Sunday, February 20, 2011

भय, आशा और आत्मविश्वास

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pramod Krishna Khurana (popularly known as P.K.Khurana)

कहते हैं कि डर और आशा का मिश्रण बड़ा खतरनाक और कारगर होता है। यह बड़ा विरोधाभासी कथ्य है और इसे ध्यान से समझने की आवश्यकता है।

आशा के होते हुए भी अगर डर बना रहे तो आदमी आधे-अधूरे मन से कार्य करता है, आधे-अधूरे प्रयास करता है और अपनी असफलता की स्वयं ही गारंटी कर लेता है। डर हमारे आत्मविश्वास को हर लेता है और हम नकारा हो कर रह जाते हैं। डर और निराशा के कारण योग्य से योग्य व्यक्ति भी अपाहिजों का-सा जीवन जीने को विवश हो जाता है। यदि हम सिक्के के दूसरे पहलू पर दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि डर के बावजूद हम आशा का दामन थामे रहें तो डर जाता रहेगा अथवा कम हो जाएगा। आशा का दामन थामे रहने से आत्मविश्वास डिगेगा नहीं और हम पूरे मनोयोग से कार्य करेंगे तथा अपनी सफलता सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयत्न करेंगे।

परंतु हमारा जीवन सिर्फ सीधी-सीधी रेखा नहीं है। इसमें कुछ भी सिर्फ श्वेत और श्याम नहीं होता। अधिकतर स्थितियों में श्वेत और श्याम के अतिरिक्त भी अंधकार और प्रकाश के सम्मिलन वाले कई भूरे रंग न$जर आयेंगे। हर बात सिर्फ सच और झूठ या अच्छे और बुरे में ही नहीं बंटी होती। इनमें कई-कई चीजों का मिश्रण होता है, जिसके कारण जीवन की स्थितियों का सरल विश्लेषण संभव नहीं हो पाता। ऐसी स्थितियों के मुकाबिल होने पर ही हमारी बुद्घि और विवेक की परीक्षा होती है।

हम पहले ही कह चुके हैं कि डर और आशा का मिश्रण बड़ा ‘खतरनाक’ और ‘कारगर’ होता है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि यदि डर की मात्रा अधिक होगी तो हमारी असफलता की आशंका बढ़ जाएगी परंतु यदि आशा की मात्रा अधिक होगी तो हमारी सफलता के अवसर बढ़ जाएंगे। आइये, इसे थोड़ा और समझने का प्रयास करें।

आशा के साथ थोड़ा डर मिला होने पर हम चौकन्ने रहते हैं और अति-विश्वास के कारण की जाने वाली गलतियों से बचे रहते हैं। यदि हम विधायी दृष्टिकोण रखें तो आशा में भय का मिश्रण वस्तुत: हमारे लाभ में जा सकता है। भय और आशा का यह मिश्रण बड़ा कारगर साबित हो सकता है बशर्ते कि हम भयाक्रांत ही न हो जाएं। भय हमें सावधान करता है, भय हमें अनावश्यक जल्दी में गलत निर्णय लेने से बचाता है, भय हमें अपनी खूबियों और खामियों तथा अपने साधनों और स्रोतों का सांगोपांग विश्लेषण करने को बाध्य करता है। आम स्थितियों में हम जिन बातों को न$जरअंदा$ज कर जाते, भय हमें उनसे खबरदार रहने की अक्ल देता है। भय एक नकारात्मक घटक है परंतु बुद्घिमान और विवेकी लोगों के जीवन में भय बड़े काम की ची$ज है। भय और आशा के मिश्रण में भय की इस भूमिका को समझने की आवश्यकता है। यदि हम भय की इन खूबियों को समझ लें तो हम भय से पार पाकर भय का लाभ ले सकेंगे। तब हमारा मन आत्मविश्वास से भर जाएगा और जी-जान से अपनी सफलता के लिए कार्य करेंगे।

जीवन में कभी भी किसी भी स्थिति में भय का भान होने पर हमें यह सोचना चाहिए कि हम क्यों भयभीत हैं। भय के कारणों का विश्लेषण करने से हमें मालूम पड़ जाता है कि क्या करना हमारे लिए गलत साबित हो सकता है और क्या उपाय करके हम भय के कारकों से दूर रह सकते हैं। इस प्रकार भय का विश्लेषण करने से समस्या खुद-ब-खुद हल हो जाती है और भय का हल्का-सा भान हमारे लिए लाभदायक सिद्घ होता है।

इस विवेचन की गहराई में जाएं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल अंतर आशा और भय का नहीं बल्कि दोनों को लेकर हमारे दृष्टिकोण का है। यदि हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक हो, विधायी हो तो हम भय से भी लाभान्वित होंगे और यदि हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक हो तो आशा के बावजूद हम भयाक्रांत रह कर स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेंगे। यह जान लेना बहुत आवश्यक है कि सफल और असफल व्यक्तियों के जीवन की स्थितियां अलग-अलग नहीं होतीं, बस स्थितियों को देखने और उन्हें परिभाषित करने की दृष्टि में ही अंतर होता है। स्थितियां नहीं, बल्कि दृष्टिकोण का यह अंतर ही हमें सफल अथवा असफल बनाता है।

इसीलिए कहा जाता है कि हमारा भाग्य हमारे अपने हाथ में है और इसीलिए यह भी कहा जाता है कि हम अपने कर्मों से ही अपना भाग्य बनाते अथवा बिगाड़ते हैं। स्थितियों से असंतुष्ट रहकर कुढ़ते रहना अथवा स्थितियों से असंतुष्ट होने पर उन्हें बदलने की जुगत में जुट जाना, यह हमारे न$जरिये पर निर्भर करता है, इसलिए खुश रहना और उदास रहना भी हमारे अपने हाथ में है। आकाश में अथवा कहीं और कोई स्वर्ग या नरक नहीं हैं। स्वर्ग या नरक अगर कहीं हैं तो इसी धरती पर हैं और हमारे अपने बनाए हुए हैं। इस तथ्य की गहराई में हम जितना उतर सकेंगे अपने जीवन में हम उतने ही सफल अथवा असफल तथा प्रसन्न अथवा दुखी होंगे। यही सच है, यही एकमात्र सच है ! ***


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Saturday, February 19, 2011

जय गणेश देवा !

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pramod Krishna Khurana (popularly known as P.K.Khurana)

भारतीय संस्कृति में गणेश जी की बड़ी महत्ता है। हर कार्य की शुरुआत से पहले गणेश वंदना द्वारा कार्य की सफलता की प्रार्थना की जाती है। गणेश जी सफलता की शुरुआत हैं। आज हम सफल जीवन के रहस्यों की जानकारी की शुरुआत भी गणेश जी से ही करेंगे। घबराइये मत, यह कोई धार्मिक प्रवचन नहीं, अपितु सफल जीवन के लिए आवश्यक गुणों का वैज्ञानिक विवेचन मात्र है।

हम जानते हैं कि गणेश जी के दो बड़े-बड़े कान हैं और वे एकमुखी हैं। अपने व्यावहारिक जीवन में हम इससे बहुत बड़ी सीख ले सकते हैं। कान दो, और वे भी बड़े-बड़े, यानी अच्छे श्रोता का सबसे बड़ा गुण। प्रकृति ने हमें गणेश जी जैसे बड़े कान तो नहीं दिये, पर हम यदि लोगों की बातें ध्यान से सुनना शुरू कर दें, उनकी बातों में रुचि लें, बातचीत के बीच-बीच में जताते रहें कि उनकी बात अच्छी लगी, तो निश्चय जानिये, हम सभी के प्रिय बन जायेंगे। दो बड़े-बड़े कानों के विपरीत केवल एक मुंह होना हमें यह सिखाता है कि हम कम बोलें और जो बोलें सोच-समझ कर बोलें। कोमल जिह्वा मजबूत और कठोर दांतों के बीच वास करती है, अत: इसे संभल कर रहना चाहिए और मीठा-मीठा बोलना चाहिए। गणेश जी की लंबी सूंड से हमें सीख मिलती है कि हम जीवन में आने वाले दुर्लभ अवसरों को दूर से सूंघ लें। उनके अनुसार खुद को तैयार करें और सफलता की राह प्रशस्त कर लें। गणेश जी मूषक की सवारी करते हैं, यानी कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी निकृष्ट नहीं है और हम उससे कुछ न कुछ सहयोग अवश्य ले सकते हैं। गणेश जी ने अपने बड़े भाई कार्तिकेय की तरह पृथ्वी का चक्कर लगाने के बजाए शिवजी और पार्वती की परिक्रमा करके ब्रह्मांड की परिक्रमा कर ली और गणपति बन गये। हमारा हर कार्य भी यदि हमारे मुख्य उद्देश्य के इर्द-गिर्द घूमेगा और यदि जीवन के छोटे-मोटे उतार-चढ़ाव हमारा ध्यान नहीं बंटायेंगे तो हम भी जननायक हो जाएंगे।

अच्छे श्रोता बनना, कम बोलना, तोल कर बोलना, मीठा बोलना, छोटी-मोटी बातों को भुलाकर मुख्य उद्देश्य की ओर ध्यान लगाना, हर व्यक्ति का सहयोग लेना आदि गुण हमारी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा बढ़ा सकते हैं तथा हमें असफल व्यक्तियों की जमात से निकाल कर गिने-चुने सफल व्यक्तियों में शामिल करवा सकते हैं।

