Tuesday, April 26, 2011

Nyayapalika Main Sudhar Ki Gunjayish : न्यायपालिका में न्यायपालिका में सुधार की गुंजाइश






Nyayapalika Main Sudhar Ki Gunjayish : न्यायपालिका में न्यायपालिका में सुधार की गुंजाइश

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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न्यायपालिका में सुधार की गुंजाइश

 पी. के. खुराना

शनिवार 23 अप्रैल को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में न्यायपालिका में खामियों के कारण जानने के लिए एक सेमिनार हुआ। सेमिनार का आयोजन डा. कैलाश नाथ काटजू स्मारक समिति की ओर से किया गया जो हर वर्ष न्यायपालिका से जुड़े मुद्दों पर उच्च स्तरीय सेमिनारों के आयोजन के लिए प्रसिद्ध है। डा. कैलाश नाथ काटजू स्मारक समिति के इस सेमिनार में बड़ी संख्या में जज और न्यायविद बड़े उत्साह से हिस्सा लेते हैं और अपने विचार रखते हैं। इस बार के सेमिनार में केंद्रीय गृहमंत्री श्री पी. चिंदबरम मुख्य अतिथि थे जबकि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा कार्यक्रम के अध्यक्ष थे। सेमिनार के अन्य वक्ताओं में दि हिंदु के मुख्य संपादक श्री एन. राम, प्रमुख न्यायविद् श्री केके वेणुगोपाल, सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस मार्क न्डेय काटजृ तथा फिल्म निर्देशक महेश भट्ट जैसी विभूतियां शामिल थीं।

डा. कैलाश नाथ काटजू स्मारक समिति के महासचिव डा. हरीश भल्ला मेरे अनन्य मित्र हैं और हमारी कंपनी पिछले कुछ वर्षों से इस कार्यक्रम के जनसंपर्क का कार्यभार संभालती है, इसलिए मुझे भी इस कार्यक्रम में शामिल होने का सौभाग्य मिला और मैं विद्वान वक्ताओं के विचार जान सका।

इस कार्यक्रम में जो तीन भिन्न दृष्टिकोण उभर कर आये उनके प्रतिनिधि तीन व्यक्ति थे। पहले दृष्टिकोण के प्रतिनिधि वक्ता, विधि विशेषज्ञ श्री केके वेणुगोपाल थे, जिनका मत था कि सुप्रीम कोर्ट को अपील का कोर्ट बने रहने के बजाए संविधान की व्याख्या का काम करना चाहिए ताकि यह अन्य न्यायालयों के लिए प्रकाश स्तंभ का काम करे। दूसरे दृष्टिकोण के प्रवक्ता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जस्टिस कुलदीप सिंह बने जो इस कार्यक्रम के प्रमुख वक्ता भी थे। जस्टिस कुलदीप सिंह का मत था कि भारतीय समाज में भ्रष्टाचार चरम पर है और समाज के किसी एक वर्ग का इससे पूरी तरह से अछूता रह पाना संभव नहीं है। फिर भी न्यायपालिका उतनी भ्रष्ट नहीं है, जितना शोर मचाया जा रहा है। तीसरे दृष्टिकोण के प्रतिनिधि गृहमंत्री श्री पी. चिंदबरम थे जिन्होंने कहा कि हर समस्या का कानूनी हल संभव नहीं है और न्यायालयों को अपने सीमाक्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। उनका मत था कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर के लोग भीषण महत्वाकांक्षा के शिकार हैं।

श्री वेणुगोपाल ने कहा कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के बीच एक और स्तर होना चाहिए जो अपील न्यायालय का काम करें और उच्च न्यायालय के बाद वादियों को वहां जाने की स्वतंत्रता हो, पर सर्वोच्च न्यायालय को अपील का न्यायालय बना देना गलत है। इसे तो संविधान की व्याख्या करने वाली पीठ का काम करना चाहिए। श्री वेणुगोपाल ने सुझाव दिया कि देश में चार अपील न्यायालय बनाए जाने चाहिएं जो सर्वोच्च न्यायालय का अनावश्यक भार अपने ऊपर ले लें। उन्होंने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में दो जजों की खंडपीठ के बजाए ज्यादा जजों की खंडपीठ का नियम होना चाहिए ताकि विभिन्न न्यायिक फैसलों में असंगति को रोका जा सके।

