Saturday, November 24, 2012

तमसो मा ज्योतिर्गमय




तमसो मा ज्योतिर्गमय
                                                                                                        l पी. के. खुराना
तमसो मा ज्योतिर्गमय, यानी, 'हे प्रभु, हमें अंधकार से प्रकाश में ले चल!’ -- यह हमारी शाश्वत प्रार्थना है। अंधकार से प्रकाश की ओर की यात्रा अज्ञान से ज्ञान की ओर की यात्रा है। पर क्या हमने कभी सोचा है कि अज्ञानवश और काम तथा पारिवारिक  जि़म्मेदारियों के बोझ तले दब कर तथा आधुनिक जीवन शैली के कारण हम जिस प्रकाश की उपेक्षा कर रहे हैं, उससे हम अपना कितना नुकसान करते हैं? यहां हम सूर्य के प्रकाश की बात कर रहे हैं।
सूर्य का प्रकाश इतना स्वास्थ्यकर माना जाता है कि प्राचीन भारतीय योग गुरुओं ने सूर्य नमस्कार के रूप में हमें सूर्य की ऊर्जा का लाभ लेने की शिक्षा दी। सूर्य का प्रकाश विटामिन-डी का भंडार है और अक्सर नवजात बच्चों को सुबह सवेरे वस्त्ररहित स्थिति में सूर्य की रोशनी में रखा जाता है। खेद की बात है कि आधुनिक जीवन शैली ने हमसे यह सुविधा छीन ली है और शहरों में रहने वाली आबादी का एक बड़ा भाग सूर्य के दर्शन ही नहीं करता।
शहरी जीवन में ऊंची अट्टालिकाओं में बने कार्यालय, एक ही मंजिल पर कई-कई कार्यालयों के होने से हर कार्यालय में सूर्य के प्रकाश की सीधी पहुंच की सुविधा नहीं है। यही नहीं, जहां यह सुविधा है, वहां भी बहुत से लोग भारी परदों की सहायता से सूर्य के प्रकाश को बाहर रोक देते हैं और ट्यूबलाइट तथा एयर कंडीशनर में काम करना पसंद करते हैं। घर से कार्यालय के लिए सुबह जल्दी निकलना होता है। हम बस पर जाएं, ट्रेन पर जाएं या अपनी कार से जाएं, गाड़ी में बैठे रहने पर सूर्य का प्रकाश नसीब नहीं होता, अधिकांश कार्यालयों में सूर्य का प्रकाश नहीं होता और शाम को दफ्तर से छुट्टी के समय भी फिर गाड़ी का लंबा सफर हमें सूर्य के प्रकाश से वंचित कर देता है। घर आकर हम परिवार अथवा टीवी में यूं गुम हो जाते हैं कि सूर्य के प्रकाश की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार हम प्रकृति के एक अनमोल उपहार से स्वयं को वंचित रख रहे हैं और अपने स्वास्थ्य का नुकसान कर रहे हैं।
इसी समस्या का एक और पहलू भी है जिसका पूरे वातावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। औद्योगिक विकास ने जहां एक ओर अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, वहीं बहुत से गैरजि़म्मेदार उद्योगपतियों ने उद्योग लगाते समय प्रदूषण नियंत्रण प्रणाली न विकसित करके पर्यावरण का बहुत नुकसान किया है। उद्योग और व्यवसाय में माल की ढुलाई के कारण ट्रकों से निकलने वाली गैसों से प्रदूषण फैलता है। गैरजि़म्मेदारी के पैमाने पर व्यक्तिगत रूप से भी हम लोग किसी से पीछे नहीं हैं। सुविधाजनक जीवन जीने के आदी हो चुके बहुत से लोगों के पास अपनी गाड़ियां हैं। होली-दीवाली के समय तो हम प्रदूषण फैलाते ही हैं, रोज़मर्रा की जि़दगी में भी गाड़ियों का अधिक से अधिक प्रयोग करके, हमने न केवल सड़कों पर भीड़ बढ़ाई है, बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाया है। पर्यावरण के प्रदूषण का कारण है कि सूर्य की रोशनी ज़्यादा समय तक पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाती और शाम जल्दी ढल जाती है।
भारतीय मौसम विभाग तथा अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (स्पेस एप्लीकेशन सेंटर) के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि तमाम तरह के प्रदूषण के कारण सूर्य की रोशनी के पृथ्वी तक सीधे पहुंचने का समय लगातार घटता जा रहा है जिसके कारण धूप और रोशनी का तीखापन प्रभावित हो रहा है जिससे दिन की लंबाई का समय घट जाता है। इससे शाम जल्दी ढलती है और हमें सूर्य की ऊर्जा का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है, बल्कि इससे स्वास्थ्य संबंधी कई नई परेशानियां उत्पन्न हो सकती हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया है कि सन् 1971 से सन् 2005 के बीच पृथ्वी पर आने वाली सूर्य की सीधी रोशनी में गिरावट के कारण वर्ष भर की औसत दैनिक रोशनी का समय 8.4 घंटों से घट कर साढ़े सात घंटे रह गया है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन, वाहनों और उद्योगों से होने वाले प्रदूषण, फसलों और सूखे पत्तों को खुले में जलाए जाने, बायोमास पदार्थों के जलने आदि से हवा में फैले कार्बन कणों के कारण कालिख बढ़ जाती है। यह कालिख सूर्य की रोशनी को जज्ब कर लेती है और उसकी आगे की यात्रा में व्यवधान पैदा करती है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता सहित सभी बड़े शहरों में पर्यावरण प्रदूषण की यह अवांछनीय बीमारी बढ़ रही है जो दिन की रोशनी के समय को प्रभावित करती है। शिलांग जैसे पर्वतीय स्थानों पर इसका असर कम है लेकिन महानगरों में दिन का समय घट चुका है और वैज्ञानिकों को आशंका है कि पिछले 40 वर्षों में दिन की रोशनी की औसत अवधि 10 प्रतिशत के आसपास घट गई है।
दिन की रोशनी को घटाने वाले प्रदूषणकारी तत्व मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं और इससे सांस संबंधी बीमारियां बढ़ती हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि कम रोशनी वाले दिनों की अपेक्षा तेज रोशनी वाले दिनों में हमारे मस्तिष्क से सेरोटोनिन नामक द्रव्य ज्यादा मात्रा में पैदा होता है जो हमारी मन:स्थिति (मूड) को खुशनुमा बनाता है। यदि धुंधलका लगातार बना रहे तो मन:स्थिति के विकार भी बढ़ सकते हैं।
पर्यावरण के प्रदूषित होने से हमें नुकसान हो रहा है, इसमें तो कोई शक है ही नहीं, अध्ययन सिर्फ यह बताएंगे कि यह नुकसान किस हद तक है और इससे हमारे स्वास्थ्य पर जो बुरा असर पड़ेगा उसके परिणाम क्या हो सकते हैं। मौसम और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिक एकमत हैं कि सूर्य की रोशनी के पृथ्वी पर आने का समय घटने से स्वास्थ्य संबंधी कई नई परेशानियां आयेंगी। खेद की बात है कि सरकार की ओर से इस संबंध में कोई भी जागरूकता अभियान नहीं चलाया जा रहा और न ही स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिया है जबकि यह अध्ययन पिछले 40-45 वर्षों से जारी है।
यह एक विडंबना ही है कि हम लोग सुविधासंपन्न जीवन के इस हद तक आदी हो चुके हैं कि अब हमें प्राकृतिक जीवन जीना असंभव लगने लगा है। आधुनिक जीवन शैली हमारे जीवन को आसान तो बना रही है पर यह उसे बीमार भी बना रही है। यह एक ऐसा अंतर्विरोध है जिसका तोड़ यही है कि कार्यालय जाने वाले लोग दोपहर के भोजन के अवकाश के समय सैर को निकलें और सूर्य की रोशनी से शरीर को ऊर्जा दें, शनिवार, रविवार तथा अवकाश वाले अन्य दिनों में खुले में ज्यादा समय बिताएं अथवा अपना दिन कुछ और पहले आरंभ करें और कार्यालय जाने से पहले खुले में योगाभ्यास करते हुए अथवा फुटबाल या बैडमिंटन जैसा कोई खेल खेलते हुए व्यायाम और सूर्य की ऊर्जा दोनों का सम्मिलित लाभ लें। हमें याद रखना चाहिए कि लंबे सुखमय जीवन के लिए सुविधा वांछनीय है परंतु स्वास्थ्य आवश्यक है। ***

P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Alternative Journalism
वैकल्पिक पत्रकारिता

