Wednesday, March 30, 2011

Sewa Kshetra Ka Arthshastra : सेवा क्षेत्र का अर्थशास्त्र





Sewa Kshetra Ka Arthshastra

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


pkk@lifekingsize.com



सेवा क्षेत्र का अर्थशास्त्र
 पी. के. खुराना

भारतवर्ष में उदारवाद के पदार्पण के साथ ही सेवा क्षेत्र का विस्तार आरंभ हो गया। आईटी कंपनियां चढ़ता सूरज बन गईं और बहुत से पारंपरिक व्यवसाय उनके सामने बौने पड़ गए। अभी तक सेवा क्षेत्र लगातार बढ़ता ही रहा है। भारतवर्ष में आईटी (इन्फरमेशन टैक्नोलॉजी), केपीओ (नॉलेज प्रोसेसिंग आर्गेनाइज़ेशन्स), बीपीओ (बिज़नेस प्रोसेसिंग आर्गेनाइज़ेशन्स) तथा कॉल सेंटर जैसी सेवाओं का विस्तार होने से रोज़गार के अवसर बढ़े, जीवन स्तर सुधरा और अर्थव्यवस्था ने नई करवट ली।

परंतु इन सब के विकास के दो बड़े कारण थे। पहला, भारतवर्ष के लोग अंग्रेज़ी पढ़-लिख-बोल सकने में पारंगत हैं और थोड़े से प्रशिक्षण के बाद वे अमरीकन लहजे में बोलना सीख लेते हैं। दूसरा, भारतवर्ष में वेतन का स्तर विकसित देशों के मुकाबले बहुत कम है, कर्मचारियों के नखरे कम हैं, कुशलता ज्य़ादा है। सन् 2007 तक ऐसा भी दौर था कि कर्मचारियों की गुणवत्ता का स्तर देखे बिना, कर्मचारियों की भर्ती आवश्यक हो गई। फिर 2008 के मध्य में मंदी का जो दौर चला उसने कइयों की कमर तोड़ दी। उद्योग बंद हो गए, वेतन घट गए और बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हो गए। सन् 2010 में हालांकि पश्चिमी देशों का संकट नहीं टला, पर भारतवर्ष धीरे-धीरे मंदी की मार से उबरा और कर्मचारियों की मांग एक बार फिर से बढऩे लगी। यह कहना तो मुश्किल है कि मंदी से पहले का दौर हू-ब-हू वापिस आ गया है, पर कुशल कर्मचारियों की खोज आज भी अपने आप में एक प्रोजेक्ट है। यही कारण है कि कुशल कर्मचारियों का वेतन बढ़ा है।

इस वर्ष महंगाई का एक नया दौर चला और कभी तेल, कभी प्याज और कभी चीनी ने रुलाया, जिससे आम आदमी की रसोई का बजट निश्चय ही बिगड़ा है। महंगाई के कारण भी कर्मचारियों के वेतन बढ़े हैं। वेतन की इस बढ़ोत्तरी ने सेवा क्षेत्र के सामने एक नया संकट खड़ा कर दिया है। हम पहले ही कह चुके हैं कि भारत में सेवा क्षेत्र के विस्तार का एक बड़ा कारण यहां के वेतन पश्चिमी देशों से कम होना है, जिसके कारण सेवाओं की कुल कीमत किफायती होती है। यहां तक कि हमारे देश में सेवा क्षेत्र का विस्तार इतना हुआ कि यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 57 प्रतिशत हो गया। अगर हम अकेले आईटी क्षेत्र और बीपीओ की ही बात करें तो देश के कुल निर्यात में इसका हिस्सा 25 प्रतिशत है। पिछले दो दशकों में हर साल इसमें 30 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। परंतु अब वेतन बढ़ जाने से सेवा क्षेत्र को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

भारतीय सेवा क्षेत्र से जुड़ी ज्यादातर कंपनियों ने गुणवत्ता के कारण नहीं, बल्कि कम कीमत के कारण नये करार किये हैं। अभी कुछ समय पहले तक भी भारत में आईटी से जुड़े लोगों का वेतन विकसित देशों के कर्मचारियों के वेतन के छठे हिस्से के बराबर होता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है और भारतीय कर्मचारियों का वेतन बढक़र पश्चिमी कर्मचारियों के वेतन के लगभग तीसरे हिस्से के बराबर हो गया है। वेतन में बेतहाशा वृद्धि की वजह से अंतरराष्ट्रीय जगत में हमें जो लाभ था, वह समाप्त हो जाएगा क्योंकि वेतन बढ़ते रहने से अंतत: सेवाओं की कीमत बढ़ानी पड़ेगी। यदि सेवाओं की कीमत में वृद्धि हुई तो हमारी सेवाएं किफायती नहीं रह जाएंगी और फिर हमें पश्चिमी देशों की कंपनियों से मुकाबला करने के लिए अपनी सेवाओं की गुणवत्ता में बड़ा सुधार लाना होगा।

सच तो यह है कि पश्चिमी देशों की बहुत सी कंपनियां हमारी सेवाओं में गुणवत्ता की कमी को बर्दाश्त करती हैं क्योंकि सेवाओं की कीमत काफी कम है। उतनी कम कीमत में उन्हें सही गुणवत्ता की उम्मीद भी नहीं थी। यही कारण है कि सेवा क्षेत्र के विस्तार में कोई बाधा नहीं आई। लेकिन यदि सेवाओं के दाम बढ़ते रहे तो हमारी सेवाओं से ‘किफायती’ का लेबल हट जाएगा और फिर हमें प्रतियोगिता में बने रहने के लिए गुणवत्ता में बड़े सुधार की ओर ध्यान देना होगा। यह बहुत सी भारतीय कंपनियों के लिए हनुमान छलांग जैसा होगा।