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह ने कहा कि न्यायपालिका में जबावदेही और पारदर्शिता की प्रणाली लागू की जानी चाहिए ताकि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सके। भारतीय समाज काले धन, भ्रष्टाचार, अपराध, घोटाले आदि बड़े स्तर के भ्रष्ट आचरण की चुनौतियों से जूझ रहा है। निश्चय ही न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मामले सामने आये हैं, पर वे शेष समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुकाबले बहुत छोटे हैं। उन्होंने आगे कहा कि भारतीय शासन प्रणाली के तीन अंगों, विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में से विधानपालिका और कार्यपालिका बहुत बार अपनी जि़म्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं पर न्यायपालिका ने कभी कोताही नहीं की, बल्कि इसने कई बार आम लोगों की और आम जनता की परेशानियों को हल करने में मदद की है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के सामने आ रहे ताज़ा मामलों को मामूली संक्रमण माना जा सकता है, लेकिन यह खतरे का संकेत है। ऐसे में यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक हो गया है कि इस पर तुरंत रोक का प्रबंध किया जाए।

गृहमंत्री श्री पी. चिंदबरम ने कार्यपालिका और विधायिका की प्रतिनिधि आवाज के रूप में न्यायिक सक्रियता के लिए न्यायालयों की प्रशंसा की लेकिन साथ ही चेतावनी भी दे डाली कि हर समस्या का कानूनी समाधान संभव नहीं है, कुछ काम कार्यपालिका और विधायिका को ही करने होते हैं, चाहे उसमें कुछ गलतियां भी हों। न्यायालयों को अपने कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण करने और 'अति महत्वाकांक्षी’ होने से बचना चाहिए।

दि हिंदू के मुख्य संपादक श्री एन. राम ने जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में अपनी शिकायत दर्ज कराई कि न्यायालय की मानहानि का मुद्दा ऐसा है जहां न्यायाधीश बहुत संवेदनशील हो जाते हैं और अक्सर तर्क पर भावनाएं हावी होती दिखाई देती हैं।

न्यायपालिका में और भी बहुत सी खामियां हैं, जिनमें सुधार की गुंजाइश है। न्यायालयों में हर स्तर पर बहुत से पद खाली पड़े हैं, बढ़ती आबादी के साथ-साथ कानूनी झगड़े बढ़ते जा रहे हैं और न्यायालयों पर बोझ भी बढ़ता जा रहा है, लेकिन न्यायालय भी खामियों से मुक्त नहीं हैं। मामले की सुनवाई में वादियों की पीढिय़ां खप जाती हैं और मुकद्दमा चलता रहता है। वकील और न्याय प्रणाली अत्यधिक महंगे हो गए हैं। न्यायालयों में बच्चों के स्कूलों की तरह छुट्टियां होती हैं, और न्यायालयों में ज्यादा पारदर्शिता की दरकार है। शीघ्र न्याय, सस्ता न्याय और पारदर्शी न्यायिक प्रणाली किसी भी समाज के स्थायित्व के लिए अत्यंत आवश्यक हैं क्योंकि यदि न्यायपालिका से ही समाज का विश्वास उठ जाए तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

यदि हम चाहते हैं कि नागरिकों को शीघ्र और सस्ता न्याय मिले तो सरकार और न्यायपालिका, दोनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि न्याय प्रणाली की वर्तमान खामियों को दूर किया जाए, खाली पड़े पदों को भरा जाए, न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने के व्यावहारिक उपाय सोचे जाएं, आवश्यक होने पर उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के बीच एक और स्तर बनाया जाए तथा कार्यपालिका और विधायिका अपने काम में चुस्त हों ताकि न्यायपालिका से न्यायिक सक्रियता की उनकी शिकायत दूर हो सके और जन सामान्य को भी समय पर न्याय मिल सके। 


“What ails the Indian Judiciary”, Judicial Activism, Corruption, Judicial Corruption, PK Khurana, P. Chidambaram, KK Venugopal, Justice Kuldeep Singh, N. Ram, The Hindu, Dr. K. N. Katju Memorial Committee, Dr. Harish Bhalla, Mahesh Bhatt.