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जलाओ दिमाग की बत्ती




जलाओ दिमाग की बत्ती
                                                                                                                                l पी. के. खुराना
जनसामान्य में पीजीआई के नाम से प्रसिद्ध चंडीगढ़ स्थित चिकित्सा शिक्षा एवं शोध के स्नातकोत्तर संस्थान 'पोस्टग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्चसे जुड़े तीन अलग-अलग अध्ययनों ने मेरे दिमाग की बत्ती जलाई है और मुझे उम्मीद है कि ये अध्ययन कुछ और लोगों के दिमाग की बत्ती भी जला सकते हैं।
मेरे मित्र और हास्य की दुनिया के बेताज बादशाह रहे स्वर्गीय जसपाल भट्टी ने अपने प्रसिद्ध कार्यक्रम उलटा-पुलटा के एक शो में आधुनिक जीवन की विकृति को चित्रित करते हुए बताया था कि आज के बच्चे खेल के नाम पर कंप्यूटर गेम्स या प्ले स्टेशन गेम्स में खोये रहते हैं और इस कारण शारीरिक गतिविधियों और व्यायाम से उनका नाता टूट गया है जिसके कारण उन्हें छोटी उम्र में ही स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं।
आज लगभग हर घर में केबल टेलिविज़न सुविधा उपलब्ध है, यानी सारा साल, हर रोज़, चौबीसों घंटे टीवी के किसी न किसी चैनल पर कोई न कोई मनोरंजक अथवा मनपसंद कार्यक्रम आ ही रहा होता है। हर कोई टीवी का दीवाना है। छोटे बच्चे कार्टून कार्यक्रमों में मस्त हो जाते हैं। मां-बाप इसे बड़ी सुविधा मानते हैं क्योंकि कार्टून शो में खोये बच्चे को कुछ भी और कितना भी खिलाना आसान होता है, बच्चा टीवी में व्यस्त हो जाता है और घर से बाहर नहीं जाता, शरारतें नहीं करता, फालतू की जि़द नहीं करता। संपन्न आधुनिक शहरी घरों में बच्चों के लिए प्ले स्टेशन पोर्टेबल (पीएसपी) भी उपलब्ध हैं और बच्चे इनमें खोये रहते हैं।
मां-बाप सोचते हैं कि बच्चा कार्टून ही तो देख रहा है, लेकिन वे उससे होने वाले दिमागी प्रभाव को नहीं समझ पाते। कार्टून शो में सीन बदलने की गति यानि फ्लिकरिंग इतनी तेज़ होती है कि कई बार बच्चे का दिमाग उसे पकड़ नहीं पाता और वह कन्फ्यूज़ हो जाता है। इससे बच्चे को उलटी होने जैसा महसूस हो सकता है। सीन बदलने के कारण रोशनी की तीव्रता तेजी से घटती-बढ़ती है, जिसे फ्लैशिंग कहते हैं। इससे भी बच्चों की आंखों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जिसे फोटोफोबिया कहा जाता है। लगातार कार्टून देखने वाले अथवा प्ले स्टेशन पर खेलने वाले बच्चे अक्सर इसीलिए बाद में थकान महसूस करते हैं और उन्हें मिरगी की शिकायत हो सकती है। पीजीआई में पीडियाट्रिक मेडिसिन की प्रोफेसर डा. प्रतिभा सिंघी तथा पीजीआई के ही स्कूल ऑव पब्लिक हेल्थ के डा. सोनू गोयल ने शहर के दो दर्जन से अधिक स्कूलों में हुए एक सर्वेक्षण के परिणामों की पुष्टि करते हुए बताया कि बच्चों द्वारा लंबे समय तक कार्टून देखना अथवा प्ले स्टेशन पर खेलना उनकी सेहत के लिए खतरनाक है।
अल्ज़ाइमर एक ऐसी बीमारी है जिससे ग्रस्त व्यक्ति रोज़मर्रा की साधारण चीजों को भी भूलने लगता है, मसलन, अलमारी खोलनी हो तो फ्रिज खोलकर खड़े हो जाएं, बात करते समय भूल जाएं कि बातचीत का विषय क्या था, अपनी कोई बात समझाने के लिए किसी विशिष्ट घटना का जिक्र शुरू कर दें और यह भूल जाएं कि उस उदाहरण से समझाना क्या चाहते थे, हाथ में पकड़ी या गोद में पड़ी किसी चीज को इधर-उधर ढूंढ़ें। 'डिमेंशियाÓ यानी दिमाग के तंतुओं के मरने के कारण होने वाली बीमारी अल्ज़ाइमर से बचने के लिए तथा स्मरण शक्ति के विकास के लिए आयुर्वेद ब्रह्मी बूटी के प्रयोग की सिफारिश करता है।
पीजीआई में न्यूरोलाजी विभाग के प्रोफेसर व मुखिया डा. सुदेश प्रभाकर के अनुसार चूहों पर किए प्रयोगों से डाक्टरों ने पाया है कि भूलने की बीमारी के इलाज के लिए ब्रह्मी बूटी सचमुच लाभदायक है और अब वह भूलने की बीमारी से ग्रस्त मरीजों पर ब्रह्मी बूटी के क्लीनिकल प्रयोग की तैयारी कर रहे हैं। इसके तहत डिमेंशिया से पीड़ित सौ मरीजों का चयन किया गया है। इनमें से 50 को परंपरागत एलोपैथी दवाएं दी जाएंगी और बाकी 50 को ब्रह्मी से बनी दवाएं। फर्क यह है कि ब्रह्मी से बनी दवाओं की गुणवत्ता और पैकिंग आदि का जिम्मा पीजीआई के ही फार्माकोलाजी विभाग को दिया गया है, जहां मान्य अंतरराष्ट्रीय मानकों का भी ध्यान रखा जाएगा ताकि दवा के परिणाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश किए जा सकें। इस परियोजना की देखरेख कर रही टीम में पीजीआई के न्यूरोलाजी विभाग के डाक्टरों के अलावा एक आयुर्वेदाचार्य को भी शामिल किया गया है।
दिल्ली में रह रहीं डा. पूनम नायर ने चंडीगढ़ योग सभा के तत्वावधान में पीजीआई के साथ मिलकर विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त मरीजों को योगासनों से इलाज की पद्धति का अध्ययन किया ही, साथ ही उन्होंने पीजीआई में कार्यरत नर्सों को भी योगासन के माध्यम से अपने कार्य में दक्षता लाने की शिक्षा दी। यह अध्ययन चिंता, तनाव और उदासी से ग्रस्त मरीजों, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) से ग्रस्त मरीजों और काम के दबाव से ग्रस्त नर्सों पर आधारित था। मरीजों को तीन समूहों में बांटा गया, पहले समूह को परंपरागत एलोपैथिक दवाइयां दी गईं, दूसरे समूह को यौगिक क्रियाओं, योगासनों, यौगिक प्राणायाम और योग मुद्राओं और काउंसलिंग की यौगिक चिकित्सा दी गई और तीसरे समूह को शवासन, प्राणायाम, खुशी और सफलता की स्थिति में स्वयं की कल्पना करने, अपने इष्ट भगवान के ध्यान आदि से यौगिक विश्राम से संबंधित क्रियाएं करवाई गईं।
डाक्टरों और नर्सों का जीवन बहुत कठिन होता है और लगातार रोगियों के संपर्क में रहने के कारण उनका अपना स्वास्थ्य हमेशा खतरे में रहता है। काम का दबाव उन्हें चिड़चिड़ा बना देता है और वे तनावग्रस्त हो सकते हैं। इसीलिए डा. पूनम नायर ने योग क्रियाओं का प्रयोग नर्सों पर भी किया। मरीजों और नर्सों पर यह प्रयोग कुछ वर्ष चला और इसके परिणाम आश्चर्यजनक रूप से उत्साहवर्धक रहे।
आज हमारा जीवन बहुत व्यस्त है और करिअर की दौड़ में सरपट भागते हुए हम सोच ही नहीं पा रहे कि हम जीवन में क्या खो रहे हैं। एकल परिवार में कामकाजी दंपत्ति के बच्चे अकेलापन महसूस करने पर टीवी और प्ले स्टेशन में व्यस्त होने की कोशिश करते हैं। भावनात्मक परेशानियों से जूझ रहा बच्चा एक बार इनका आदी हो जाए तो वह कई स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार हो जाता है। किशोर अथवा युवा होते बच्चे भी व्यायाम के बजाए डिस्कोथेक के रेशमी अंधेरों, चौंधियाने वाली रोशनियों और तेज संगीत के शोर में गुम होते हुए सोच ही नहीं पाते कि उनका जीवन किन किस ओर बढ़ रहा है।
पीजीआई के उपरोक्त तीनों अध्ययनों का लब्बोलुबाब यह है कि योग और आयुर्वेद को एलोपैथी के शोध और गुणवत्ता के मानकों से जोड़ दिया जाए तो चिकित्सा विज्ञान विकसित होगा और रोगियों को लाभ होगा। इन अध्ययनों का एक और महत्वपूर्ण सबक यह भी है कि परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे के साथ ज्यादा समय बिताएं और एक-दूसरे को भावनात्मक सहयोग दें। परिवार के सदस्यों का साथ और प्यार किसी भी बच्चे के लिए वरदान है जो उसे जीवन की कठिनाइयां झेलने के काबिल बनाता है और नशे और बीमारी की परेशानियों से बचाए रखता है। इस मंत्र की उपेक्षा करना आसान है पर उससे उत्पन्न होने वाली परेशानियों का सामना करना बहुत मुश्किल है। ***

P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Sunday, September 16, 2012

Terrorism Turmoil : आतंकवाद का जलजला





आतंकवाद का जलजला :: Aatankvaad Ka Jaljalaa

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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आतंकवाद का जलजला
 पी. के. खुराना


दिल्ली उच्च न्यायालय में दूसरे धमाके के बाद आगरा में भी दहशतगर्दों ने अपना खेल खेला और कई जानें गईं। हमेशा की तरह सरकार की तरफ से निरर्थक बयानबाज़ी का दौर चला और टीवी चैनल भी दो दिन के लिए व्यस्त हो गए। यह खेदजनक है कि आम भारतवासी को लगता है कि अब आतंकवाद हमारे जीवन का हिस्सा बनकर रह गया है और पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां और सरकार इसमें कुछ खास नहीं कर सकते। ये सब आपस में ही एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपने काम से छुटकारा पा लेने के आदी हो गये हैं। सरकार के पास न महंगाई का कोई इलाज है और न आतंकवाद का। महंगाई गरीबों की जान लेती है, पर आतंकवाद किसी को नहीं बख्शता, आतंकवादियों तक को नहीं!

आतंकवाद की दो किस्में हैं, घरेलू आतंकवाद और वैश्विक आतंकवाद। बहुत से देश वैश्विक आतंकवाद को अपने राजनीतिक, रणनीतिक, सामरिक या आर्थिक हित साधने के लिए भी प्रयोग करते हैं। आतंकवाद घरेलू हो या वैश्विक, वस्तुत: वह कानून व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। पंजाब के स्व. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सदैव कहते थे कि आतंकवाद की समस्या कानून और व्यवस्था का प्रश्न है और इसे इसी ढंग से हल किया जाना चाहिए। उन्होंने पंजाब की जड़ों तक पैठे आतंकवाद को नेस्तनाबूद कर दिखाने का इतिहास बनाया।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जि़ंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के जारी रहने के और भी कई कारण हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद के जारी रहने में आतंकवाद से जुड़े लोगों का ही नहीं राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों का भी स्वार्थ सधता है क्योंकि आतंकवाद के कारण ये सब मोटी कमाई करते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा प्रदेश है जो आतंकवाद से त्रस्त है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं। आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है।

आतंकवाद से जुड़ा सच ऐसा है कि सहसा विश्वास नहीं होता। आतंकवादी नेताओं को विभिन्न स्रोतों से तगड़ा धन मिलता है। यही नहीं, आतंकवाद की रोकथाम के लिए सरकारों को केंद्र से भी बड़ी सहायता मिलती है। इस सहायता का अधिकांश भाग राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी डकार जाते हैं। यानी आतंकवाद फैलाने वाले और उसकी रोकथाम करने वाले, दोनों ही के लिए आतंकवाद मोटी कमाई का साधन है।

आतंकवादियों को समाज के कई वर्गों की सहानुभूति मिल जाती है। आतंकवादी उनकी भावनाओं का शोषण करते हैं और बड़े आतंकी नेता अपने लिए अकूत धन-संपदा इक_ी कर लेते हैं। कई आतंकवादी संगठनों को धर्म और मजहब के नाम पर बड़ा दान मिलता है। इसके अलावा बहुत से देश भी अपनी आवश्यकतानुसार किसी दुश्मन देश में आतंकवाद फैलाने के षडयंत्र में शामिल रहते हैं। आतंकवाद से जुड़े लगभग सभी संगठन नशे के व्यापार से भी जुड़े हुए हैं और हथियार खरीदने के लिए उन्हें यहीं से पैसा मिलता है।

आतंकवाद से जुडऩे वाले लोगों की बड़ी संख्या निचले वर्ग के लोगों की है। समाज से तरह-तरह के अत्याचार सह चुके ये दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धनलाभ की भी बड़ी भूमिका है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

वैश्विक आतंकवाद अक्सर किसी ऐसे देश से जुड़ जाता है जो अपने विभिन्न हितों की खातिर आतंकवादियों को प्रश्रय देता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे ज्यादातर देशों में मुस्लिम बहुल आबादी है जिसके कारण पूरा मुस्लिम समुदाय ही बदनामी झेल रहा है। सच तो यह है कि मुस्लिम समुदाय को ही आतंक का पर्याय मान लेने से भी समस्या जटिल होती है और सरकारें समस्या के सही समाधान तक नहीं पहुंच पातीं।