ऐसा नहीं है कि भारतीय कंपनियों में गुणवत्ता नहीं आ सकती, पर शायद ‘जुगाड़’ की संस्कृति में पले-बढ़े लोगों के लिए गुणवत्ता की कीमत को समझ पाना आसान नहीं होता। उसके लिए आपको एक अलग मानसिक धरातल पर आना होता है और यह एकदम से संभव नहीं है, जब तक कि इसके लिए योजनाबद्ध ढंग से तैयारी न की जाए।

हमारे सामने कुछ बहुत अच्छे उदाहरण हैं जहां भारतीय कंपनियों ने गुणवत्ता के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। टाइटन ने सभी स्विस कंपनियों को धता बताते हुए विश्व की सर्वाधिक स्लिम वाटरपू्रफ घड़ी बनाने में सफलता प्राप्त की, सु-कैम ने इन्वर्टर के रूप में एक नई क्रांति का सूत्रपात किया, सन् 1995 में जब एस.आर.राव ने गुजरात के शहर सूरत के म्युनिसिपल कमिश्नर के रूप में चार्ज लिया तो उस समय सूरत प्लेग जैसी महामारी के लिए कुख्यात था, कुछ ही सालों में उन्होंने सूरत की शक्ल बदल दी और वह भारतवर्ष का दूसरा सबसे साफ शहर बन गया, 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जे.के.त्रिपाठी ने सन् 1999 में जब त्रिची के पुलिस कमिश्नर के रूप में कामकाज संभाला तो वहां सांप्रदायिक लावा उबल रहा था और उस ज्वालामुखी में विस्फोट कभी भी संभव था। उन्होंने भी अपनी निष्ठा और सूझबूझ से वहां की पुलिस के चरित्र में करिश्माई परिवर्तन ला दिया। लब्बोलुबाब यह कि कोई मुश्किल ऐसी नहीं है जिसका सामना न किया जा सके पर उसके लिए गहन निरीक्षण, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास, धैर्य और अदम्य साहस की आवश्यकता होती है। क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ सोच से ही संभव नहीं होते, उनके लिए कदम-कदम पर लड़ाई लडऩी होती है और साथियों का साथ लेना होता है।

आज हम जानते हैं कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था के विकास में सेवा क्षेत्र की भूमिका बहुत बड़ी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सेवा क्षेत्र की इस मजबूती को बनाए रखने के लिए हमारे पास दो ही विकल्प हैं। पहला, हम किफायती कीमत में सेवाएं देने में सक्षम बने रहें, और दूसरा, हमारी सेवाओं की गुणवत्ता ऐसी हो कि ग्राहक उसे हर कीमत पर लेना चाहे। गुणवत्ता में बड़ा सुधार एक लंबी और महंगी प्रक्रिया है। इस परेशानी से बचने के लिए बहुत सी भारतीय कंपनियों ने चीन जैसे देशों में अपने कार्यालय खोल लिये हैं। लेकिन इसका दूरगामी परिणाम यही होगा कि भारतवर्ष को मिलने वाला बहुत सा व्यवसाय अंतत: अन्य सस्ते देशों में स्थानांतरित हो जाएगा और भारतीयों के लिए रोजगार के अवसरों की कमी और भी बढ़ जाएगी। कीमतों में कमी संभव है या नहीं, यह एक बड़ी बहस का विषय है इसलिए हमारे पास अगल विकल्प यही बचता है कि हम अपनी सेवाओं की गुणवत्ता के सुधार की तैयारी आरंभ कर दें अन्यथा सेवा क्षेत्र का यह व्यवसाय अन्य देशों में स्थानांतरित हो जाएगा और यहां महंगाई के साथ-साथ बेरोज़गारी का एक और नया दौर शुरू हो जाएगा जिसे संभालना किसी भी कंपनी अथवा सरकार के बस में नहीं होगा। 

IT Sector, KPO, BPO, Call Centres, Inflation, Alternative Journalism.

Monday, March 21, 2011

Loktantra Ki Sabse Badi Chunauti :: लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती





Loktantra Ki Sabse Badi Chunauti

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना

pkk@lifekingsize.com

Pioneering Alternative Journalism in India


लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती
-- पी. के. खुराना


सरकारों के बड़े-बड़े दावों के बावजूद गरीबी की समस्या हमें लगातार परेशान कर रही है। हम सिर्फ ‘भारत उदय’ और ‘जय हो’ के नारे ही सुनते रह जाते हैं। विभिन्न सरकारें रोजगार गारंटी योजना, गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को आवासीय प्लाट, सस्ते आटा-दाल आदि की आपूर्ति आदि जैसी योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च कर रही हैं। यह पैसा सरकारी खजाने में करदाता की कमाई के हिस्से के रूप में आया है। यह देखना उचित होगा कि गरीबी दूर करने की सरकारों की कोशिशें वास्तव में कितनी सही और कामयाब रही हैं।