लोहे और चुंबक में एक ही अंतर है। लोहे के परमाणुओं की दिशा अलग-अलग होती है जबकि चुंबक के सभी परमाणु एक ही दिशा में हो जाते हैं। सफल व्यक्तियों के व्यक्तित्व में कोई चमत्कार नहीं होता, बस उनका सारा ध्यान, उनकी हर गतिविधि एक उद्देश्य से प्रेरित होती है। असफल व्यक्ति का कोई लक्ष्य नहीं होता या शायद कई लक्ष्य होते हैं, सफल व्यक्ति का एक ही निश्चित लक्ष्य होता है, तथा वह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए के लिए उसकी एक निश्चित कार्य-योजना होती है। असफल व्यक्ति समय गंवाता है और काम के बोझ की अधिकता से परेशान रहता है, सफल व्यक्ति एक-एक करके काम निपटाता चलता है ताकि उसका हर काम समय पर समाप्त हो जाए।

भविष्य में जब कभी आपको किसी शुभ कार्य की शुरुआत से पूर्व गणेश वंदना का अवसर मिले तो कृपया उनके दो बड़े कानों की ओर अवश्य देखिए, उनके एकमात्र मुख का ध्यान रखिए, दांतों के बीच रहकर जीवन काटने वाली जिह्वा की ओर देखिए, उनकी लंबी सूंड से प्रेरणा लीजिए और याद रखिए कि उनके इन सभी अंगों से हमें कोई महत्वपूर्ण सीख मिलती है।

गणेश जी का शरीर आकर्षक नहीं है फिर भी उन्हें सबसे पहले पूजा जाता है। हमारी शक्ल-सूरत पर हमारा कोई बस नहीं है, पर हमारे गुणों और व्यवहार पर हमारा पूरा नियंत्रण है। हमारी आदतें और व्यवहार हमें सफल अथवा असफल बना सकती हैं। गणेश जी जैसे पूज्य देवता की वंदना का इससे बढिय़ा तरीका और क्या हो सकता है कि हम उनके अंग-प्रत्यंग से सीख लेकर, अपना एक कार्य मात्र ही नहीं, बल्कि पूरा जीवन सफल बना लें। आइये, तन, मन, वचन और कर्म से गणेश जी की वंदना में जुट जाएं ! ***


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मन के जीते जीत

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pramod Krishna Khurana (also known as P.K. Khurana)

अक्सर ऐसा होता है कि आपका दिमाग कुछ कहता है, पर मन कुछ और कहता है। आपके दफ्तर का काम अधूरा पड़ा है। अगले दिन मीटिंग है, आपको मीटिंग की तैयारी करनी है लेकिन टीवी पर क्रिकेट का मैच चल रहा है। मैच ने रोमांचक मोड़ ले लिया है और आप चाहते हुए भी टीवी के सामने से हट नहीं पा रहे। जब तक मैच चलता रहता है, आप द्वंद्व में तो रहते हैं पर टीवी छोड़ नहीं पाते। यह किसी नौसिखिये अथवा बच्चे का किस्सा नहीं है, जिम्मेदार और परिपक्व लोग भी ऐसा व्यवहार करते देखे और पाये जाते हैं। क्यों होता है ऐसा? क्यों हर बार हमारा दिमाग हार जाता है और‘मन’ जीत जाता है? लंबे और गहरे शोध के बाद मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यह चेतन और अचेतन मस्तिष्क के बीच की लड़ाई है। जिसे हम ‘दिमाग’ कह रहे हैं, वह हमारे चेतन मस्तिष्क का प्रतिनिधि है और जिसे हम‘मन’ कहते हैं, वह अचेतन मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करता है।

क्या है मस्तिष्क?
कुछ लोग मानते हैं कि हमारा विचार-प्रवाह और यादों का ख$जाना ही हमारा मस्तिष्क है। मौटे तौर पर यह सही भी है। हमारा मस्तिष्क चेतन और अचेतन, दो भागों में बंटा हुआ हे। चेतन मस्तिष्क तर्कशील भाग है जो अलग-अलग घटनाओं को जोड़ कर उनका विश्लेषण करता है, किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना-विशेष की खूबियों और खामियों की पहचान करता है और तद्ïनुसार निर्णय लेता है। यह हमारे मस्तिष्क का बांयां भाग है। हमारा चेतन मस्तिष्क कुल मस्तिष्क का मात्र 10 प्रतिशत भाग है। इस नन्हे-से तर्कशील मस्तिष्क के ठीक विपरीत मस्तिष्क का दायां भाग कल्पनाशील और भावुक है। अचेतन मस्तिष्क हमारे मस्तिष्क का 90 प्रतिशत भाग घेरे हुए है। इस प्रकार अचेतन मस्तिष्क चेतन मस्तिष्क के मुकाबले 9 गुणा बड़ा है। हमारा अचेतन मस्तिष्क आकार में जितना बड़ा है, उसी अनुपात में शक्तिशाली भी है।

चेतन और अचेतन मस्तिष्क
चेतन और अचेतन मस्तिष्क का सबसे बड़ा अंतर यह है कि चेतन मस्तिष्क जो कुछ सोचता और करता है, वह हमें स्पष्टï न$जर आता है पर हमारा अचेतन मस्तिष्क जो करता है, उसका आधारभूत कारण बिना गहरी खोज के हर व्यक्ति की समझ नहीं आ सकता। चेतन और अचेतन मस्तिष्क की रस्साकशी के ज्यादातर मामलों में अचेतन मन की विजय होती है। सच पूछा जाए तो यह दो असमान लोगों की लड़ाई है। अचेतन मस्तिष्क हमारे चेतन मस्तिष्क से नौ गुणा ज्यादा बड़ा और म$जबूत होता है। दोनों की शक्ति में इतना बड़ा अंतर है कि मानो कुश्ती के किसी मुकाबले में एक तरफ विश्व स्तर का कोई अनुभवी और प्रशिक्षित पहलवान हो और दूसरी तरफ गली का कोई मामूली व्यक्ति। इसलिए यदि हम चेतन मस्तिष्क के माध्यम से अचेतन मस्तिष्क को हराना चाहेंगे तो ज्यादातर मामलों में हमें असफलता ही हाथ लगेगी। अचेतन मस्तिष्क की एक विशेषता यह है कि यह मनोरंजन और आनंद-प्रिय है। यही कारण है कि हर व्यक्ति को अपना शौक (हॉबी) काम से भी ज्यादा प्रिय होता है, क्योंकि उसमें उसे आनंद आता है। अचेतन मस्तिष्क की दूसरी विशेषता यह है कि इसे सुझाव दे-देकर अपने ढंग से ढाला जा सकता है। यानी, यदि आप बार-बार स्वयं को यह कहते रहें -- ‘मैं सवेरे उठ कर सैर करूंगा’, तो यह निश्चित है कि एक बार आपकी नींद सवेरे अवश्य खुलेगी। उसके बाद यह आप पर निर्भर है कि आप तुरंत उठकर सैर के लिए निकल पड़ते हैं या कोई बहाना बनाकर दोबारा सो जाते हैं। अचेतन मस्तिष्क की एक और विशेषता यह है कि यह सिर्फ धनात्मक आदेशों और सुझावों को ही पहचानता और मानता है। यानी, यदि आप अपने मस्तिष्क को आदेश दें -- ‘मैं सवेरे जल्दी उठा करूंगा ताकि सैर पर जा सकूँ’, तो हमारा मस्तिष्क उस आदेश का पालन करेगा, परंतु यदि आप अपने मस्तिष्क को आदेश दें -- ‘आज के बाद मैं देर तक नहीं सोऊंगा’ तो हमारा मस्तिष्क उसे हू-ब-हू ग्रहण करने के बजाए सिर्फ उसके धनात्मक भाग को ही ग्रहण करता है। इस प्रकार हमारे मस्तिष्क को कुछ इस तरह का संदेश मिलता है -- ‘आज के बाद मैं देर तक सोऊँगा।’ आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि इस प्रकार के सुझाव अथवा आदेश का परिणाम क्या होगा!

