Sunday, January 23, 2011

Patrakarita Ke Badalte Mizaj : पत्रकारिता के बदलते मिज़ाज

Patrakarita Ke Badlte Mizaj
By :
P.K.Khurana

(Pramod Krishna Khurana)
 प्रमोद कृष्ण खुराना

पत्रकारिता के बदलते मिज़ाज
 पी. के. खुराना

पत्रकारिता में हम अब एक नई अवधारणा का उदय देख रहे हैं। इसे वैकल्पिक पत्रकारिता अथवा अल्टरनेटिव जर्नलिज्म का नाम दिया गया है। लेकिन वैकल्पिक पत्रकारिता को लेकर काफी संशय का माहौल है। स्थापित मीडियाकर्मी इसे छिछोरापन मानते हैं और कतिपय तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। यही नहीं, वे यह भी मानते हैं कि इसमें अनुशासन और पेशेवर दृष्टिकोण का अभाव है अत: वैकल्पिक पत्रकारिता को तथ्यात्मक पत्रकारिता मानना भूल है।

हमें समझना होगा कि वैकल्पिक पत्रकारिता का जन्म कैसे हुआ। पत्रकारिता के अपने नियम हैं, अपनी सीमाएं हैं। आदमी कुत्ते को काट ले तो खबर बन जाती है, कोई दुर्घटना, कोई घोटाला, चोरी-डकैती-लूटपाट खबर है, महामारी खबर है, नेताजी का बयान खबर है, राखी सावंत खबर है, बिग बॉस खबर है, और भी बहुत कुछ खबर की सीमा में आता है। कोई किसी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करवा दे, तो वह खबर है, चाहे अभी जांच शुरू भी न हुई हो, चाहे आरोपी ने कुछ भी गलत न किया हो, तो भी सिर्फ एफआईआर दर्ज हो जाना ही खबर है। ये पत्रकारिता की खूबियां हैं, ये पत्रकारिता की सीमाएं हैं।

अभी तक वैकल्पिक पत्रकारिता को सिटिजन जर्नलिज्म से ही जोडक़र देखा जाता रहा है, जबकि वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। बहुत से अनुभवी पत्रकारों के अपने ब्लॉग हैं जहां ऐसी खबरें और विश्लेषण उपलब्ध हैं जो अन्यत्र कहीं प्रकाशित नहीं हो पाते। सिटिज़न जर्नलिज्म और अल्टरनेटिव जर्नलिज्म में यही फर्क है कि सिटिज़न जर्नलिज्म ऐसे लोगों का प्रयास है जो पत्रकारिता से कभी जुड़े नहीं रहे पर वेअपने आसपास की घटनाओं के प्रति जागरूक रहकर समाज को, अथवा मीडिया के माध्यम से समाज को उसकी सूचना देते हैं और उस पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। दूसरी ओर, वैकल्पिक पत्रकारिता ऐसे अनुभवी लोगों की पत्रकारिता है जो पत्रकारिता के बारे में गहराई से जानते हैं लेकिन पत्रकारिता की मानक सीमाओं से आगे देखने की काबलियत और ज़ुर्रत रखते हैं। यह देश और समाज के विकास की पत्रकारिता है, स्वास्थ्य, समृद्धि और खुशहाली की पत्रकारिता है। वैकल्पिक पत्रकारिता, स्थापित पत्रकारिता की विरोधी नहीं है, यह उसके महत्व को कम करके आंकने का प्रयास भी नहीं है। वैकल्पिक पत्रकारिता, परंपरागत पत्रकारिता को सप्लीमेंट करती है, उसमें कुछ नया जोड़ती है, जो उसमें नहीं था, या कम था, और जिसकी समाज को आवश्यकता थी। वैसे ही जैसे आप भोजन के साथ-साथ न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट्स लेते हैं ताकि आपके शरीर में पोषक तत्वों का सही संतुलन बना रहे और आप पूर्णत: स्वस्थ रहें। वैकल्पिक पत्रकारिता, परंपरागत पत्रकारिता के अभावों की पूर्ति करते हुए उसे और समृद्ध, स्वस्थ तथा और भी सुरुचिपूर्ण बना सकती है।

