Sunday, June 26, 2011

Udyog, Vikas Aur Paryavaran : उद्योग, विकास और पर्यावरण





Udyog, Vikas Aur Paryavaran : उद्योग, विकास और पर्यावरण


By : P. K. Khurana

(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना


उद्योग और पर्यावरण
 पी. के. खुराना


यह एक लंबी बहस है कि उद्योगों से पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है। अभी तक इस पर कोई समग्र और आधिकारिक अध्ययन उपलब्ध नहीं था, क्योंकि इसके लिए आवश्यक कोई दीर्घकालीन आंकड़े ही उपलब्ध नहीं थे। हालांकि अब इस क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई है और कुछ नये और उपयोगी अध्ययन सामने आये हैं। इन अध्ययनों से किसी अंतिम निष्कर्ष पर चाहे न पहुंचा जा सके पर ये एक निश्चित दिशा की ओर इंगित अवश्य करते हैं।

चेन्नई में स्थित इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च का ताज़ा अध्ययन 'एनवायरनमेंटल सस्टेनेबिलिटी इंडेक्स फार इंडियन स्टेट्स’ (भारतीय राज्यों का पर्यावरण स्थिरता सूचकांक) 28 राज्यों की स्थितियों की जांच पड़ताल का नतीजा है। इस अध्ययन में 5 प्रमुख मानक थे। ये हैं, जनसंख्या का दबाव, पर्यावरण पर दबाव, पर्यावरण प्रणालियां, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव तथा पर्यावरण प्रबंधन। इन राज्यों में अध्ययन के समय वायु प्रदूषण, वायु की गुणवत्ता, जल प्रदूषण, कूड़े की उत्पत्ति आदि का भी ध्यान रखा गया।

यह सच है कि आर्थिक प्रगति से किसी राज्य के असली विकास का पूरा चित्रण नहीं हो पाता क्योंकि इसमें पारिस्थितिक और प्राकृतिक संसाधनों पर उसके प्रभाव की चर्चा नहीं होती। राज्य की आर्थिक प्रगति और विकास के विश्लेषण में यदि इन मानकों को भी शामिल कर लिया जाए तो राज्य के वास्तविक विकास को बेहतर समझा जा सकता है। पर्यावरण स्थिरता सूचकांक तय करना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस तरह से राज्य के विकास और पर्यावरण की आवश्यकताओं का विश्लेषण करके प्राथमिकताओं को तय करना आसान हो जाता है। इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च के 'भारतीय राज्यों के पर्यावरण स्थिरता सूचकांकÓ नामक अध्ययन से प्राथमिकताएं तय करने में मदद मिलेगी।

इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने जब भिन्न-भिन्न राज्यों के पर्यावरण स्थिरता सूचकांक का अध्ययन किया तो यह पाया गया कि पर्यावरण स्थिरता सूचकांक के मानकों में मणिपुर सबसे आगे है। मणिपुर के बाद क्रमश: सिक्किम, त्रिपुरा, नागालैंड और मिज़ोरम प्रथम 5 राज्यों में शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ जहां औद्योगीकरण बहुत अधिक है, सातवें स्थान पर है, जबकि पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान सबसे नीचे की पायदानों पर हैं। सतही तौर पर देखने पर ऐसा लगता है कि चंूकि सिक्किम में बड़े उद्योग नहीं हैं, अत: उसका सबसे ऊपर की पायदान पर होना तथा गुजरात जैसे औद्योगिक प्रदेश का सबसे निचली पायदानों में से एक पर होना स्वाभाविक है, पर यदि जरा बारीक विश्लेषण करें तो एक अलग ही तस्वीर उभरती है।

पर्यावरण पर दबाव के मानकों में प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, प्रदूषण, कूड़ा बनना आदि कारक शामिल हैं। इनको ध्यान में रखते हुए यह तय किया जाता है कि किसी राज्य में पर्यावरण की हानि का पैमाना कैसा है। इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने 0-100 के पैमाने पर सभी राज्यों के पर्यावरण दृश्य को परखा, इसमें 100 के निकटतम रहने वाले राज्यों में पर्यावरण का सबसे कम नुकसान हुआ है जबकि 0 के निकट आने वाले राज्यों में पर्यावरण का नुकसान सर्वाधिक है। विश्लेषण में मणिपुर को 98, हिमाचल प्रदेश को 82, छत्तीसगढ़ को 77, महाराष्ट्र को 51, गुजरात को 30 और गोवा को 27 अंक मिले हैं।