हम जानते हैं कि हमारी विचारधारा हमारी गतिविधियों और हमारी कार्यक्षमता को प्रभावित करती है। वस्तुत: हमारे विचार हमारे जीवन की धारा ही बदल देते हैं। हमारे विचार हमारी मान्यताएं बन जाते हैं और हमारी निर्णय-प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। मान्यताओं के प्रभाव की बात करने से पहले अपनी मान्यताओं के बारे में कुछ और जानना समीचीन होगा।

मत, विश्वास और आस्था
हमारी मान्यताएं तीन तरह की होती हैं। मत, विश्वास और आस्था। अपने आसपास की घटनाओं तथा उपलब्ध तथ्यों अथवा साक्ष्यों से हमारा मत (ओपीनियन) बनता है, पर इसे बदलना आसान है। नये तथ्य अथवा साक्ष्य मिलने पर हमारे मत में परिवर्तन हो जाता है, लेकिन विश्वास (बिलीफ) के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारे एवं हमारे आसपास के लोगों का अनुभव, उपलब्ध तथ्य एवं साक्ष्य तथा हमारी कल्पनाशक्ति, सबको मिलाकर हमारे विश्वास बनते हैं। एक बार हम किसी बात पर ‘विश्वास’ कर लें तो उसे बदलना आसान नहीं होता। किसी हद तक हम अपने विश्वासों के साथ चिपक जाते हैं, यहां तक कि यदि बाद में हमें नये तथ्य अथवा साक्ष्य मिलें जो हमारे विश्वास के विपरीत जाते हों तो हम तथ्यों को भी आसानी से स्वीकार नही करते। आस्था (कन्विक्शन) इससे भी ज्यादा म$जबूत है क्योंकि हमारी आस्था के साथ हमारी भावनाएं भी जुड़ी होती हैं। आवश्यक नहीं कि हमारी आस्था तर्कसंगत भी हो। यदि हम तर्क के बल पर किसी व्यक्ति की आस्था को नकारें तो वह उग्र और कभी-कभार तो हिंसक भी हो सकता है। हमारी धार्मिक मान्यताएं आस्था का अच्छा उदाहरण हैं।

आस्था के आयाम
हमें विश्वास या आस्था को लेकर घबराने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह एक बड़ी शक्ति है जिसके सक्रिय उपयोग से हम अपनी उन्नति सुनिश्चित कर सकते हैं। अब हम यह जानते हैं कि अचेतन मस्तिष्क को सुझाव और आदेश दिये जा सकते हैं तथा अचेतन मस्तिष्क सिर्फ धनात्मक भाषा ही स्वीकार करता है। हम यह भी जानते हैं कि अवचेतन मस्तिष्क आनंद-प्रिय है, अत: हम अवचेतन मस्तिष्क से जो काम करवाना चाहते हैं, उसके साथ मनोनुकूल आनंद भी मिला दें तो अवचेतन मस्तिष्क तुरंत आदेश मानेगा। यह हमारे हाथ में है कि हम अपनी दिनचर्या और अपनी आदतों का लेखा-जोखा करें और जहां आवश्यक हो, परिवर्तन कर लें। सफलता की मंजिल का यह सरलतम साधन है।

निर्णय लीजिए
आपके निर्णय आपका जीवन बनाते और बिगाड़ते हैं। सही समय पर लिया गया सही निर्णय आपकी सफलता आसान कर देता है और अनिर्णय के कारण मौका चूक जाने वाले लोग सारा जीवन हाथ मलते रह जाते हैं। किसी भी विषय पर निर्णय लेते ही आप अनोखी प्राकृतिक शक्ति से भर जाते हैं। आपमें एक नई स्फूर्ति आ जाती है। यदि निर्णय कठिन हो तब तो आप इस ऊर्जा को स्पष्ट महसूस कर सकते हैं। याद रखिए, यदि आप अपने निर्णय स्वयं नहीं लेंगे तो आपके संबंध कोई और व्यक्ति निर्णय लेने लगेगा और तब आप उसके निर्णय पर चलने के लिए बाध्य होते चले जाएंगे। गलत निर्णय लेने के डर से निर्णय लेना मत छोडिए। गलत फैसला लेने से डर लगता हो तो ज्यादा से ज्यादा निर्णय लीजिए। आपके सही निर्णय गलत फैसलों से हुए नुकसान की भरपाई कर देंगे और आपके मन से गलत निर्णय का हौवा भी समाप्त हो जाएगा।

आसान है सफलता
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि किसी निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम अपने अवचेतन मस्तिष्क की शक्ति का प्रयोग अपने हक में कर सकते हैं। अवचेतन मस्तिष्क की कार्य प्रणाली समझकर उसे तद्नुसार सुझाव अथवा आदेश देकर हम सायास अपनी आदतें बदल सकते हैं और सफलता की ओर ले जाने वाली आदतें अपना सकते हैं। भारतवर्ष में ‘मन के जीते जीत है’ का दर्शन आरंभ से ही प्रचलन में रहा है। दुर्भाग्यवश, पिछले कुछ दशकों में हमने इसके महत्व को समझने का प्रयास नहीं किया, परिणाम यह है कि हमें हर ओर निराशा का वातावरण नजर आता है। परंतु ज्ञानीजन जानते हैं कि निराशा की घनघोर रात में भी आशा के सितारे चमचमाते रहते हैं। चाह हो तो आप भी इन सितारों के हमराही हो सकते हैं।

अब आप यह जान गए होंगे कि यदि आप निश्चय कर लें तो आप कुछ भी कर सकते हैं, और इस ‘कुछ भी’ की कोई सीमा नहीं है। तो आज ही, बल्कि अभी ही अपने वर्तमान जीवन का लेखा-जोखा कीजिए और अपनी सफलता के लिए आवश्यक निर्णय लेकर उन पर कार्य आरंभ कर दीजिए। याद रखिए, सफलता सिर्फ उनके लिए बनी है जो सचमुच सफल होना ही चाहते हैं। ***

अंधकार से प्रकाश की ओर.....

प्रमोद कृष्ण खुराना

भारतीय संस्कृति का एक-एक पहलू ज्ञान से परिपूर्ण है। हमारे त्योहारों और रीति-रिवाजों से सामाजिक तानेबाने की नजाकत की गहरी समझ नजर आती है। इसी प्रकार हमारा साहित्य, लोकगीत, कहावतें और मुहावरे हमें जीवन की सच्चाइयों की याद दिलाते रहते हैं। भारतीय संस्कृति में रची-बसी एक प्रार्थना ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय.... ’इसका सार्थक उदाहरण है। इस प्रार्थना में भ्रम, झूठ और अज्ञान के अंधकार से सत्य और ज्ञान की ओर की यात्रा की कामना निहित है। इस बार हम जिस विषय की चर्चा करेंगे, वह भी हमें भ्रम के जाल से बच कर सच को पहचानने तथा अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलने का एक छोटा-सा प्रयास है।

सफल व्यक्तियों के बारे में कई तरह की किंवदंतियां बन जाती हैं और हम लोग कई तरह के भ्रम पाल लेते हैं। अपने अनुभव से मैंने जाना है कि ये भ्रम भी हमारा बहुत नुकसान करते हैं क्योंकि इन भ्रमों के चलते हम सही निर्णय नहीं ले पाते परिणामस्वरूप हम अपनी असफलता का कारण तक नहीं जान पाते। आइये, इन भ्रामक विचारों को विस्तार से जानने का प्रयास करें ताकि हम उनके जाल में न फंसें।

पहला भ्रम -- कोई नया व्यवसाय सफल बनाने के लिए आपके पास कोई मौलिक खोज या अनूठा ‘ट्रेड सीक्रेट’होना आवश्यक है
किसी भी व्यवसाय की सफलता का मूल कारण अपने कार्य में दक्षता लाकर ग्राहकों को ज्यादा सुविधा उपलब्ध करवाना है। आप छोटी से छोटी दूकान की बात करें, बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर की बात करें, किसी नये उत्पाद या सेवा की बात करें, जरा-सी कोशिश से ही यह जाहिर हो जाएगा कि सिर्फ ग्राहकों को दक्ष और सुविधाजनक सेवा प्रदान करके किसी विचार को लाभदायक व्यवसाय में बदल दिया गया। नया सफल व्यवसाय आरंभ करने के लिए आवश्यक यह है कि आप अपने ही क्षेत्र के अनुभव और ज्ञान का लाभ उठाकर ग्राहकों को कोई नयी सुविधा या बचत उपलब्ध करवायें।

दूसरा भ्रम -- धन कमाने के लिए आपके पास धन का होना आवश्यक है
पिछले दशक के सफल लोगों के जीवन का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि उन सभी ने धन से नहीं बल्कि किसी नये विचार अथवा व्यावसायिक दर्शन पर आधारित व्यवसाय की शुरुआत की। बिल गेट्स, स्टीफन जॉब्स, चाल्र्स वैंग या धीरू भाई अंबाणी, सभी ने व्यवसाय की सफलता के लिए अंतदृष्टि और कड़ी मेहनत का सहारा लिया। यदि आप किसी ऐसे उत्पाद का निर्माण करते हैं या सेवा चलाते हैं जिसकी मांग है, तो उसके लिए धन इकट्ठा करना ज्यादा बड़ी समस्या नहीं रह जाता। आजकल तो खास इसलिए भी क्योंकि कर्ज देने के लिए भी वित्तीय संस्थाओं में खूब होड़ है। धन और प्रतिभा की होड़ में प्रतिभा का महत्व ज्यादा है।

तीसरा भ्रम -- सफल होने के लिए आपका उच्च शिक्षा-प्राप्त होना आवश्यक है
अनुसंधानों ने सिद्घ किया है कि औपचारिक शिक्षा जितना बड़ा गुण है, उतना ही बड़ा अवगुण भी है। औपचारिक शिक्षा की एक बुराई यह है कि बहुत से शिक्षित लोग यह भ्रम पाल लेते हैं कि चूंकि वे शिक्षित हैं अत: उन्हें कुछ खास किस्म के कार्य नहीं करने चाहिएं, इसी प्रकार वे एक अन्य भ्रम के शिकार हो जाते हैं कि चूंकि वे शिक्षित हैं अत: वे कुछ खास तरह के कार्यों के लिए पूर्णरूप से दक्ष हो चुके हैं। पारंपरिक शिक्षा का दूसरा बड़ा और ज्यादा खतरनाक दोष यह है कि यह लोगों तथा पूरी कार्य प्रणाली में विश्वास की जगह दोषदृष्टि (दूसरों के दोष छांटने की प्रवृत्ति) को जन्म देती है तथा अनुराग की जगह झूठा आत्म-विश्वास जगाती है। व्यवसाय में आपकी सबसे बड़ी पूंजी अपनी अंतदृष्टि में आपका अडिग विश्वास और इसे वास्तविकता में बदल सकने की क्षमता है।

