Thursday, December 30, 2010

मीडिया भी बढ़ाता है महंगाई

-- पी. के. खुराना

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की राजनीतिक चालों का जवाब नहीं। पूर्व केंद्रीय मंत्री ए. राजा और कामनवेल्थ खेलों के खलनायक कलमाड़ी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो उन्हें गद्दी छोडऩी पड़ी जबकि शरद पवार इतनी नफासत से काम करते हैं जिससे उनका और उनके समर्थकों का लाभ भी हो और उन पर कोई आंच भी न आये। कुछ समय पूर्व उन्होंने चीनी के दामों को लेकर बयान दिया और चीनी के दाम आसमान छूने लगे। हाल ही में उन्होंने बयान दिया कि प्याज के दाम नीचे आने में दो-तीन हफ्ते लगेंगे, परिणाम यह हुआ कि प्याज के दाम इतने बढ़ गए कि सेब भी उनके मुकाबले में सस्ते हो गये।
यहां जो बात ध्यान देने वाली है, वह सिर्फ इतनी-सी है कि गन्ना और प्याज, दोनों ही महाराष्ट्र की मुख्य फसलों में से हैं और शरद पवार चीनी मिल मालिकों तथा प्याज के थोक व्यापारियों के इस बड़े वोट बैंक का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके समर्थकों के लाभ में ही उनका भी लाभ है। परंतु अपने समर्थकों को लाभ पहुंचाने के लिए उन्हें किसी राडिया की आवश्यकता नहीं पड़ी, सिर्फ एक बयान दागा और मामला हल। राडिया ने अपना काम करवाने के लिए मीडिया के लोग गांठे और लाबिंग की। अब राडिया को सीबीआई ने घेर रखा है। लेकिन शरद पवार की नफासत का आलम यह है कि उन्होंने बयान दागा, मीडिया ने पहले तो बयान प्रकाशित किया, फिर बयान के परिणामों का जिक्र किया और शरद पवार का मकसद हल करने में उनका साथ दिया। मज़े की बात तो यह है कि शरद पवार ने मीडिया की ताकत को समझा, उसे अपने हक में प्रयोग किया और खुद मीडियाकर्मियों को भी यह समझ नहीं आया कि वे अनजाने ही शरद पवार का हथियार बन गए हैं।
आइए, इस पर जरा बारीकी से गौर करें। चीनी के दाम बढ़े तो मीडिया ने शरद पवार की आलोचना करनी आरंभ कर दी कि चीनी के दाम बढऩे से भारतीय गृहणियों का बजट गड़बड़ा गया है, आम आदमी परेशानी में है और कृषि मंत्री चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। जवाब में शरद पवार ने कहा कि वे कोई जादूगर नहीं हैं कि यह बता सकें कि चीनी के दाम कब कम होंगे। उनके बयान का ही असर था कि चीनी के दाम और भी चढ़ गए। फिर प्याज की बारी आई। मीडिया ने फिर से उनकी आलोचना की। इस बार शरद पवार ने बयान में थोड़ा सा संशोधन किया और कहा कि प्याज के दाम दो-तीन हफ्ते में नीचे आ जाएंगे। मीडिया ने इसे फिर से हाईलाइट किया और प्याज के दाम और भी चढ़ गए। यही नहीं, इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि बाकी सब्जियों के दाम भी चढ़ गए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे प्रमुख खबरी चैनल और अखबार महानगर-केंद्रित हैं। मुंबई और दिल्ली के थोक व्यापारी तो ऐसी स्थितियों का लाभ उठाने के लिए जाने ही जाते हैं। मीडिया ने शरद पवार के बयान को उछाल कर शरद पवार के समर्थकों को उनकी मंशा का संकेत दे दिया। शरद पवार के बयान का लाभ उठाते हुए उन्होंने दाम बढ़ाये तो वे जानते थे कि सरकार अभी चुप बैठेगी। इस प्रकार मीडिया ने शरद पवार का हथियार बनकर उनका ही काम किया और उनके समर्थकों को मनमानी करने का संदेश पहुंचाया।