Sunday, April 17, 2011

Arthvyavastha Aur Kala Dhan : अर्थव्यवस्था और काला धन






Arthvyavastha Aur Kala Dhan : अर्थव्यवस्था और काला धन


By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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अर्थव्यवस्था और काला धन
 पी. के. खुराना


सब जानते हैं कि भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था के लिए काला धन बहुत बड़ी चुनौती है। वस्तुत: काले धन की एक समानांतर अर्थव्यवस्था है जिसके बारे में लंबे समय से चर्चाएं हो रही हैं लेकिन कोई समाधान नहीं मिल रहा है। हमारे देश में योग्य विचारकों और अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है और बहुत से विद्वानों ने इस समस्या के हल के लिए कई समाधान सुझाए हैं, तो भी मुझे लगता है कि खुद समस्या पर ही नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।

कुछ दशक पूर्व तक चंबल, डाकुओं का घर था। सरकार और जनता दोनों ही डाकुओं से परेशान थे। ऐसे में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सरकार और डाकुओं से बात करके डाकुओं को आम माफी दिलवाई और उनके पुनर्वास की योजनाएं बनवाईं तथा डाकुओं के एक बहुत बड़े समूह से आत्मसमर्पण करवाया। इस घटना का उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि जब समस्या हद से ज्यादा बढ़ जाए तो उसे सुलझाने के लिए सामान्य नियम और कानून काम नहीं करते बल्कि कुछ नये और क्रांतिकारी उपाय ढूँढऩे आवश्यक हो जाते हैं। काले धन की समस्या की भी आज वही हालत है जब सामान्य कानूनों की मदद से इस समस्या का हल संभव नहीं लगता और हमें कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है।

समस्या का हल ढूंढऩे से पहले हमें समस्या की जड़ तक पहुंचना होगा। सब जानते हैं कि भारत का संविधान वकीलों का स्वर्ग माना जाता है क्योंकि इसकी भाषा इतनी क्लिष्ट और कानून इतने लंबे, अस्पष्ट और विरोधाभासी हैं कि उन्हें भिन्न-भिन्न ढंग से परिभाषित किया जा सकता है। उससे भी बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश कानून व्यावहारिक नहीं हैं। सच तो यह है कि बहुत से नियम और कानून ही अपराध, चोरी, काला बाजारी और भ्रष्टाचार का कारण बन रहे हैं। इसे समझाने के लिए कुछ ही उदाहरण काफी हैं।

यदि आप चुनाव लडऩा चाहते हैं तो आपको एक निश्चित सीमा में खर्च करने की अनुमति है, अन्यथा वह भ्रष्टाचार है। आप मतदाताओं को उनके घर से मतदान केंद्र तक लाने का प्रबंध नहीं कर सकते, उन्हें कोई सुविधा देना भ्रष्टाचार का दर्जा रखता है। चुनाव लडऩे के लिए धन की निश्चित सीमा इतनी नाकाफी है कि उस सीमा में चुनाव लड़ पाना व्यावहारिक रूप से संभव ही नहीं है। हमारे जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार का सहारा लिये बिना चुनाव जीत ही नहीं सकते।

उस दौरान राज्य सरकार भी विकास की नई योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती। हर राज्य में पंचायत के चुनाव, नगरपालिकाओं और नगर निगम के चुनाव, विधान सभा के चुनाव और लोकसभा के चुनाव होते हैं जो अक्सर अलग-अलग समय पर होते हैं और उस समय चुनाव संहिता लागू हो जाने के कारण विकास की योजनाओं पर विराम लग जाता है। यानी, चुनाव के समय राज्य का विकास भी भ्रष्टाचार है।

