Thursday, September 29, 2011

Terrorism Tumult : आतंकवाद का जलजला







आतंकवाद का जलजला :: Aatankvaad Ka Jaljalaa

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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आतंकवाद का जलजला
 पी. के. खुराना


दिल्ली उच्च न्यायालय में दूसरे धमाके के बाद आगरा में भी दहशतगर्दों ने अपना खेल खेला और कई जानें गईं। हमेशा की तरह सरकार की तरफ से निरर्थक बयानबाज़ी का दौर चला और टीवी चैनल भी दो दिन के लिए व्यस्त हो गए। यह खेदजनक है कि आम भारतवासी को लगता है कि अब आतंकवाद हमारे जीवन का हिस्सा बनकर रह गया है और पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां और सरकार इसमें कुछ खास नहीं कर सकते। ये सब आपस में ही एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपने काम से छुटकारा पा लेने के आदी हो गये हैं। सरकार के पास न महंगाई का कोई इलाज है और न आतंकवाद का। महंगाई गरीबों की जान लेती है, पर आतंकवाद किसी को नहीं बख्शता, आतंकवादियों तक को नहीं!

आतंकवाद की दो किस्में हैं, घरेलू आतंकवाद और वैश्विक आतंकवाद। बहुत से देश वैश्विक आतंकवाद को अपने राजनीतिक, रणनीतिक, सामरिक या आर्थिक हित साधने के लिए भी प्रयोग करते हैं। आतंकवाद घरेलू हो या वैश्विक, वस्तुत: वह कानून व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। पंजाब के स्व. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सदैव कहते थे कि आतंकवाद की समस्या कानून और व्यवस्था का प्रश्न है और इसे इसी ढंग से हल किया जाना चाहिए। उन्होंने पंजाब की जड़ों तक पैठे आतंकवाद को नेस्तनाबूद कर दिखाने का इतिहास बनाया।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जि़ंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के जारी रहने के और भी कई कारण हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद के जारी रहने में आतंकवाद से जुड़े लोगों का ही नहीं राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों का भी स्वार्थ सधता है क्योंकि आतंकवाद के कारण ये सब मोटी कमाई करते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा प्रदेश है जो आतंकवाद से त्रस्त है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं। आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है।

आतंकवाद से जुड़ा सच ऐसा है कि सहसा विश्वास नहीं होता। आतंकवादी नेताओं को विभिन्न स्रोतों से तगड़ा धन मिलता है। यही नहीं, आतंकवाद की रोकथाम के लिए सरकारों को केंद्र से भी बड़ी सहायता मिलती है। इस सहायता का अधिकांश भाग राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी डकार जाते हैं। यानी आतंकवाद फैलाने वाले और उसकी रोकथाम करने वाले, दोनों ही के लिए आतंकवाद मोटी कमाई का साधन है।

आतंकवादियों को समाज के कई वर्गों की सहानुभूति मिल जाती है। आतंकवादी उनकी भावनाओं का शोषण करते हैं और बड़े आतंकी नेता अपने लिए अकूत धन-संपदा इक_ी कर लेते हैं। कई आतंकवादी संगठनों को धर्म और मजहब के नाम पर बड़ा दान मिलता है। इसके अलावा बहुत से देश भी अपनी आवश्यकतानुसार किसी दुश्मन देश में आतंकवाद फैलाने के षडयंत्र में शामिल रहते हैं। आतंकवाद से जुड़े लगभग सभी संगठन नशे के व्यापार से भी जुड़े हुए हैं और हथियार खरीदने के लिए उन्हें यहीं से पैसा मिलता है।

आतंकवाद से जुडऩे वाले लोगों की बड़ी संख्या निचले वर्ग के लोगों की है। समाज से तरह-तरह के अत्याचार सह चुके ये दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धनलाभ की भी बड़ी भूमिका है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

वैश्विक आतंकवाद अक्सर किसी ऐसे देश से जुड़ जाता है जो अपने विभिन्न हितों की खातिर आतंकवादियों को प्रश्रय देता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे ज्यादातर देशों में मुस्लिम बहुल आबादी है जिसके कारण पूरा मुस्लिम समुदाय ही बदनामी झेल रहा है। सच तो यह है कि मुस्लिम समुदाय को ही आतंक का पर्याय मान लेने से भी समस्या जटिल होती है और सरकारें समस्या के सही समाधान तक नहीं पहुंच पातीं।