चौथा भ्रम -- व्यवसाय में सफल होने के लिए आपको संपर्क ‘गढऩे’की आवश्यकता होती है
व्यवहारकुशल होना या मिलनसार होना न गलत है न बुरा, पर व्यावसायिक मिलनसारिता के नाम पर प्रचलित भ्रम और झूठ की काई से बाहर आना आवश्यक है। जहां संबंधों में ईमानदारी न हो, वे रिश्ते लंबे नहीं चलते। फायदा इसी में है कि या तो ईमानदार रिश्ता बनाइये या फिर अपने समय को अपने व्यवसाय की नई संभावनाएं खोजने पर खर्च कीजिए।

पाँचवाँ भ्रम -- धन तो बस ‘फंदा’है!
लगभग हर समाज में मान्यता है कि प्यार, मित्रता व यश आदि धन से ज्यादा कीमती हैं तो भी धन की उपयोगिता पर कहीं कोई विवाद नहीं है। वस्तुत: हर सभ्य समाज में सफलता का सबसे बड़ा मानक धन ही है। यदि आप सफलता के बारे में सचमुच गंभीर हैं तो धन की आवक पर निगाह अवश्य रखिए। यह एक अनुभूत सत्य है कि जब तक आपके पास धन की बड़ी मात्रा नहीं आनी आरंभ हो जाती, कोई नहीं मानता कि आप सफलता की ओर बढ़ रहे हैं।

छठा भ्रम -- किसी सफल व्यक्ति की तर्ज पर अपना पेशा और व्यवहार गढऩा सफलता का सुरक्षित साधन है
किसी सफल व्यक्ति का आश्रित या रक्षित हो जाने अथवा उसके यहां प्रशिक्षित होने में जहां सुविधा है, वहीं खतरा भी है। किसी के प्रशंसक या भक्त बनकर अक्सर आप अपनी खूबियां भूलकर हर बात में आंखें बंद करके उस व्यक्ति की नकल करने लग जाते हैं। इस प्रकार आप अपना जीवन खुद बनाने के बजाए अपने मार्गदर्शक के मानकों का अनुकरण करने लग जाते हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी हर कमजोरी के साथ प्रकृति ने हमें कोई खूबी भी दी है। जब आप अपनी खूबियों और खामियों को जानकर अपनी खूबियों से लाभ लेना आरंभ कर देते हैं तो आप सफल हो जाते हैं।

सातवाँ भ्रम -- सफलता के लिए आपका बहिर्मुखी होना अत्यावश्यक है
हम सोचते हैं कि बहिर्मुखी होना, लोगों से संबंध बनाने की कला जानना व्यावसायिक सफलता का मौलिक सूत्र है, जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं हैं। हर की सफलता का मूल अपने व्यवसाय के प्रति वह आत्मिक अनुराग है जो सिर्फ अकेले में ही पैदा होता है। सफल व्यवसायी काफी समय अकेले बिताते हैं। वे अपने सहयोगियों को प्रेरित करना जानते हैं पर ज्यादातर सफल व्यवसायी अपना निजी जीवन परिवार व मित्रों के बीच ही बिताते हैं।

आठवाँ भ्रम -- सफलता और ग्लैमर साथ-साथ चलते हैं
महत्वाकांक्षी नौजवान अक्सर किसी सफल व्यक्ति के आकर्षक जीवन स्तर को सफलता का पर्याय मान लेते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि सफल व्यक्ति में सफलता के कारण उस जीवन स्तर के वहन की शानो-शौकत है, वह सफलता के पूर्व का नहीं बाद का जीवन है। किसी व्यवसाय की शानो-शौकत का कारण भी वह मेहनत है जो उसे खड़ा करती है। किसी व्यवसाय को बनाने में लगा आपका परिश्रम ही उसकी सफलता का राज है।

नौंवाँ भ्रम -- व्यावसायिक दक्षता रचनात्मकता का तोड़ है
बहुत से लोग रचनात्मकता और व्यावसायिक दक्षता में कोई रिश्ता नहीं बना पाते। न तो अकेली रचनात्मकता व्यवसाय की कुशलता का विकल्प है और न ही रचनात्मकता के बिना व्यावसायिक कुशलता संभव है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। किसी एक की अति सफल व्यवसाय के लिए हानिकारक हो सकती है, अत: टिकाऊ व्यवसाय के लिए दोनों में सामंजस्य और संतुलन आवश्यक है।

दसवाँ भ्रम -- चापलूसी सफलता का सबसे आसान तरीका है
सफलता के लिए चापलूस होना शायद सबसे बड़ी गलती है। अक्सर अपनी सही बात मनवाने के लिए आपको लोगों को नाराज करना पड़ सकता है। समझदार व्यक्ति जानते हैं कि जब आप उन्नति करेंगे तो कभी जायज और कभी नाजायल ईष्र्या भी होगी और नाराजगी भी। आपको इससे डरना नहीं चाहिए क्योंकि आप किसी भी तरह से इससे बच नहीं सकते। हां, यह जरूर ध्यान रखें कि दंभपूर्ण व्यवहार के कारण यूं ही लोगों को अपना दुश्मन न बनाते चलें। आखिर आपने जिन लोगों के बीच रहना है उनका सहयोग कहीं न कहीं तो आपको दरकार होगा ही।

सही ज्ञान आपको सकारात्मक पहल की स्वतंत्रता और शक्ति प्रदान करता है। इस सच से लाभ उठाइए और अपने जीवन में सफलता की बहार को फलते-फूलते देखिए।

सफल लोगों के महत्वपूर्ण गुण
मनोवैज्ञानिकों तथा मानवीय स्वभाव का अध्ययन करने वाले अन्य विशेषज्ञों ने कुछ गुणों की पहचान की है जो सफल व्यक्तियों में आमतौर से पाये जाते हैं। यदि आप इनमें से चार या अधिक गुणों का लगातार प्रदर्शन करते हैं तो आप सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में साधारण लोगों की अपेक्षा कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं और लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। ये गुण हैं :
1. लोगों की आंखों में झांकते हुए पूरे विश्वास के साथ अपनी बात कह पाने की क्षमता, चाहे शुरू में लोग उस पर विश्वास न भी करते हों।
2.यदि आप सही हैं तो शालीनता परंतु दृढ़ता से लोकमत के विपरीत विचार व्यक्त कर पाने की क्षमता।
3.शक्तिशाली व्यक्ति की अनावश्यक चापलूसी और कमजोर को दबाने की प्रवृत्ति से सायास परहेज करना।
4.सामाजिक जीवन में अपने शब्दों, भावनाओं और गतिविधियों पर नियंत्रण की क्षमता।
5.व्यावसायिक जीवन की मिलनसारिता के बीच-बीच अकेले रहने और अपनी योजनाएं खुद बनाने की क्षमता।
6.विरोधियों की उकसाहट के बावजूद लंबे समय तक चुप्पी बनाए रखने की क्षमता। ***

कल्पना, प्रयास और सफलता

प्रमोद कृष्ण खुराना

कहा जाता है कि ज्ञान शक्ति है, पर क्या आप जानते हैं कि यह एक अधूरा सच है। ज्ञान स्वयं में शक्ति नहीं है। ज्ञान, शक्ति में तभी परिवर्तित होता है जब इसे प्रयोग में लाया जाए। यही नहीं, जब इसे रचनात्मक ढंग से काम में लाया जाए तो यह एक बड़ी शक्ति बन जाता है। ज्ञान के रचनात्मक प्रयोग में कल्पनाशक्ति की आवश्यकता होती है। इसीलिए मनोवैज्ञानिक आरंभ से ही कल्पनाशक्ति को मानव समाज का सर्वोत्तम उपहार मानते रहे हैं। रचनात्मक कल्पनाशक्ति का विकास उसी तरह संभव है जैसे हम तैरना, पढऩा या चित्र बनाना सीखते हैं। वस्तुत: लगभग हर कला को वैज्ञानिक विधि से सीखा जा सकता है। कला और विज्ञान के इस संगम ने ही मानव की अपरिमित ऊँचाइयों तक पहुंचाया है।

