद मददगार दोस्त की तरह काम करती है और काम के समय शब्दों के प्रयोग में अनावश्यक भ्रम को दूर करती है।

शैली पुस्तिका, संपादकों, उपसंपादकों के लिए अत्यंत आवश्यक दस्तावेज है। मान लीजिए, आप पीटीआई की एक खबर लेना चाहते हैं। तो खबर के साथ पीटीआई का नाम आप लिखेंगे या नहीं। लिखेंगे तो कहां? शुरू में, अंत में, डेटलाइन के बाद, खबर के ऊपर। लिखेंगे तो कितना? पूरा नाम, सिर्फ एजेंसी, या कुछ और? शैली पुस्तिका में इन सबका एक रूप निश्चित कर दिया जाता है। इसी तरह यह भी बताया जाता है कि अपने अखबार में आप ‘अमरीका’लिखेंगे या ‘अमेरिका’, ताकि यह न हो कि ऊपर के पैरे में अमरीका लिखा जाए और नीचे के पैरे में अमेरिका। भाषा में अन्य भी कई उलझनें सामने आती हैं। नई या नयी? बैसाख या वैशाख? दोनों रूप प्रचलित हैं। यहां सही-गलत का सवाल नहीं है, शैली पुस्तिका के माध्यम से यह तय किया जाता है कि आप अपने अखबार में कौन सा एक रूप प्रयोग करेंगे।

शैली पुस्तिका का उद्देश्य आपको भाषा शास्त्र या साहित्य का विद्वान बनाना नहीं होता। इसका काम भाषा से संबंधित जटिल समस्याओं का हल ढूंढऩा भी नहीं होता। इसका एकमात्र उद्देश्य होता है आपको इन उलझनों से बचाना, आपके लिए एक सीधा-सादा रास्ता बनाना ताकि आप अपनी सामग्री सुविधापूर्वक प्रयोग कर सकें, आपके प्रकाशन में एकरूपता हो और उसकी एक अलग पहचान बन सके।

शैली पुस्तिका मात्र एक ढांचा है जिसमें बताया जाता है कि भाषा की अशुद्धियों से ले कर पृष्ठ विन्यास (पेज ले-आउट) तक के बारे में आप क्या-क्या चीजें तय करें और उन्हें किस तरह रखें कि जरूरत पडऩे पर उन्हें आसानी से ढूंढ़ा जा सके।

इस अध्याय में हम आम प्रयोग में आने वाले कुछ शब्दों के प्रयोग के बारे में होने वाले भ्रम का समाधान कर रहे हैं। परंतु यदि आपके अखबार की अपनी कोई अलग स्टाइल बुक है तो हो सकता है कि इनमें से कुछ शब्दों के बारे में वहां भिन्न नियम हों। उस स्थिति में आपको अपने अखबार की स्टाइल बुक के नियम ही अपनाने चाहिएं। अण्डा या अंडा, चञ्चल या चंचल, सम्पादक या संपादक; दोनों में से कौन सा रूप प्रयुक्त होगा, यह आपकी स्टाइल बुक तय करेगी।

कुछ सामान्य नियम
हिंदी के किसी शब्द में जब ‘आई’प्रत्यय (सफिक्स) लगता है तो उसके पहले आने वाले द्विरुक्त (दो बार आने वाले) व्यंजन को एक कर दिया जाता है। जैसे, खट्टा से खटाई (खट्टाई नहीं)। इसी तरह, यदि उस शब्द के प्रथम व्यंजन में दीर्घ स्वर की मात्रा हो, तो वह ह्रस्व में बदल जाती है। जैसे, मीठा से मिठाई, ढीठ से ढिठाई, आदि।

यह लिखना गलत है कि ‘अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।’जाने की इजाजत दी जाती है, अनुमति दी जाती है। आज्ञा में आदेश की ध्वनि है, अनुमति की नहीं। आज्ञा पालन करने वाला आज्ञा मांग कर नहीं लेता।