उपरोक्त अंक तालिका से स्पष्ट है कि गोआ को गुजरात से भी कम अंक मिले जबकि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ को गोवा के मुकाबले में बहुत अधिक अंक मिले। सब जानते हैं कि गोवा की प्रसिद्धि उद्योगों के कारण नहीं है, और महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ जहां औद्योगीकरण बहुत अधिक है, वहां वातावरण का नुकसान गोवा जैसा नहीं है। इस तालिका से यह सिद्ध होता है कि यह आवश्यक नहीं है कि किसी राज्य में पर्यावरण का नुकसान उद्योगों के ही कारण होगा, यानी यह भी आवश्यक नहीं है कि उद्योग पर्यावरण के लिए नुकसानदेह होंगे ही।

इसी प्रकार जब प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण का विश्लेषण किया गया तो यह पाया गया कि गुजरात में यह नुकसान सबसे ज्य़ादा है जबकि महाराष्ट्र में वैसा नहीं है। छत्तीसगढ़ को यहां भी अच्छे नंबर मिले हैं और हिमाचल प्रदेश ने, जहां पिछले कुछ वर्षों में औद्योगीकरण हुआ है, काफी अच्छे नंबर लिये हैं। अत: यह कहना गलत नहीं होगा कि औद्योगीकरण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान सीधे जुड़ा हुआ नहीं है, वरना हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ जहां सीमेंट प्लांट भी हैं, प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण में सबसे आगे होता, जबकि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है।

पहाड़ी राज्य होने के कारण उत्तरांचल व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में अक्सर औद्योगीकरण को लेकर पर्यावरण संतुलन तथा प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण की बहस चलती है। लोगों में, और कई बार मीडिया में भी इस बहस को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है क्योंकि लोगों के पास असल विकास या पर्यावरण के नुकसान को मापने का कोई मान्य, वैज्ञानिक अथवा तर्कसंगत तरीका नहीं होता।

कई लोग भिन्न-भिन्न कारणों से औद्योगीकरण के खिलाफ हैं। उनमें से कई कारण वैध हैं, लेकिन बहुत बार या तो किसी निहित स्वार्थ के कारण अथवा अज्ञान और गरीबी की मानसिकता के कारण भी लोग बड़े उद्योगों का विरोध करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि सरकारी नौकरियों का जमाना खत्म हो गया है, कृषि लाभदायक व्यवसाय नहीं रह गया है और विकास के लिए और रोज़गार के नये अवसर पैदा करने के लिए आपको बड़े उद्योगों का सहारा लेना ही पड़ेगा। देश में गरीबी की समस्या को हल करने का एकमात्र तरीका रोज़गार के नये अवसरों को पैदा करना है। इसके लिए उद्यमों की जरूरत है। कृषि क्षेत्र में पहले से ही बहुत कम पगार पर बहुत से लोग लगे हुए हैं, इसलिए आपको मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों में रोज़गार पैदा करना होगा। अत: हमें यह सोचना होगा कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना औद्योगीकरण कैसे हो सकता है ताकि रोज़गार के अवसर बढ़ें और देश में समृद्धि आये।

हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और सत्रहवीं सदी की मानसिकता से हम देश का विकास नहीं कर सकते। नई स्थितियों में नई समस्याएं हैं और उनके समाधान भी पुरातनपंथी नहीं हो सकते। यदि हमें गरीबी, अशिक्षा से पार पाना है और देश का विकास करना है तो हमें इस मानसिक यात्रा में भागीदार होना पड़ेगा जहां हम नये विचारों को आत्मसात कर सकें और ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें। 


Media, Reporting, Industries and Environment, Industrialisation and Environment, “Alternative Journalism”, “Alternative Journalism in India”, “Pioneering Alternative Journalism”, “Alternative Journalism and PK Khurana”, Rating of Environment, Environmental Sustainability Index, Institute of Financial Management and Research, Pioneering Alternative Journalism in India : Industrialisation and Environment

Soochna, Samachar Aur Media : सूचना, समाचार और मीडिया






Soochna, Samachar Aur Media : सूचना, समाचार और मीडिया


By : P. K. Khurana

(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना


सूचना, समाचार और मीडिया
 पी. के. खुराना


मीडिया की ताकत बहुत बड़ी है और दुनिया का हर सूरमा मीडिया से डर कर रहता है। मीडिया के विरोध में खड़े होकर बहुत कम लोग सुखी रह पाए हैं। यही कारण है कि कई बार लोगों को मीडिया की ज्य़ादतियों का शिकार होकर भी चुप रहना पड़ता है। ऐसे लोगों की एक ही प्रतिक्रिया होती है -- 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?' या 'पानी में रहकर मगर से बैर कौन करे?'