मुखर व सुषुप्त कल्पना
हमारी कल्पनाशक्ति उतनी ही पुरानी है जितनी हमारी स्मरणशक्ति। कल्पनाशक्ति के विकास के लिए बुद्घिमत्ता, ज्ञान अथवा अनुभव की उतनी आवश्यकता नहीं होती जितनी कि प्रयास, प्रेरक स्थितियों अथवा हमारी आवश्यकता की होती है। जान पर आ बनी हो तो हमारी कल्पनाशक्ति ज्यादा मुखर हो जाती है। एक मनोवैज्ञानिक ने इसे एक बार सिद्घ कर दिखाया। अमेरिका की एक विश्वप्रसिद्घ कंपनी के विशाल भवन की बारहवीं मंजिल पर स्थित एक कमरे में बैठे कर्मचारियों व अधिकारियों से उन्होंने एक प्रश्न किया, ‘यदि अभी भूकंप आ जाए और यह विशाल भवन दो मिनट में गिरने वाला हो तो आप क्या करेंगे? ’अधिकांश लोग कोई सार्थक हल सुझा पाने में असमर्थ रहे। इसके बाद वे साथ के कमरे में गये और लोगों से इधर-उधर की बातें करने लगे। इतने में उनका एक सहायक बदहवास हालत में वहां भागता आया और बोला कि भूकंप आ गया है, सारा भवन गिर रहा है। उनके सहायक का अभिनय इतना शानदार था कि कमरे में मौजूद लोगों को सहज ही उसकी बात पर विश्वास हो गया। दो मिनट के भीतर कमरे में मौजूद सभी लोग भवन से बाहर थे। कोई पाइप से लटका या खिडक़ी से कूदा, पर सभी भवन से बाहर आ गये ! जीवन को खतरे में जानकर कल्पनाशक्ति मुखर हुई और जवान, बूढ़ा, औरत, मर्द, लड़कियां, स्वस्थ व शरीर से कमजोर, हर तरह का व्यक्ति, जान बचाने की जुगत में जुट गया और सफल भी हुआ।

इस प्रयोग से कई बातें एक साथ सिद्घ हो गयीं। पहली तो यह कि मुखर कल्पनाशक्ति कई तरह के चमत्कार कर पाने में समर्थ है। दूसरे, हर व्यक्ति कल्पनाशील हो सकता है, बल्कि है ही। तीसरे, कल्पनाशक्ति की मुखरता के लिए प्रयास की सघनता (intensity of effort) तथा संचालक शक्ति (driving power) सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। कल्पनाशक्ति के प्रयोग में उम्र कोई बाधा नहीं है। बाद में अलग-अलग प्रयोगों से यह भी सिद्घ हो गया कि उम्र के साथ कल्पनाशक्ति का क्षरण नहीं होता, बल्कि कल्पनाशक्ति का प्रयोग करते रहने वाले व्यक्ति की कल्पना बढ़ती उम्र के साथ अधिक मुखर और परिपक्व हो जाती है। वस्तुत: बड़ी उम्र के लोगों में रचनात्मक कल्पनाशक्ति के अभाव के जो कारण पाये गये वे परंपरागत विश्वास के एकदम विपरीत निकले। हमारी शिक्षा पद्घति में केवल स्मरणशक्ति के प्रयोग पर अनावश्यक बल, और जीवन के मशीनी अंदा$ज ने कल्पनाशक्ति के विकास पर कुठाराघात किया है। विभिन्न परीक्षाओं एवं प्रतियोगिताओं में कल्पनाशक्ति के बजाए ज्ञान और स्मरणशक्ति का महत्व बढ़ जाने के कारण कल्पनाशक्ति के विकास का कोई प्रयास आरंभ ही नहीं हुआ। जहां कल्पनाशक्ति घटी वहां प्रयास पहले समाप्त हुआ, कल्पनाशक्ति का क्षरण बाद में आरंभ हुआ।

प्रयोगों से यह भी सिद्घ हुआ है कि बच्चों की कल्पनाशक्ति बहुत मुखरित होती है पर स्कूली जीवन में उनकी कल्पनाशक्ति की लगभग हत्या ही कर दी जाती है। हमारी शिक्षा पद्घति ही नहीं, समूची जीवन पद्घति ही बच्चों की मुखर जिज्ञासा और कल्पनाशक्ति का विनाश करती चलती है और उन्हें मशीनी जीवन की आदी बना देती है। मां-बाप भी बच्चे को परीक्षा में सफल देखने के उत्साह में उसे संस्कारित करने के लिए ‘यह मत करो’, ‘शोर मत मचाओ’, ‘सीधे खड़े रहो’, आदि इतनी वंचनाएं लाद देते हैं कि बच्चे का प्राकृतिक विकास बाधित हो जाता है।

कल्पनाशक्ति बनाम तर्कशक्ति
हमारा विचारशील मस्तिष्क दो भागों में बंटा हुआ है। इसका पहला भाग तर्कशील है जो विश्लेषण और तुलना के बाद दो या अधिक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठï का चुनाव करता है और दूसरा भाग रचनात्मक है जो मानसिक चित्र गढ़ता है, अनुमान लगाता है और नये विचारों का सृजन करता है। तर्कशील मस्तिष्क और रचनात्मक मस्तिष्क कई मामलों में एक-सा कार्य करते हैं। दोनों ही विश्लेषण और संश्लेषण (जोडऩा, मिलाना) का कार्य करते हैं। तर्कशील मस्तिष्क तथ्यों का क्रमवार विभाजन करता है, उन्हें परखता है, तुलना करता है, कुछ को अस्वीकार कर देता है और कुछ को अपना लेता है और तब उन्हें सिलसिलेवार करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। रचनात्मक मस्तिष्क भी यही सब करता है। फर्क सिर्फ इतना है कि उसका अंतिम कार्य निर्णय देना नहीं बल्कि किसी नये विचार को जन्म देने का है। वह फैसला नहीं करता, बल्कि कुछ नये विचार सुझाता है। तर्कशील मस्तिष्क और रचनात्मक मस्तिष्क में एक और बड़ा अंतर यह है कि तर्कशील मस्तिष्क सिर्फ उपलब्ध तथ्यों का विश्लेषण करता है जबकि रचनात्मक मस्तिष्क कल्पनाशक्ति के सहारे अज्ञात में प्रवेश करने का प्रयत्न करता है तथा दो और दो चार के गणितीय कार्य से भी आगे जाकर कुछ नया कर दिखाता है।

यह समझना आवश्यक है कि कल्पनाशक्ति और तर्कशक्ति एक-दूसरे के पूरक भी हैं और शत्रु भी, अत: यदि इनमें सही संतुलन न रखा जाए तो दोनों का ही नुकसान होता है। तर्कशील मस्तिष्क का कार्य मुख्यत: ऋणात्मक है। ‘अरे, इसमें तो यह दोष है’, ‘नहीं, नहीं, यह नहीं चलेगा’,‘ऐसा भी कहीं होता है? ’आदि-आदि तर्कशील मस्तिष्क की उपज हैं, जबकि रचनात्मक मस्तिष्क को मुख्यत: धनात्मक या विधायी कार्य करने होते हैं। उसे आशावादी और उत्साहपूर्ण होना होता है, तभी वह नये विचारों का सृजन कर पाता है। रचनात्मक मस्तिष्क बुरी से बुरी स्थिति में भी आशा की किरणें खोजता है जबकि तर्कशील मस्तिष्क हर योजना में कमियां ढूंढ़ता है।

सैकड़ों-हजारों प्रयोगों की असफलता के बाद भी एडिसन का जो बल्ब बना वह एक अधकचरा आविष्कार ही था, तो भी यह एडिसन के आशावादी दृष्टिïकोण का ही परिणाम था कि एक सफल और उन्नत बल्ब का विकास हो सका। सारी प्रारंभिक असफलताओं के बावजूद एडिसन ने प्रयत्न नहीं छोड़ा। बाद में भी वे अपने प्रथम आविष्कार के सुधार में लगे रहे। इसी आशावादिता ने संसार को बड़े-बड़े आविष्कारों से परिचित करवाया है। कल्पनाशक्ति की उड़ान ही हमें स्वप्न की दुनिया को जीवन में उतारने को प्रेरित करती है। इनमें से कई विचार तो प्रथम दृष्टिï में ही असंभव लगते हैं, लेकिन बाद में उन्हें भी वास्तविकता में बदलना संभव हो जाता है। इस प्रकार जो कभी कल्पना था, बाद में वह वास्तविकता बन सकती है।

यह देखना आवश्यक है कि हमारा तर्कशील मस्तिष्क हमारे रचनात्मक मस्तिष्क में उपजने वाले विचारों की भ्रूण हत्या न कर दे। यह एक अकाट्य सत्य है कि लगभग हर नये विचार को तुरंत तर्कसंगत ढंग से गलत सिद्घ किया जा सकता है। कई बार तो ये तर्क इतने पुख्ता लगते हैं कि व्यक्ति अपनी योजना को सिरे से ही त्याग देता है, अत: यह आवश्यक है कि विचारों को तुरंत ठीक और गलत या संभव और असंभव की कसौटी पर परखना आरंभ कर देने से पहले उसे कुछ और परिपक्व हो लेने देना चाहिए।

कल्पनाशक्ति बनाम स्मरणशक्ति
स्मरणशक्ति एक मशीनी अंदाज का काम है। मशीन निश्चित ढंग से कार्य करती रहती है। स्मरणशक्ति भी वही करती है। एक विषय को बार-बार दोहराते रहने से वह हमें याद हो जाता है। इसी प्रकार एक कार्य को बार-बार दोहराने से हमें उसका अभ्यास हो जाता है। उसमें सृजनात्मक कुछ भी नहीं है। कल्पनाशक्ति किसी विषय को दोहराते समय भी उसे दोहराने या याद करने के बेहतर और आसान तरीके खोज निकालती है। क्विज कार्यक्रमों में भाग लेने वाले अथवा परीक्षाओं में बढिय़ा अंक लेने वाले बच्चों की स्मरणशक्ति तो बेहतर हो सकती है, पर यह आवश्यक नहीं कि उनकी कल्पनाशक्ति भी वैसी ही विकसित हो। कक्षा में कमजोर रहने वाले विद्यार्थी भी कल्पनाशील हो सकते हैं। वस्तुत: किसी विषय में कमजोर होने के कई कारण हो सकते हैं। भाषा पर अधूरी पकड़, विषय विशेष में रुचि का अभाव, अध्यापक का कठोर व्यवहार, मां-बाप की लापरवाही अथवा खुद बच्चे की लापरवाही आदि इसके कारण हो सकते हैं। इनका कल्पनाशक्ति के विकास से कोई लेना-देना नहीं है।