कुछ समय पहले हरियाणा के शहर रोहतक में स्थित एक अनुसंधान संस्थान ने राज्य के गरीब वर्ग की गणना संबधी नियमों का अध्ययन करने पर पाया कि ये नियम ईमानदारी से इनकी संख्या दर्ज नहीं करने का औजार हैं। राज्य के ग्रामीण इलाकों में ही नहीं, कस्बों और शहरों में भी अनेक परिवार इन नियमों के चलते गरीबों को राहत देने वाले कार्यक्रमों का लाभ नहीं पा रहे हैं। जहां अनेक परिवार गरीबी रेखा से बाहर होने के बावजूद सस्ते अनाज और मुफ्त आवासीय प्लाट लेने में कामयाब हो जाते हैं, वहीं हजारों परिवार अपने हिस्से का सस्ता राशन भी नहीं ले पाते क्योंकि उनके नाम बीपीएल सूची में दर्ज नहीं किये जाते। गरीब परिवारों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत स्वास्थ्य सुरक्षा कवर देने की योजना हो, रोजगार गारंटी योजना हो या बुढ़ापा पेंशन योजना, आम तौर पर सभी के लिये सरकारी अफसरों या पंच-सरपंच अथवा किसी सत्ताधारी राजनेता की मेहरबानी की जरूरत पड़ती है। परंतु सच यह है कि सरकार द्वारा विकास पर खर्च किया जाने वाला पैसा सही पात्रों तक नहीं पंहुचता, इसलिए ज्यादातर योजनायें सिर्फ कागजी बनकर रह गयी हैं।

सरकार द्वारा दशकों से चलाए जा रहे विभिन्न गरीबी हटाओ कार्यक्रम पूर्णत: बेअसर और बेमानी साबित हुए हैं। गरीबों की गणना के तौर तरीकों को पर गंभीर प्रश्रचिन्ह लगे हुए हैं। गरीबी दूर करने की रणनीति को लेकर सरकारों के अंदर ही मतभेद हैं। गरीबों की संख्या को लेकर केंद्र और विभिन्न राज्य भी अलग-अलग खड़े हैं। यह हैरानी की बात है कि जमीनी तौर पर गरीबी कम न होने के बावजूद सरकारी आंकड़ों मे गरीब कम हो गए हैं। ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से सरकारें पूरी तरह वाकिफ हैं लेकिन इसके बावजूद इनकी स्थिति सुधारने की कोई गंभीर कोशिश कहीं दिखाई नहीं देती। गांव और शहरों में सरकारी अस्पताल और डिस्पेंसरियां सिर्फ नुमाइशी काम करती हैं और आम आदमी झोला छाप डाक्टरों पर आश्रित है।

सरकारी योजनाओं को लागू करने में चूक के लिए सरकारी अफसरों तो जिम्मेदार हैं ही, पर इस अमले की कारगुजारी की ठीक से व्यवस्था नहीं करने के लिए जन प्रतिनिधि भी कम जि़म्मेदार नहीं। आम अदमी के भले के लिए जनता के पैसे के इस्तेमाल की योजनाएं बनाते हुए उनका फायदा आम आदमी तक पहुंचाने की पुख्ता व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी जन प्रतिनिधि सदनों की है। सत्ताधारी अपने को मिले जनादेश का ठीक से इस्तेमाल नहीं करें तो वह पटरी पर रखने का काम विपक्षी दलों को निभाना होता है। विधान सभा या संसद द्वारा बनाये गये कानूनों का लाभ गरीब को नहीं मिल रहा यह बात सामने आने के बाद भी व्यवस्था सुधारने की अनदेखी के लिए सभी जनप्रतिनिधि - भले ही वे किसी भी दल के हों - जिम्मेदार हैं। इसके लिए सरकार या प्रशासन से जुड़े लोग आसानी से तैयार नहीं होंगे क्योंकि इसके लिए उनके पास न दृष्टि है, न योजना और न ही समय अथवा नीयत।

देश के हर जि़म्मेदार नागरिक को एकजुट होकर सरकार की सोच और ढांचे को बदलने की कोशिश करनी होगी। हम सब को मिलकर, गरीब तथा पिछड़े वर्ग के मतदाता को रिझाने की लोकलुभावनी घोषणाओं और नीतियों के मायाजाल को बेअसर बनाने की जरूरत स्पष्ट है। वक्त का तकाज़ा है कि सरकारें हर गरीब को गरीबी से मुक्ति दिलाने की समयबद्ध रणनीति बनाये। समयबद्ध रणनीति का न होना ही योजनाओं की असफलता का सबसे बड़ा कारण है। इसके लिये गरीबी की परिभाषा बदलनी होगी ताकि प्रशासन मनमाने ढंग से पात्रों को सुविधा से वंचित न कर सके । गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों को बीपीएल राशन कार्ड देने का ढंग आसान बनाना होगा। काम के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा देना जरूरी है। बेरोजगार नौजवानों को विशेष प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार के लिये तैयार किया जाना चाहिए। गरीबी दूर करने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ विशेष ध्यान देना जरूरी है, वरना हम भविष्य में भी गरीबी का रोना ही रोते रह जाएंगे। मूलभूत शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार तीन ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी सुविधाओं के बिना गरीबी के अभिशाप से छुटकारा संभव नहीं है।