कोई भी नया उद्योग लगाने से पहले आपको कई विभागों से कई तरह की अनुमतियां लेनी पड़ी हैं। अनुमतियां प्राप्त करने की यह प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल है और छोटी-छोटी बातों को लेकर अधिकारी तमाम आवश्यक और अनावश्यक आपत्तियां खड़ी कर देते हैं। मेरे एक मित्र को हरियाणा के शहर करनाल में पांच सितारा होटल के निर्माण के लिए 42 विभिन्न अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने पड़े जिनमें से एक एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया की अनुमति भी शामिल है जबकि करनाल में कोई हवाई अड्डा नहीं है और सबसे नजदीकी हवाई अड्डा या दिल्ली है या चंडीगढ़, जो उनके होटल से एक सौ किलोमीटर से भी ज्यादा दूर है।

संपत्ति की खरीद-फरोख्त में काले धन की बड़ी भूमिका है। टैक्स की अदायगी में प्रचलित नियमों के कारण काले धन का साम्राज्य बढ़ता चला जा रहा है। जब व्यापार आरंभ करने या चलाते रहने के लिए, बैंक से कर्ज लेने के लिए, राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए, चुनाव लडऩे के लिए, स्कूल-कालेज खोलने के लिए, टैक्स चुकाने के लिए लंबे, अस्पष्ट और अव्यावहारिक कानूनों से पाला पड़ता है तो ज्यादातर लोग जिस मित्र, शुभचिंतक या विशेषज्ञ की राय लेते हैं, वह उन्हें भ्रष्टाचार की राह अपनाने के लिए राज़ी कर लेता है। विवश व्यक्ति एक बार भ्रष्टाचार की राह पर निकला तो फिर उसे भ्रष्टाचार बुरा नहीं लगता।

एक ही विषय पर बना कानून भी इतना लंबा, अस्पष्ट और बिखरा हुआ हो सकता है कि खुद वह कानून भ्रष्टाचार और काले धन के जन्म का कारण बन जाता है। सेवा कर, यानी, सर्विस टैक्स की ही बात करें तो एक समय ऐसा भी था जब इस एक अकेले टैक्स पर भी सरकार की ओर से 1300 के लगभग सर्कुलर जारी किये गए थे। आप समझ सकते हैं कि इतने सर्कुलरों में बंटे हुए नियमों को कोई वकील या चार्टर्ड एकाउंटेंट (सीए) भी याद नहीं रख सकता।

कानूनों की संख्या भी इतनी ज्यादा है कि हमारा संविधान कानूनों का जंगल बन गया है। जब राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री थे तो सरकार की ओर से लोकसभा में नया कानून बनाने के लिए एक ऐसा बिल पेश किया गया, जिस पर पहले से ही कानून बना हुआ था। तब के विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने इस ओर ध्यान दिलाया। सरकार की किरकिरी तो हुई पर सबक यह है कि यदि सरकार के विद्वान और साधन संपन्न अधिकारी भी सब कानूनों के बारे में जानकारी नहीं रख सकते तो बेचारे आम आदमी की बिसात ही क्या है।

इन उदाहरणों का एक ही आशय है कि हम किसी को भ्रष्टाचारी बताने से पहले अपने कानूनों पर नज़र डालें। अक्सर मीडियाकर्मी भी कानून के व्यावहारिक पक्ष को ध्यान में रखे बिना भ्रष्टाचार की कहानियों का भंडाफोड़ करते हैं। सच कहा जाए तो अधिकांश मीडिया घराने भी प्रचलित कानूनों के शत-प्रतिशत पालन का दावा नहीं कर सकते। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि काला धन सफेद होकर देश के विकास में लगे तो हमें नए नज़रिए से सोचने की आवश्यकता है।