मैं कुछ उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मुकद्दमे के फैसले के समय टिप्पणी की कि विधि-समाचारों की कवरेज के लिए, यानी लीगल रिपोर्टिंग के लिए कानून का सामान्य ज्ञान रखने वाले रिपोर्टर होने चाहिएं। यह एक बहुत गहरी बात है। अक्सर आपका पाला ऐसे संवाददाताओं से भी पड़ता है जो अपनी 'बीट’ की आवश्यकताओं से अनजान होते हैं, जिन्हें अपने विषय की बारीकियों की जानकारी नहीं होती और ज्ञान, अनुभव अथवा परिपक्वता की कमी की वजह से वे गलत समाचार फाइल कर डालते हैं। उदाहरणार्थ, चिकित्सा संबंधी समाचारों में तकनीकी शब्दों का प्रयोग सामान्य बात है, पर यदि कोई आर्ट्स गे्रजुएट मेडिकल बीट पर काम करे तो वह अर्थ का अनर्थ भी कर सकता है। दुर्भाग्यवश, पत्रकारिता में ऐसा अक्सर होता है।

पत्रकारिता के अपने नियम हैं, और अपनी सीमाएं भी हैं। आदमी कुत्ते को काट ले तो खबर बन जाती है। कोई दुर्घटना, कोई घोटाला, चोरी-डकैती-लूटपाट खबर है, महामारी खबर है, नेताजी का बयान खबर है, राखी सावंत खबर है, बिग बॉस खबर है, और भी बहुत कुछ खबर की सीमा में आता है। कोई किसी के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दे, तो वह खबर है, चाहे अभी जांच शुरू भी न हुई हो, चाहे आरोपी ने कुछ भी गलत न किया हो, तो भी सिर्फ शिकायत दर्ज हो जाना ही खबर है, और कई बार यह बड़ी खबर बन जाती है। आरोपी अपनी सफाई दे, उससे पहले ही वह खबर आरोपी की प्रतिष्ठा का जनाज़ा निकाल देती है। ये पत्रकारिता की खूबियां हैं, ये पत्रकारिता की सीमाएं हैं। इसे आप विशेषता कहें, सीमा कहें, गुण कहें या अवगुण कहें, पर बहुत से लोग इस तरह की पत्रकारिता के शिकार बन चुके हैं और लगातार बन रहे हैं।

एक और उदाहरण लेते हैं। अगर श्रीलंका के प्रधानमंत्री का बयान आये कि उनका देश अमरीका के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर रहा है और वे अमरीका को सबक सिखाकर छोड़ेंगे, तो किसी पत्रकार की प्रतिक्रिया क्या होगी? शायद वह इस बयान पर हंसेगा और उसे कूड़े के डिब्बे में डाल देगा। लेकिन बिजनेस बीट, मेडिकल बीट तथा एजुकेशन बीट के बहुत से पत्रकार बहुत बार कई छोटी कंपनियों द्वारा बड़ी कंपनियों के बारे में ऐसे ही दावों को बिना सोचे-समझे छाप देते हैं। कई बार तो फाइनेंशल समाचारपत्रों तक में भी ऐसी खबरें देखने को मिल जाती हैं।