पारंपरिक पत्रकारिता में दो बड़े वर्ग उभर कर सामने आये हैं। एक बड़ा वर्ग नेगेटिव पत्रकारिता को पत्रकारिता मानता है, जो सिर्फ खामियां ढूंढऩे में विश्वास रखता है, जो मीडिया घरानों के अलावा बाकी सारी दुनिया को अपराधी, टैक्स चोर अथवा मुनाफाखोर मानकर चलता है, जबकि दूसरा वर्ग पेज-3 पत्रकारिता कर रहा है जो मनभावन फीचर छापकर पाठकों को रिझाये रखता है। वैकल्पिक पत्रकारिता इससे अलग हटकर देश की असल समस्याओं पर गंभीर चर्चा के अलावा विकास और समृद्धि की पत्रकारिता पर भी ज़ोर दे रही है।

कुछ वर्ष पूर्व तक अखबारों में खबर का मतलब राजनीति की खबर हुआ करता था। प्रधानमंत्री ने क्या कहा, संसद में क्या हुआ, कौन सा कानून बना, आदि ही समाचारों के विषय थे। उसके अलावा कुछ सामाजिक सरोकार की खबरें होती थीं। समय बदला और अखबारों ने खेल को ज्यादा महत्व देना शुरू किया। आज क्रिकेट के सीज़न में अखबारों के पेज के पेज क्रिकेट का जश्न मनाते हैं। इसी तरह से बहुत से अखबारों ने अब बिजनेस और कार्पोरेट खबरों को प्रमुखता से छापना आरंभ कर दिया है। फिर भी देखा गया है कि जो पत्रकार बिजनेस बीट पर नहीं हैं, वे इन खबरों का महत्व बहुत कम करके आंकते हैं। वे भूल जाते हैं कि शेयर मार्केट अब विश्व में तेज़ी और मंदी ला सकती है, वे भूल जाते हैं कि आर्थिक गतिविधियां हमारे जीवन का स्तर ऊंचा उठा सकती हैं। इससे भी बढक़र वे यह भी भूल जाते हैं कि पंूजी के अभाव में खुद उनके समाचारपत्र बंद हो सकते हैं। कुछ मीडिया घराने जहां बिजनेस बीट की खबरों से पैसा कमाने की फिराक में हैं, वहीं ज्य़ादातर पत्रकार बिजनेस बीट की खबरों को महत्वहीन मानते हैं।

उदारवाद के बाद से भारतवर्ष में मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग का काफी विस्तार हुआ है। इस वर्ग की आय तेजी से बढ़ी है और बढ़ती महंगाई के बावजूद यह वर्ग महंगाई से त्रस्त नहीं दिखता और यह वर्ग बड़ी कारों, बड़े टीवी सेटों तथा आराम की अन्य वस्तुओं पर भी लट्टू हो रहा है। दूसरी ओर निम्न मध्यवर्ग और निम्नवर्ग महंगाई की चक्की में बुरी तरह पिस रहा है और उसे कोई राह नहीं सूझ रही। समस्या यह है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली इस वर्ग का जीवन स्तर सुधारने में सहायक नहीं है। इस वर्ग को गरीबी से निज़ात पाने का मार्गदर्शन नहीं मिलता और वे न केवल गरीब रह जाते हैं बल्कि गरीबी की मानसिकता के कारण और भी गरीब होते चलते हैं और अमीरी के विरोधी बन जाते हैं। वे हर अमीर व्यक्ति को शोषक और भ्रष्ट मानकर उनके प्रति ही नहीं, अमीरी के प्रति भी घृणा का भाव पाल लेते हैं।