इस बात पर बहुत चर्चा हो चुकी है कि देश से बाहर और देश के भीतर काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था मौजूद है और यदि यह सारा धन सफेद हो जाए तो हमारी अधिकांश समस्याओं का हल हो जाएगा, गरीबी दूर हो जाएगी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के रोड़े दूर हो जाएंगे। यह विचार काले धन की अर्थव्यवस्था का एकांगी विश्लेषण है। यदि हम समस्या को समग्रता में नहीं देखेंगे तो समस्या का स्थाई और लाभकारी हल कभी नहीं हो सकेगा। अब हमें समस्या से बचने और शुतुरमुर्गी दृष्टिकोण अपनाने के बजाए समस्या के सही निदान की ओर ध्यान देना होगा। वह निदान है, कानूनों की संख्या में कमी और कानूनों का सरलीकरण।

बाबा अन्ना हजारे के साथ समझौते में यह पहली बार संभव हुआ है कि किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के लोगों का सीधा हस्तक्षेप स्वीकार किया गया है। यदि अन्य कानूनों के निर्माण के समय भी यही या ऐसी कोई अन्य मान्य प्रक्रिया अपनायी जाए और कानूनों के व्यावहारिक पक्ष पर भी ध्यान दिया जाए तो कोई कारण नहीं कि काले धन की समस्या पर काबू न पाया जा सके। वस्तुत: इससे सिर्फ काले धन की ही नहीं, बल्कि बहुत सी दीगर समस्याओं पर भी काबू पाया जा सकता है। 



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Monday, April 11, 2011

Aatankvad Ka Arthshastra : आतंकवाद का अर्थशास्त्र






Aatankvad Ka Arthshastra : आतंकवाद का अर्थशास्त्र

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)


प्रमोद कृष्ण खुराना


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आतंकवाद का अर्थशास्त्र
 पी. के. खुराना

भारतवर्ष के पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य है। असम अपने चाय बागानों, कामाख्या मंदिर के साथ-साथ शेष विश्व में आतंकवाद के लिए भी जाना जाता है। हाल ही में असम में चुनाव संपन्न हुए। चार अप्रैल और ग्यारह अप्रैल को दो चरणों में मतदान हुआ। मतदान का प्रतिशत बहुत अच्छा था, मतदान शांतिपूर्ण रहा और देश भर का मीडिया बता रहा है कि यह लोकतंत्र की जीत है। तेरह मई को चुनाव परिणाम आ जाएंगे और फिर कोई न कोई सरकार, संभवत: कांग्रेस की ही सरकार, असम का प्रशासन संभाल लेगी।

चुनाव की अवधि में मैं लगभग 25 दिन के असम प्रवास पर था और यहां कई वरिष्ठ पत्रकारों से मिलने का अवसर मिला। असम आने से पहले मैं आतंकवाद के अर्थशास्त्र को नहीं जानता था, पर यहां से प्रकाशित प्रसिद्ध हिंदी समाचारपत्र दैनिक सेंटिनल के संपादक श्री दिनकर कुमार जी से मुलाकात ने मेरी आंखें खोलीं और मेरे सामने आतंकवाद का एक नया पहलू सामने आया, जो मेरी कल्पनाशक्ति से बाहर था।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जिंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन पूरा सच यह है कि भारतीय राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी आतंकवाद की रोकथाम नहीं चाहते हैं, आतंकवाद जारी रहने में उनका बहुत बड़ा स्वार्थ निहित है, और वह स्वार्थ है अरबों-खरबों की धनराशि जो यह सब लोग आपस में मिल बांट कर खाते हैं।

आतंक आज भी असम की एक सच्चाई है और आतंकवादियों की ओर से असम बंद का फरमान जारी हो तो पूरा बाजार बंद रहता है। उसमें कोई एक्सेप्शन नहीं है। दूकानदार कांग्रेसी हो, भाजपाई हो या किसी और दल का समर्थक हो, दूकान बंद रखता है। यहां तक कि मंत्रियों और विधायकों के व्यापारिक संस्थान भी बंद रहते हैं।

असम में बहुत गरीबी है, दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धन का भी रोल है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