हाल ही में मैं मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक ऐसे सम्मेलन में शामिल था जहां कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारपोरेट कम्युनिकेशन्स मैनेजर मौजूद थे। उन सबसे बातचीत के बाद एक डरावना तथ्य सामने आया कि यदि कोई संवाददाता किसी कंपनी पर लगाए गए आरोपों से संबंधित कोई सवाल पूछे तो वे उस संवाददाता के सवालों का जवाब देना सबसे ज्यादा खतरनाक काम मानते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़ी कंपनियों के कामकाज को लेकर अक्सर कई व्यक्ति या समूह, सवाल उठाते रहते हैं। ऐसे सवाल उठाने वाले लोगों में कई बार कुछ राजनीतिज्ञ, किसी विशिष्ट फंड से चल रहे एनजीओ और निहित स्वार्थी भी शामिल होते हैं जिनके आरोप अतर्कसंगत और बेबुनियाद होते हैं। ऐसे समय में संवाददाता अक्सर कंपनी की आधिकारिक प्रतिक्रिया चाहते हैं। शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि 90 प्रतिशत कारपोरेट कम्युनिकेशन्स मैनेजर ऐसे में कोई भी प्रतिक्रिया देने से बचते हैं और अपने प्रबंधन को भी कुछ भी जवाब न देने की सलाह देते हैं क्योंकि उनका सामान्य अनुभव यह बताता है कि संबंधित संवाददाता को आरोपों के जवाब में नुक्ता-दर-नुक्ता सफाई देने पर भी छ: कॉलम में जो समाचार छपता है उसमें पूरी खबर में आरोपों का जिक्र तो विस्तार से होता है जबकि प्रतिक्रिया के नाम पर सारी खबर के अंत में सिर्फ एक पंक्ति में लिखा जाता है कि कंपनी ने सभी आरोपों से इन्कार किया। यूं लगता है मानो खबर तो पहले से लिखी जा चुकी थी सिर्फ दिखावे के लिए कंपनी से प्रतिक्रिया मांग ली गई और समाचार के अंत में एक पंक्ति में आरोपों से इन्कार का जिक्र करके 'निष्पक्ष’ समाचार लिखने की जिम्मेदारी पूरी कर ली गई।

विवादित आरुषि हत्याकांड के मामले में मीडियाकर्मियों ने साफ-साफ माना कि मीडिया ने पूरे घटनाक्रम को अति नाटकीय रूप देकर अपने दायरे से बाहर जाकर तालवाड़ परिवार की छीछालेदारी की। उससे भी ज्य़ादा दुखदायी बात यह है कि मीडिया ने अपनी गलती स्वीकार करने के बावजूद भी गलती से कोई सबक नहीं सीखा, या उसे सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया, कोई सर्वमान्य आचार-संहिता नहीं बनाई। बाद में जब तालवाड़ परिवार ने जांच बंद होने का विरोध किया और आरुषि के पिता पर फिर से हत्यारा होने का संदेह जताया गया तो एक बार फिर मीडिया ने संयत आचरण को दरकिनार करते हुए खबर को नाटकीय स्वरूप दे दिया। मीडिया जांच एजेंसी नहीं है, और उसे किसी जांच एजेंसी के मत को प्रकाशित-प्रसारित करने का अधिकार है तो मीडिया को यह अधिकार किसने दिया है कि जांच पूरी हुए बिना या आरोप सिद्ध हुए बिना ही वह किसी की इज्ज़त उतार दे?

यह सही है कि मीडिया के व्यावसायिक हित भी हैं और चैनल की टीआरपी अथवा समाचारपत्र का प्रसार बढ़ाने के लिए सजग रहना आवश्यक है। सवाल यह है कि क्या मीडिया को अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरों की प्रतिष्ठा से खेलने का क्या हक है? मीडियाकर्मियों द्वारा विज्ञापन लेने के लिए हर तरह उचित-अनुचित हथकंडे अपनाना भी अब सामान्य बात हो गई है। स्थिति पेड न्यूज़ से ज्य़ादा खराब है और मीडिया की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। मीडिया और माफिया में फर्क रहना जरूरी है, और यह फर्क साफ नज़र आना चाहिए। यह संतोष की बात है कि अभी तक सामान्यजन में मीडिया की विश्वसनीयता बरकरार है। समाचारपत्र विश्वसनीय सूचना-स्रोत हैं, इनकी विश्वसनीयता अखंड रहना परम आवश्यक है। यह मीडियाकर्मियों का धर्म है कि वे आत्ममंथन करें और अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखने के लिए हर संभव प्रयत्न करें। इसी में उनका व शेष समाज का भला है। 


Media, Reporting, Limitations of Traditional Media, Characteristics of Media Reporting, Unbiased Reporting, “Alternative Journalism”, “Alternative Journalism in India”, “Pioneering Alternative Journalism”, “Alternative Journalism and PK Khurana”, Credibility of Media, Media Credibility, Question of Credible Reporting, Reporting in a Credible way, Pioneering Alternative Journalism in India : Information, News and Media