कल्पनाशक्ति के उपयोग के लाभ
कल्पनाशक्ति का प्रयोग एक रचनात्मक क्रिया है और कल्पनाशक्ति एक रचनात्मक, सृजनात्मक शक्ति है। कल्पनाशक्ति का प्रयोग वैज्ञानिक कार्यों व सैन्य कार्यों सहित जीवन के हर क्षेत्र में बखूबी हो सकता है, होता ही है। घर या दफ्तर की छोटी-छोटी समस्याओं से लेकर देश अथवा विश्व की बड़ी से बड़ी समस्या तक के हल में कल्पनाशक्ति का प्रयोग वांछित है। प्रथम विश्व युद्घ के समय टॉमस एडिसन को उनके देश की सरकार ने किसानों के अनाज की बरबादी बचाने के तरीके सोचने के लिए कहा और एडिसन के ही सुझावों का फल था कि सदाबहार भंडारण-गृहों का विचार कार्यान्वित हो सका। इसी प्रकार यदि रचनात्मक लोगों को देश की समस्याओं का हल खोजने का कार्य सौंपा जाए तो देश की अधिकांश समस्याओं का सार्थक समाधान संभव है। कल्पनाशक्ति की यही वह बड़ी विशेषता है जिसका अब तक उपयोग नहीं किया गया है।

किसी भी समस्या से दो-चार होने पर अपने आसपास नजर दौड़ाइए। यह जानने का प्रयत्न कीजिए कि कितने लोगों को वैसी या उस जैसी समस्या से जूझना पड़ा, उन्होंने समस्या का समाधान कैसे किया, उन्हें क्या कठिनाइयां आईं, आदि-आदि। समस्या के बारे में खुद सोचिए, मित्रों और शुभचिंतकों से विचार-विमर्श कीजिए। एक-दो बार के प्रयत्न से ही आप समस्या का समाधान ढूंढ़ लेंगे।

इस सारे विवेचन का उद्देश्य सिर्फ एक ही है, और वह यह है कि आप जिस प्रकार रो$जमर्रा की समस्याओं से जूझने के लिए अपनी तर्क और विश्लेषण शक्ति का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार अपनी कल्पनाशक्ति का प्रयोग करना भी आरंभ करें। यह आदत सायास अपनाएं। एक बार आपने कल्पनाशक्ति का योजनाबद्घ प्रयोग आरंभ कर दिया तो आपको इसके लाभ मिलने आरंभ हो जाएंगे और सफलता कुछ और आसान हो जाएगी। ***

गहरे पानी पैठ

प्रमोद कृष्ण खुराना

विज्ञान के बढ़ते कदमों की वजह से हम सब जानते हैं कि धरती कैसे बनी, धरती पर जीवन का उद्भव और फिर विकास कैसे हुआ, जलचर से थलचर कैसे बने और मानव जीवन किन चरणों से गुजरता हुआ आज की स्थिति तक पहुंचा। पर क्या आपने कभी इस पर गहराई से सोचा है? मुझे मालूम है कि कभी न कभी इस सवाल ने आपका ध्यान खींचा ही होगा। मेरी ही तरह आपने भी महसूस किया होगा कि शायद यह उतना बड़ा सवाल नहीं है कि पहली बार आग कैसे जली होगी, बल्कि बड़ा सवाल यह है कि पहली बार मानव ने आग का उपयोग अपने लाभ के लिए कब और कैसे किया होगा? पहली बार कब खेती शुरू हुई होगी और पहली बार कब खेतों में सिंचाई का ध्यान आया होगा? पहली बार कब किसी ने सोचा होगा कि गेहूं की बालियों में से गेहूं निकाल कर उसे पीसा भी जा सकता है, फिर यह कि आटा गूंथ कर उसे पकाया भी जा सकता है? ‘पहली बार’ के ये सभी सवाल ही हमारी प्रगति के मील पत्थर साबित हुए हैं। जब आप कभी किसी समस्या में गहरे उतरते हैं तो आपकी जिज्ञासा और कल्पनाशक्ति खुद-ब-खुद आपको रास्ता दिखाती चलती है। गहरे पानी पैठने की यह आदत ही हमारी प्रगति और सफलता का मूलमंत्र है।

‘विशेषज्ञ’ कैसे बनें?
आज हम विशेषज्ञ बनने के तरीकों की चर्चा करेंगे। पर इससे पहले कि हम विशेषज्ञ बनने के चरणों पर विचार करें, यह जान लेना उत्तम होगा कि ‘विशेषज्ञ’ किसे कहते हैं? यानी, किसी विशेषज्ञ की विशेषताएं क्या हैं? साधारण शब्दों में कहें तो इसका अर्थ यह है कि विशेषज्ञ किसे कहा या माना जाता है। उत्तर बहुत सीधा है। वह व्यक्ति जो अपनी शिक्षा अथवा अनुभव अथवा दोनों के कारण किसी विषय विशेष की सांगोपांग जानकारी रखता हो, उसका आधिकारिक विद्वान हो, उस विषय पर उसकी राय की कद्र की जाती हो, उसे उस विषय विशेष का विशेषज्ञ माना जाता है। विशेषज्ञ कैसे बनें, इस बार की हमारी सारी चर्चा इसी विषय पर केंद्रित है।

जिज्ञासा है पहला चरण
मानव की जिज्ञासा बहुत बड़ा हथियार है। आपकी जिज्ञासा आपको कुछ ‘नया’ जानने और कुछ ‘नया’ करने को उकसाती है। जब आपकी जिज्ञासा मुखरित होती है तो आप सवाल पर सवाल करते हैं, समस्या की गहराई में उतरते हैं, उसे हर कोण से, हर पहलू से जानने का प्रयत्न करते हैं और संबंधित विषय की आपकी जानकारी बढ़ती चलती है। जिज्ञासा सभी प्रयोगों, सभी आविष्कारों और सभी तरह के विकास की जननी है। विज्ञान, चिकित्सा, कला और सभ्यता के उत्थान की शुरुआत मानव मन की जिज्ञासा से ही हुआ है।

कल्पना का कमाल
जिज्ञासा वह पहला चरण है जो आपसे कोई काम आरंभ करवाती है। सैद्घांतिक रूप में आप किसी विषय की कितनी ही जानकारी ले लें, काम में आने वाली समस्याओं पर कितने ही पहलुओं से विचार कर लें, सिद्घांत और व्यवहार में कुछ अंतर रहने की संभावनाएं सदा रहती हैं। काम करते हुए कई नई और अनपेक्षित समस्याएं सामने आ सकती हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आप अपनी कल्पनाशक्ति का सहारा लेते हैं और धीरे-धीरे कुछ प्रयासों के बाद आप समस्या का हल ढूंढ़ लेते हैं। यह कल्पनाशक्ति का ही कमाल है कि आप काम आरंभ करने से पहले उसके बारे में हर पहलू से सोच पाते हैं, तथा यह भी कल्पनाशक्ति का ही कमाल है कि आप समस्या का रचनात्मक विश्लेषण करते हैं और उसका कारगर समाधान ढूंढ़ लेते हैं।

अभ्यास है कुंजी
जिज्ञासा अगर पहला चरण है कल्पनाशक्ति उसका विस्तार है तो अभ्यास उसका अंतिम चरण है जो आपको सफलता के द्वार तक ले चलता है। अभ्यास के बिना आपका कार्य वस्तुत: अधूरा ही रह जाता है और आप व्यावहारिक व्यक्ति के बजाए शेखचिल्ली बनकर रह जाते हैं। स्वप्नजीवी होना बहुत बड़ा गुण है। उसे कम करके नहीं आंका जा सकता। कभी मनुष्य की कल्पना में उड़ पाने की इच्छा उपजी तभी तो उसने संभावनाओं को तलाशा और वायु-विहार के आश्चर्यजनक साधन खोज निकाले। फिर भी जब तक आप कल्पना को व्यवहार में नहीं उतारते आपका ज्ञान अधूरा है। सैद्घांतिक रूप में आप किसी विषय की कितनी भी जानकारी ले लें, आप उसे सांगोपांग तभी जान सकते हैं जब आप उस पर काम करना आरंभ करें। तैरना जानने के लिए आप कितनी ही पुस्तकें पढ़ लें, जब तक आप पानी में नहीं उतरेंगे, तैराक नहीं बन सकते। तैरना सीख लेने के बाद भी तैरने का अभ्यास जारी रखना आवश्यक है। एक ही काम जब आप बार-बार दोहराते हैं तो वह आपके लिए आसान हो जाता है क्योंकि आपको उसका ‘अभ्यास’ हो जाता है। यह अभ्यास ही विशेषज्ञता की पहचान है।