उपाधि : उपाधि वितरित नहीं की जाती, दी जाती है, प्रदान की जाती है। उपाधि, सम्मान और पुरस्कार में फर्क है। पद्म विभूषण सम्मान है, उपाधि या पुरस्कार नहीं। पद्म विभूषण से सम्मानित किया जाता है, पद्म विभूषण प्रदान नहीं किया जाता। डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की जाती है और डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित (जब यह मानद उपाधि होती है) भी किया जाता है।

अंतरराष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय / अंतर्देशीय : अंतरराष्ट्रीय का अर्थ है दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच। यह शब्द अंतर और राष्ट्रीय के योग से बना है। अंतर का अर्थ होता है ‘के बीच’, ‘के मध्य’। अंतर्राष्ट्रीय शब्द अंत: और राष्ट्रीय के योग से बना है। अंत: का विसर्ग र से मिल कर र्र बन जाता है। अंत: का अर्थ है ‘के भीतर’, ‘के अंदर’। अंतर्राष्ट्रीय का अर्थ है राष्ट्र के भीतर। इसी तरह, अंतर्देशीय का अर्थ है देश के भीतर। यह अंग्रेज़ी के इनलैंड का मान्य हिंदी पर्याय है।

जब अंग्रेज़ी अभिव्यक्ति और हिंदी अभिव्यक्ति के ढंग में फर्क नहीं किया जाता तब भी गलतियां होती हैं। जैसे ‘आई एम टु गो टु सी माई फादर’ का अनुवाद हुआ ‘मुझे मेरे पिता को देखने जाना है’। लेकिन हिंदी में यहां ‘मेरे’का प्रयोग नहीं होता। सही वाक्य होगा, ‘मुझे अपने पिता को देखने जाना है।’

पहले उत्तर भारत के बड़े हिस्से में चैक, प्रैस, सैक्टर आदि लिखा जाता था, अब ज्य़ादातर अखबारों ने इनकी जगह चेक, प्रेस, सेक्टर आदि लिखना आरंभ कर दिया है, अत: ऐसे शब्दों के यही रूप मान्य हो गये हैं।

हिंदी में प्रचलित वे सभी शब्द जो अंग्रेज़ी के ‘ए’ अक्षर से शुरू होते हैं और जिनका उच्चारण ‘ऐ’से होता है, देवनागरी में ‘ए’से लिखे जाते हैं। जैसे बोला जाता है ‘ऐक्ट’, लेकिन लिखा जाता है ‘एक्ट’। इसी तरह ऐडमिरल को एडमिरल, ऐडमिनिस्ट्रेटर को एडमिनिस्ट्रेटर, ऐडिशनल को एडिशनल आदि ही लिखा जाता है।

‘कृपया’ लिखा जाएगा, ‘कृप्या’ नहीं। ‘कुआं’ सही है, ‘कुंआ’ नहीं।

अंग्रेज़ी उच्चारण के प्रभाव से बहुत से लोग शहरों व प्रदेशों के नाम का उच्चारण अंग्रेज़ी की तरह से करते हैं, जबकि लिखित में हिंदी के पुराने रूप ही सही माने जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘केरल’सही प्रयोग है, ‘केरला’या ‘केराला’नहीं। इसी तरह ‘कुरुक्षेत्र’सही रूप है, ‘कुरुक्षेत्रा’ नहीं।

गाइड सही रूप है, गाईड नहीं। गाउन सही है, गाऊन नहीं। क्लब सही है, कल्ब नहीं। ‘हँस’और ‘हंस’ अलग अर्थों वाले दो अलग-अलग शब्द हैं, पर मशीन की अड़चन के कारण इन्हें एक ही तरह से, यानी हंस, लिख दिया जाता है। हिंदी में दुकान और दूकान दोनों प्रचलित हैं, ज्यादातर अखबार दुकान का प्रयोग करते हैं।