Wednesday, June 15, 2011

Janata, Janpratinidhi Aur Janlokpal Bill : जनता, जनप्रतिनिधि और जनलोकपाल बिल





Janata, Janpratinidhi Aur Janlokpal Bill : जनता, जनप्रतिनिधि और जनलोकपाल बिल

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India


Write to me at :
pkk@lifekingsize.com


जनता, जनप्रतिनिधि और जनलोकपाल बिल
 पी. के. खुराना


कांग्रेस प्रवक्ता श्री मनीष तिवारी ने गांधीवादी समाजसेवी श्री अन्ना हज़ारे को अनिर्वाचित तानाशाह कहा है। मनीष तिवारी की इस प्रतिक्रिया से यूपीए सरकार और श्रीमती सोनिया गांधी भी सहमत नज़र आते हैं। मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी की इस प्रतिक्रिया के विश्लेषण के लिए इस प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

गांधीवादी समाजसेवी श्री अन्ना हजारे जब जंतर-मंतर पर बैठे थे तो श्री दिग्विजय सिंह और केंद्रीय मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कई तरह के सवाल खड़े किये थे। सरकार ने भी उनके आंदोलन को तमाशा समझा। पर जब बुजुर्ग अन्ना हजारे के समर्थन में सारा देश आ गया और मीडिया ने भी जम कर इस खबर को उछाला तो कांग्रेस और यूपीए सरकार को अपना दृष्टिकोण बदल कर समझौते के लिए तैयार होना पड़ा। श्री अन्ना हज़ारे को मिला समर्थन इतना अधिक और अप्रत्याशित था जिसका किसी को भी, खुद अन्ना जी को भी अनुमान नहीं था। शुरू में तो बाबा रामदेव तथा श्री श्री रविशंकर आदि ने भी सिर्फ संदेश भेजकर कन्नी काट ली थी। श्री अन्ना हज़ारे को मिले अपार समर्थन के बाद बाबा रामदेव इस आंदोलन से इसलिए जुड़े ताकि खुद उनका आंदोलन हाइजैक न हो जाए और सारा श्रेय अन्ना जी ही न ले जाएं।

श्री अन्ना हज़ारे के साथ शुरू से ही जुडऩे वालों में प्रमुख थे आरटीआई एक्टिविस्ट श्री अरविंद केजरीवाल, पूर्व पुलिस अधिकारी श्रीमती किरण बेदी और सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील श्री शशि भूषण तथा उनके सुपुत्र। इससे श्री अन्ना हज़ारे के आंदोलन को बल मिला और उसमें तार्किकता का समावेश हुआ। इस आंदोलन को जब देश के कोने कोने से जन समर्थन मिलने लगा तो राजनीतिज्ञों के कान खड़े हुए और पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री श्री ओम प्रकाश चौटाला तथा बाद में मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने मंच पर जाने का प्रयास किया लेकिन अन्ना हज़ारे और उनके समर्थकों ने इसे गैर-राजनीतिक बनाए रखा और उपरोक्त राजनीतिज्ञों को लगभग तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया। परिणामस्वरूप जनसामान्य में इस आंदोलन की प्रतिष्ठा और बढ़ी और यह नीतिविहीन विपक्ष का विरोध भर बनने से बच गया।

अंतत: मीडिया और जनता के मिले-जुले समर्थन ने सरकार को समझौता करने पर मजबूर कर दिया और सरकार ने जनलोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वाली समिति में सामाजिक प्रतिनिधियों के शामिल होने की शर्त मान ली।

कहा जाता है कि जब दो देशों के प्रधानमंत्री मिलकर किसी समझौते की घोषणा करते हैं तो वह सिर्फ एक नीतिगत घोषणा होती है। उसके बाद दोनों देशों के वरिष्ठ अधिकारी मिलजुल कर उस नीति के कार्यान्वयन की राह तैयार करते हैं जिसमें कई बारीकियों का ध्यान रखा जाता है और बार-बार उसे जांचना-परखना पड़ता है। श्री अन्ना हज़ारे के साथ सरकार के समझौते की घोषणा भी एक नीतिगत घोषणा थी जिसे अंतिम निर्णय नहीं माना जा सकता था जब तक कि उसके सभी प्रावधानों पर दोनों पक्षों की सहमति न हो जाए।