ब्रह्मपुत्र यहां की सबसे बड़ी नदी है। असम में ब्रह्मपुत्र की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि इसे नदी नहीं नद (यानी, बड़ी नदी) माना जाता है और पुल्लिंग (यानी, पुरुष वाचक) संबोधन दिया जाता है। ब्रह्मपुत्र के आसपास का बहुत का क्षेत्र हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है और बाढ़ खत्म होने पर खाली हुई जमीन स्थाई निवास के काम नहीं आती, लेकिन बांग्लादेश से आये लोगों को आतंकवाद से जुड़े लोग ब्रह्मपुत्र के आसपास बसा देते हैं और उनसे अफीम की खेती करवाते हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अफीम की बहुत कीमत है जो आतंकवादियों के लिए आय और हथियार पाने का बहुत बड़ा ज़रिया है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं।

आतंकवाद से जुड़ा एक और पहलू भी है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि असम में राजनीति से जुड़े लोगों में से बहुत से ऐसे हैं जिनकी संपत्ति में पिछले पांच वर्षों में ही 2000 गुणा वृद्धि हुई है। भ्रष्टाचार के अलावा दुनिया का कोई ऐसा व्यवसाय नहीं है जो पांच वर्षों में आपकी संपत्ति में 2000 गुणा बढ़ा सके। एक और बड़ा और महत्वपूर्ण सच यह है कि आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है। हाल ही में एक भयावह मामला सामने आया कि केंद्र से सहायता के रूप में मिली धनराशि पात्र लोगों में बांटने के बजाए मंत्रियों व अधिकारियों ने दबा ली। एक स्वयंसेवी संगठन ने जब इसका पर्दाफाश किया तो पता चला कि एक मंत्री ने वह पैसा छुपाने के लिए अपने घर में दोहरी पर्तों वाली दीवारें बनवा कर उनमें छुपा रखा था। दर्जनों अधिकारी बर्खास्त हुए और एक ने तो आत्महत्या तक कर ली। लेकिन उसके बाद आगे कुछ नहीं हुआ। आतंकवाद के जारी रहने का यह सबसे बड़ा कारण है। आतंकवाद के अर्थशास्त्र का यह सबसे घिनौना पहलू है।

अन्ना हज़ारे के आंदोलन से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम शुरू हुई है। सारे शोर-शराबे के बावजूद अभी यह मुहिम शैशवावस्था में है और अभी एक लंबी लड़ाई बाकी है। उससे भी ज्य़ादा जरूरी है भ्रष्टाचार के विभिन्न स्वरूपों को पहचानना और फिर उसके निदान के लिए आवश्यक और प्रभावी उपाय करना। भ्रष्टाचार के कारण कुछ लोग आवश्यकता से अधिक अमीर हो रहे हैं जबकि एक बहुत बड़ी जनसंख्या दो जून की रोज़ी-रोटी की मोहताजी से उबर पाने के लिए छटपटा रही है। गरीब और दबे-कुचले लोग आतंकवाद की शरण में जाने को विवश हो रहे हैं। इस तथ्य से अनजान आम आदमी एक तरफ सरकारी भ्रष्टाचार की मार सह रहा है तो दूसरी ओर आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो रहा है। आतंकवाद से परेशानी सिर्फ आम जनता को है, और आतंकवाद के जारी रहने का एक बड़ा कारण हमारे जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार है। इस सच्चाई को समझे बिना आतंकवाद से नहीं निपटा जा सकता।

यदि हम आतंकवाद से निपटना चाहते हैं तो हमें भ्रष्टाचार से भी साथ ही निपटना होगा। अन्ना हजारे के माध्यम से इस लड़ाई की शुरुआत तो हो चुकी है, पर लड़ाई को जारी रखना होगा। हमें याद रखना चाहिए कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से भ्रष्टाचार रूपी रावण को मारा जा सकता है। जनता के हर वर्ग को इसे समझने, दूसरों को समझाने और सबको साथ लेकर इस प्रयास को मजबूती देने का काम करना होगा तभी हम भ्रष्टाचार से लड़ पायेंगे और एक स्वस्थ, समृद्ध और विकसित समाज का निर्माण कर पायेंगे अन्यथा यह दीपक भी बुझ जाएगा और हम अंधेरे को कोसते ही रह जाएंगे।यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। 