इसका एक ऐतिहासिक कारण भी है। हमारे देश में सांसारिक विषयों और मोह-माया के त्याग की बड़ी महत्ता रही है जिसके कारण धनोपार्जन को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। ‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान’ की धारणा पर चलने वाले भारतीयों ने गरीबी को महिमामंडित किया या फिर अपनी गरीबी के लिए कभी समाज को, कभी किस्मत को दोष दिया तो कभी ‘धन’ को ‘मिट्टी’ बता कर धनोपार्जन से मुंह मोडऩे का बहाना बना लिया। दुर्भाग्यवश दो सौ साल की लंबी गुलामी ने धन के मामले में हमें आत्मसंतोषी ही नहीं पलायनवादी भी बनाया। परिणाम यह हुआ कि सामान्यजन यह मानकर चलते रहे कि ‘जो धन कमाता है वह गरीबों का खून चूसता है।’ यानी, धारणा यह बनी कि धन कमाना बुराई है। मीडियाकर्मी, खासकर भाषाई अखबारों से जुड़े पत्रकार भी जाने-अनजाने इस सोच के वाहक और पोषक बने। हमारे देश में 50 से 80 के दशक के बीच की हिंदी फिल्मों ने भी यही किया। यह गरीबी नहीं, गरीबी की मानसिकता है।

वैकल्पिक पत्रकारिता शोषण और अन्याय के विरोध तो करती है पर यह अमीरी और विकास की विरोधी नहीं है। इस रूप में वैकल्पिक पत्रकारिता को आप मिशन पत्रकारिता भी कह सकते हैं। गड़बड़ी यह है कि वैकल्पिक पत्रकारिता ज्यादातर वेब पत्रकारिता तक सीमित है। विभिन्न ब्लॉग और वेबसाइटें वैकल्पिक पत्रकारिता की वाहक तो हैं पर उनकी पहुंच अत्यंत सीमित है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह धारा और मजबूत होगी और आने वाले कुछ वर्षों में यह पत्रकारिता के तेवर बदलने में सहायक होगी। 

Saturday, January 22, 2011

भ्रष्टाचार : कारण और निवारण

Bhrashtaachaar : Kaaran Aur Nivaaran

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

Pioneering Alternative Journalism in India

 प्रमोद कृष्ण खुराना



भ्रष्टाचार : कारण और निवारण
 पी. के. खुराना


एक सप्ताह के अंतराल में ही कई घटनाएं ऐसी घटी हैं जिन्होंने मेरा ध्यान आकृष्ट किया है। सुकना भूमि घोटाले में थल सेना के पूर्व उपप्रमुख मनोनीत लेफ्टिनेंट जनरल पीके रथ को कोर्ट मार्शल में दोषा करार दिया गया है। जूलियन असांजे ने दावा किया है कि स्विस बैंकों में जमा काले धन की संपूर्ण जानकारी उनके पास उपलब्ध है और वे इसे शीघ्र ही अपनी वेबसाइट विकीलीक्स के माध्यम से दुनिया के सामने रखेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद केबिनेट में काले धन के बारे में चर्चा आरंभ हुई। इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री ने मंत्रीसमूह को पत्र लिखकर भ्रष्टाचार पर नकेल डालने से संबंधित उपायों की चर्चा की है। प्रमुख उद्योगपति अज़ीम प्रेमजी सहित देश के 14 प्रमुख नागरिकों ने विभिन्न नेताओं को एक पत्र लिखकर देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार पर चिंता जताई है। यह एक अच्छी शुरुआत है, परंतु इन लोगों ने सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई है, भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए कोई योजना नहीं सुझाई है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो भ्रष्टाचार से नाखुश नहीं है क्योंकि यह वर्ग भ्रष्टाचार से लाभान्वित होता है। इस वर्ग में राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी, सैनिक अधिकारी, न्यायिक अधिकारी और न्यायाधीश, व्यवसायी, पत्रकार, मीडिया घरानों के मालिक आदि समाज के सभी वर्गों के लोग शामिल हैं।