यह एक स्थापित तथ्य है कि गरीबी और पिछड़ापन दूर करने के लिए शिक्षा का महत्व सर्वोपरि है। गरीबों के पास खाने को पैसा न हो तो शिक्षा उनकी प्राथमिकता नहीं रहती। अशिक्षित व्यक्ति खुद भी उम्र भर गरीबी की चक्की में पिसता है और अपने बच्चों को भी गरीबी का अभिशाप विरासत में दे डालता है। शिक्षा का अधिकार अगर मौलिक अधिकार नहीं बनता तो देश की चहुंमुखी प्रगति संभव ही नहीं है।

रोज़गार को मौलिक अधिकार न बनाने के कई सारे बहाने हैं जो सभी के सभी कागज़ी हैं और निहित स्वार्थों द्वारा गढ़े गए हैं। रोज़गार के लिए सिर्फ सरकारी नौकरी ही एकमात्र साधन नहीं है। स्वरोज़गार भी रोज़गार का एक बड़ा साधन है, लेकिन हमारे देश में रोज़गारपरक शिक्षा भी सिर्फ दिखने में ही रोज़गारपरक है। वस्तुत: उसे रोज़गारपरक बनाने का कोई गंभीर प्रयास होता ही नहीं क्योंकि तथाकथित बी-स्कूलों और आईआईटी के विद्यार्थी भी ज्य़ादा से ज्य़ादा किसी बड़ी नौकरी के काबिल ही बन पाते हैं। शिक्षा के बाद स्वरोज़गार उनके लिए भी एक दु:स्वप्न की ही तरह होती है क्योंकि उन्हें मार्केटिंग, वितरण, खरीद, जन-प्रबंधन और जन-संपर्क आदि क्षेत्रों की विशद जानकारी नहीं होती। वे केवल एक विषय के जानकार बनकर कूप-मंडूक ही बने रहते हैं। पारिवारिक विरासत के बिना स्वरोज़गार में लगे बहुत से युवक कर्ज पर ली गई पूंजी भी लुटा बैठते हैं।

स्व-रोज़गार का दूसरा पहलू यह है कि अत्यंत छोटे स्तर के यानी माइक्रो क्षेत्र के स्व-रोज़गार के लिए सरकारों ने कोई पुख्ता कदम नहीं उठाये। ज्य़ादातर एनजीओ कागज़ी हैं जो सिर्फ ग्रांट खाते हैं और खबरें छपवाते हैं, काम नहीं करते। देश भर में बहुत बड़ी शामलात ज़मीन बंजर पड़ी है जिसका कोई उपयोग नहीं होता। उसे काश्त के काबिल बनाकर भूमिहीन खेतिहर मजदूरों में बांटने से न केवल उनकी बेरोज़गारी दूर होगी बल्कि अनाज की पैदावार भी बढ़ेगी।

शासन के वर्तमान स्वरूप में व्यापक सुधार के बिना यह संभव नहीं है। लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन’ की परिभाषा के मुताबिक यह जरूरी है कि जनप्रतिनिधि और तंत्र दोनों जनसंवेदी बनें। इसके लिए तंत्र और जनप्रतिनिधि दोनों में सकारात्मक सहयोग की जरूरत है। जनहित का तकाजा है कि जनप्रतिनिधि और शासन तंत्र दोनों ईमानदारी से जन-जन और समाज के प्रति जवाबदेह रहें। देश के सर्वाधिक गरीब व्यक्ति तक लोकतंत्र का लाभ तभी पहुंच सकेगा। ***

Saturday, March 12, 2011

Aao Bharat Ko Banayen 'Youngistan' ! :: आओ भारत को बनाएं ‘यंगिस्तान’!





Aao Bharat Ko Banayen 'Youngistan' !

By : P. K. Khurana

प्रमोद कृष्ण खुराना
(Pramod Krishna Khurana)


Pioneering Alternative Journalism in India



आओ भारत को बनाएं ‘यंगिस्तान’!

 पी. के. खुराना


आदमी उम्र से नहीं, विचारों से बूढ़ा होता है। जब हम नये विचार ग्रहण करना बंद कर देते हैं तो हम बूढ़े हो जाते हैं। देश के समग्र विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण के प्रति दिमाग खुला रखें और उनसे लाभ लेने के लिए आवश्यक माहौल तैयार करें। युवाशक्ति की प्रशंसा इसीलिए की जाती है कि उनमें उर्जा तो बहुत होती है पर पूर्वाग्रह नहीं होता और वे दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति खुले दिमाग से सोचते हैं। अगर देश के सभी नागरिक हर मामले में युवा वर्ग के इसी दृष्टिकोण का अनुसरण करें तो हमारा देश ‘यंगिस्तान’बन जाएगा। ‘यंगिस्तान’का मतलब है खुला दिमाग, दूसरों के नज़रिये के प्रति सहनशीलता, नई बातें सीखने का जज्बा, काम से जी न चुराना, तकनीक का लाभ उठाने की योग्यता, प्रगति और रोज़गार के नए और ज्य़ादा अवसर, आपसी भाईचारा तथा देश और क्षेत्र का समग्र विकास !