मोटी बात यह है कि यदि हम आतंकवाद से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें आतंकवाद को देशद्रोह का दर्जा देना होगा और इसमें शामिल हर व्यक्ति और संगठन को देशद्रोही मानना होगा। आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार और समाज के सभी अंगों में समन्वय आवश्यक है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और सामाजिक संगठन, सभी को एकजुट होकर योजनाबद्ध तरीके से आतंकवाद का मुकाबला करना होगा। अपनी सुरक्षा एजेंसिंयों को सही प्रशिक्षण और स्वतंत्रता देनी होगी, उन्हें आधुनिकतम हथियारों से लैस करना होगा। पंजाब के अलावा हमारे सामने एक और बहुत अच्छा उदाहरण मौजूद है। 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जे.के.त्रिपाठी ने सन् 1999 में जब त्रिची के पुलिस कमिश्नर के रूप में कामकाज संभाला तो वहां सांप्रदायिक लावा उबल रहा था और उस ज्वालामुखी में विस्फोट कभी भी संभव था। उन्होंने अपनी निष्ठा और सूझबूझ से वहां की पुलिस के चरित्र में करिश्माई परिवर्तन ला दिया। लब्बोलुबाब यह कि आतंकवाद भी कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान संभव न हो पर उसके लिए गहन निरीक्षण, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास, धैर्य और अदम्य साहस की आवश्यकता है। क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ सोच से ही संभव नहीं होते, उनके लिए कदम-कदम पर लड़ाई लडऩी होती है और साथियों को साथ रखना होता है। यह भी सही है कि आतंकवाद के प्रतिरोध के लिए काफी पैसा खर्च होगा पर आतंकवाद जारी रहने से होने वाले नुकसान के मुकाबले में यह बहुत कम है और इस मामले में लापरवाही खतरनाक साबित हो रही है। आतंकवाद जारी रहने से पर्यटन पर बुरा असर पड़ता है, उद्योग धंधे बंद होते हैं, कामगरों को काम नहीं मिलता और उद्योगों को कामगर नहीं मिलते जिससे पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।

अभी तक हमारी सरकारों ने आतंकवाद के मामले में बहुत ढुलमुल रवैया अपनाया है। यूपीए सरकार तो इस मामले में पूरी तरह से विफल रही है। यह खेदजनक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा इस सरकार के एजेंडे में काफी नीचे है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम था लेकिन उसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का मुद्दा शामिल ही नहीं था। जब तक सरकार इस मामले में मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करेगी, आतंकवाद जारी रहेगा, निरपराध नागरिक काल-कवलित होते रहेंगे, जान-माल का नुकसान होता रहेगा और सरकार की बयानबाज़ी जारी रहेगी।

हमारी समस्या यह है कि हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही कर रहे हैं यानी आतंकवाद की किसी घटना के बाद जागते हैं, अन्यथा हमारी सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस और सरकार सोए रहते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। देखना यह है कि सरकार खुद जागती है या इसके लिए भी हमें किसी अन्ना हज़ारे की आवश्यकता होगी। 


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गलत होता व्याकरण



गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
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गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना

हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 



सोशल मीडिया का नया युग




सोशल मीडिया का नया युग
          -- पी. के. खुराना

The Dawn of a New Era in Social Media
By : PK Khurana

(pkk@lifekingsize.com)

कंप्यूटर का आविष्कार एक चमत्कार था, इंटरनेट एक और चमत्कार था और इसके बाद सोशल मीडिया भी एक चमत्कार था। एक और वेबसाइट टॉक2सेलेब्स.कॉ(talk2celebs.com) ने सोशल मीडिया में एक नये युग की शुरुआत की है। इसे ज़रा विस्तार से समझने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया के इस ज़माने में हम ब्लॉग, फेसबुक, आर्कुट, नेटलॉग, ट्विटर आदि सोशल मीडिया साइटों के ज़रिये हम दुनिया भर से जुड़ गए हैं और हमारे मित्रों की संख्या हज़ारों में भी हो सकती है। सूचनाओं के प्रसार की गति अविश्वसनीय रूप से तेज़ हो गई है और सोशल मीडिया जनमत बनाने या जनमत को प्रभावित करने का एक उपयोगी और कारगर हथियार बन कर उभरा है। इंटरनेट और ईमेल ने हमारे जीवन के ढंग में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया था पर सोशल मीडिया ने तो एक कदम आगे जाकर सारी दुनिया को हमारी दहलीज पर ला दिया है। सोशल मीडिया ने कई सार्थक बहसों को जन्म दिया है और कई सामाजिक अभियानों को मजबूती प्रदान की है। हम सोशल मीडिया से जुड़े हों या न, हम सोशल मीडिया के पक्ष में हों या विरोध में, पर यह अब हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है और हम इससे बच नहीं सकते।

इंटरनेट, सोशल मीडिया और स्मार्टफोन की त्रिवेणी ने अब एक ऐसी शक्तिपीठ की रचना की है कि उसके सामने पारंपरिक मीडिया का तेज फीका पड़ गया है। प्रतिष्ठित, प्रसिद्ध एवं विशिष्ट व्यक्तियों के लिए ट्विटर को अपनाना इसलिए आसान था क्योंकि यहां केवल 140 अक्षरों में ही अपनी बात समाप्त कर देने की स्वतंत्रता है, जो कहीं और संभव नहीं थी। सोशल नेटवर्किंग साइटों पर, बिना किसी खर्च के, मित्रों और प्रशंसकों के माध्यम से सेकेंडों में करोड़ों लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की सुविधा ने इसे एकदम से ग्राह्य बना दिया।

एक तरफ सोशल मीडिया ने प्रसिद्ध लोगों को अपने प्रशंसकों से जुड़ने का अवसर दिया तो दूसरी तरफ प्रशंसकों और सामान्य जन को भी प्रसिद्ध लोगों के मन में झांकने और उनके विचार जानने का मौका मिला। स्टार और सेलेब्रिटी माने जाने वाले विशिष्ट व्यक्ति पहले तो वेबसाइट और ब्लॉग के माध्यम से लोगों से जुड़े, परंतु वहां पहुंच सीमित थी क्योंकि जो व्यक्ति आपकी वेबसाइट पर नहीं आया, उसे आपके बारे में जानने का मौका नहीं मिलता था। फिर आर्कुट और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों ने तो जैसे धूम ही मचा दी। फेसबुक के साथ ही यूट्यूब, फ्लिकर और ट्विटर की लोकप्रियता भी बढ़ती चली गई और सोशल मीडिया साइटें हमारी जीवन का अभिन्न अंग बन गईं। हाल ही में पिंटेरेस्ट की चर्चा भी बढ़ी है, हालांकि अभी उसे सेलेब्रिटी स्टेटस नहीं मिला है। सोशल मीडिया साइटों में ट्विटर की अपनी अलग पहचान बन गई है क्योंकि व्यस्त लोगों के लिए भी अपने स्मार्टफोन से ही सिर्फ 140 अक्षरों में अपनी बात ट्वीट कर देने के लिए समय निकालना कठिन नहीं है और कई सेलेब्रिटीज़ तो दिनमें कई-कई बार ट्वीट करते हैं। अब यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि आज लगभग सभी विशिष्टजन ट्वीट की भाषा में बोलते हैं, और उनके करोड़ों-करोड़ों प्रशसंक पूरी निष्ठा से उनके ट्वीट पढ़ते हैं, उस पर चर्चा करते हैं, टिप्पणी करते हैं, टिप्पणियों पर टिप्पणी करते हैं। अपने मनपसंद सेलेब्रिटी से दोतरफा संवाद का ऐसा और कोई माध्यम नहीं है।

अमरीकी गायिका लेडी गागा के ट्विटर एकाउंट पर प्रशंसकों की संख्या 2,78,48,540 है जो सऊदी अरेबिया, आस्ट्रेलिया और ग्रीस की सम्मिलित आबादी से भी ज़्यादा है। कनाडा की पॉप संगीतकार जस्टीन बीबर के ट्विटर एकाउंट पर प्रशंसकों की संख्या 2,59,33,400 है। अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ट्विटर पर सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ हैं और उनके प्रशंसकों की संख्या 1,80,99,382 है जबकि फुटबाल खिलाड़ी क्रिस्टियानो रोनाल्डो के ट्विटर एकाउंट पर उनके प्रशंसकों की संख्या 1,20,73,467 है। भारतवर्ष में लोककथाओं के नायकों की मानिंद प्रसिद्ध अमिताभ बच्चन के हर ट्वीट को पढ़ने के लिए 31,78,881 लोगों का बड़ा समूह हमेशा बेताब दिखता है। अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा और बालीवुड के बादशाह शाहरुख खान के ऑनलाइन प्रशंसकों की संख्या भी बहुत से नामी-गिरामी अखबारों से बहुत-बहुत ज्यादा है।

जैसे-जैसे मध्यवर्ग का विस्तार हो रहा है, मोबाइल फोन धारकों की संख्या बढ़ती जा रही है। मोबाइल फोन सस्ते होते जा रहे हैं और स्मार्टफोन अब एक आम चीज़ हैं। अब तो बहुत से 3-जी कंपैटिबल फोन भी इतने सस्ते हैं कि हर कोई उन्हें खरीद सकता है। इसके कारण भी इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग तेज़ी से बढ़ा है। सोशल मीडिया के इस उपभोग का ही परिणाम है कि अब प्रसिद्ध व्यक्तियों के ऑनलाइन प्रशंसकों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि ये सेलेब्रिटी हस्तियां स्वयं एक माध्यम बनकर खुद भी 'मीडिया' की श्रेणी में आ गए हैं।

बदलती परिस्थितियों के अनुरूप नई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदैव नई सुविधाओं, सेवाओं और उत्पादों की आवश्यकता रही है और विश्व में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं रही जो नई आवश्यकताओं को समझ कर नई सुविधा, नई सेवा या नए उत्पाद प्रस्तुत करते रहे हैं और उसे दुनिया ने हाथों-हाथ लिया है। इसी तरह की एक वेबसाइट टॉक2सेलेब्स.कॉम है। इस वेबसाइट की खासियत यह है कि इसमें दुनिया भर के सेलेब्रिटीज़ के फेसबुक, ट्विटर, नेटलॉग, आर्कुट व यूट्यूब आदि लिंक शामिल हैं जहां आप किसी भी सेलेब्रिटी के सोशल मीडिया साइट पर उनसे चैट कर सकते हैं, कमेंट कर सकते हैं, कमेंट पर कमेंट कर सकते हैं और उसे अपने मित्रों के साथ शेयर कर सकते हैं। टॉक2सेलेब्स.कॉम के साथ सोशल मीडिया का एक और नया युग (The Dawn of a New Era in Social Media) शुरू हुआ है। सेलेब्रिटीज़ के विचारों और कामों से समाज प्रभावित होता है, प्रेरित होता है। टॉक2सेलेब्स.कॉम ने पहली बार सभी सेलेब्रिटीज़ को एक ही मंच पर ला दिया है। यही नहीं इसमें हॉलीवुड, बॉलीवुड, राजनीति, व्यवसाय, पत्रकारिता, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों के विशिष्ट जनों का समावेश है।

सोशल मीडिया की खासियत यह है कि इसके माध्यम से आप समाचार पा सकते हैं और समाचार दे सकते हैं। यह दो-तरफा संवाद है जहां आपको दुनिया भर की खबरें मिलती हैं और आप दुनिया भर को अपनी खबर दे सकते हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि सोशल मीडिया ऐसा अखबार है जिसे खरीदना नहीं पड़ता और जिसके प्रकाशन पर भी आपको कोई खर्च नहीं करना पड़ता। इसके अलावा सोशल मीडिया के माध्यम से आप दुनिया के हर कोने से एक साथ जुड़ जाते हैं। सोशल मीडिया की इसी खूबी ने इसे इतना खास बना दिया है कि सारी दुनिया सोशल मीडिया में सिमट गई है। इसी कड़ी में टॉक2सेलेब्स.कॉम ने एक नये युग की शुरुआत तो की है, पर क्या यह किसी अगले चमत्कार की वजह भी बन पायेगा? यह देखना अभी बाकी है कि इस कड़ी का अगला चमत्कार क्या होगा। ***