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Saturday, April 2, 2011

Jansankhya Ki Samasya, Samasyaon Ki Jansankhya : जनसंख्या की समस्या, समस्याओं की जनसंख्या




Jansankhya Ki Samasya, Samasyaon Ki Jansankhya

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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जनसंख्या की समस्या, समस्याओं की जनसंख्या
 पी. के. खुराना

भारतवर्ष की आबादी के प्रारंभिक आंकड़े आ चुके हैं। अगर आबादी के आकार की बात करें तो हमारा देश अमरीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, पाकिस्तान, बांग्लादेश और जापान की सम्मिलित आबादी के बराबर है और अगर वर्तमान आंकड़ों पर विश्वास करें तो पिछले 10 वर्षों में हमारे देश की जनसंख्या में एक पूरे देश ब्राज़ील की जनसंख्या और जुड़ गई है। जनसंख्या के आगे के बारीक विश्लेषण में जाए बिना आइये, मतलब की बात पर आयें।

जनसंख्या बढऩे का मतलब है कि हमें ज्यादा लोगों के शिक्षा के साधन, रोज़गार, खाना और रहने के लिए मकान चाहिएं। हमारी जनसंख्या में बहुत से लोग गरीब, साधनहीन, पिछड़े और अति पिछड़ों में शामिल हैं, स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, शिक्षा की कमी है, साधनों की कमी है और विवश होकर लोगों को आरक्षण की मांग करनी पड़ रही है। हमारा देश अभी जाटों के आरक्षण को लेकर पसोपेश में था, जाटों ने लंबा आंदोलन करके रेलें रोके रखीं और अदालती आदेश के बाद सरकार को अंतत: आंशिक रूप से ही सही, पर उनके सामने झुकना पड़ा। अगड़ों, पिछड़ों में भेदभाव करने से ही विभाजनकारी नीति का आरंभ होता है। सच तो यह है कि एक बार विभाजनकारी नीति आरंभ हो जाए तो उसका कोई अंत नहीं होता। यह एक ऐसा इकतरफा रास्ता है जिसमें कोई यू-टर्न नहीं है। हमारे देश में यही सब हो रहा है।

यह एक अलग बहस का विषय है कि कौन गरीब है, या पिछड़ा है और किसे आरक्षण की आवश्यकता है, पर हमारा देश दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश है जहां लोग काबलियत के बजाए पिछड़े होने को उन्नति का साधन बनाने के लिए आंदोलन करते हैं!

पूरी तस्वीर की बात करें तो विकास धीमा पड़ गया है। दुनिया भर में भारत में आरक्षण का प्रतिशत सबसे ज्यादा है और यही एकमात्र ऐसा देश बन गया है जहां प्रतिभा गौण हो गई है। हम आविष्कार का देश होने के बजाए 'जुगाड़' का देश बन गए हैं। हम विकासशील देश तो हैं ही, विकासशील देश की मानसिकता के भी शिकार हैं, अर्थात् हम विकसित देश बनने के लिए मानसिक रूप से ही तैयार नहीं हैं। प्रसिद्ध अध्यापक और विद्वान लेखक श्री सी.के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायण मूर्ति से कहा था कि कहा था कि विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है। श्री नारायण मूर्ति उनसे सहमत हुए बिना नहीं रह सके थे। मैं समझता हूं कि देश का हर समझदार नागरिक इस तथ्य से सहमत होगा ही।

श्री नारायण मूर्ति ने अपनी पुस्तक 'बेहतर भारत, बेहतर दुनिया' में उपरोक्त घटना का जिक्र करते हुए आगे लिखा है कि जब वे सत्तर के दशक के शुरू में फ्रांस गए तो उन्हें विकासशील देश और विकसित देश की मानसिकता के अंतर का पता चला। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाओं पर चर्चा करना और फटाफट इस दिशा में कार्य करना उनका ही काम हो। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, बहस करते चलते हैं और सिर्फ बहस ही करते रह जाते हैं। अगर हमें विकसित देश बनना है तो हमें इस मानसिकता को बदलना होगा जो सभी सार्वजनिक मुद्दों से जुड़ सके और सार्वजनिक क्षेत्र में किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए तेजी से कार्य कर सके। दोनों तरह की मानसिकताओं में मूलभूत अंतर यह है कि विकसित देशों के लोग सार्वजनिक समस्याओं को भी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं की तरह गंभीरता से लेते हैं और उन्हें दूर करने के लिए तुरंत कार्यवाही आरंभ कर देते हैं।