मीडिया के महानगर-केंद्रित होने का एक और भी नुकसान हुआ। दिल्ली और मुंबई की मंडियों में जब चीनी अथवा प्याज के दाम बढ़े थे तो देश के शेष भागों के कस्बों और गांवों में उसका प्रभाव कम था और दाम आसमान नहीं छू रहे थे पर जब मीडिया ने इस एक खबर पर ही फोकस बनाया और टीवी चैनलों ने शरद पवार के बयान को दोहरा-दोहरा कर उसकी नाटकीयता बढ़ाई तो छोटे शहरों के खुदरा व्यापारियों ने भी तुरंत दाम बढ़ा दिये। इस प्रकार मीडिया ने वस्तुत: महंगाई बढ़ाने का काम किया और आम आदमी की परेशानी में इज़ाफा किया।
खबरों का प्रभाव बढ़ाने के लिए टीवी चैनल जिस नाटकीयता का सहारा लेते हैं वह अक्सर हानिकारक ही होती है। नाटकीयता की अति समाचार प्रस्तोताओं के लिए नशा बन गया है। टीआरपी की दौड़ में लगे टीवी चैनल इस दौड़ से परेशान हैं पर वे इसका कोई प्रभावी विकल्प खोजने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। टीवी चैनलों की देखादेखी प्रिंट मीडिया भी नाटकीयता का शिकार होता चल रहा है। खबरी चैनल, मनोरंजन चैनलों की नकल कर रहे हैं और अखबार, खबरिया चैनलों की नकल पर उतारू हैं। ऐसे में कोई नीरा राडिया या शरद पवार मीडिया की ताकत का नाजायज़ फायदा उठा ले जाए तो मीडिया को भी पता नहीं चलता कि वह किसी शातिर दिमाग व्यक्ति का हथियार बन गया है। टीवी चैनलों को टीआरपी का गुड़ नज़र आता है और वे अपनी पीठ थपथपाने में जुट जाते हैं जबकि आम आदमी मीडिया की नाटकीयता का शिकार होकर परेशानी भुगतता रह जाता है।
ऐसा नहीं है कि आम आदमी को मीडिया से हानियां ही हैं। मीडिया ने आम जनता के हितों की रक्षा के कई अद्वितीय काम किये हैं। मीडिया आम आदमी का प्रहरी है और लोकतंत्र का चौथा मजबूत खंभा है। मीडिया ने बहुत से रहस्योद्घाटन किये हैं और जनता को सच से रूबरू करवाया है। मीडियाकर्मियों ने ईमानदारी से मीडिया में आ रही विकृतियों का विश्लेषण करने और उनसे निपटने के कई सार्थक प्रयास किये हैं। यह बात अलग है कि खुद मीडियाकर्मी मीडिया की कारगुजारियों की जितनी आलोचना करते हैं, आम आदमी उससे वाकिफ नहीं है। मीडिया व्यवसाय से जुड़े पेशेवरों तथा मीडिया से सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की बात छोड़ दें तो आम आदमी की निगाह में अभी भी मीडिया का महत्व और सम्मान घटा नहीं है। अभी आम पाठक और आम दर्शक मीडिया की नाटकीयता के दुष्प्रभावों से अनजान है और वह इसका आनंद ले रहा है।
अब समय आ गया है कि मीडिया से जुड़े लोग यह देखें कि देशहित और जनहित, खबर और खबर के प्रभाव से ज्यादा बड़े हैं तथा उनके समाचारों के प्रस्तुतिकरण के तरीके से आम आदमी का नुकसान न हो। ***

Wednesday, December 15, 2010

संसद में षड्यंत्र : क्या हम जागेंगे ?