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Saturday, April 14, 2012

Well-in-time Day :: वैल-इन-टाइम डे





वैल-इन-टाइम डे
• पी.के. खुराना

हमने पश्चिम से बहुत कुछ सीखा है। बहुत-से मामलों में हम सिर्फ नकल ही कर रहे हैं, जबकि कई अन्य मामलों में हमने सिर्फ नकल से आगे बढ़कर उस कार्य-संस्कृति को भी आत्मसात किया है या काम के पीछे की कहानी को भी समझा और अपनाया है। इस बात का खुलासा करूं तो शायद तमिलनाडु के शहर मदुरै में स्थित अरविंद आई हास्पिटल का उदाहरण सर्वाधिक सटीक है। अरविंद आई हास्पिटल की अंतरराष्ट्रीय पहचान है क्योंकि यह लगभग न के बराबर के खर्च में आंखों के इलाज और अंधता दूर करने के मिशन से काम कर रहा है।

अरविंद आई हास्पिटल मात्र लाभ के लिए काम करने के बजाए जनसेवा की भावना से काम कर रहा है और आज यह मात्र एक अस्पताल नहीं बल्कि एक ख्यात जनसेवा संस्थान के रूप में जाना जाता है। अरविंद आई हास्पिटल में कार्यरत डाक्टर अन्य अस्पतालों के डाक्टरों की अपेक्षा कहीं ज्य़ादा आप्रेशन करते हैं। इस प्रकार ज्यादा कुशलता (एफिशेन्सी) के कारण इस इकोनामी आफ स्केल का लाभ मिलता है, यानी इसका लाभ ज्यादा मार्जिन में नहीं बल्कि ज्य़ादा से ज्य़ादा संख्या में आप्रेशन करने में है। जनसेवा की भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण इस बात में है कि अरविंद आई हास्पिटल विश्व के किसी भी अन्य अस्पताल को अपने मैनेजमेंट सिस्टम दिखाने और बताने से गुरेज़ नही करता, तो भी उनका अनुभव यह है कि अन्य अस्पतालों से आये लोग ‘तकनीक’ तो समझ लेते हैं, पर अरविंद आई हास्पिटल की आत्मा, यानी संस्कृति को नहीं अपनाते, यही कारण है कि वे इस शानदार प्रबंधन प्रणाली का पूरा लाभ नहीं ले पाते। रणबीर कपूर की प्रसिद्ध फिल्म ‘राकेट सिंह’ भी यही संदेश दोहराती है कि किसी काम को पूर्णता में सीखने-समझने में ही लाभ है। पश्चिम से सीखी जाने वाली बातों पर भी यही नियम लागू होता है।

जगद्गुरू कहे जाने वाले भारतवर्ष में अब हम ज़ोर-शोर से मदर्स डे, फादर्स डे, वैलेंटाइन डे आदि मनाने लग गए हैं। पिछले कई वर्षों की तरह इस वर्ष भी देश के कई हिस्सों में 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे ज़ोर-शोर से मनाया गया। प्यार के फरिश्ते संत वैलेटाइन की स्मृति में मनाए जाने वाले इस दिन को मीडिया ने और भी ज्य़ादा उत्साह से मनाया। भारतवर्ष के लिए यह सिलसिला अब नया नहीं रहा। कोई भी ‘दिवस’ मनाने के पीछे एक उद्देश्य होता है, कभी वह पूर्वजों के बलिदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है, कभी बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न है और कभी रिश्तों की मजबूती का प्रयास या नए रिश्ते गढऩे का अवसर होता है।

पश्चिम से, या कहीं से भी अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है। दिमाग की खिड़की खुली रखने पर ही हम रोशनी अंदर आने दे सकते हैं। हमें भारत को जगद्गुरू कहने में गर्व होता है। जगद्गुरू बने रहने के लिए आंतरिक विकास एक आवश्यक शर्त है। आज जगद्गुरू भारत को हर अच्छी बात सीखने के लिए तैयार होना होगा, चाहे वह पश्चिम से आये या जापान, चीन अथवा ताइवान से।

पश्चिमी संस्कृति से समय की पाबंदी जीवन का एक हिस्सा है। भारतवर्ष में हम पश्चिम से मिलने वाली आसान चीजों की नकल कर रहे हैं लेकिन लाभदायक बातों को सीखने की कोशिश कुछ कम कर रहे हैं। समय की पाबंदी जीवन में सफलता के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। लेकिन हमारी परियोजनाएं हमेशा अलग ही कहानी कहती हैं। कोई भी सरकारी परियोजना समय पर पूरी नहीं होती, समय पर पूरी न होने के कारण उनकी कीमत कई-कई गुणा बढ़ जाती है। बहुत-सी परियोजनाएं इसलिए अधर में लटक जाती हैं कि सत्तासीन दल बदल गया। भारतवर्ष में सरकारी परियोजनाओं में समय की पाबंदी का कोई महत्व नहीं है। सरकारी लोगों के लिए आई.एस.टी. का मतलब ‘इंडियन स्टैंडर्ड टाइम’ नहीं बल्कि ‘इंडियन स्ट्रैचेबल टाइम’ है। सरकारी डिक्शनरी वाले ‘समय’ को आप रबड़ की तरह जितना चाहें लंबा खींच सकते हैं।

स्ट्रैचेबल टाइम की इस फिलासफी ने भारत का बहुत नुकसान किया है। अनुशासनहीनता, काम के प्रति गैर-जिम्मेदारी का स्थाई भाव हमारी कार्य-संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। इसके इलाज के लिए अब हमें वैलेंडाइन डे की तरह ‘वैल-इन-टाइम-डे’ मनाना शुरू करने की आवश्यकता है।

जापान में सुनामी के समय कुछ अधिकारियों को रिएक्टरों को बंद करने का कार्य सौंपा गया। अपनी जान की परवाह किये बिना उन लोगों ने किस तल्लीनता और शालीनता से वह कर्तव्य निभाया, यह सारी दुनिया ने देखा। चीन और ताईवान का सामान दुनिया भर के बाजारों में कैसे बढ़त बना रहा है, यह हम सब के सामने है। भारतीय त्योहारों और भारतीय संस्कृति से जुड़ा चीनी और ताईवान सामान भारत भी इतना सटीक, उपयोगी और सार्थक होता है कि आश्चर्य होता है कि किसी भारतीय ने ऐसा क्यों नहीं सोचा?

लगभग 25 वर्ष पूर्व रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण ‘सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट’ में एक लेख छपा था जिसमें यह बताया गया था कि भारतवर्ष में अंग्रेजों के शासनकाल के समय में मुंबई (तब बंबई) म्युनिसिपल कारपोरेशन के भवन के निर्माण के लिए ठेका दिया गया। वह निर्माण तय समय से पूर्व पूरा हुआ, तय बजट से कम खर्च में पूरा हुआ और भवन के उद्घाटन के समय उस पर लगी उद्घाटन पट्टिका में उपरोक्त दोनों तथ्यों का जिक्र शामिल था। क्या इस उदाहरण से तथा चीन, जापान और ताईवान के उदाहरणों से हम कुछ सीख सकते हैं ?

हरियाणा में पूर्व मंत्री तथा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे श्री फूल चंद मुलाना समय की पाबंदी के लिए जाने जाते हैं। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप समय की पाबंदी का नियम कैसे निभा पाते हैं, कैसे हर आयोजन में आप समय पर पहुंच जाते हैं। इसका उत्तर दिखने में जितना साधारण था, उन शब्दों में उतनी ही गहराई भी है। श्री मुलाना ने मुझे कहा, “मैं वैसे ही हर जगह समय पर पहुंचता हूं, जैसे हर दूसरा आदमी देर से पहुंचता है!” उनका अभिप्राय यह था कि समय पर पहुंचना उतना ही आसान है, जितना देर से पहुंचना, यानी समय की पाबंदी मात्र एक आदत है। शुरू में हर आदत अनुशासन से बनती है, बाद में वह सिर्फ एक आदत होती है और हमारा अवचेतन मस्तिष्क उसे अपना लेता है तो वह सामान्य रुटीन बन जाती है।

मैं फिर कहना चाहूंगा कि पश्चिम से, या कहीं से भी अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है। दिमाग की खिड़की खुली रखने पर ही हम रोशनी अंदर आने दे सकते हैं। हमें भारत को जगद्गुरू कहने में गर्व होता है। जगद्गुरू बने रहने के लिए आंतरिक विकास एक आवश्यक शर्त है। आज जगद्गुरू भारत को हर अच्छी बात सीखने के लिए तैयार होना होगा, चाहे वह पश्चिम से आये या जापान, चीन अथवा ताइवान से। ***

Well-in-time Day
by : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Responsibility Should be Fixed Personally :: व्यक्तिगत हो जिम्मेदारी





व्यक्तिगत हो जिम्मेदारी
• पी. के. खुराना

बात तो राजस्थान की है, पर लागू सारे देश पर होती है। राजस्थान उच्च न्यायालय में रामगढ़ बांध के भराव के मुद्दे पर सुनवाई चल रही है। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने कुछ सरकारी अधिकारियों को गवाही के लिए बुलाया है। मुकद्दमे चलते हैं तो गवाह बुलाए ही जाते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। पर इस मामले में एक बात नई अवश्य है, और वह यह है कि न्यायालय ने जिन अधिकारियों को तलब किया है उन्हें उनके पदनाम (डेजिगनेशन) से नहीं, बल्कि उनके नाम से सम्मन भेजे गए हैं। सरकारी अधिकारियों को नामजद करके सम्मन भेजने का यह काम नया है और यदि यह एक स्थापित प्रथा बन जाए तो देश का बहुत भला हो सकता है।

निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले श्री गुलाब कोठारी एक प्रतिष्ठित संपादक हैं और पत्रकारिता में वे तथ्यपरक पत्रकारिता के पक्षधर रहे हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय के इस मामले का हवाला देते हुए श्री कोठारी ने कई विचारणीय मुद्दे उठाए हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई न्यायालय किसी अधिकारी को उनके नाम के बजाए उनके पद के नाम से सम्मन भेजता है तो अधिकारी उसकी परवाह नहीं करते, क्योंकि सम्मन आते रहते हैं और अधिकारी बदलते रहते हैं। निर्णय कोई व्यक्ति लेता है और सम्मन उसकी जगह किसी नये आये अधिकारी को मिल जाता है। इससे व्यक्ति की जिम्मेदारी आयद नहीं होती और अधिकारी लोग गलतियों अथवा भ्रष्टाचार के बावजूद सज़ा से बच निकलते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि यदि नामजद नोटिस देना शुरू हो गया तो अधिकारीगण न्यायालय की अवहेलना अथवा अवमानना का दुस्साहस नहीं कर पायेंगे और अपनी जिम्मेदारी निभाने में कुछ ज्य़ादा मुस्तैदी दिखाएंगे।