सदा से ही यह माना जाता रहा है कि शक्ति व्यक्ति को भ्रष्ट बनाती है और असीम शक्ति व्यक्ति को पूर्णत: भ्रष्ट बनाती है। यह सच भी है। जब व्यक्ति पर कोई अंकुश न हो तो उसके भ्रष्ट होने की संभावनाएं सचमुच बढ़ जाती हैं। परंतु यह भी सच है कि शक्ति का दूसरा पहलू भय है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू मात्र हैं। थोड़ा और गहराई से देखें तो हम पायेंगे कि भय और शक्ति के साथ-साथ लालच और ईष्या भी भ्रष्टाचार के जनक हैं। आइये, ज़रा इसे समझने का प्रयत्न करें।

हाल ही में कई घोटाले चर्चा का कारण बने। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला और आदर्श सोसायटी घोटाला इनमें प्रमुख थे। यह सभी घोटाले किसी एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों के पास असीम शक्ति होने के कारण घटित हो सके। कलमाड़ी और ए. राजा को लगभग निरंकुश शक्ति सौंप दी गई और दोनों ने अपनी-अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया। इसी प्रकार भविष्य की असुरक्षा का भय भी भ्रष्टाचार को जन्म देता है। जब कोई व्यक्ति थोड़े समय के लिए सत्तासीन होता है तो वस्तुत: भविष्य की अनिश्चितता और असुरक्षा के भय से ग्रस्त होता है। अनिश्चित भविष्य उसे अपनी शक्तियों के दुरुपयोग के लिए प्रेरित करता है, जिसके परिणामस्वरूप वह भ्रष्ट तरीकों से धन इकट्ठा करने लगता है। चुनावों में जनादेश यदि खंडित हो तो संयुक्त सरकारें सत्ता में आती हैं। सरकार बनाने के लिए सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त, संयुक्त सरकार के दलों को खुश रखने के लिए किए जाने वाले समझौते भी भ्रष्टाचार के जनक हैं।

दूसरी ओर, प्रशासनिक अधिकारियों को नौकरी से हटाना आसान नहीं है। उनके निलंबन और स्थानांतरण को उन्हें दंड देने का तरीका माना गया है परंतु सज़ा का यह बहुत कमजोर तरीका है। दरअसल, अक्सर निलंबन और स्थानांतरण तो पुरस्कार बन जाते हैं। यदि कोई अधिकारी लंबे समय तक निलंबित रहे तो उसे बिना काम किये और बिना किसी जवाबदेही के, घर बैठे ही, अपने वेतन का एक बड़ा भाग प्राप्त होने लगता है और वह अधिकारी अपने इस खाली समय और आधिकारिक संपर्कों का लाभ लेकर कई तरह के व्यवसाय आरंभ कर लेते हैं और दुगनी कमाई करने लगते हैं। स्थानांतरण तो सज़ा है ही नहीं। कोई अधिकारी कलकत्ता में रह कर भ्रष्टाचार करे या हैदराबाद में रह कर, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। नये संपर्क बनाने में बस थोड़ा-सा ही समय लगता है और भ्रष्ट अधिकारी अपने पिछले अनुभव के आधार पर ज्यादा सतर्कता और ज्यादा कुशलता से फिर से भ्रष्ट रवैया अख्तियार कर लेता है।

उद्यमियों, व्यवसायियों तथा सामान्य जनता के लिए टैक्स की उच्च दरों, विभिन्न विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) लेना, सरकारी विभागों में जटिल प्रक्रिया और कामों की सुस्त रफ्तार, अस्पष्ट कानून, न्याय की लंबी प्रक्रिया, सोसायटियों और एनजीओ संस्थाओं के लिए सब्सिडी और ग्रांट का प्रावधान आदि भ्रष्टाचार के बड़े कारण हैं।