इस बार संसद में एक नई शुरुआत हुई है। 2-जी स्पेक्ट्रम आबंटन घोटाले सहित भ्रष्टाचार के विभिन्न मुद्दों पर जेपीसी, यानी संयुक्त संसदीय समिति गठिन करने की विपक्ष की मांग पर भारी हंगामे के चलते भारतीय संसद के इतिहास में बने अब तक के सबसे लंबे गतिरोध के बाद संसद का शीतकालीन सत्र सोमवार 13 दिसंबर को बिना किसी खास कामकाज के एक बड़े षड्यंत्र का शिकार हो गया और दोनों सदनों को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया।
संसद की एक दिन की कार्यवाही पर लगभग 7.80 करोड़ रुपये का खर्च आता है और सांसदों के हंगामे के कारण शीतकालीन सत्र में पौने दो अरब रुपये से अधिक की धनराशि व्यर्थ चली गयी। संसद के दोनों सदनों और संसदीय कार्य मंत्रालय का चालू वित्त वर्ष का कुल बजट अनुमानत: 535 करोड़ रुपये का है। संसद साल में तीन बार, यानी, बजट सत्र, मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र के लिए बैठती है। 9 नवंबर से शुरू हुए इस सत्र में 13 दिसंबर तक दोनों सदनों की 23 बैठकें हुईं। इस दौरान 23 लंबित विधेयक पारित होने थे तथा 8 नये विधेयक पेश किये जाने थे। सरकार की ओर से भी 24 नये विधेयक पेश होने थे और 3 विधेयकों को वापिस लिया जाना था, लेकिन इस सत्र में दस नए विधेयक ही पेश हो पाये जिनमें से एक वापिस ले लिया गया और 6 विधेयकों को भारी हंगामे के बीच, बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया गया। राज्यसभा में भी 4 में से 3 विधेयक ही पेश हुए और 7 विधेयकों में से केवल रेलवे और सामान्य बजट की अनुपूरक मांगों से जुड़े 4 विधेयक पारित हुए।
इस सत्र के शुरू होने के अगले ही दिन जेपीसी के गठन की मांग को लेकर गतिरोध आरंभ हो गया जो अंत तक बना रहा। तेइस दिन के इस सत्र में कुल मिला कर करीब दस घंटे ही सदन चल पाये और वह भी हंगामे के बीच। शीतकालीन सत्र में लोकसभा में केवल एक दिन प्रश्नकाल चला तो राज्यसभा में एक भी दिन ऐसा अवसर नहीं आया जब सदस्य अपने मौखिक या पूरक प्रश्न पूछ पाते। शोर-शराबे और अव्यवस्था से दोनों सदनों की कार्यवाही इस हद तक प्रभावित रही कि सरकारी कामकाज के अलावा, हर शुक्रवार को होने वाले गैर-सरकारी कामकाज भी नहीं हो पाये। जो आवश्यक वित्त विधेयक पास हुए, वे बिना किसी चर्चा के पास हुए। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विधेयक पेश कराये गए, और बस। यह था 23 दिनों के कामकाज का लेखा-जोखा।
भारतीय संसद के इतिहास में यह अब तक का सबसे लंबा गतिरोध था। 1987 में बोफोर्स मामले को लेकर जेपीसी की मांग की गई थी। वह गतिरोध 45 दिन चला था पर कामकाज इस प्रकार पूरी तरह से ठप नहीं हुआ था। इस बार यह नई शुरुआत हुई है कि पूरा सत्र ही एक बड़े षड्यंत्र की भेंट चढ़ गया।
सत्र की समाप्ति पर सोनिया गांधी ने कहा है कि उनके पास छुपाने का कुछ नहीं था, पर उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या बताने को भी कुछ नया था या नहीं। उधर भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि कभी-कभी संसद में कार्यवाही नहीं चलने देने से भी परिणाम निकलते हैं। मीडिया में इस सत्र को लेकर बड़ी-बड़ी खबरें आयी हैं। चर्चाएं होंगी, बहस चलेगी और फिर सब कुछ शांत हो जाएगा। मैंने बार-बार दोहराया है कि यह एक बड़ा षड्यंत्र था। आइए, समझें कि षड्यंत्र क्या था, इस हंगामे से किसे लाभ हुआ और वह लाभ क्या था।