कानूनी जिम्मेदारी से बचने के लिए आज अधिकारीगण अपने लिखे आदेशों और पत्रों पर दस्तखत करते हैं, मुहर भी लगाते हैं और अपना पदनाम तो लिखते हैं पर नाम नहीं लिखते। इससे यदि किसी मामले में भ्रष्टाचार हुआ हो, पक्षपात हुआ हो, लापरवाही हुई हो या जाने-अनजाने गलती हुई हो तो संबंधित अधिकारी की जिम्मेदारी आयद कर पाना आसान नहीं होता। अधिकारियों के पास कानूनी रूप से जिम्मेदारी से बचने का यह आसान उपाय है जिसका वे लगातार दुरुपयोग करते हैं, और करते चले जा रहे हैं। इस चालाकी के चलते अधिकारी और राजनेता सब गड़बडिय़ों के बावजूद कानून की गिरफ्त से बच निकलते हैं क्योंकि इसके कारण उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी आयद नहीं हो पाती।
नाम के बजाए सिर्फ पदनाम से काम करने की प्रथा के परिणामस्वरूप अक्सर सम्मन तामील ही नहीं होते। किसी एक अधिकारी के नामजद न होने की वजह से उसके आला अधिकारी भी उसके सम्मन की तामील के लिए कुछ नहीं कर पाते। अधिकारियों के नामजद होने की स्थिति में सम्मन तामील करवाने की जिम्मेदारी उसके वरिष्ठ अधिकारियों पर डाली जा सकती है। नामजद अधिकारी की फरारी की स्थिति में भी तुरंत आवश्यक कार्यवाही की जा सकती है।

केवल पदनाम या डेजिगनेशन के प्रयोग का एक और परिणाम यह भी है कि यदि कोई अधिकारी कोई गड़बड़ी करने के बाद तबादले पर चला जाए, प्रमोट हो जाए या रिटायर हो जाए और गड़बड़ी का पता बाद में चले तो सम्मन तत्कालीन अधिकारी के नाम पर जाने के बजाए उसकी जगह पर नये आये अधिकारी को जारी किये जाएंगे, जिसका उस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। न्यायालय में मामला चलने पर भी न तो पुराने अधिकारी को तलब किया जाता है और न ही उसकी जगह नये आये अधिकारी को दोषी ठहराया जा सकता है।

दूसरा सवाल यह है कि जिस आदेश अथवा पत्र पर किसी अधिकारी का नाम नहीं है, उसकी कानूनी वैधता क्या है। होना तो यह चाहिए कि जानबूझ कर अपना नाम देने से बचने वाले ऐसे हर अधिकारी एवं राजनेता के विरुद्ध कार्यवाही हो और नाम न देना निषिद्ध हो जाए। यह नियम केवलसरकारी अधिकारियों पर ही लागू न हो बल्कि मंत्रियों, जिला परिषदों के अधिकारियों और पंचों-सरपंचों के आदेशों, परिपत्रों और पत्रों पर भी लागू होना चाहिए। बहुत बार सरकारी अधिकारियों की ओर से कई तरह के पत्र नागरिकों को मिलते हैं। कई बार नागरिकों को धमकाने के लिए भी दुर्भावनावश कई पत्र जारी किये जाते हैं। यदि वे गलत हैं, कानून के विरुद्ध हैं, कानून की अवहेलना करते हैं या कानून का दुरुपयोग करते प्रतीत होते हैं तो शिकायत किसकी होगी? यदि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले का नाम होगा तो उस व्यक्ति विशेष की शिकायत संभव है, जो कि अन्यथा संयोग पर निर्भर करेगी। ऐसा एक गलत पत्र किसी निर्दोष नागरिक को बेतरह परेशान कर सकता है, उसके तलुवे घिसवा सकता है जबकि अधिकारी का कुछ भी नहीं बिगड़ता।

बहुत बार नेतागण किसी ट्रस्ट में ट्रस्टी बनने के लिए, अधिकारीगण कहीं से कोई स्वार्थ पूरा करने या रिश्वत लेने का जुगाड़ बनाने के लिए या कसी शिकायत से अपना पिंड छुड़वाने के लिए अनाप-शनाप नोटिस जारी करवा देते हैं, जिन पर अधिकारी के पद का हवाला तो होता है पर किसी का नाम नहीं होता। ऐसे हर पत्र की कानूनी वैधता समाप्त कर दी जानी चाहिए।

जब तक किसी आदेश पर, परिपत्र पर या पत्र पर पत्र लिखने वाले या आदेश जारी करने वाले का नाम नहीं होगा तब तक यह गड़बड़ी चलती रहेगी। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि केवल पदनाम की कानूनी परिपाटी को बदला जाए। ऐसे में तबादला हो जाने, प्रमोशन हो जाने या रिटायर हो जाने की स्थिति में भी वही अधिकारी नामजद होगा जिसने पत्र या आदेश जारी किया होगा। जब व्यक्तिगत जिम्मेदारी आयद होने की प्रथा सुदृढ़ होगी तो प्रशासनिक भ्रष्टाचार और ज्य़ादतियों की रोकथाम हो सकेगी। इसी प्रकार किसी मामले में पदनामधारी अधिकारी कानून की अवहेलना करता है या न्यायालय के आदेश को लागू नहीं करवाता है तो उस अधिकारी को पदनाम के साथ-साथ नामजद बुलाया जाना ही न्यायसंगत है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति विशेष की जि़म्मेदारी के आधार पर निर्णय होने चाहिएं। लोकतंत्र में न्याय की भूमिका सर्वोपरि है। कानून और दंड के भय से ही बहुत सा कार्य सही चलता है।

आम आदमी तो मरते दम तक कोर्ट जाता है और उसके मरने के बाद उसके बच्चे भी न्यायालय में जूतियां घिसते रह जाते हैं। इस दृष्टि से सरकारी पदों पर बैठे लोगों को भी नामजद पार्टी बनाना और तबादला, प्रमोशन या सेवानिवृत्ति के बाद भी नामजद व्यक्ति को बुलाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।

श्री गुलाब कोठारी के उठाये ये मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये सिर्फ बहस के मुद्दे नहीं हैं, इन पर कार्यवाही होनी चाहिए। इसी में लोकतंत्र की सफलता है और देश का भला है। ***

Individual Responsibility
By : PK Khurana
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Sunday, April 1, 2012

Information, News & Technique : सूचना, समाचार और तकनीक





सूचना, समाचार और तकनीक
 पी. के. खुराना


इसमें कोई शक नहीं है कि सूचना और समाचार हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और आज भी टीवी तथा समाचारपत्र, सूचना एवं समाचार देने के प्राथमिक स्रोत हैं। आज भी समाचारपत्र और टीवी, अपने तथा समाचार एजेंसियों के नेटवर्क के ज़रिये समाचार इकट्ठे करते हैं। लोग समाचार जानना चाहते हैं, समाचारपत्र और टीवी समाचार को ‘रूप’ और ‘आकार’ देते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सूचना एवं समाचार के प्राथमिक स्रोत होने के बावजूद वे अपने इस ‘उत्पाद’ से वह लाभ नहीं ले पा रहे हैं जो शायद उन्हें मिलना चाहिए था।

इंटरनेट और स्मार्ट फोन के संगम ने समाचार जानने के तरीकों में भारी परिवर्तन कर दिया है। समाचारपत्रों के इंटरनेट संस्करण अब मोबाइल फोन हैंडसेट तथा टेबलेट पर भी उपलब्ध हैं और अब विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपने मोबाइल फोन अथवा टेबलेट के माध्यम से समाचार पढ़ता है। सफर में चल रहे लोग तथा व्यस्त एग्जीक्यूटिव समाचारपत्र का छपा हुआ संस्करण देखने के बजाए उसका ऑनलाइन संस्करण देखने के आदी होते जा रहे हैं। इसका सीधा सा परिणाम यह है कि सूचना और समाचार जानने की बढ़ती मांग का लाभ समाचारपत्र इंडस्ट्री को होने के बजाए इंटरनेट और तकनीक कंपनियों को हो रहा है।

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रोजेक्ट फार एक्सीलेंस इन जर्नलिज़्म के तहत सन् 2012 की ‘स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडिया’ हाल ही में जारी की गई है। अमरीका में मीडिया इंडस्ट्री की वार्षिक रिपोर्ट का यह नौवां संस्करण है, जो हर वर्ष अमरीकी पत्रकारिता और मीडिया इंडस्ट्री के रुझानों की छानबीन करता है। इस वर्ष के अध्ययन में मोबाइल टेक्नालॉजी और सोशल मीडिया के समाचारों पर प्रभाव को विशेष रूप से शामिल किया गया है।

इस अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन और टेबलेट का प्रयोग करने वाले लोग दिन में कई बार अपने फोन या टेबलेट पर समाचार देखते हैं। यही नहीं, कंप्यूटर अथवा लैपटाप का प्रयोग करने वाले लोगों में से 34 प्रतिशत लोग अपने स्मार्टफोन पर भी समाचार देखते हैं और स्मार्टफोन का प्रयोग करने वाले लोगों में से 27 प्रतिशत लोग अपने टेबलेट पर भी समाचार देखते हैं। अमरीका में समाचार जानने की इच्छा रखने वाला ऑनलाइन वर्ग बढ़ता जा रहा है और समाचारपत्रों की प्रसार संख्या तथा विज्ञापन से होने वाली आय घटती जा रही है। सन् 2000 से अब तक इसमें 43 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है, और अब अमरीका में अधिकतर लोग यह विश्वास करते हैं कि अगले 5 वर्षों में समाचारपत्रों का घरों में वितरण बाधित हो सकता है।

समाचारों के ऑनलाइन पाठक वर्ग में इस वर्ष 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई और विज्ञापनों से होने वाली आय में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई। विज्ञापन पर किये जाने वाले कुल खर्च का 40 प्रतिशत अकेले गूगल के हिस्से में जाता है और ऑनलाइन विज्ञापन बाज़ार का 68 प्रतिशत गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट और एओएल में ही बंट जाता है। दूसरी ओर, समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की आय घटी है और समाचारपत्रों को विज्ञापनों से होने वाली आय घटकर 1984 के स्तर पर आ गई है, वह भी तब जब इसमें महंगाई के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया है। सन् 2011 के आखिरी तीन महीनों यानी अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में ऐप्पल के हालीडे सीज़न की आय 46 अरब डालर थी जब इसी साल पूरे वर्ष के दौरान दैनिक समाचारपत्रों की विज्ञापन और प्रसार से होने वाली कुल आय 34 अरब डालर थी।

यह तो स्पष्ट है कि अमरीका में समाचारपत्रों का भविष्य स्पष्ट नहीं है और कोई एक ही कार्य-योजना सभी समाचारपत्रों की मुश्किलें दूर करने के लिए काफी नहीं है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब मीडिया इंडस्ट्री को अपने कार्यक्षेत्र को दोबारा से परिभाषित करने की आवश्यकता है। समाचारपत्र कभी मात्र जनहित के लिए समाचार देते थे, अब उसी रूप में वह स्थिति तो नहीं रही, पर अब भी समाचारपत्र उद्योग की महत्ता समाप्त नहीं हुई है। ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ के नियमानुसार मीडिया उद्योग को जिंदा रहने के लिए आय के स्रोतों तथा कुल आय में वृद्धि की आवश्यकता है।