जिज्ञासा, कल्पनाशक्ति और अभ्यास
उपरोक्त विश्लेषण से आप जान गए होंगे कि विशेषज्ञ कैसे बना जाता है। एक ही कार्य को बार-बार दोहराने से जब वह कार्य आपके लिए आसान हो जाता है तो आप उसके विशेषज्ञ हो जाते हैं। कुशल कलाकार, कुशल सर्जन, कुशल सेल्समैन, कुशल मैनेजर आदि सब अभ्यास से बनते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र पर निगाह डालिये, आप पायेंगे कि अभ्यास की कुंजी ने लोगों को विशेषज्ञ बनाकर सफलता के द्वार तक पहुंचाया है।

विशेषज्ञ बनना आसान नहीं है क्योंकि यह आपका पूरा ध्यान, पूरी एकाग्रता चाहता है, पर विशेषज्ञ बनना कठिन भी नहीं है क्योंकि केवल दृढ़ निश्चय और थोड़े से अभ्यास से आप ऐसा कर सकते हैं। अब निर्णय आप करेंगे कि आप स्वयं से क्या चाहते हैं। ***

Monday, February 7, 2011

Tax Ki Ramkahani : टैक्स की रामकहानी

Tax Ki Ramkahani

By : P.K.Khurana

(expanded name : Pramod Krishna Khurana)
 प्रमोद कृष्ण खुराना

टैक्स की रामकहानी

पी. के. खुराना

राजाओं-महाराजाओं के समय से ही विश्व भर में टैक्स की परंपरा रही है। उसका नाम चाहे कुछ भी हो, रूप चाहे कुछ भी हो, लगान यानी टैक्स सदा से सभ्य समाज का हिस्सा रहे हैं। सरकार चलानी है तो सरकार चलाने पर खर्च भी होगा। खर्च होगा तो खर्च की भरपाई के लिए आय होनी चाहिए और सरकार के पास आय के तीन प्रमुख साधन हैं - पहला, सरकारी संसाधनों और परिसंपत्तियों से आय, दूसरा, सरकारी सेवाओं और उत्पादों से आय, और तीसरा, टैक्स से आय। सरकार को होने वाली आय, सरकार चलाने के खर्च के बाद जनहित के कार्यों पर लगती है। हम सभी यह भी जानते हैं कि बहुत सी सरकारी सेवाएं और सरकारी उपक्रम, सिर्फ सरकारी होने के कारण ही घाटे में चलते हैं। सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों में सामुदायिक वितरण प्रणाली, रोजगार की योजनाएं, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा सेवाएं, परिवहन सेवाएं, व्यापार विकास सेवाएं, शोध कार्यों पर होने वाला खर्च, रक्षा सेवाएं, कानून-व्यवस्था सेवाएं, खाद्य-पदार्थों, खाद व पेट्रोलियम पदार्थों एवं विभिन्न सेवाओं पर सब्सिडी आदि के खर्च शामिल हैं। ये सब महत्वपूर्ण खर्चे हैं जिन्हें पूरा करने के लिए सरकार के पास आय के निश्चित स्रोत होना आवश्यक है।

क्या आपने कभी सोचा है कि आपको कुल कितना टैक्स देना पड़ता है? लगभग हर व्यक्ति इन्कम टैक्स देता है, इसके अलावा विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं की खरीद पर आप वैट या सर्विस टैक्स भी देते हैं। आप रोड टैक्स देते हैं, प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं, हाइवे पर चलने के लिए टोल टैक्स देते हैं, कुछ राज्यों में प्रवेश के लिए आप एंट्री टैक्स देते हैं, आपको कुछ उपहार में मिले तो आप गिफ्ट टैक्स देते हैं। व्यवसायियों, उद्यमियों, और कॉरपोरेट कंपनियों को कई और तरह के टैक्स भी देने होते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष टैक्स के इतने प्रकार हैं कि आप अपनी आय का 50 से 70 प्रतिशत तक, जी हां, 50 से 70 प्रतिशत तक टैक्स में दे डालते हैं लेकिन चूंकि बहुत से टैक्स आपकी जेब में आपकी आय आने से पहले ही कट जाता है, इसलिए आपको उसका पता भी नहीं चलता।

सिर्फ सर्विस टैक्स की ही बात करें तो एक समय ऐसा भी था जब इस एक अकेले टैक्स पर भी सरकार की ओर से 1300 के लगभग सर्कुलर जारी किये गए थे। आप समझ सकते हैं कि इतने सर्कुलरों में बंटे हुए नियमों को कोई वकील या सीए भी नहीं याद रख सकता। सरकार नये-नये मदों को सर्विस टैक्स के दायरे में ला रही है। यदि आप अपनी कार से चंडीगढ़ से दिल्ली जा रहे हैं तो आपको साधारण बस के किराये जितना तो टोल टैक्स देना पड़ जाता है।

देश में भ्रष्टाचार के लिए टैक्स सबसे ज्यादा बड़ा कारक है। टैक्स की दर जितनी अधिक होगी, टैक्स चोरी उतनी ज्यादा होगी। आप कोई भी संपत्ति खरीदना चाहें तो आपको उसका बहुत बड़ा हिस्सा ब्लैक में देना पड़ता है। आम आदमी शायद इसके घातक परिणाम से वाकिफ नहीं है। काले धन की यह समस्या इसलिए चिंता का विषय है कि यह धन बाद में अपराधियों, आतंकवादियों और देशद्रोहियों के काम आता है। इसी धन से महंगाई बढ़ती है, अपराध बढ़ते हैं और आम आदमी की जिंदगी खतरे में पड़ती है। यही कारण है कि काला धन भारी चिंता का विषय है।

हमारे देश में काले धन की समस्या के बारे में 1955-56 में ही बहस शुरू हो गई थी और तब यह सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 4-5 प्रतिशत आंका गया था। 1995-96 में यह बढ़ कर 40 प्रतिशत हो गया और 2005-06 में यह 50 प्रतिशत के आस-पास था। पिछले 50 वर्षों में यह एक समानांतर अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो गया है। हर साल देश में करीब 35 लाख करोड़ रुपये की ब्लैक इकनॉमी तैयार होती है और इसका तकरीबन 10 प्रतिशत यानी करीब तीन लाख करोड़ सालाना काले धन के रूप में मॉरीशस, बहमास और स्विटज़रलैंड जैसे देशों में जमा होता जा रहा है।

टैक्स की चोरी, सीमा शुल्क की चोरी, अचल संपत्ति के लेन-देन में टैक्स की चोरी, राजनीतिक भ्रष्टाचार, नौकरशाही का भ्रष्टाचार, धार्मिक संस्थाओं को दान और अवैध तथा आपराधिक कारोबार काले धन के बड़े स्रोत हैं। देश से अवैध तरीके से धन को विदेश ले जाने और फिर उसे वहां से राउंड ट्रिपिंग के माध्यम से वैध तरीके से वापिस भेजने की प्रक्रिया और उसमें पार्टिसिपेटरी नोट की भूमिका भी अपराध को जन्म देती है। टैक्स की ऊंची दर इसका एक बड़ा कारण है।

केंद्र अथवा राज्य सरकारों की ओर से टैक्स से होने वाली आय का कोई हिसाब-किताब नहीं दिया जाता कि किस मद से कितना टैक्स आया और उसे किस प्रकार खर्च किया गया। यह इतना बड़ा गोल-माल है कि आम आदमी तो इस चक्कर में सिर्फ घनचक्कर ही बनता है। एक छोटे से उदाहरण से आप इसे समझ सकते हैं। किसी भी राज्य को देख लें, धड़ाधड़ एक्सप्रेस हाइवे बन रहे हैं। करोड़ों रुपये टोल टैक्स के नाम पर वसूले जा रहे हैं। एक्सप्रेस हाइवे बन गया, बनते ही टोल टैक्स की वसूली शुरू। टैक्स देने वालों को पता नहीं कि हाईवे बनाने पर कितनी लागत आई, ये लागत कितने साल की टोल वसूली में निकल आएगी। सरकार इस बारे में कोई विवरण नहीं देती। यह एक तर्कसंगत सवाल है कि क्या वसूले जा रहे टैक्स का कुछ हिस्सा उस क्षेत्र के विकास पर खर्च हो रहा है जहां से टैक्स आ रहा है? जो लोग टैक्स अदा करते हैं, उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनके लिए क्या किया जा रहा है।

टैक्स वसूलने की चिंता यदि सरकार को है तो संबंधित क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी भी उसे ही देखनी होगी। सरकार केवल खजाना भरने में लगी रहती है। सरकार के आय-व्यय में ईमानदारी, पारदिर्शता व न्याय-धर्मिता का सर्वथा अभाव है जिससे टैक्स की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। होना तो यह चाहिए कि वसूले गए टैक्स का आधा हिस्सा उस क्षेत्र के विकास पर लगे, जहां से टैक्स आया और लोगों को स्पष्ट दिखे कि उनका पैसा उनके क्षेत्र में लग रहा है। ऐसी व्यवस्था होगी तो कर चुकाने में किसी को तकलीफ नहीं होगी। ***

Tuesday, February 1, 2011

Yatha Praja, Tatha Raja ! :: यथा प्रजा, तथा राजा !

Yatha Praja, Tatha Raja !