2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार को लाखों करोड़ का चूना लगा। देश का हर नागरिक इस घोटाले के लेकर चिंतित और नाराज है। यह विपक्ष का अधिकार ही नहीं, कर्तव्य भी था कि वह इस घोटाले को लेकर सवाल उठाता ताकि देश की जनता को सच्चाई का पता चल सके। विपक्ष ने इस घोटाले की जांच के लिए जेपीसी के गठन की मांग की। मांग नाजायज़ नहीं थी। लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं है कि जेपीसी के गठन को लेकर पूरा सत्र ही इसकी भेंट चढ़ जाए। विपक्ष यह बताने को तैयार नहीं है कि जेपीसी के गठन से कितना सच सामने आता, उस पर क्या कार्यवाही होती और उस कार्यवाही का क्या परिणाम निकलता। न ही कोई यह बताता है कि पूर्व में किसी संयुक्त संसदीय समिति के गठन के बाद कितनी बार देश के सामने पूरा सच आया, भ्रष्टाचार पर लगाम लगी और ऐसा कोई पुख्ता इंतज़ाम हुआ कि अगली बार कोई और घोटाला फिर न हो। सवाल यह भी है कि क्या देश के सामने जनहित का कोई और मुद्दा, कोई और समस्या नहीं थी कि उस पर चर्चा ही न हो पाये।
जेपीसी के गठन को लेकर हंगामा मचाने मात्र से विपक्ष को लगातार प्रचार मिला। हंगामे और अभूतपूर्व गतिरोध के कारण विपक्ष को जो प्रचार मिला वह देश भर में इंटरव्यू देकर, प्रेस कांफ्रेंस करके तथा कई रचनात्मक कार्यक्रम चलाकर भी न मिलता। ध्यान देने की बात है कि इस बीच विपक्ष ने कभी यह नहीं कहा कि देश की अमुक समस्या के समाधान के लिए उसके पास अमुक योजना है। विपक्ष ने कभी यह भी नहीं बताया कि वह जनहित के लिए कौन-कौन से कार्यक्रम चला रहा है और उनका अभी तक क्या परिणाम निकला है। विपक्ष यह भी बताने को तैयार नहीं है कि वह कौन-सा ऐसा सवाल है जो संसद में बहस के दौरान नहीं उठाया जा सकता था।
हमें यह समझना चाहिए कि धरना देना और जुलूस निकालना किसी समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने का साधन मात्र है, समस्या का समाधान नहीं है। हंगामे के कारण विपक्ष ने सारे देश का ध्यान इस घोटाले की ओर आकर्षित किया और यह जताया कि यह मुद्दा महत्व के लिहाज से सर्वोपरि है। पर उसके बाद क्या हुआ? इस समस्या के समाधान के लिए विपक्ष की ओर से और क्या किया गया?
विपक्ष अब कोई रचनात्मक कार्य नहीं करता। पदयात्राएं, जुलूस, धरना, जनसभाएं, विधानसभाओं अथवा संसद में सवाल और सवाल से भी ज्यादा शोर-शराबा, प्रेस कांफ्रेंस और मीडिया इंटरव्यू, इसके आगे विपक्ष जाता ही नहीं, जाना ही नहीं चाहता। क्या विपक्ष की जिम्मेदारी सिर्फ यहीं समाप्त हो जाती है?
उधर, सरकार ने विपक्ष की जेपीसी के गठन की मांग को नहीं माना जिसके कारण गतिरोध बना और संसद में कामकाज ठप हो गया, इसका जितना लाभ सत्तापक्ष को मिला उतना विपक्ष को भी नहीं मिला। सत्तापक्ष की सफाई थी कि वह तो चाहता है कि संसद चले और हर मुद्दे पर बहस हो, जबकि संसद न चल पाने के कारण सत्तापक्ष हर असुविधाजनक सवाल से बच गया। इस प्रकार गतिरोध का असली लाभ तो सत्तापक्ष को ही मिला क्योंकि सरकार संसद में हर तरह की किरकिरी से बच गई। यही नहीं, कांग्रेस के लिए यह बड़ी राहत की बात है कि स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण बने गतिरोध ने कामनवेल्थ खेलों के घोटाले को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। सत्तापक्ष ने कभी भी यह साफ नहीं किया कि यदि उसे बहस से डर नहीं है तो फिर जेपीसी के गठन से उसे क्या डर है।
हंगामे से पक्ष और विपक्ष दोनों को लाभ हुआ। नुकसान हुआ देश की जनता को जो अपने इन प्रतिनिधियों की बेशर्म हरकतों को चुपचाप सहने के लिए विवश है। दरअसल, पक्ष और विपक्ष इस सवाल पर बंटे हुए नहीं हैं। यह दोनों पक्षों के लिए एक सुविधाजनक स्थिति है कि संसद में गतिरोध बनाओ, अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से बचे रहो और प्रचार भी पाओ।
भारतीय मीडिया का रुख इस सवाल पर बहुत उथला है। मीडिया ने इस सवाल को उठाया ही नहीं कि जेपीसी की मांग के अलावा विपक्ष का कर्तव्य क्या है और सत्तापक्ष को जेपीसी के गठन से इतना डर क्यों लग रहा है कि उसने लगभग 175 करोड़ रुपये की बड़ी धनराशि पानी में बह जाने दी। अगली बार वोट देते समय जनता को भी देखना चाहिए कि उसके प्रतिनिधि संसद और विधानसभा में कैसा व्यवहार करते हैं। जब तक हम मतदाताओं में इस तरह की जागरूकता नहीं आयेगी, हमारा लोकतंत्र इसी तरह लंगड़ा और आधा-अधूरा बना रहेगा। ***