प्रसिद्ध अमरीकी मीडिया विश्लेषक श्री रयान फ्रैंक का मानना है कि मीडिया उद्योग के पराभव का कारण यह है कि वह पूरी तस्वीर को न देखकर, मार्केटिंग दृष्टिदोष (मार्केटिंग मायोपिया) से ग्रस्त है और मीडिया उद्योग ग्राहक-केंद्रित (कस्टमर ओरिएंटेड) होने के बजाए उत्पाद-केंद्रित (प्राडक्ट ओरिएंटेड) हो गया है। श्री फ्रैंक का मत है कि मीडिया उद्योग को अब राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय होने के बजाए ‘क्षेत्रीय’ और ‘स्थानीय’ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा स्थानीय सूचना, जानकारी एवं समाचारों का विश्वसनीय स्रोत बनना चाहिए। उनका मानना है कि मीडिया उद्योग को ‘इनीशिएटिव, इन्नोवेशन और इन्वेस्ट’ के मंत्र पर चलकर ही अपनी मौजूदा कठिनाइयों से राहत मिल सकती है। समाचारपत्रों को स्थानीय समुदाय के लिए मोबाइल एप्लीकेशन्स (मोबाइल ऐप्स) का विकास करना चाहिए ताकि वे स्थानीय लोगों के लिए प्रासंगिक बने रहें। यही नहीं, वे समाचारों व सूचनाओं को आकार देने में इंटरनेट के पिछलग्गू की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व की स्थिति में आयें तथा समाचारों एवं शेष सामग्री के माध्यम से जनमत निर्माण में स्वतंत्र भूमिका निभाएं।

इसी तरह विज्ञापनदाताओं के लिए प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें पाठकों के बारे में अधिकाधिक जानकारी होनी चाहिए, यानी, उनके पास सही-सही ‘रीडर प्रोफाइल’ होना लाभदायक होगा। यह इस हद तक होना चाहिए कि उन्हें पता हो कि उनकी कौन सी पाठिका कब गर्भवती होकर तद्नुसार खरीदारी कर रही है।

मीडिया उद्योग को शोध एवं विकास (रिसर्च एंड डेवलेपमेंट) में निवेश पर ज़ोर देते हुए श्री फ्रैंक कहते हैं कि गूगल अपनी प्रयोगशाला में शोध एवं विकास पर बहुत ध्यान देता है तथा भविष्य के रुझान को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि बदलने के लिए भी वह लगातार निवेश करता है। डिजिटल क्षेत्र में गूगल के अग्रणी रहने का यही रहस्य है और मीडिया इंडस्ट्री को इससे सीख लेनी चाहिए।

श्री रयान फ्रैंक मानते हैं कि मीडिया उद्योग को सभी संभावनाओं पर विचार करते हुए अपनी रणनीति तय करनी चाहिए ताकि उसका क्षय रुके और विकास संभव हो सके। देखना यह है कि ‘स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडिया’ अध्ययन से भारतीय मीडिया उद्योग क्या सीख लेता है ? ***

Information, News & Technique
By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Sunday, March 25, 2012

Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !






Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !

 पी. के. खुराना


मेरे मित्र डा. एस.पी.एस.ग्रेवाल, ‘ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट’ के नाम से आंखों का एक अस्पताल चलाते हैं जिसकी शाखाएं, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में हैं। ज्वायंट कमीशन इंटरनैशनल नाम की स्वतंत्र अमरीकी संस्था अमरीका से बाहर के विभिन्न अस्पतालों को गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र (क्वालिटी सर्टिफिकेट) देती है। ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट की खासियत यह है कि यह विश्व का चौथा ऐसा आंखों का अस्पताल था जिसे जेसीआई का गुणवत्ता प्रमाणपत्र मिला था, जो विश्व भर में अस्पतालों के लिए सबसे बड़ा गुणवत्ता प्रमाणपत्र माना जाता है। उसी दौरान जब मैं एक बार ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट के टायलेट में गया तो वहां मैंने एक चेकलिस्ट टंगी देखी जिस पर टायलेट की दुरुस्ती से संबंधित प्वायंट्स लिखे हुए थे और उन्हें टिक किया गया था। ये प्वायंट थे, फ्लश ठीक चल रही है, पेपर रोल लगा है, पेपर नेपकिन हैं, सीट को कीटाणुरहित किया गया है, इत्यादि-इत्यादि।

इससे भी पहले सन् 2003 में जब मेरे ज्येष्ठ सुपुत्र सुमित खुराना ने प्रतिष्ठित थापर विश्वविद्यालय से इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग करने के बाद हमारे पारिवारिक व्यवसाय में कदम रखा तो उसने हमारी कंपनी के हर कर्मचारी के कामकाज की विस्तृत चेकलिस्ट बनाई थी जिसमें ऐसे चरणों का जिक्र था जो दो दशक के अनुभव के बावजूद खुद मुझे भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थे, लेकिन चेकलिस्ट के कारण एकदम से स्पष्ट हो गए। तब से लगातार हम अपने हर काम से पहले चेकलिस्ट अवश्य बनाते हैं। चेकलिस्ट की सहायता हम तब भी लेते हैं जब वह काम हम दस हजारवीं बार कर रहे हों। इससे किसी गलती अथवा काम की पूर्णता में कमी की आशंका कम से कम हो जाती है।

हाल ही में भारतीय मूल के अमरीकी सर्जन डा. अतुल गवांडे की पुस्तक ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ प्रकाशित हुई है जिसमें चेकलिस्ट की महत्ता को विस्तार से रेखांकित किया गया है। किसी भी काम में गलतियों से बचने के लिए चेकलिस्ट एक बहुत साधारण दिखने वाला असाधारण कदम है। वस्तुत: यह इतना साधारण नज़र आता है कि हम अक्सर इसकी महत्ता की उपेक्षा कर देते हैं।

‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ डा. अतुल गवांडे की तीसरी पुस्तक है। इससे पहले उन्होंने ‘कंप्लीकेशन्स’ और ‘बैटर’ नामक दो पुस्तकें लिखी हैं, जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ भी एक असाधारण पुस्तक है जो किसी भी काम में गलतियों की रोकथाम और काम में पूर्ण सफलता के लिए आवश्यक सावधानियों को रेखांकित करती है।

सन् 2002 में प्रकाशित उनकी प्रथम पुस्तक ‘कंप्लीकेशन्स’ बोस्टन के एक अस्पताल में रेजिडेंट सर्जन के रूप में उनके अनुभवों का संग्रह है। अक्सर डाक्टरों पर काम का बहुत बोझ होता है और जटिल आपरेशनों में उन्हें तुरत-फुरत निर्णय लेना होता है। दबाव की उन स्थितियों में भूल हो जाना या गलती हो जाना आम बात है। लेकिन एक छोटी-सी भूल अथवा गलती किसी रोगी की जान ले सकती है। ये डाक्टर भी इन्सान हैं जो जटिलतम परिस्थितियों में सैकेंडों में निर्णय लेने के लिए विवश हैं। इन्सान के रूप में हम गलतियों के पुतले हैं, अत: गलतियों की रोकथाम हमारे लिए सदैव से एक बड़ी चुनौती रही है। डा. गवांडे का कहना है कि वे इस बात में रुचि ले रहे थे कि लोग असफल क्यों होते हैं, समाज का पतन क्यों होता है, और इसकी रोकथाम कैसे की जा सकती है। अमरीका में जनस्वास्थ्य नीति के एक प्रमुख चिंतक के रूप में उभरे डा. अतुल गवांडे की दूसरी पुस्तक ‘बैटर’ यह बताती है कि डाक्टर लोग सर्जरी के समय किस तरह गलतियों से बच सकते हैँ और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सर्जरी के समय कोई महत्वपूर्ण छूट न जाए।

उनकी हालिया पुस्तक ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ एक कदम आगे बढ़कर पूर्ण विस्तार से बताती है कि यदि डाक्टर लोग काम की पूर्णता और शुद्धता, यानी, ‘कॉग्नीटिव नेट’ का पालन करते हुए जटिल आपरेशनों से पहले चेकलिस्ट बना लें तो केवल स्मरणशक्ति पर निर्भर रहने के कारण होने वाली भूलों से बचा जा सकता है और कई कीमती जानें बचाई जा सकती हैं। उनके इस विचार को विश्व के आठ अलग-अलग अस्पतालों में टेस्ट किया गया और यह आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि उन अस्पतालों में आपरेशन के बाद की मृत्यु दर में 50 प्रतिशत तक की कमी आ गई। पचास प्रतिशत! यह एक दुखदायी परंतु कड़वा सच है कि अस्पतालों में होने वाली मौतों का 50 प्रतिशत डाक्टरों की छोटी-छोटी भूलों और गलतियों से होता है, और इन गलतियों अथवा भूलों की रोकथाम करके बहुत से रोगियों की जानें बचाई जा सकती हैं।

डा. गवांडे ने दो और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। अमरीका के कनेक्टिकट में स्थित हार्टफोर्ड अस्पताल में लगभग 50 वर्ष पूर्व लगी एक आग के बाद लोगों ने डाक्टरों अथवा अस्पताल प्रबंधन पर दोष मढऩे के बजाए बार-बार आग लगने के कारणों का पता लगाने का प्रयत्न किया तो अस्पताल में प्रयुक्त पेंट और सीलिंग की टाइलें अग्निरोधक नहीं थे और आग लगने की अवस्था में लोगों को बाहर निकालने की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण थी। इन परिणामों के बाद चेकलिस्ट एक विस्तृत चेकलिस्ट बनी और अमरीका में अस्पतालों के भवन निर्माण के नियमों में आवश्यक परिवर्तन किये गये।

दूसरी, और उससे भी कहीं ज्य़ादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि गलतियों की रोकथाम न की जाए तो समय बीतने के साथ-साथ हम जीवन में गलतियों और भूलों को जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। किसी कोर्स की पुस्तक संभावित गलतियों का जिक्र नहीं करती, कोई अध्यापक किसी कक्षा में गलतियों से बचने के तरीकों पर बात नहीं करता, और यहां तक कि जानलेवा गलतियां भी सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। चेकलिस्ट की सहायता से हम उन गलतियों से बच सकते हैं।

डा. गवांडे के इस अनुभव में मैं सिर्फ इतना जोडऩा चाहूंगा कि जीवन के हर क्षेत्र में चेकलिस्ट का महत्व है। नौकरी में, व्यवसाय में, प्रशासन में, यात्रा में, हर जगह चेकलिस्ट का महत्व है और यदि हम इस छोटी-सी सावधानी का ध्यान रखें तो हम बहुत सी अनावश्यक असफलताओं से बच सकते हैं। ***

Significance of the Checklist
By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Monday, February 20, 2012

Is our country a mere Election Constituency ? :: क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?




Is our country a mere Election Constituency ?
क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?



By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)


प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?