मोटी बात यह है कि यदि हम आतंकवाद से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें आतंकवाद को देशद्रोह का दर्जा देना होगा और इसमें शामिल हर व्यक्ति और संगठन को देशद्रोही मानना होगा। आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार और समाज के सभी अंगों में समन्वय आवश्यक है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और सामाजिक संगठन, सभी को एकजुट होकर योजनाबद्ध तरीके से आतंकवाद का मुकाबला करना होगा। अपनी सुरक्षा एजेंसिंयों को सही प्रशिक्षण और स्वतंत्रता देनी होगी, उन्हें आधुनिकतम हथियारों से लैस करना होगा। पंजाब के अलावा हमारे सामने एक और बहुत अच्छा उदाहरण मौजूद है। 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जे.के.त्रिपाठी ने सन् 1999 में जब त्रिची के पुलिस कमिश्नर के रूप में कामकाज संभाला तो वहां सांप्रदायिक लावा उबल रहा था और उस ज्वालामुखी में विस्फोट कभी भी संभव था। उन्होंने अपनी निष्ठा और सूझबूझ से वहां की पुलिस के चरित्र में करिश्माई परिवर्तन ला दिया। लब्बोलुबाब यह कि आतंकवाद भी कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान संभव न हो पर उसके लिए गहन निरीक्षण, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास, धैर्य और अदम्य साहस की आवश्यकता है। क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ सोच से ही संभव नहीं होते, उनके लिए कदम-कदम पर लड़ाई लडऩी होती है और साथियों को साथ रखना होता है। यह भी सही है कि आतंकवाद के प्रतिरोध के लिए काफी पैसा खर्च होगा पर आतंकवाद जारी रहने से होने वाले नुकसान के मुकाबले में यह बहुत कम है और इस मामले में लापरवाही खतरनाक साबित हो रही है। आतंकवाद जारी रहने से पर्यटन पर बुरा असर पड़ता है, उद्योग धंधे बंद होते हैं, कामगरों को काम नहीं मिलता और उद्योगों को कामगर नहीं मिलते जिससे पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।

अभी तक हमारी सरकारों ने आतंकवाद के मामले में बहुत ढुलमुल रवैया अपनाया है। यूपीए सरकार तो इस मामले में पूरी तरह से विफल रही है। यह खेदजनक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा इस सरकार के एजेंडे में काफी नीचे है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम था लेकिन उसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का मुद्दा शामिल ही नहीं था। जब तक सरकार इस मामले में मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करेगी, आतंकवाद जारी रहेगा, निरपराध नागरिक काल-कवलित होते रहेंगे, जान-माल का नुकसान होता रहेगा और सरकार की बयानबाज़ी जारी रहेगी।

हमारी समस्या यह है कि हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही कर रहे हैं यानी आतंकवाद की किसी घटना के बाद जागते हैं, अन्यथा हमारी सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस और सरकार सोए रहते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। देखना यह है कि सरकार खुद जागती है या इसके लिए भी हमें किसी अन्ना हज़ारे की आवश्यकता होगी। 


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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Wednesday, September 21, 2011

Idea That Will Change Our Life : आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया





Idea That Will Change Our Life : आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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pkk@lifekingsize.com




आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया
 पी.के. खुराना



बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन का दूसरा चरण पूरा हुआ। इस बीच कई नाटक हुए, सरकार ने कई रुख बदले, हर जगह मात खाई और अंतत: अन्ना हज़ारे का जादू संसद के सिर चढ़कर बोला। यह अन्ना हज़ारे का जलाल ही था कि मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल की बयानबाज़ी पर लगाम लग सकी। स्थाई समिति का गठन हो गया है और यह समिति लोकपाल बिल के सभी प्रारूपों का अध्ययन करके अपनी सिफारिशें देगी। समिति की सिफारिशें आने के बाद ही पता चल पायेगा कि सरकार वाकई जनलोकपाल बिल के प्रति गंभीर है या यह भी उसकी ओर से समय बर्बाद करने और जनता के गुस्से को ठंडा होने का वक्त देने की ही एक तिकड़म थी।

वस्तुस्थिति यह है कि अगर जनलोकपाल बिल की कुछ सिफारिशों को सरकार अपने बिल में शामिल कर ले और एक शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति स्वीकार कर ले तो भी यह सिर्फ एक छोटी जीत है। सब जानते हैं कि शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति से भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम तो लगेगी पर इस अकेले कदम से भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता। पर यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि यह वह एक आइडिया है, जो हमारी दुनिया को बदल सकता है, क्योंकि शक्तिशाली लोकपाल के बाद ‘राइट टु रीकॉल’, ‘राइट टु रिजेक्ट’, ‘गारंटी विधेयक’, ‘जनमत विधेयक’ और ‘जनप्रिय विधेयक’ की बारी है। इन कानूनों के अस्तित्व में आने से सरकारी कर्मचारियों एवं जनप्रतिनिधियों पर आवश्यक अंकुश लगेगा, भ्रष्टाचार का अंत होगा, जनता की सर्वोच्चता स्थापित होगी और लोकतंत्र में ‘तंत्र’ के बजाए ‘लोक’ की महत्ता बढ़ेगी, जो अंतत: जनतंत्र को सार्थक बनाएगा। यदि ये कानून अमल में आएं तो जनता वास्तव में जनार्दन बन जाएगी और उन जनप्रतिनिधियों पर जनता की सुनवाई का दबाव बनेगा जो सिर्फ चुनाव के समय ही जनता के दरवाजे पर जाते हैं।