यदि हम सचमुच भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं तो हमें समग्रता में सोचना होगा और सभी मोर्चों पर एक साथ काम करना होगा वरना आधा-अधूरा प्रयास सफल नहीं हो सकेगा। समस्या यह है कि सरकार की ओर भ्रष्टाचार के निवारण का कोई गंभीर और सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा। घडिय़ाली आंसू, दिखावे के बयान और सतही कार्यवाहियां ही देखने को मिल रही हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए सरकार एक नया लोकपाल बिल लाने का इरादा रखती है। इस प्रस्तावित कानून में दो बहुत बड़ी खामियां हैं। लोकपाल किसी भ्रष्ट व्यक्ति को सजा नहीं दे सकता, इससे भी बढक़र किसी व्यक्ति को भ्रष्ट सिद्ध करना ही बड़ा कठिन है, ऐसे में शिकायतकर्ता की शिकायत को ‘झूठ’ मानकर शिकायतकर्ता को ही सजा दी जा सकती है। इस प्रावधान के कारण सामान्य जन किसी भ्रष्ट अधिकारी अथवा राजनेता की शिकायत करने से ही डरेंगे। इस बिल से तो भ्रष्टाचार से लडऩा और भी कठिन हो जाएगा और भ्रष्टाचार को और भी बल मिलेगा।

सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से भ्रष्टाचार रूपी रावण को मारा जा सकता है। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है।

एनजीओ बुलंदी ने भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए शीघ्र ही एक समेकित योजना पेश करने का ऐलान किया है और कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने वैकल्पिक पत्रकारिता के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा किये जा रहे प्रेरणादायक समाचारों के प्रसार तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध को मजबूत बनाने का काम शुरू कर दिया है। जनता के हर वर्ग को इसे समझने, दूसरों को समझाने और सबको साथ लेकर इस प्रयास को मजबूती देने का काम करना होगा तभी हम भ्रष्टाचार से लड़ पायेंगे और एक स्वस्थ, समृद्ध और विकसित समाज का निर्माण कर पायेंगे अन्यथा यह दीपक भी बुझ जाएगा और हम अंधेरे को कोसते ही रह जाएंगे। 

Saturday, January 8, 2011

विकीलीक्स और मीडिया

 पीके खुराना

सन् 2010 भारतवर्ष ही नहीं, विश्व को झकझोर देने वाला साल था। यूपीए सरकार ने बड़ी शान से अपना दूसरा कार्यकाल शुरू किया था क्योंकि सरकार के मुखिया डा. मनमोहन सिंह एक काबिल और बेदाग व्यक्ति माने जाते थे। लेकिन यूपीए सरकार की यह छवि जल्दी ही धूमिल हो गयी जब एक के बाद एक घोटाला सामने आने लगा। स्पेक्ट्रम घोटाले से संबंधित नीरा राडिया के टेपों ने सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाए तथा प्रधानमंत्री को भी कटघरे में खड़ा कर दिया।

उधर अंतरराष्ट्रीय जगत में जूलियन असांजे की विकीलीक्स ने जो धमाके किये, उसने अमरीका ही नहीं, सारी दुनिया को हिला कर रख दिया। विकीलीक्स नाम की यह वेबसाइट रातों-रात प्रसिद्ध हो गई और पूरी दुनिया के मीडिया जगत ने इसमें प्रदर्शित दस्तावेजों के आधार पर गर्मागर्म बहस शुरू कर दी। विकीलीक्स पर हिट्स बढ़ते चले गए और इसके मुख्य संपादक जूलियन असांजे विभिन्न सरकारों के लिए खलनायक और आम जनता की नजरों में महानायक बन कर उभरे। आस्ट्रेलिया निवासी जूलियन असांजे एक इंटरनेट एक्टिविस्ट हैं जो इस वेबसाइट के मुख्य संपादक और प्रवक्ता भी हैं। टाइम मैगज़ीन ने उन्हें ‘रीडर्स च्वाइस फार पर्सन ऑव दि इयर-2010’ के खिताब से नवाज़ा।