भारतीय संविधान की मूल भावना है, ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार।’यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी और सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक-कल्याणकारी राज्य बने जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। क्या यह संभव है कि देश के विकास में नागरिकों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करके देश में सच्चे प्रजातंत्र का माहौल बनाया जाए? अगर ऐसा हो सका तो यह देश में प्रजातंत्र की मजबूती की दिशा में उठाया गया एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।

लोकतंत्र में तंत्र नहीं, बल्कि ‘लोक’की महत्ता होनी चाहिए। तंत्र का महत्व सिर्फ इतना-सा है कि काम सुचारू रूप से चले, व्यक्ति बदलने से नियम न बदलें, परंतु इसे दुरूह नहीं होना चाहिए और लोक पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जब ऐसा होगा तभी हमारा लोकतंत्र सफल होगा, लेकिन ऐसा होने के लिए हमें अपने आप को बदलना होगा, हर नागरिक को अपने आप को बदलना होगा। यह काम कोई सरकार नहीं कर सकती, प्रशासन नहीं कर सकता, लोग कर सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू में रख सकते हैं।

हमारे देश के सामने कई समस्याएं दरपेश हैं पर आम जनाता में उनको लेकर कुंठा तो रहती है, कोई सार्थक बहस नहीं होती, या फिर इतने छोटे स्तर पर बहस होती है कि उसका प्रशासन और सरकार पर असर नहीं होता, या फिर सिर्फ बहस ही होती रह जाती है।

जीवन में चार तरह की स्वतंत्रताएं महत्वपूर्ण हैं। एक -- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दो -- धर्म की स्वतंत्रता, तीन -- अभावों से छुटकारा और चार -- भय से आज़ादी। भारतवर्ष में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। लेकिन हमारे देश में अभी अभावों से आज़ादी और भय से आज़ादी एक सपना है। अशिक्षा सेवा, सामान्य चिकित्सा सेवा का अभाव, पीने योग्य पानी की समस्या, सफाई का अभाव, रोज़गार की कमी, भूख और कुपोषण आदि समस्याएं, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि समस्याएं विकराल हैं और आम आदमी को इनसे राहत की कोई राह नज़र नहीं आती। पर क्या सचमुच इनका हल नहीं है? क्या सचमुच इसमें सारा दोष प्रशासन और सरकार का ही है? क्या हम सेमिनार और भाषण से आगे बढक़र कुछ और नहीं कर सकते? क्या हमारे पास इन समस्याओं से छुटकारा पाने का कोई भी साधन नहीं है?

गरीबी और बेरोज़गारी से छुटकारा संभव है, यदि गरीबी और बेरोज़गारी से छुटकारा मिल जाए तो शिक्षा, चिकित्सा, सफाई, पानी, कुपोषण, महंगाई आदि समस्याएं खुद-ब-खुद हल हो जाती हैं। बहुत से लोग अज्ञान के कारण अथवा अपने निहित स्वार्थों की खातिर विकास के विरोध में खड़े नज़र आते हैं। कई एनजीओ और राजनीतिक नेता जानते-बूझते भी विरोध की राह पकड़ते हैं और आम आदमी उनके षड्यंत्र का शिकार हो जाता है।

अभी पिछले ही वर्ष हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में वाणिज्य विभाग के अध्यक्ष डा. विजय कुमार शर्मा, उनकी सहयोगी निशु शर्मा तथा कोटखाई के डीएवी कालेज के रोशन लाल वशिष्ठ ने एक अध्ययन में पाया कि राज्य के उन क्षेत्रों का तेजी से विकास हुआ है जहां औद्योगीकरण आया। प्रदेश के जिन हिस्सों में उद्योगों की स्थापना हुई वहां ढांचागत सुविधाएं, शिक्षा सुविधाएं, सडक़, बिजली, पानी की सुविधाएं, बैंकिंग व्यवस्था, आवासीय व्यवस्था तथा शॉपिंग सुविधाओं आदि में तेजी से विकास हुआ है। इन विद्वानों का मत है कि स्थानीय लोगों द्वारा राज्य में उद्योगों की स्थापना के किसी भी कदम का सदैव विरोध होता रहा है, अत: यह आवश्यक था कि औद्योगिक विकास के कारण होने वाले विकास के उदाहरणों को जनता के सम्मुख लाया जाए ताकि इस संबंध में पाली जा रही मिथ्या धारणाओं को तोड़ा जा सके।

डा. विजय कुमार शर्मा ने इन परिणामों पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘यह शोध कार्य इसलिए आरंभ किया गया था ताकि हम हिमाचल प्रदेश में औद्योगीकरण के प्रभावों का पता लगा सकें। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिमाचल प्रदेश पर्यावरण की दृष्टि से एक संवेदनशील राज्य है और लोगों की धारणा है कि विकास का हर प्रयास राज्य के समग्र संतुलन के लिए हानिकारक होगा। इसके विपरीत, हमारे अध्ययन से यह साबित हुआ है कि उद्योगों के विस्तार ने राज्य में विकास की गति तेज की है। उद्योगों की स्थापना का यह मतलब कतई नहीं है कि वे संतुलन के लिए हानिकारक ही होंगे। इसके विपरीत, उद्योगों के विकास से उन क्षेत्रों तथा स्थानीय लोगों के विकास की रफ्तार तेज हो सकती है।’’

दूसरी ओर ऐसी कंपनियों की भी कमी नहीं है जिन्होंने पर्यावरण की अनदेखी करते हुए आसपास के लोगों को उपहारस्वरूप कई तरह की बीमारियां दीं, उन्हें उनके मूल निवास से उजाड़ा और उनके पुनर्वास के लिए कुछ भी नहीं किया, या जो किया सिर्फ दिखावे के लिए किया। अत: औद्योगीकरण के लाभ पर लट्टू हुए बिना इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उद्योग से पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे, औद्योगीकरण के कारण विस्थापित लोगों के पुनर्वास और रोजग़ार का काम भी साथ-साथ चले, और विकास की राह में अनावश्यक रोड़े भी न अटकें। तभी गरीबी दूर होगी, अभावों से छुटकारा मिलेगा और शेष समस्याओं के हल की राह निकलेगी। 