तभी घटनाक्रम में एक बड़ा मोड़ आया। बाबा रामदेव ने भी अपने आंदोलन की घोषणा कर दी। उनका आंदोलन स्पष्टत: गैर-राजनीतिक नहीं था हालांकि शब्दों के हेरफेर के साथ जनता को यह समझाने की कोशिश की गई कि श्री अन्ना हज़ारे का आंदोलन राजनीति-विरोधी था और बाबा रामदेव का आंदोलन गैर-राजनीतिक है। पर्दे के पीछे से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सामने गोविंदाचार्य उनके नीति निर्धारक नज़र आ रहे थे। योगगुरू बाबा रामदेव के समर्थकों की संख्या बहुत बड़ी है और उनके आंदोलन की शुरुआत से ही पैसे की जैसे बरसात-सी होने लगी। सारा इंतज़ाम पांच सितारा था और बाबा रामदेव ने आंदोलन की शुरुआत की तो श्री अन्ना हजारे ने उसे इसलिए समर्थन दिया क्योंकि दोनों का घोषित उद्देश्य एक ही था।

गलतफहमियों से बचने के लिए श्री अन्ना हज़ारे को बाबा रामदेव का समर्थन तो करना पड़ा, पर बाबा रामदेव ने मांगों की इतनी बड़ी और लगभग अस्पष्ट सूची पेश कर दी कि उसके कारण श्री अन्ना हज़ारे के आंदोलन की उपलब्धि पर भी पानी पडऩे की आशंकाएं स्पष्ट थीं। अब यह स्वयंसिद्ध है कि दोनों आंदोलनों का तरीका भिन्न था, उद्देश्य भिन्न था और शायद परस्पर विरोधी भी था। बाबा रामदेव पर सरकारी कार्यवाही के बाद उनके भाग निकलने से बाबा के आंदोलन की हवा तो निकल गई, उन पर कई तरह के आरोप भी लगे और सरकार को यह कहने का अवसर मिल गया कि गैर-निर्वाचित लोगों की ब्लैकमेलिंग के आगे सरकार नहीं झुकेगी तथा अंतिम निर्णय चुने हुए प्रतिनिधियों का होगा।

सरकार की नीयत तो पहले से ही खराब थी। बाबा के आंदोलन के हश्र के बाद सरकार ने समाजसेवी अन्ना हज़ारे और उनके समर्थकों को भी दरकिनार करने की ठान ली और एक तरफ तो मंत्रियों और कांग्रेस पदाधिकारियों ने बाबा रामदेव पर हमला बोला दूसरी तरफ श्री अन्ना हज़ारे के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया और कांग्रेस प्रवक्ता श्री मनीष तिवारी ने उन्हें अनिर्वाचित तानाशाह की संज्ञा दे डाली। हालांकि वे भूल गए कि देश में आजादी के बाद यह पहला मौका है जब सत्ता संसद के हाथों में नहीं बल्कि सोनिया गांधी के हाथों में स्थित है। यह भी कम बड़ी बात नहीं है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् या नैशनल एडवाइज़री काउंसिल (एनएसी) में उनके सभी साथी निर्वाचित नहीं हैं और न ही वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं। यही कारण है कि बहुत बार हमें 'एनएसी की मंजूरी के लिए सरकार तीन विधेयक भेजेगी’, 'वन अधिकार मसले पर एनएसी ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय की खिंचाई की’ जैसी खबरें भी देखने को मिलती हैं। नौकरशाही से एनएसी के सदस्य बने आईएएस अधिकारी सुपर मंत्रियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। क्या श्री मनीष तिवारी बता सकते हैं कि ये कौन अनिर्वाचित लोग हैं जो जनप्रतिनिधियों को हुक्म देते हैं ? यदि वे ऐसा कर सकते हैं तो किसी कानून का मसौदा तैयार करने में समाज के जिम्मेदार लोगों की भागीदारी पर ऐतराज क्यों ?