विकीलीक्स की लोकप्रियता के दो मुख्य कारण हैं। पहला और आधारभूत कारण तो यह है कि विकीलीक्स ने धमाकेदार रहस्योद्घाटन किये, जो स्थापित मीडिया घराने भी नहीं कर पाये थे, जिसके कारण दुनिया भर के मीडिया में उसकी चर्चा हुई। दूसरा कारण यह है कि वेबसाइट होने के कारण विकीलीक्स दुनिया भर के लोगों के लिए उपलब्ध थी। उसे मुद्रित समाचारपत्रों की तरह किसी भौगोलिक दायरे में बंधने की विवशता नहीं थी। अखबार छपता है, अलग-अलग स्थानों पर भेजा जाता है, वहां वितरित होता है और पाठक तक पहुंचता है। वेबसाइट के साथ ऐसी सीमाएं नहीं हैं। माउस के एक क्लिक से आप दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर, दुनिया की किसी भी वेबसाइट को देख सकते हैं। विकीलीक्स की पूरी सामग्री और दस्तावेज, दुनिया भर के लोगों और मीडियाकर्मियों को उपलब्ध थे। इसके बाद तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया ने उन दस्तावेज़ों का हवाला देकर विकीलीक्स को दुनिया भर में प्रसिद्ध कर दिया। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि पारंपरिक मीडिया में विकीलीक्स के जिक्र के बाद ही विकीलीक्स की लोकप्रियता का ग्राफ चढ़ा है। तो सच यह है कि विकीलीक्स ने बढिय़ा सामग्री दी और पारंपरिक मीडिया ने विकीलीक्स के संदर्भ से उसका उपयोग किया। यदि पारंपरिक मीडिया इसे खबर के लायक न मानता तो विकीलीक्स को जो लोकप्रियता मिली है, वह कदापि न मिल पाती। लब्बोलुबाब यह कि आज भी पारंपरिक मीडिया की ताकत कम नहीं हुई है।

मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि इंटरनेट और ब्लॉग के प्रादुर्भाव ने पत्रकारिता में बड़े परिवर्तन का द्वार खोला है। अभी कुछ वर्ष पूर्व तक ‘खबर’ वह होती थी जो अखबार में छप जाए या रेडियो-टीवी पर प्रसारित हो जाए। पहले इंटरनेट न्यूज़ वेबसाइट्स और फिर ब्लॉग की सुविधा के बाद तो एक क्रांति ही आ गई है। न्यूज़ वेबसाइट्स ने छपाई, ढुलाई और कागज का खर्च बचाया, तो ब्लॉग ने शेष खर्च भी समाप्त कर दिये। ब्लॉग पर तो समाचारों का प्रकाशन लगभग मुफ्त में संभव है।

ब्लॉग की क्रांति से एक और बड़ा बदलाव आया है। इंटरनेट के प्रादुर्भाव से पूर्व ‘पत्रकार’ वही था जो किसी अखबार, टीवी समाचार चैनल अथवा आकाशवाणी (रेडियो) से जुड़ा हुआ था। किसी अखबार, रेडियो या टीवी न्यूज़ चैनल से जुड़े बिना कोई व्यक्ति ‘पत्रकार’ नहीं कहला सकता था। न्यूज़ मीडिया केवल आकाशवाणी, टीवी और समाचारपत्र, इन तीन माध्यमों तक ही सीमित था, क्योंकि आपके पास समाचार हो, तो भी यदि वह प्रकाशित अथवा प्रसारित न हो पाये तो आप पत्रकार नहीं कहला सकते थे। परंतु ब्लॉग ने सभी अड़चनें समाप्त कर दी हैं। अब कोई भी व्यक्ति लगभग मुफ्त में अपना ब्लॉग बना सकता है, ब्लॉग में मनचाही सामग्री प्रकाशित कर सकता है और लोगों को ब्लॉग की जानकारी दे सकता है, अथवा सर्च इंजनों के माध्यम से लोग उस ब्लॉग की जानकारी पा सकते हैं। स्थिति यह है कि ब्लॉग यदि लोकप्रिय हो जाए तो पारंपरिक मीडिया के लोग ब्लॉग में दी गई सूचना को प्रकाशित-प्रसारित करते हैं। अब पारंपरिक मीडिया इंटरनेट के पीछे चलता है।