 पी.के. खुराना



पिछले कुछ समय से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में बहुत सक्रिय हैं क्योंकि वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत देखना चाहते हैं। मीडिया भी राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा से संबंधित खबरें नमक-मिर्च-मसाले सहित पेश कर रहा है। वहीं भाजपा भी सुश्री उमा भारती के सहारे उत्तर प्रदेश में कुछ और सीटें जीतने की जुगत में है। चुनावी दंगल में यह सब सामान्य है। क्षेत्रीय दलों की बात छोड़ दें तो ये दोनों देश के प्रमुख राष्ट्रीय दल हैं जो उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

पर ऐसा क्यों है कि चुनाव के समय राजनेता सक्रिय हो जाते हैं और घोषणाओं और तमाशों का अंबार लगा देते हैं और चुनाव के बाद सब सो जाते हैं, यहां तक कि अक्सर मीडिया भी सो जाता है और जनता भी मान लेती है कि चूंकि अब चुनाव का समय नहीं रहा अत: नेताओं का उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। चुनाव के बाद गाहे-बगाहे पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बयान आते हैं जब वे सरकार की किसी नीति पर कोई टिप्पणी करते हैं पर ज्य़ादातर मामलों में वे बयान, बयानों तक सीमित रह जाते हैं, ज़मीन के स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं होती, जब तक कि कोई बड़ा कांड न हो जाए और उस कांड के माध्यम से बड़े प्रचार की उम्मीद न हो।

चुनाव के बाद अक्सर विश्लेषक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि जनता ने सबको (विश्लेषकों सहित) आश्चर्यचकित किया है और जनता बहुत समझदार हो गई है तथा जनता अब अपना वोट अपनी मर्जी से देती है। अगर हम सचमुच बहुत समझदार हो गए हैं तो ऐसा क्यों होता है कि मीडिया को तथा स्वयंसेवी संस्थाओं को लोगों को वोट डालने की अपील के अभियान चलाने पड़ते हैं? सब जानते हैं कि आज भी देश में शराब, कंबल और नोटों से वोट खरीदे और बेचे जाते हैं; जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और राज्य के नाम पर वोटों का बंटवारा होता है। राजनेता इसे बखूबी जानते हैं और वोट लेने के लिए हर हथियार आजमाते हैं। अफसोस यह है कि ज़मीनी हकीकतों से नावाकिफ टीवी और अखबारों के विद्वान पत्रकार और स्वतंत्र विश्लेषक लोग अपना अनाड़ीपन छुपाने के लिए ‘जनता समझदार हो गई है’ का जुमला उछालते हैं। चुनाव परिणामों के बारे में पूरी तरह से गलत भविष्यवाणी करने और सार्वजनिक रूप से देश से माफी मांगने के बावजूद अगली बार भी वे ही विश्लेषक हर टीवी चैनल पर नज़र आते हैं और असलियत की तह तक गए बिना उसी बेशर्मी से अगली भविष्यवाणियां करते हैं।

आज राजनेता देश और जनता को महज़ एक चुनाव क्षेत्र और जनता को सिर्फ मतदाता के रूप में ही देखते हैं। उनकी रणनीति, घोषणाएं और सारे कामकाज वोट बैंक बनाने की नीयत से संचालित होते हैं। अफसोस की बात यह है कि मीडिया भी उनकी इस चाल को पहचान नहीं पाया है बल्कि मीडिया भी देश और जनता के साथ चुनाव क्षेत्र और मतदाता की ही तरह व्यवहार करता है।

चुनाव के बाद विपक्ष की क्या भूमिका है? सरकारी नीतियों की आलोचना करना, सदन में शोर मचाना, सदन से बहिर्गमन करना और आंदोलन करना मात्र? क्या विपक्ष के पास किसी रचनात्मक काम की कोई योजना नहीं होनी चाहिए? क्या विपक्ष जनता की समस्याओं के समाधान के लिए कोई कार्यक्रम नहीं चला सकता? क्या हर रचनात्मक कार्यक्रम चलाने के लिए सरकार में होना ही आवश्यक है?

सरकार बन जाने पर क्या यह नहीं होना चाहिए कि सरकार अपने कामकाज की अर्धवार्षिक अथवा वार्षिक समीक्षा करे और बताए कि चुनाव घोषणा पत्र में से कितने वायदे पूरे हो गए, कितने बाकी हैं और जो बाकी हैं उनकी स्थिति क्या है?

चुनाव के बाद सरकार और विपक्ष के कामकाज की सर्वांगीण समीक्षा के लिए मीडिया कितने अभियान चलाता है? जनमत निर्माण में यहां बुद्धिजीवियों और मीडिया की भूमिका की समीक्षा भी आवश्यक है। और, इससे भी ज्य़ादा आवश्यक है कि चुनाव की मारामारी खत्म हो जाने के बाद जनता के सभी वर्गों में जागरूकता के लिए कोई नियोजित अभियान चलाया जाए। लोकसभा और राज्यसभा में ऐसे बहुत से लोग चुने गए जो शपथ लेने के बाद सदन में गए ही नहीं, या फिर अपने कार्यकाल की पूरी अवधि में एक बार भी बोले ही नहीं। क्या ऐसे लोगों की अलग से पहचान आवश्यक नहीं है? क्या मतदाताओं को ऐसे लोगों की कारगुज़ारी के बारे में सूचित करना आवश्यक नहीं है?

सवाल यह है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, जब तक एक नागरिक के रूप में हम जागरूक नहीं होंगे, अपने अधिकारों और कर्तव्यों की बारीकियां नहीं समझेंगे तब तक यही होता रहेगा। सच तो यह है कि इसमें राजनेताओं को दोष सबसे कम है, क्योंकि उन्हें तो येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना है, और हो सके तो बहुमत प्राप्त करना है ताकि वे सत्ता में आ सकें। मतदाता के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, राज्य और पार्टी से ऊपर उठकर सोचें और सही प्रत्याशी का समर्थन करें। चुनाव के बाद भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं की लगाम खींचते रहें और उन्हें अहसास दिलाते रहें कि हम जनता हैं और हम निर्वाचक हैं। यह बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे इस पर सेमिनार करें, बहस करें, आंदोलन करें। इसी प्रकार यह मीडिया का कर्तव्य है कि चुनाव के बाद भी वह चुनाव और पक्ष-विपक्ष के कामकाज को लेकर लगातार जनमत तैयार करते रहें। यह एक अनवरत प्रक्रिया होनी चाहिए, जो फिलहाल नहीं है।

देखा तो यह भी गया है कि कोई मीडिया घराना सूखी होली के पक्ष में अभियान चलाता है, पर वह अभियान इतना कागज़ी होता है कि उस संस्थान से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और पत्रकार भी खुद सूखी होली नहीं मनाते और वह अभियान दरअसल सिर्फ अखबार में छपे विज्ञापनों तक ही सीमित होकर रह जाता है।

हमारे देश में अभी पौधारोपण कार्यक्रम के बाद, उन पौधों की सुरक्षा की संस्कृति नहीं बन पाई है। दहेज़ ने लेने की शपथ दिलाने वाली संस्थाएं उसके बाद शपथ लेने वालों का ट्रैक नहीं रखतीं। अब हमें का$गज़ी कार्यवाहियों की संस्कृति से ऊपर उठना होगा और प्रचार या ग्रांट के लिए कार्यक्रम आयोजित करने वाली संस्थाओं की असलियत को समझना होगा और नीति के साथ-साथ नीयत को भी परखना होगा। हमें खुद जागरूक होना होगा और अपने आसपास के लोगों को जागरूक करना होगा। हमें दीपक जलाना होगा और उस दीपमाला में परिवर्तित करना होगा। यह हमारी जिम्मेदारी है, हम सबकी जिम्मेदारी है। 

Sunday, February 19, 2012

गलत होता व्याकरण




गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना


हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 

Population : Boon or Bane / जनसंख्या : समस्या अथवा वरदान




Population : Boon or Bane
जनसंख्या : समस्या अथवा वरदान


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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जनसंख्या : समस्या अथवा वरदान -- पी. के. खुराना

जनसंख्या के लिहाज़ से भारतवर्ष विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। आबादी के आकार की बात करें तो हमारा देश अमरीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, पाकिस्तान, बांग्लादेश और जापान की सम्मिलित आबादी के बराबर है और पिछले 10 वर्षों में हमारे देश की जनसंख्या में एक पूरे देश ब्राज़ील की जनसंख्या और जुड़ गई है। जनसंख्या बढऩे का मतलब है कि हमें ज्यादा लोगों के शिक्षा के साधन, रोज़गार, खाना और रहने के लिए मकान चाहिएं। हमारे देश में बहुत सी समस्याएं हैं, जनसंख्या की समस्या उनमें से बहुतों का मूल है, पर यह भी सच है कि ज्यादा आबादी के कारण आज हम लाभ की स्थिति में भी हैं।

भारतवर्ष में 15 वर्ष से 59 वर्ष के लोगों की वृद्धि का अनुपात आबादी की वृद्धि के अनुपात से अधिक है और यह स्थिति 2030 तक बने रहने की उम्मीद है। यह वह आबादी है जो काम में लगी है अथवा काम में लगाई जा सकती है। ऐसी जनसंख्या वाला भारत एकमात्र विकासशील देश है।

आज हमारे सामने सवाल यह है कि जनसंख्या के इस वर्ग को काम में लगाकर हम इसे अपने लिए वरदान बना लेंगे या फिर राजनेताओं की थोथी बयानबाज़ी और अपनी खुद की लापरवाही, अकर्मण्यता तथा अज्ञान के कारण बढ़ती आबादी को अपने लिए अभिशाप बना लेंगे तथा वर्तमान से भी ज्य़ादा गरीबी तथा साधनहीनता की स्थिति में पहुंच जाएंगे। हमारे सामने यह एक बड़ी चुनौती है, और यही एक बड़ा अवसर भी है।

फ्रेंच पोलिटिकल सांइटिस्ट क्रिस्टोफर जैफरेलो दक्षिण-पश्चिम एशिया मामलों के विशेषज्ञ हैं और भारत-पाकिस्तान पर उनकी खास पकड़ है। उनकी संपादित पुस्तक ‘इंडिया सिंस 1950 : सोसाइटी, पॉलिटिक्स, इकोनामी एंड कल्चर’ में भारत का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विश्लेषण किया गया है। इसी पुस्तक के अध्याय ‘इंडिया 2025’ के अनुसार भारतवर्ष उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सर्वाधिक संभावनाओं वाला देश है। यहां न सिर्फ राजनीतिक स्थिरता है बल्कि यहां लोकतंत्र के साथ बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था भी है। हालांकि भारत की विकास दर यदा-कदा ही दोहरे अंक तक पहुंच सकी है लेकिन पिछले दस वर्षों से यह 7-8 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है। जीडीपी के लिहाज से 2025 तक हमारा देश अमरीका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश बन जाएगा। बचत और निवेश की अच्छी दर का भी भारत को लाभ मिलेगा और सन् 2020 तक देश की उत्पादकता भी बढ़ती रहने के संकेत हैं।

विद्वानों का मानना है कि उत्पादकता बढऩे के पांच मुख्य कारण हैं। एक, अर्थव्यवस्था में कृषि की जगह उद्योग और सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी; दो, विश्व अर्थव्यवस्था में भारतीय कंपनियों की बढ़ती हिस्सेदारी; तीन, बैंकिंग सेक्टर का आधुनिकीकरण; चार, आईटी टूल्स का बढ़ता इस्तेमाल; और पांच, संचार व परिवहन के साधनों का विकास।

क्या भारतीय अर्थव्यवस्था इसी रफ्तार से आगे बढ़ सकती है? अगर हां, तो आने वाले वर्षों में इसके क्या समाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणाम होंगे? एक चुनौती तो स्पष्ट रूप से बढ़ती असमानता है। यह असमानता सिर्फ सामाजिक स्तर पर नहीं, बल्कि भौगोलिक स्तर पर भी है। ग्रामीण भारत आगे नहीं बढ़ रहा है। इससे ग्रामवासियों में शहरी मध्यवर्ग के मुकाबले गहरी हताशा पैठ सकती है और यह असंतोष माओवादियों अथवा ऐसे ही अन्य संगठनों के पक्ष में जा सकता है। हमारी चुनौती यह है कि आबादी को हम बोझ न बनने दें बल्कि उसे परिसंपत्ति में परिवर्तित कर दें।