परंतु, हमें जनता की भागीदारी की व्यवस्था के दूसरे पहलू को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। मान लीजिए कि कभी कोई स्थिति विस्फोटक रुख अख्तियार कर ले, दंगे हो जाएं और कई जानें चली जाएं तो जवाबदेही किसकी होगी ? चुने हुए जनप्रतिनिधियों की या समाजसेवी लोगों की ? क्या यह आशंका गलत है कि अब कोई अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति भूख हड़ताल की धमकी देकर सरकार को सचमुच ब्लैकमेल ही करने पर नहीं उतर आयेगा ? मान लीजिए यदि श्री अन्ना हज़ारे के समर्थन वाला जन लोकपाल बिल बन गया और उसकी वजह से समस्याएं आईं तो हम जवाबतलबी किससे करेंगे ? अत: जनता की भागीदारी की एक सुनिश्चित सीमा और व्याख्या होनी चाहिए ताकि भविष्य में कभी अराजकता की स्थिति न बने। आज स्थिति दूसरी है। भ्रष्टाचार अंतहीन हो जाने की वजह से देश परेशान है और सरकार भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं लग रही है। यह एक विशिष्ट स्थिति है। इसमें श्री अन्ना हज़ारे की दखलअंदाज़ी का देश भर ने स्वागत किया है। सवाल उन पर भी उठे हैं, लेकिन बाबा रामदेव प्रकरण पर ज्यादा सवाल उठे हैं और उनके काम और बयानों से श्री अन्ना हजारे की उपलब्धियां भी चौपट होती नज़र आ रही हैं। अत: हमें सोच-समझ कर तय करना होगा कि सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का स्वरूप क्या हो ? यदि ऐसा अभी नहीं किया गया तो अंतत: इससे भी अराजकता ही फैलेगी। 

Janlokpal Bill, Corruption, Social Inclusion, Social Activists, “Alternative Journalism”, “Pioneering Alternative Journalism” “Alternative Journalism and PK Khurana”

Saturday, June 4, 2011

Achchhe Nagrik Kaise Banen ? : अच्छे नागरिक कैसे बनें ?






Achchhe Nagrik Kaise Banen ? : अच्छे नागरिक कैसे बनें ?

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


Pioneering Alternative Journalism in India

Write to me at :
pkk@lifekingsize.com



अच्छे नागरिक कैसे बनें ?
 पी. के. खुराना


मुंबई से एक बड़ी उत्साहवर्धक खबर आई है। मई माह के अंतिम रविवार को पर्यावरण दिवस के अवसर पर मुंबई के एक जोड़े ने इस अंदाज में शादी की कि उससे पर्यावरण को कोई क्षति न पहुंचे। डा. विवेक तलवानी और सुश्री मनस्वी जोशी ने पर्यावरण दिवस के अवसर पर ईको-फ्रेंडली शादी करके एक नया इतिहास रचा। इस शादी में न पटाखे छूटे और न रोशनी हुई, न लाउडस्पीकर का शोर मचा, न बारात निकली और न फूलों को काटकर गुलदस्ते बने। हाथ से बने कागज पर शादी के कार्ड छपे और मेहमानों को कार्डबोर्ड के बजाए मिट्टी के बर्तनों में मिठाई दी गई। इस जोड़े ने कार्ड के साथ मेहमानों के लिए बाकायदा नोट लिखा था जिसमें अपने पर्यावरण मित्र होने का विस्तार से उल्लेख था। मेहमानों से स्पष्ट अनुरोध किया गया था कि वे शादी में किसी तरह के गुलदस्ते न लाएं और तोहफे ऐसे हों जो पर्यावरण के अनुकूल हों। इस परिवार ने रिसेप्शन के लिए भी एक ईको फ्रेंडली होटल चुना। उन्होंने मेहमानों से यह भी आग्रह किया कि भोजन बेकार न करें, मन को जितना भाये, उतना ही लें। यह जिम्मेदार नागरिक होने का एक शानदार उदाहरण है।

ऐसे उदाहरण समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाए जाने चाहिएं ताकि अन्य लोग भी इससे प्रेरणा ले सकें। अभी पिछले ही हफ्ते मेरे लेख 'अच्छे इन्सान, अच्छे नागरिक’ में मैंने सामाजिक जिम्मेदारियों का जिक्र किया था। पाठकों को यह लेख इतना पसंद आया कि बहुत से पाठकों ने गूगल पर 'पीकेखुराना’ टाइप करके मेरी ईमेल ढूंढ़ी और मुझे बधाई दी। इसी से स्पष्ट है कि भारतवासी अच्छे इन्सान ही नहीं, अच्छे नागरिक भी बनना चाहते हैं। वे समाज के प्रति जिम्मेदार होना चाहते हैं और इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी लेने के उत्सुक हैं। मैं दोहराना चाहूंगा कि जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए हमें एक ऐसी मूल्य प्रणाली (वैल्यू सिस्टम) विकसित करनी होगी जहां हम सामान्य हित के लिए छोटे-छोटे त्याग कर सकें। इस तरह की सामाजिक मूल्य प्रणाली में हम अपने व्यक्तिगत हित से पहले समुदाय के हित का ध्यान रखते हैं। मैंने पहले भी बताया था कि सामाजिक मूल्य प्रणाली के तीन चरण हैं -- पहला, समाज के प्रति वफादारी; दूसरा, परिवार के प्रति वफादारी और तीसरा, खुद के प्रति वफादारी। अब हमें समाज के प्रति वफादारी को परिवार के प्रति वफादारी से ऊपर रखना होगा। अपनी असफलताओं का विश्लेषण करना होगा, उन्हें सफलता में बदलने के लिए सामूहिक प्रयत्न करना होगा विकसित देशों की अच्छाइयों को खुले मन से स्वीकार करने के साथ उन्हें अपनाना भी होगा। सेमिनार, गोष्ठियों और सभाओं से आगे बढ़कर काम करना होगा, यानी सिर्फ विचारक नहीं बल्कि कर्ता बनकर देश की प्रगति में सार्थक योगदान देना होगा।