आतंक में त के बाद अनुनासिक की ध्वनि है। लोग बिंदु लगाने में अक्सर भूल कर जाते हैं। यदि हम जान लें कि अन्त की जगह अंत, अण्डा की जगह अंडा, चञ्चल की जगह चंचल, और सम्पादक के लिए संपादक लिखा जा सकता है तो इस भूल से बच जायेंगे।
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों के अंत में इ या उ हमेशा ह्रस्व होता है, लेकिन हिंदी में उसे हमेशा दीर्घ लिखते हैं। जैसे, अंग्रेज़ी का आइ, हाइ आदि हिंदी में आई, हाई आदि लिखा जाता है।

उर्दू शब्दों की वर्तनी
उर्दू और हिंदी के अपने शब्द लगभग समान हैं लेकिन उर्दू में अरबी और फारसी से जो शब्द आए हैं, उनका प्रयोग जब हिंदी में होता है तो हिज्जे और प्रयोग को लेकर कई बार उलझनें पैदा होती हैं। अरबी, फारसी और उर्दू के ऐसे शब्दों के प्रयोग के कुछ नियम यहां दिये जा रहे हैं।

उर्दू से नुक्ते वाले क, ख, ग, ज और फ की ध्वनियां हिंदी में आई हैं। इन ध्वनियों के लिए नुक्ते का प्रयोग किया जाता था, लेकिन अब सरलीकरण के चलते तथा हिंदी वालों में उर्दू-फारसी की जानकारी न होने के कारण नुक्ते का चलन लगभग बंद हो गया है और इनकी जगह हिंदी के बिना नुक्ते वाले यानी साधारण ढंग से लिखे गए क, ख, ग, ज और फ से ही काम चलाया जाता है।

अरबी-फारसी के जिन शब्दों के अंत में विसर्ग आता है वे हिंदी में अकार में बदल जाते हैं, जैसे, उम्द: का उम्दा, आदि।

फारसी के बहुत से शब्दों ‘जहाँ’, ‘जाँ’, ‘जमीं’आदि में अनुनासिकत्व का प्रयोग होता है। हिंदी में इनकी जगह जहान, जान, जमीन आदि रूप प्रचलित हैं। इन्हें इसी रूप में लिखा जाना चाहिए। ***




अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’ के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...

Saturday, March 6, 2010

Mars, Venus Aur Media : मार्स, वीनस और मीडिया

Mars, Venus Aur Media
By :
P.K.Khurana

Prmaod Krishna Khurana
 प्रमोद कृष्ण खुराना



Promoting 'Alternative Journalism' in India

मार्स, वीनस और मीडिया

पीके खुराना
संपादक
समाचार4मीडिया.कॉम

जॉन ग्रे की प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेन आर फ्राम मार्स, वीमेन आर फ्राम वीनस’ में शायद पहली बार पुरुषों और महिलाओं के व्यवहार और दृष्टिकोण तथा तनाव के समय उनकी प्रतिक्रियाओं के अंतर के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, इस पुस्तक में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं में इतनी असमानताएं हैं, मानो वे दो भिन्न ग्रहों (मार्स-मंगल, वीनस-शुक्र) के प्राणी हों। यह पुस्तक इस अवधारणा का प्रतिपादन करती है कि दोनों को एक दूसरे के संवाद के तरीकों और भावनात्मक आवश्यकताओं का पता हो तो पुरुषों और महिलाओं में बेहतर समझ बनेगी। इस पुस्तक का वास्तविक उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं को एक-दूसरे की असमानताएं बताकर उनमें बेहतर समझ पैदा करना है।

पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक अलग ही रंग दे दिया। भारतीय संसद अभी तक महिला आरक्षण के बारे में अनिश्चित है, भारतीय समाज इस समस्या से अनजान है और भारतीय मीडिया के लिए यह एक फैशनेबल मुद्दा मात्र है।