श्री नारायण मूर्ति आगे कहते हैं कि हमारी लंबी गुलामी का एक बड़ा अभिशाप है हमारी उदासीनता की आदत, वह भी तब जब हल एकदम हमारे सामने हो। हमें हज़रत मुहम्मद के शब्दों को याद रखना होगा जिन्होंने कहा था, "खुदा किसी शख्स में तब तक कुछ नहीं बदलता, जब तक कि वे खुद अपने आप को नहीं बदलते।" हम एक ऐसा देश बन गए हैं जो शब्दाडंबर में तो श्रेष्ठ है लेकिन कामों में नाकारा। विकसित राष्ट्र बनने के लिए हमें बातें छोड़कर कामों पर फोकस करना होगा।

सबसे पहले तो हमें उच्च महत्वकांक्षाएं चाहिएं। सौ टके की बात यह है कि महत्वाकांक्षाएं हमें उन बाधाओं को पार करने की ऊर्जा देती हैं जिन्हें हमारा माहौल हमारे ऊपर थोप देता है। राष्ट्र-निर्माण के कार्य में कटुता का कोई स्थान नहीं होता। हमें ऐसा हर विचार और अवधारणाएं छोडऩी होंगी जो उग्र राष्ट्रवाद और संकीर्णता की ओर ले जाते हैं। आपस में जुड़े विश्वग्राम के इस युग में आर्थिक उन्नति चाहने वाले किसी भी राष्ट्र को बाहरी दुनिया से खुद को काटना नहीं चाहिए। स्वदेशी-स्वदेशी का नारा लगाने वाले लोगों को समझना चाहिए कि भारत की हजारों कंपनियां भी अन्य देशों में व्यापार करती हैं, अगर अन्य देशों के लोग भी स्वदेशी की रट लगाने लगें तो भारत से निर्यात बिलकुल ठप हो जाएगा, भारत में चलने वाले केपीओ, बीपीओ और कॉल सेंटर बंद हो जाएंगे। भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियां बननी बंद हो जाएंगी और देश की उन्नति का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो जाएगा।

हमारे देश में बहुत सी समस्याएं हैं, जनसंख्या की समस्या उनमें से बहुतों का मूल है, पर ज़रा और गहराई से विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारी मूल समस्याएं सिर्फ दो हैं। पहली समस्या है, गरीबी और पिछड़ेपन की मानसिकता और दूसरी समस्या है, समस्याओं के हल के लिए कोई काम करने के बजाए समस्याओं की आलोचना करना और सरकार की आलोचना करना।

गरीबी और पिछड़ेपन की मानसिकता को छोड़कर हमें विकसित देशों की आलोचना करने के बजाए उनसे सीखना होगा कि वे विकसित कैसे बने। हमें फ्रांसीसियों से हर सार्वजनिक समस्या को व्यक्तिगत समस्या मानना सीखना होगा, जापान से सीखना होगा कि सुनामी, भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट के बाद भी संयत रहकर कैसे देश के विकास में लगे रहा जा सकता है। खुद हमारे देश में ही गुजरात में भयावह भूकंप आया लेकिन आज गुजरात में जीवन न केवल सामान्य है बल्कि वहां के लोगों ने भूकंप से हुए नुकसान को पीछे छोड़ कर, उस संकट से उबर कर विकास की राह अपनाई है। सारे देश को गुजरात की जनता का अनुकरण करना होगा, तभी हमारी समस्याएं हल होंगी और तभी हम एक विकसित देश बनने का सपना पूरा कर सकेंगे। 


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