माना जाता है कि भारत की आबादी इक्कीसवीं सदी के मध्य तक चीन को पार कर डेढ़ अरब हो जाएगी। साल 2025 तक कामकाजी वर्ग की आबादी मे 25 करोड़ लोगों का इज़ाफा होगा। इसका अर्थ है कि भारत अन्य देशों के मुकाबले में युवा रहेगा और शायद वेतन भी कम रखने की स्थिति में होगा। इस वर्ग को परिसंपत्ति बनाने के लिए हमें शिक्षा सुविधाओं का तेज विकास करना होगा और नए रोजगार पैदा करने होंगे। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा ऐसी हो जिससे कृषक वर्ग भी लाभान्वित हो सके। आबादी में हर साल एक करोड़ सत्तर लाख लोगों के जुडऩे का मतलब है कि खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनने के लिए हमें कृषि उत्पादन में सालाना 4 से 4.5 प्रतिशत तक की वृद्धि सुनिश्चित करनी होगी। उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में पिछले दस वर्षों में कृषि उत्पादन गिरा है। राष्ट्रीय स्तर पर गेहूं और चावल का उत्पादन स्थिर हो गया है। इससे प्रति व्यक्ति अनाज और दालों की उपलब्धता घटी है। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।

कमज़ोर इन्फ्रास्ट्रक्चर एक अहम अड़चन है। सड़कों और रेलों के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। ऊर्जा की स्थिति और भी संकटपूर्ण है। कोयले और तेल की बढ़ती खपत का संकट अलग से है। परिणामस्वरूप बिजली की कटौती जारी रहने की आशंका है। ऐसे में बढ़ती आबादी का बड़ा हिस्सा बेरोज़गार, अर्धशिक्षित अथवा अशिक्षित तथा साधनहीन होगा। इस स्थिति को न बदला गया तो बढ़ती आबादी सचमुच अभिशाप बन जाएगी। स्थिति को बदलने के लिए सबसे पहले कस्बों और गांवों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के तेज विकास के लिए काम करना होगा, उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी तथा उन्हें रोज़गारपरक उद्यमिता की शिक्षा देनी होगी। कंज्य़ूमर गुड्स कंपनियों को आज ग्रामीण भारत में बड़ा बाज़ार नज़र आ रहा है। इस बाज़ार को बढ़ाने के लिए यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में योगदान उनके अपने हित में है। विभिन्न सरकारें भी इस ओर ध्यान दें तो समाज में असमानता नहीं होगी तथा सामाजिक विघटन का खतरा नहीं रहेगा। हमारी अधिकांश आबादी कामकाजी होगी तो गरीबी मिटेगी, देश समृद्ध होगा और उसके कारण भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास होगा। यह एक ऐसा सार्थक चक्र होगा जो देश को विकास की नई दिशा देगा और हमें विकसित देश बनने में मददगार साबित होगा।

अगर हमने ऐसा न किया तो यह आबादी अभिशाप बन जाएगी, स्लग एरिया बढ़ेगा, चोरियां, हत्याएं और सभी तरह के अपराध बढ़ेंगे, गांवों को विकास नहीं होगा और शहरों का जीवन असुरक्षित हो जाएगा। हमें याद रखना चाहिए कि गरीबी और विकास के बीच चुनाव हमें करना है, परिणाम भी हम ही भुगतेंगे। 

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Crisis, Opportunity & Development :: संकट, अवसर और विकास




Crisis, Opportunity & Development :: संकट, अवसर और विकास


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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संकट, अवसर और विकास
-- पी. के. खुराना

भारत एक विकासशील देश है। नब्बे के दशक में जब उदारवाद आया तो विदेशी कंपनियों को भारत के मध्य वर्ग में एक बड़ा बाज़ार दिखा और यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्टोर फटाफट खुलने आरंभ हो गये, परंतु ऊंचे किराये, ऊंची तनखाहों वाला स्टाफ और महंगे सामान से अटे स्टोर ग्राहकों की राह देखते रह गये। विभिन्न मॉल भी इसलिए असफल हुए क्योंकि वे मूलरूप से ऊंची क्रयशक्ति वाले ग्राहकों की आवश्यकताओं की ही पूर्ति करते थे। परिणाम यह हुआ कि लोग मॉल में सामान खरीदने के बजाए पिकनिक मनाने के लिए जाने लगे। मॉल के फूड कोर्ट में तो ग्राहक थे पर अन्य स्टोर ग्राहकों को ज्य़ादा आकर्षित नहीं कर सके। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को धीरे-धीरे समझ में आया कि भारतीय मध्य वर्ग बड़ा अवश्य है पर उसकी क्रयशक्ति सीमित है। तब एक और धारणा ने बल पकड़ा कि भारतीय ग्राहक गरीब है और उसे अन्य क्षेत्रों के सफल उत्पादों का तामझामरहित, सीधा-सादा संस्करण चाहिए। साम्राज्यवादी मानसिकता का यह ऐसा उदाहरण है जो दिखने में तो तर्कसंगत लगता है पर व्यावहारिक नहीं है। गुज़रे समय के अनुभव ने इसे भी सिद्ध कर दिया है। वस्तुत: ग्रामीणों को सिटी बैंक का 'गरीब संस्करण' नहीं चाहिए था, उन्हें ग्रामीण बैंक चाहिए था। उन्हें भारतीय आवश्यकताओं और नज़रिये वाले उत्पादों और सेवाओं की आवश्यकता थी।

आज भारत की अर्थव्यवस्था दबाव में है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी उत्साहजनक नहीं है, मुद्रा के रूप में रुपये का बुरा हाल है, आयात महंगा हो गया है, निर्यात हो नहीं रहा, महंगाई बढ़ रही है, बेरोज़गारी की दर बढ़ रही है, भ्रष्टाचार चरम पर है और आम नागरिक असहाय है। सरकार गठबंधन की विवशताओं की दुहाई दे रही है और विपक्ष सरकार की हर नीति की आलोचना कर रहा है। समाजसेवी अन्ना हज़ारे के आंदोलन में चाहे वक्ती ही सही, पर ठहराव आया है और अभी यह कह पाना मुश्किल है कि भविष्य की करवट कैसी होगी।

इस बीच सभी औद्योगिक संघ एक स्वर में सुधारों में तेजी लाने की वकालत कर रहे हैं और वर्तमान अव्यवस्था के लिए सरकार की ढुलमुल नीति को दोष दे रहे हैं। उद्योगपतियों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों में आर्थिक सुधार की दिशा में उठाये गए कदमों की गति धीमी हुई है या रुकी रही है। उद्योग संघों के इस नज़रिये के आलोचक कहते हैं कि अगर खुली अर्थव्यवस्था ही सब समस्याओं का समाधान होती तो अमेरिका और यूरोप में मंदी न आती। इन आलोचकों का मानना है कि केंद्रीय बैंक के महंगाई रोकने के कदमों का विरोध करने वाले मुनाफा बटोरने की हवस से ग्रस्त उद्योगपति सिर्फ अपने लाभ के लिए कम ब्याज दरों की वकालत कर रहे हैं। उनके अनुसार समस्याओं का मूल एफडीआई की अनुमति न होना नहीं है बल्कि गरीबी है जिसे दूर करने में सरकार विफल रही है और उद्योगपतियों को उसमें कोई रुचि नहीं है। कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि खेती को लाभदायक बनाने के लिए उसे सीधी आय का समर्थन दिया जाना चाहिए क्योंकि खेती लाभप्रद हुई तो देश की अर्थव्यवस्था खुद-ब-खुद पटरी पर आ जाएगी।

यह कहना गलत नहीं है कि इस समय सरकार का नज़रिया पूंजीवादी है और कंपनियों के लिए राहत पैकेज के आंकड़े इतने चौंकाने वाले हैं कि दिमाग घूम जाता है। जीटीएल का बिल 22,000 करोड़ रुपये का है, एयर इंडिया को 30,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता है और किंगफिशर एयरलाइन्स की देनदारियां 6,500 करोड़ रुपये की हैं और भारतीय स्टेट बैंक उसे 'मदद' देने की योजना पर काम कर रहा है। यह तो उसी पुरानी कहावत को चरितार्थ करता है कि यदि आप पर लाखों रुपये का कर्ज है तो आप संकट में हैं पर यदि आप पर अरबों रुपये का कर्ज है तो यह बैंक की समस्या है। यह सही है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक खर्च में 30-40 हजार करोड़ रुपये का खर्च होगा लेकिन कंपनियों के लिए राहत पैकेज के मुकाबले में यह राशि कुछ भी नहीं है।

मैंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया है कि खैरात से गरीबी दूर नहीं हो सकती। हमें गरीबों का सब्सिडी और आरक्षण की बैसाखी देने के बजाए उन्हें रोज़परक तथा उद्यमिता की शिक्षा और साधन देने होंगे जो उन्हें गरीबी के अभिशाप से मुक्ति दिला सके। इसके अलावा सरकार के सभी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भ्रष्टाचार में फंसकर अप्रभावी हो जाते हैं और अंतत: अमीरों को और अमीर बनाने के काम आते हैं।

यदि हम पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से सहमत नहीं हैं और सरकार की लोक कल्याणकारी नीतियों में भी खामियां देखते हैं तो हमारे पास कौन सा रास्ता बचता है ? उत्तर है कि हमें मध्यमार्गी होना होगा।

सन् 2011 में संकट में फंसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए नया साल, नई ज़मीन, नये विचार और नए लक्ष्य तय करने का साल होना चाहिए। एक तरह से हम एक टिपिंग प्वायंट, यानी बदलाव की धुरी पर खड़े हैं। संकट के समय ही नये अवसरों की खोज होती है। हमें इस संकट को अवसर में बदलना होगा।

हमें आर्थिक सुधार तेजी से लागू करने होंगे, निर्यात के नये बाज़ार खोजने होंगे, आयात को नियंत्रित करने की रणनीति बनानी होगी, कर सुधार लागू करने होंगे, बुनियादी ढांचा मजबूत बनाने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, युवा वर्ग को प्रतिभा और कौशल उन्नयन से सज्जित करना होगा, घरेलू क्षेत्र में मांग को बढ़ाना होगा, कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे।

राजकोषीय हालात दुरुस्त करने के लिए खर्च में इस तरह से कटौती करनी होगी कि इस कटौती के कारण ही मंदी के हालात न बन जाएं। विकसित देशों की खराब वित्तीय स्थिति से सबक लेकर हमें आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार नीतियां बनानी होंगी। मार्च में विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद केंद्र सरकार नीतिगत फैसले लेने की गति तेज़ कर सकती है और केवल आर्थिक सुधार ही नहीं बल्कि तमाम जरूरी विधेयकों को कानून में बदल सकती है। पिछले दो साल से पॉलिसी पैरालाइसिस का आरोप झेल रही सरकार मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देकर इस आरोप से मुक्त हो सकती है।

दूसरी ओर उद्योग जगत को भी मुनाफाखोरी की हवस छोड़कर सस्ते उत्पाद विकसित करने होंगे जो आम आदमी की पहुंच में हों। उद्योग जगत की ओर से बुनियादी ढांचा सुदृढ़ करने के लिए कुछ विशेष नहीं किया जा रहा है। सारे काम सिर्फ सरकार के ही नहीं हैं। उद्योग जगत को इस ओर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है।

यह कहना मुश्किल है कि केंद्र की यूपीए सरकार ऐसा करेगी या नहीं, या कर पायेगी या नहीं। पर आज हमारे सामने एक बड़ा संकट है और इस संकट को अवसर में बदलने का अवसर भी है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारी सरकार और उद्योग जगत मिलकर इस अवसर का लाभ उठायेंगे। ***



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