परसों सोमवार 8 मार्च को हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाएंगे। हर साल की तरह इस बार भी मीडिया में महिला आरक्षण, पुरुषों द्वारा महिलाओं के शोषण और महिला अधिकारों की बात की जाएगी। कई कार्यक्रम होंगे, सेमिनार होंगे, जुलूस जलसे होंगे, संसद में शोर मचेगा, खबरें छपेंगी और फिर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की तरह के किसी अगले ‘दिवस’की तैयारी में मशगूल हो जाएंगे।

ऐसा नहीं है कि मीडिया महिलाओं से संबंधित मुद्दों को नहीं उठाता है। वस्तुत: महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला अधिकारों पर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता प्राप्त की है। इसके अलावा मीडिया में महिलाओं की संख्या न केवल बढ़ी है बल्कि बहुत सी सफल महिला पत्रकारों ने इतना नाम कमाया है कि वे पुरुषों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी हैं। पत्रकारिता के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं ने अपना सिक्का मनवाने में सफलता प्राप्त की है। परंतु भारतीय समाज में हम पुरुष लोग महिलाओं की वास्तविक समस्याओं और आवश्यकताओं से वाकिफ नहीं हैं और भारतीय मीडिया उनके बारे में बात ही नहीं करता है। महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मन:स्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में पुरुष लगभग सारी उम्र पूर्णत: अनजान रहते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या हो या माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल का मुद्दा हो, पुरुष महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं से अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां लड़कियां अपने पिता अथवा भाइयों को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन अभी भारतीय समाज और शिक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं बन पाई है, यही कारण है कि इस बारे में बात भी नहीं की जाती।

नलिनी राजन द्वारा संपादित पुस्तक ‘ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी जर्नलिज्म इन इंडिया’में अपने लेख ‘दि जेंडर फैक्टर’में अम्मू जोसेफ ने यह बताया है कि सन् 2005 के सुनामी के कहर के कारण किस प्रकार से उन परिवारों को ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा, जहां परिवार की मुखिया कोई महिला थी और परिवार में कोई वयस्क पुरुष नहीं था। शरणार्थी कैंपों में महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं की ओर ध्यान न दिये जाने के कारण (महिलाओं के आतंरिक परिधान, सैनिटरी नैपकिन, खुले पानी की सुविधा वाले महिला टायलेट , माहवारी आदि के समय प्राइवेसी की आवश्यकता आदि) महिलाओं को अतिरिक्त परेशानियों का शिकार होना पड़ा। मीडिया ने महिलाओं की इस समस्या और आवश्यकता पर कभी भी खुलकर चर्चा नहीं की, क्योंकि माना यह जाता रहा कि सुनामी में लोग मरे हैं, सिर्फ महिलाएं नहीं, पर सच तो यह है कि हम मीडिया वाले महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं से अनजान होने के कारण इस मुद्दे की गंभीरता को नहीं समझ पाये।

क्या इस बार भी ऐसा ही होगा? क्या हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की चर्चा में महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं की बात भी करेंगे? क्या मीडिया पुरुष समाज को इन मुद्दों पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेगा, या हम सिर्फ फैशनेबल मुद्दों तक ही सीमित रह जाएंगे? मुझे विश्वास है कि कोई ऐसा आवश्यक मुद्दा मीडिया के ध्यान में लाया जाए तो मीडिया उसकी उपेक्षा नहीं करता। इसी विश्वास के साथ मैं अपने पुरुष साथियों को यह याद दिलाने की हिमाकत कर रहा हूं कि कई बुनियादी आवश्यकताओं के मामले में पुरुष और स्त्रियां सचमुच इतने भिन्न हैं मानो हम मंगल ग्रह के निवासी हों, और महिलाएं शुक्र ग्रह से आई हों। मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि भारतवर्ष के जागरूक मीडियाकर्मी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर इस मुद्दे का भी ध्यान रखेंगे।