यह स्पष्ट है कि अपनी सोच में बदलाव लाए बिना हम विकसित देश नहीं बन सकते। सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखनी होगी। हमें अच्छे इन्सान ही नहीं, बल्कि अच्छे नागरिक भी बनना है, और इसके लिए मानसिक बदलाव की यात्रा अत्यंत आवश्यक है। यदि हम भारतवर्ष को विकसित देश बनाना चाहते हैं तो हम केवल सरकार पर निर्भर नहीं रह सकते। यह पहल हमें खुद करनी होगी। अपने आसपास की समस्याओं पर निगाह रखनी होगी और उनके समाधान के लिए सक्रिय भूमिका निभानी होगी। उदासीन रहकर, या 'हमें क्या लेना?’ कहकर हम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।

हमें बचपन से ही अच्छा इन्सान बनना सिखाया जाता है, लेकिन शायद अच्छा नागरिक बनने की शिक्षा पर ज़ोर नहीं दिया जाता। अच्छा नागरिक बनने के लिए आवश्यक है कि हम जागरूक हों। हम जागरूक इन्सान बनें, जागरूक ग्राहक बनें, जागरूक मतदाता बनें, जागरूक नागरिक बनें। एक मतदाता के रूप में जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर वोट देने के बजाए जनप्रतिनिधियों की कारगुज़ारी को देखें, किसी भी एक पार्टी के साथ बंधने के बजाए उस उम्मीदवार को वोट दें जो जनसेवक बनकर जनता के काम आये, विधानसभा अथवा संसद में सक्रिय रहे और आपके हकों की लड़ाई लड़े। अपने जनप्रतिनिधियों के कामकाज की समीक्षा करते रहना एक आवश्यक कदम है जिसके बल पर हम उनके आचरण को नियंत्रित कर सकते हैं और भ्रष्टाचार पर रोक लगा सकते हैं। एक ग्राहक के रूप में अपना हक पहचानें, बिल पर ही सामान खरीदें, और खरीदे गए सामान में खामी होने पर शिकायत करने से गुरेज़ न करें। एक नागरिक के रूप में अपने उत्तरदायित्व समझें, अपने आसपास के लोगों को जागरूक बनाएं और देश में उपलब्ध असीम अवसरों का लाभ उठाकर स्वयं भी समृद्ध हों और दूसरों की समृद्धि के लिए भी काम करें। सिर्फ सरकार को कोसते रहने से कुछ नहीं होने वाला। हमें आगे बढ़कर सक्रिय समर्थन या सक्रिय विरोध करना होगा। याद रखिए, जागरूक और सक्रिय हुए बिना हम अच्छे नागरिक नहीं बन सकते। जागरूकता और सक्रियता, अच्छे नागरिक बनने के मूलमंत्र हैं।

डा. विवेक तलवानी और सुश्री मनस्वी जोशी ने एक अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। हमें इससे सबक लेना होगा, इसका प्रचार करना होगा, इस पर चर्चा करते रहना होगा ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसके बारे में जानें और इसका अनुकरण कर सकें। इसी में देश और समाज का भला है, इसी में हम सब का भला है। 


Responsive and Responsible Citizens, Better India, Developed India, “Alternative Journalism”, “PK Khurana”, “Alternative Journalism & PK Khurana”, Awakened India, Awakening Campaign, Eco friendly, Environment friendly, Activism.