अभी स्थिति यह है कि यदि आपको चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद नहीं है तो आप या तो वोट देने जाते ही नहीं या वोटिंग मशीन पर किसी भी बटन को दबाकर अपने इस अति महत्वपूर्ण अधिकार का व्यर्थ उपयोग कर आते हैं। ‘राइट टु रिजेक्ट’ कानून हमें अधिकार देगा कि कोई भी उम्मीदवार हमारी पसंद का न होने पर हम वोटिंग मशीन पर दिये गए अतिरिक्त बटन को दबाकर उपलब्ध उम्मीदवारों के प्रति अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर दें। इससे राजनीतिक दलों पर बेदाग और प्रभावी उम्मीदवारों के चयन का दबाव बनेगा जो राजनीति की गंदगी दूर करने में सहायक होगा।

‘राइट टु रीकॉल’ भी जनता के पास एक महत्वपूर्ण हथियार होगा ताकि चुने जाने के बाद जनप्रतिनिधि निरंकुश न हो जाएं। यदि चुना हुआ प्रतिनिधि जनता की उपेक्षा करने लगे या मनमानी पर उतर आये तो जनता को उसे वापिस बुलाने का हक होगा। इससे जनप्रतिनिधियों पर विधानसभा अथवा संसद में अपना व्यवहार संयत रखने, विभिन्न सदनों में जनता की आवाज़ बनने तथा अपने क्षेत्र में विकास कार्य करवाने का दबाव बनेगा।

इसी प्रकार ‘गारंटी विधेयक’ नामक एक तीसरा कानून सरकारी अधिकारियों पर लागू होगा। यदि सरकारी कर्मचारी समय पर काम न करें, रिश्वत के जुगाड़ के लिए अकारण काम को टालते रहें तो उनका वेतन कटेगा या उन पर जुर्माना लगेगा या दोनों सजाएं भुगतनी पड़ सकती हैं। इससे सरकारी कर्मचारी निट्ठले और भ्रष्ट नहीं हो सकेंगे, नौकरशाही पर लगाम लगेगी और भ्रष्टाचार की प्रभावी रोकथाम होगी।

‘जनमत विधेयक’ का अर्थ है कि कोई भी कानून बनाने से पहले नागरिक समाज की राय ली जाएगी। एक निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से नागरिक समाज प्रस्ताविक विधेयक में संशोधन सुझा सकेगा या फिर उसे पूरी तरह से रद्द करवा सकेगा। इस प्रकार कोई भी बिल, कानून उसी रूप में बन सकेगा जिस रूप में जनता को उसकी आवश्यकता है।

‘जनप्रिय विधेयक’ का अर्थ है कि यदि नागरिक समाज कोई कानून बनावाना चाहता है, जो कि पहले से अस्तित्व में नहीं है, तो राज्य अथवा केंद्र के जनप्रतिनिधियों को वह कानून बनाना आवश्यक हो जाएगा।

इस समय भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जनसामान्य इस स्थिति से इतना नाराज़ है कि उसने अन्ना हज़ारे और उनके साथियों की हर गलती और कमी को नज़रअंदाज़ किया और सरकार के विरोध में ऐसी लहर बनाई कि सरकार को घुटने टेकने पड़े। सामान्यजन शायद जनलोकपाल बिल के प्रावधानों के बारे में ज्य़ादा नहीं जानते, जानना भी नहीं चाहते, वे सिर्फ भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना चाहते हैं। सरकार द्वारा बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन के सामने घुटने टेकने का कोई संबंध जनलोकपाल बिल के गुणों-अवगुणों से नहीं है। आंदोलन को आम आदमी का समर्थन भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक नफरत के कारण मिला, न कि जनलोकपाल बिल के प्रति सकारात्मक समर्थन के। कहा जा सकता है कि यह आंदोलन वस्तुत: अन्नागिरी का सफल परीक्षण साबित हुआ है और अब इसे और भी मजबूती से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
एक ज़माना था जब कहा जाता था -- ‘यथा राजा, तथा प्रजा’। यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदला, शासन के तरीके बदले, यहां तक कि शासकों की नियुक्ति के तरीके बदले और लोकतंत्र के ज़माने में प्रजा ही अपने भाग्य विधाता जन-प्रतिनिधियों की भाग्य विधाता बन बैठी। आज के ज़माने में व्यावहारिक स्थिति ऐसी है कि इस पर ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ की उक्ति ही सटीक लगती है। मतलब यह है कि प्रजा जैसी होगी, देश की बागडोर थामने वाले शासकों को भी वैसा ही होना पड़ेगा।

आवश्यकता इस बात की है कि हम सरकारी कर्मचारियों, नौकरशाहों और अपने प्रतिनिधियों की कारगुज़ारी पर लगातार नज़र रखें। हम यदि नहीं बदलेंगे तो हम इन्हें भी नहीं बदल पायेंगे। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शहरी मतदाता, खासकर पढ़े-लिखे लोग मतदान इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि सरकारें बदलने से उनका कुछ भी बदलने वाला नहीं है। हमें अपनी इस सोच को भी बदलना होगा। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू कर सकते हैं। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। 


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