Wednesday, March 9, 2011

Print Media Ka Score : प्रिंट मीडिया का स्कोर

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By :
P. K. Khurana

प्रमोद कृष्ण खुराना
(expanded name : Pramod Krishna Khurana)


प्रिंट मीडिया का स्कोर

 पी. के. खुराना

ज़माना बदलता है, ज़माने के साथ तकनीक बदलती है, तकनीक के साथ ज़रूरतें बदलती हैं, ज़रूरतों के साथ आदतें बदलती हैं और आदतें बदलने से उत्पादों की खपत के तरीके बदलते हैं। बहुत से नये आविष्कार ऐसे होते हैं जो क्रांति ही ला देते हैं। इंटरनेट भी एक ऐसा ही युगातंरकारी आविष्कार है। इन दिनों वल्र्ड कप का ज़ोर है और समाचार माध्यमों पर राजनीति के अलावा क्रिकेट का ही शोर है। राजनीति में कोई उथल-पुथल हो जाए या मैच चल रहे हों तो प्रिंट मीडिया का स्कोर घट जाता है और लोग टीवी या इंटरनेट का सहारा लेते हैं। करुणानिधि की पार्टी डीएमके द्वारा यूपीए सरकार से बाहर होने की घोषणा हो मैच का हाल जानना हो तो लोग उसे टीवी पर तभी के तभी ‘लाइव’ देखना चाहते हैं। सचिन तेंदुलकर का शॉट लगे तो उसे देखने का जो मज़ा है, उसका वर्णन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सकता। कमेंटेटर चाहे कितना ही कहे कि ‘सचिन ने क्या बढिय़ा शॉट लगाया है!’, वह वर्णन शॉट देखने के आनंद के आसपास भी नहीं आ सकता। लेकिन जब आदमी काम पर हो और टीवी देखने की सुविधा उपलब्ध न हो तो अपने मोबाइल से इंटरनेट पर जाकर भी क्रिकेट का हाल जाना जा सकता है और बॉल-टु-बॉल स्कोर का वर्णन लाइव जाना जा सकता है।

इसी प्रकार राजनीति की उथल-पुथल के समय भी टीवी और इंटरनेट पर तो खबर तुरंत आ जाएगी लेकिन चूंकि अखबार अपने समय से पहले नहीं छप सकते अत: ऐसे मामलों में वे पिछड़ जाते हैँ। इस सब के बावजूद भारतवर्ष में भाषाई अखबारों की बढ़ती बिक्री के कारण भारतीय मीडिया घरानों ने इंटरनेट का लाभ उठाने की फुर्सत नहीं निकाली है। हमारे देश के बहुत से बड़े अखबारों के ऑनलाइन संस्करण भी उपलब्ध हैं, परंतु वे प्रिंट संस्करण की छाया मात्र हैं। फिलहाल बहुत से मीडिया घरानों के लिए उनका ऑनलाइन संस्करण एक फैशन मात्र है, उनका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है, उनके लिए कोई योजना भी नहीं है और न ही उनकी स्वतंत्र मार्केटिंग के साधन हंै। परिणाम यह हुआ है कि पत्र-पत्रिकाओं के इंटरनेट संस्करण आय का स्रोत नहीं बन पाये हैं कि मीडिया घरानों के मालिक उनकी ओर ध्यान दे पायें। यह एक ऐसा चक्कर है जिसमें फंसकर मीडिया घराने घनचक्कर बने हुए हैं।

जब टीवी आया तो लगा कि प्रिंट मीडिया समाप्त हो जाएगा, जब इंटरनेट आया, तब फिर लगा कि प्रिंट मीडिया समाप्त हो जाएगा। इंटरनेट का बहुत शोर होने के बावजूद प्रिंट मीडिया के प्रसार में वृद्धि जारी है। जयादातर अंगरेजी अखबारों की प्रसार संख्या घटी है, जबकि भाषाई अखबारों का प्रसार बढ़ा है। इससे दोनों को लाभ हुआ है। अंगरेज़ी अखबारों का प्रसार घटा है लेकिन उन्हें विज्ञापनों से हाने वाली आय में कमी नहीं आयी है और भाषाई अखबारों की प्रसार संख्या बढऩे से विज्ञापनदाताओं का फोकस भाषाई अखबारों की तरफ बढ़ा है।

एक अवसर ऐसा भी आया जब यह माना जाने लगा था कि पत्रिकाओं का युग समाप्त हो गया है लेकिन वर्ग विशेष पर फोकस वाली पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और प्रसार ने सफलता के नये कीर्तिमान गढ़े हैं। अत: यह कहना गलत है कि प्रिंट मीडिया खतरे में है। प्रिंट मीडिया की अपनी संभावनाएं हैं, हां, यह सही है कि उन्हें टीवी और इंटरनेट के कारण कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