इंटरनेट पर अंग्रेज़ी ही नहीं, हिंदी में भी हर तरह की उपयोगी और जानकारीपूर्ण सामग्री प्रचुरता से उपलब्ध है। मैं यह मानता हूं कि पत्रकारिता से जुड़े पुराने लोग और मीडिया घराने, जो अभी ब्लॉग के बारे में नहीं जानते, आने वाले कुछ ही सालों में, या शायद उससे भी पूर्व, इंटरनेट और ब्लॉग की ताकत के आगे नतमस्तक होने को विवश होंगे। विकीलीक्स ने शायद उस युग की शुरुआत कर दी है जब आम आदमी और सामान्य पाठक भी इंटरनेट की शक्ति को समझ सकेगा।

व्यावसायिक विवशताओं के चलते स्थापित मीडिया घरानों को भी कई बार व्यावसायिक समझौते करने पड़ते हैं। सरकारों अथवा बड़े विज्ञापनदाताओं के हस्तक्षेप पर खबरें बदल देना, रोक देना या योग्य एवं निष्ठावान पत्रकारों का स्थानांतरण अथवा नौकरी से बरखास्तगी अब कोई नई बात नहीं है। वेबसाइट चलाना एक पत्रिका निकालने से भी सस्ता काम है और ब्लॉग तो लगभग मुफ्त के भाव बनता और चलता है। धन संबंधी कठिनाइयां न होने के कारण वेबसाइट मालिकों को व्यावसायिक समझौते के दबाव कम झेलने पड़ते हैं। इसलिए वेबसाइटें कदरन ज्यादा स्वतंत्र हैं।

वेबसाइटें और ब्लॉग एक और कारण से भी पारंपरिक मीडिया से भिन्न हैं। अखबारों ने लगभग हर खबर को पेज-3 स्टाइल में देना आरंभ कर दिया है। पाठकों को आकृष्ट करने के लिए अक्सर खबरों में ‘खबर’ कम और ‘मसाला’ ज्यादा होता है। वेबसाइटों और ब्लॉगों को ऐसी कोई विवशता नहीं है।

यह कहना अतिशयोक्ति ही है कि वेबसाइट और ब्लॉग अखबारों से बेहतर हैं। ब्लॉग चलाने वाले ज्यादातर लोग पेशेवर नहीं हैं और बहुत से ब्लॉग गाली-गलौच से भरे हैं। ब्लॉग पर कोई प्रभावी संपादकीय नियंतत्रण न होने से कई ब्लॉग इस काबिल बिलकुल भी नहीं हैं कि उन्हें जिक्र के काबिल भी माना जाए। इसके अलावा, भारतवर्ष में अभी इंटरनेट की उपलब्धता निराशाजनक रूप से कम है जिसके कारण वेबसाइटों और ब्लॉगों के पाठकों की संख्या अत्यंत सीमित है। पिछले कुछ सालों में देश में शिक्षा का प्रसार औरे समृद्धि के स्तर बढ़े हैं। मोबाइल फोन और इंटरनेट के संगम ने भी वेबसाइटो और ब्लॉगों के भाव बढ़ाये हैं। तकनीक में विकास के कारण अब इंटरनेट का प्रसार भी बढ़ता रहेगा और आने वाले कुछ सालों में भारतवर्ष में भी वेबसाइटों के निष्ठावान पाठकों की संख्या में आशातीत वृद्धि होगी। यह प्रसन्नता की बात है कि पारंपरिक मीडिया ने अपने आपको बदलते ज़माने के हिसाब से तैयार करना शुरू कर दिया है और अब लगभग हर अखबार और चैनल की वेबसाइट भी है तथा ज्यादातर पत्रकारों के अपने-अपने ब्लॉग भी हैं। शायद वह दिन शीघ्र ही आयेगा जब बहुत से मीडिया उत्पाद सिर्फ इंटरनेट पर ही उपलब्ध होंगे और पारंपरिक मीडिया की तरह उनके भी अपने स्वतंत्र पाठक होंगे। ***