By :
P.K.Khurana
(expanded name : Pramod Krishna Khurana)

 प्रमोद कृष्ण खुराना



यथा प्रजा, तथा राजा !
 पी. के. खुराना

एक ज़माना था जब कहा जाता था -- ‘यथा राजा, तथा प्रजा!’, यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदला, शासन के तरीके बदले, यहां तक कि शासकों की नियुक्ति के तरीके बदले और लोकतंत्र के ज़माने में प्रजा ही अपने भाग्य विधाता जन-प्रतिनिधियों की भाग्य विधाता बन बैठी। आज के ज़माने में व्यावहारिक स्थिति ऐसी है कि इस पर ‘यथा प्रजा, तथा राजा!’ की उक्ति ही सटीक लगती है। मतलब यह है कि प्रजा जैसी होगी, देश की बागडोर थामने वाले शासकों को भी वैसा ही होना पड़ेगा।

मेरा ध्यान इस ओर तब गया जब याहू ग्रुप्स पर पीआर प्वायंट के मॉडरेटर श्री श्रीनिवासन ने इस समूह के सदस्यों को एक ईमेल भेज कर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा संसद में उपस्थिति और कामकाज के विश्लेषण से अवगत करवाया। उन्होंने ये आंकड़े सांसदों के व्यवहार, कामकाज आदि का विश्लेषण देने वाली उत्कृष्ट वेबसाइट पीआरएसइंडिया से लिये थे। यह विश्लेषण वस्तुत: आंखें खोल देने वाला है।

चुनाव के समय राजनीतिक दल, कार्यकर्ता और मीडिया बहुत शोर मचाते हैं लेकिन चुनाव के बाद हम अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के कामकाज की समीक्षा करना भूल जाते हैं। हर कंपनी अपने छोटे से छोटे कर्मचारी के कामकाज की समीक्षा करती है लेकिन यह दुखद स्थिति है कि हम अपने प्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा संभव है लेकिन मीडिया भी इस ओर से उदासीन ही रहा है। परिणाम यह है कि हमारे प्रतिनिधि जनता की उदासीनता का लाभ उठाते हैं और राजनीतिक दल ऐसे लोगों को भी टिकट दने से गुरेज़ नहीं करते जिनका प्रदर्शन संतोषजनक न रहा हो। यहां तक कि विधानसभाओं और लोकसभा में ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष चुना जाता रहा है जिन्हें बहुत सक्रिय अथवा कुशल नहीं माना जाता था।

हमारी संसद लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर बनी है। लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है और देश के मतदाता सीधे मतदान से इन प्रतिनिधियों को चुनते हैं। दूसरी ओर, राज्यसभा का कार्यकाल छ: वर्ष का होता है और हर दो वर्ष बाद इसके एक-तिहाई सदस्य रिटायर हो जाते हैं। विभिन्न विधानसभाओं के सदस्य इन्हें चुनते हैं, और कुछ सदस्य राष्ट्रपति द्वारा भी मनोनीत किये जाते हैं। भारत के उपराष्ट्रपति इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं जबकि राज्यसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव सदन के सदस्यों में से होता है।

13 दिसंबर, 2010 को राज्यसभा के शीतकालीन अधिवेशन के समापन के समय राज्यसभा के कुल 242 सदस्य थे जिनमें विभिन्न विधान सभाओं द्वारा चुने गये 231 सदस्य तथा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये 11 सदस्य शामिल हैं। इनमें से कुछ सदस्य सन् 2005 से सदन के सदस्य हैं और उनका कार्यकाल इसी वर्ष समाप्त हो जाएगा। राज्यसभा के के सदस्य होने के बावजूद उपाध्यक्ष सवाल नहीं पूछते। इसी प्रकार सरकार के प्रतिनिधि होने के नाते मंत्रिगण भी सवाल नहीं पूछते। उपाध्यक्ष, मंत्रिगण और राज्यसभा में विपक्ष के नेता को हाजिरी रजिस्टर पर उपस्थिति दर्ज करने की आवश्यकता नहीं होती। अत: वर्तमान में केवल 228 सदस्यों को ही हाजिरी दर्ज करने और सवाल पूछने की इज़ाजत है।

यदि राज्यसभा के सदस्यों की कारगुज़ारी की समीक्षा की जाए तो आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के श्री टी. सुब्बारामी रेड्डी पहले स्थान पर हैं जिन्होंने 500 बार विभिन्न मुद्दों पर बहस में भाग लिया या सवाल पूछे और निजी बिल पेश किये। सदन में उनकी उपस्थिति 72 प्रतिशत रही है। वे जून, 2008 से राज्यसभा के सदस्य हैं। अप्रैल, 2008 से राज्यसभा के सदस्य, बिहार से जनता दल (युनाइटिड) के श्री एन. के. सिंह दूसरे स्थान पर रहे। उन्होंने कुल 495 बार सवाल पूछे या बहस में भाग लिया। सदन में उनकी उपस्थिति का प्रतिशत 82 रहा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से पश्चिम बंगाल से राज्यसभा के सदस्य श्री आर. सी. सिंह जून, 2008 में चुने गए थे। राज्यसभा में उनकी उपस्थिति 92 प्रतिशत रही है और वे 462 बार सवाल पूछ कर या विभिन्न बहसों में भाग लेकर तीसरे स्थान पर रहे हैं। मध्य प्रदेश से भाजपा के श्री प्रभात झा ने भी 462 बार सवाल पूछे या राज्यसभा के वाद-विवाद में हिस्सा लिया। कारगुज़ारी के मामले में चौथे स्थान पर आंके गये श्री झा अप्रैल, 2008 से राज्यसभा के सदस्य हैं और उनकी उपस्थिति 64 प्रतिशत रही है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत स्वतंत्र सदस्य हिन्दुस्तान टाइम्स की श्रीमती शोभना भरतिया की उपस्थिति का प्रतिशत 83 है। वे फरवरी, 2006 से सदन की सदस्या हैं तथा इस दौरान 424 बार सवाल पूछ कर वे राज्यसभा की पांचवीं सबसे सक्रिय सदस्य आंकी गई हैं।

जून, 2006 से राज्यसभा के सदस्य कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल महासचिव, मीडिया विभाग के प्रमुख तथा मुख्य प्रवक्ता श्री जनार्दन द्विवेदी शायद सदन में मंत्रियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं और उन्होंने शत-प्रतिशत उपस्थिति के बावजूद आज तक एक बार भी एक भी सवाल नहीं पूछा और न ही कोई निजी बिल पेश किया। अब तक वे सिर्फ एक बार एक बहस में हिस्सा लेने के लिए खड़े हुए हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव और कांग्रेस थिंक-टैंक के प्रमुख सदस्य श्री अहमद पटेल गुजरात से राज्यसभा के सदस्य हैं और उन्होंने भी आज तक राज्य सभा में कोई सवाल नहीं पूछा जबकि वे अगस्त 2005 से राज्यसभा के सदस्य हैं और उनकी सदस्यता इसी वर्ष समाप्त हो जाएगी। इन दोनों नेताओं को कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल नेता होने के कारण संदेह लाभ मिल सकता है परंतु गुजरात से भाजपा के सदस्य श्री सुरेंद्र मोतीलाल पटेल और पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के श्री स्वप्न साधन बोस के बारे में क्या कहें, जो अगस्त 2005 से राज्यसभा में होने के बावजूद प्रश्नों के मामले में आज तक अपना खाता ही नहीं खोल पाये। यदि ये कुछ और माह इसी प्रकार चुप्पी साधे रहे तो वे कुछ भी न पूछने का रिकार्ड बनाने वाले सदस्य बन जाएंगे। श्री बोस की उपस्थिति भी निराशाजनक रूप से सिर्फ 19 प्रतिशत ही रही है। इनसे भी आगे आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के डा. दासारी नारायण राव हैं जो सन् 2006 से राज्यसभा में हैं लेकिन उनकी उपस्थिति सिर्फ 4 प्रतिशत रही है और जब कभी वे सदन में आये भी, तो उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा। शायद ये भी चुप्पी और अनुपस्थिति का एक और इतिहास बनाने की फिराक में हैं।

आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के श्री टी. सुब्बारामी रेड्डी जहां सर्वाधिक सक्रिय सदस्य आंके गए हैं वहीं आंध्र प्रदेश से ही कांग्रेस के ही एक अन्य सदस्य डा. दासारी नारायण राव फिस्सडियों के शिरोमणि बने हैं। उनका यह व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना तो है ही, शोचनीय भी है।

इस विश्लेषण से हमें एक ही सीख मिलती है कि हम अपने प्रतिनिधियों की कारगुज़ारी पर लगातार नज़र रखें और अगली बार उन्हें वोट देने से पहले उनकी कारगुज़ारी को भी ध्यान में रखें। पार्टी, क्षेत्र और जाति को ध्यान में न रखकर यदि हम अपने प्रतिनिधियों की कुशलता और प्रदर्शन की ओर ध्यान देंगे तभी देश में सुराज आयेगा। याद रखिए -- ‘यथा प्रजा, तथा राजा!’ हम यदि नहीं बदलेंगे तो हम इन्हें भी नहीं बदल पायेंगे। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शहरी मतदाता, खासकर पढ़े-लिखे लोग मतदान इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि सरकारें बदलने से उनका कुछ भी बदलने वाला नहीं है। हमें अपनी इस सोच को भी बदलना होगा। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश राजनीतिज्ञों को काबू कर सकते हैं। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। ***