इंटरनेट से दरपेश चुनौतियों के कारण अमरीका में बड़े-बड़े अखबार बिकने के लिए विवश हुए। नये प्रकाशकों ने अखबारें खरीद तो लीं पर प्रकाशन व्यवसाय से अनजान होने के कारण उनमें से ज्यादातर लोग सफल नहीं हो पाये। भारतीय प्रकाशकों को अभी ऐसी नौबत का सामना नहीं करना पड़ रहा है, परंतु उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इंटरनेट में 3-जी की शुरुआत हो चुकी है और संपन्न वर्ग के युवा लोग खबरों को मोबाइल फोन पर ही देखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे इंटरनेट का प्रसार बढ़ेगा, लोगों की आदतें कुछ और बदलेंगी और ज्य़ादा से ज्य़ादा लोग समाचारों के लिए अपने मोबाइल फोन पर निर्भर होते जाएंगे।

प्रिंट मीडिया की खासियत यह है कि अखबार या पत्रिका को आप कहीं भी साथ ले जा सकते हैं, किसी समाचार, लेख या कहानी को कई टुकड़ों में पढ़ सकते हैं, कई-कई बार पढ़ सकते हैं। लेकिन यह एकांगी माध्यम है। इसी प्रकार अखबार पढऩे के लिए आपको पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। रेडियो के आविष्कार ने साक्षरता की सीमा को लांघ कर रेडियो को गांवों तक में लोकप्रिय बनाया, पर केवल श्रव्य माध्यम होने से यह भी एकांगी ही है। दृश्य और श्रव्य का मेल होने की वजह से टीवी ने समाचारपत्रों और रेडियो, दोनों को पीछे छोड़ दिया। टीवी पर आप घटनाएं लाइव देख सकते हैँ या उन्हें हूबहू घटते हुए देख और सुन सकते हैं। टीवी जहां दृश्य और श्रव्य का संगम है, वहीं इंटरनेट उससे भी एक कदम आगे बढक़र दृश्य, श्रव्य और प्रिंट की त्रिवेणी है, अत: इंटरनेट का प्रसार बढ़ा तो कई बदलाव आयेंगे ही, जिनकी आहट हम आज भी सुन सकते हैं।
हम यह नहीं कहते कि पारंपरिक मीडिया समाप्त हो जाएगा। पारंपरिक मीडिया शायद कभी भी समाप्त न हो। यही नहीं, भविष्य का कोई और आविष्कार लोगों की आदतों में क्या नये परिवर्तन लाएगा, उसका अंदाजा लगाना अभी संभव नहीं है। हो सकता है कि किसी नये आविष्कार के बाद आज का ‘नया मीडिया’ तब ‘पारंपरिक मीडिया’ की श्रेणी में आ जाए। तो भी भविष्य की चुनौतियों का सामना करने की तैयारी के मामले में लापरवाही महंगी साबित हो सकती है।

इस सारे विश्लेषण का निष्कर्ष यही है कि पारंपरिक मीडिया के पास अभी वक्त है और मीडिया घरानों को इस समय का सदुपयोग करते हुए नई चुनौतियों का सामना करने की तैयारी कर लेनी चाहिए। समझदारी इसी में है कि ऑनलाइन संस्करण का अलग व्यक्तित्व उभरे, उसके विकास के लिए समग्रता में योजना बने, योजना का सही-सही कार्यान्वयन हो ताकि बाद में अखबार बंद करने या घाटे में बेचने की नौबत न आये। 

Tuesday, March 1, 2011

दुख की दीक्षा

Dukh Ki Deeksha

By :
Pramod Krishna Khurana
(Popularly known as P.K.Khurana)

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 प्रमोद कृष्ण खुराना

फादर वालेस का एक उपदेश मेरे जीवन का प्रेरणा-स्रोत रहा है। उनके उस उपदेश को मैं उनके ही शब्दों में उद्घृत कर रहा हूं।

छोटे बालक की भावनाएं कोमल होती हैं। दुनिया की दूषित बुराइयों तक उसकी नजर नहीं पहुंचती और इसलिए अपने निर्दोष एवं निश्छल अज्ञान में वह सुरक्षित रहता है। प्रौढ़ आदमी संसार की उन बुराइयों को देखता है, उनका अहसास करता है लेकिन उसका जीवन कठोर बन चुका है इसलिए वह उस दुख को सहज भाव से पचा सकता है। असली मुसीबत और करुणाजनक हालत तो उस नौजवान की है जिसकी निगाह अभी-अभी लंबी हुई है, तीक्ष्ण बनी है, संसार के भेदभाव और दुनिया के दुखों तक पहुंचने लगी है लेकिन उसकी भावनाएं पहले जैसी कोमल ही हैं। कच्ची भावनाओं से भरा जीवन एकाएक दुखों से लद जाए तो उस भार को सहन करने में वह कैसे समर्थ होगा?

घर पर अचानक दुख का पहाड़ टूट पड़ा। अमंगल की छाया तन गई, गृहलक्ष्मी सबको बिलखता छोडक़र हमेशा के लिए चली गई। लेकिन घर का मुखिया अपना दुख अपने भीतर ही छिपाकर दूसरों को ढाढ़स बंधाता है। ... और वह छोटा अबोध बच्चा हमोशा की तरह खेलता है, खाता-पीता और सोता है। उसे क्या पता कि ‘दूसरे गांव गई मां’ अब कभी लौटकर नहीं आयेगी। उसकी मीठी आवाज वह कभी नहीं सुन पायेगा। उसके क्लांत शरीर पर उसके वात्सल्य भरे हाथ का स्पर्श कभी नहीं होगा।

दूसरी ओर घर का बड़ा लडक़ा, वह नौजवान पुत्र इस दुख को समझ तो सकता है पर उसे सहने और उस पर काबू पाने की शक्ति अभी उसमें विकसित नहीं हो पायी है। काम-काज में डूबकर मन को दूसरी ओर लगाकर दुख भुलाने की कला से वह अनभिज्ञ है। अनभिज्ञ न भी हो तो भी उसे आजमाने को उसका दिल आज तैयार नहीं। समय बीतने के साथ दुख कम होता जाता है इसकी जानकारी भी उसे नहीं है। इसलिए कोई उससे यह सब कहे भी तो वह मानेगा नहीं, उल्टे बुरा मनाएगा तथा और भी दुखी हो जाएगा। मां का पवित्र स्मरण कभी कम हो सकता है, उसके जाने से जीवन में जो रिक्तता आई है उसकी क भी पूर्ति हो सकती है--ऐसे विचार मात्र से उसे गहरा आघात लगेगा। दुख को वह पूरा का पूरा सामने देखता है, लेकिन उसे थोड़ा हल्का बना दे ऐसे संयोगो को देख पाने में वह असमर्थ है। उन्हें वह स्वीकारने को भी तैयार नहीं है।

दुख पूरा और आश्वासन शून्य, बोझ भारी और कंधे कोमल, दिल नाजुक और घाव घातक। ऐसी हालत में घर में आ खड़ी हुई उस विपदा का सबसे गहरा आघात बड़े लडक़े पर हो और वह जिंदगी भर उसे सालता रहे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
कठिनाई भरे जीवन में प्रौढ़ों की-सी कठोरता आ ही जाती है। ऐसे लोग जीवन का संघर्ष सहज ही झेल जाते हैं। ऐसी प्रौढ़ता जैसे भी हो जल्दी से जल्दी विकसित हो, यह आवश्यक है। इसके बिना संसार में खड़े रहना एक प्रकार से विनाश को अपने हाथों खींचकर लाने जैसा है।

हमें याद रखना चाहिए कि जीवन है तो सुख भी मिलेंगे और दुख भी आयेंगे। अच्छाइयां भी देखेंगे और बुराइयों से भी सामना होगा। कभी हम आश्चर्यचकित होंगे तो कभी स्तब्ध भी रह जाएंगे। जीवन के उतार-चढ़ाव जीवन की सच्चाइयां हैं। उन्हें समझने, उनका विश्लेषण करने, नई स्थितियों के अनुसार नई दिनचर्या तय करने में ही समझदारी है। इसमें कठिनाई तो होगी ही, जो अभाव बना है वह खलेगा भी, पर चूंकि उसे भरने का और कोई चारा नहीं है इसलिए हमें उस अभाव के साथ ही जीना सीखना होगा। यही जीवन है, जीवन का सच है।

कभी हमारे साथ कोई अन्याय हो जाता है या हमसे कोई भूल हो जाती है तो जीवन के उन कमजोर क्षणों में धीरज रखकर कुछ समय गुजर जाने देना सदैव श्रेयष्कर होता है। कुछ समय के बाद जब मन निर्मल हो जाए, अपमान की चोट या अपराध बोध कुछ कम हो जाए तो यह सोचना चाहिए कि जीवन को संवारने के लिए अब क्या किया जाए।

अपने साथ अन्याय होने पर खुद को कमजोर और असहाय मान लेना गलत है। अपमान में जलते रहकर मन पर बोझ डाले रखने से कुछ नहीं होता। इसके बजाए खुद को शक्तिशाली बनाकर योजनाबद्घ तरीके से अन्याय का प्रतिकार करना ही एकमात्र उपाय है।

यदि भूलवश कुछ कदाचार हो जाए तो अपराध बोध से भरकर पछताने के बजाए उस कदाचार को भुलाकर जीवन में सदाचार उतार लेना ही सही हल है। एक भूल से सीख लेकर किसी दूसरी भूल से दूर रहने में ही बुद्घिमानी है।

एक भूल हुई इसलिए नम्रता आई। नम्रता सद्व्यवहार का आवश्यक लक्षण है। एक भूल हो गई, इसलिए अब सावधानी बरतने की आवश्यकता और महत्व सामने आया। हमसे भूल हुई तो दूसरे लोगों की भूल समझने, उन्हें सहन करने और माफ करने की दृष्टिï विकसित हुई। यह दृष्टि ही उद्घार की दृष्टि है। आज की इस एक भूल से कल की अधिक विकट परिस्थितियों में रक्षण मिल सकता है। एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए लेकिन उससे मिले अनुभव से अब आगे की बड़ी परीक्षाओं में अच्छी तरह पास हुआ जा सकेगा। एक बार हार गए पर इस पहली हार से शेष जीवन संग्राम में अंतिम जीत हासिल की जा सकेगी।

भ्रमित मन को आराम दीजिए, व्याकुल मन को शांत होने दीजिए, घायल हृदय के घाव को भरने दीजिए। कदाचार अथवा भूल के ताप से पीड़त होने पर प्रायश्चित यह होना चाहिए कि हम दोबारा भूल न दोहराएं, दोबारा गलती न करें, कदाचार में शामिल न हों तथा दूसरों की भूल को भी उदार हृदय से स्वीकार करें। अगर हम ऐसा कर सकें तो सच मानिए, दुख की दीक्षा, दुख का यह सबक, अभिशाप नहीं बल्कि जीवन के लिए वरदान बन जाएगा। 