Saturday, April 14, 2012

Well-in-time Day :: वैल-इन-टाइम डे





वैल-इन-टाइम डे
• पी.के. खुराना

हमने पश्चिम से बहुत कुछ सीखा है। बहुत-से मामलों में हम सिर्फ नकल ही कर रहे हैं, जबकि कई अन्य मामलों में हमने सिर्फ नकल से आगे बढ़कर उस कार्य-संस्कृति को भी आत्मसात किया है या काम के पीछे की कहानी को भी समझा और अपनाया है। इस बात का खुलासा करूं तो शायद तमिलनाडु के शहर मदुरै में स्थित अरविंद आई हास्पिटल का उदाहरण सर्वाधिक सटीक है। अरविंद आई हास्पिटल की अंतरराष्ट्रीय पहचान है क्योंकि यह लगभग न के बराबर के खर्च में आंखों के इलाज और अंधता दूर करने के मिशन से काम कर रहा है।

अरविंद आई हास्पिटल मात्र लाभ के लिए काम करने के बजाए जनसेवा की भावना से काम कर रहा है और आज यह मात्र एक अस्पताल नहीं बल्कि एक ख्यात जनसेवा संस्थान के रूप में जाना जाता है। अरविंद आई हास्पिटल में कार्यरत डाक्टर अन्य अस्पतालों के डाक्टरों की अपेक्षा कहीं ज्य़ादा आप्रेशन करते हैं। इस प्रकार ज्यादा कुशलता (एफिशेन्सी) के कारण इस इकोनामी आफ स्केल का लाभ मिलता है, यानी इसका लाभ ज्यादा मार्जिन में नहीं बल्कि ज्य़ादा से ज्य़ादा संख्या में आप्रेशन करने में है। जनसेवा की भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण इस बात में है कि अरविंद आई हास्पिटल विश्व के किसी भी अन्य अस्पताल को अपने मैनेजमेंट सिस्टम दिखाने और बताने से गुरेज़ नही करता, तो भी उनका अनुभव यह है कि अन्य अस्पतालों से आये लोग ‘तकनीक’ तो समझ लेते हैं, पर अरविंद आई हास्पिटल की आत्मा, यानी संस्कृति को नहीं अपनाते, यही कारण है कि वे इस शानदार प्रबंधन प्रणाली का पूरा लाभ नहीं ले पाते। रणबीर कपूर की प्रसिद्ध फिल्म ‘राकेट सिंह’ भी यही संदेश दोहराती है कि किसी काम को पूर्णता में सीखने-समझने में ही लाभ है। पश्चिम से सीखी जाने वाली बातों पर भी यही नियम लागू होता है।

जगद्गुरू कहे जाने वाले भारतवर्ष में अब हम ज़ोर-शोर से मदर्स डे, फादर्स डे, वैलेंटाइन डे आदि मनाने लग गए हैं। पिछले कई वर्षों की तरह इस वर्ष भी देश के कई हिस्सों में 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे ज़ोर-शोर से मनाया गया। प्यार के फरिश्ते संत वैलेटाइन की स्मृति में मनाए जाने वाले इस दिन को मीडिया ने और भी ज्य़ादा उत्साह से मनाया। भारतवर्ष के लिए यह सिलसिला अब नया नहीं रहा। कोई भी ‘दिवस’ मनाने के पीछे एक उद्देश्य होता है, कभी वह पूर्वजों के बलिदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है, कभी बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न है और कभी रिश्तों की मजबूती का प्रयास या नए रिश्ते गढऩे का अवसर होता है।

पश्चिम से, या कहीं से भी अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है। दिमाग की खिड़की खुली रखने पर ही हम रोशनी अंदर आने दे सकते हैं। हमें भारत को जगद्गुरू कहने में गर्व होता है। जगद्गुरू बने रहने के लिए आंतरिक विकास एक आवश्यक शर्त है। आज जगद्गुरू भारत को हर अच्छी बात सीखने के लिए तैयार होना होगा, चाहे वह पश्चिम से आये या जापान, चीन अथवा ताइवान से।

पश्चिमी संस्कृति से समय की पाबंदी जीवन का एक हिस्सा है। भारतवर्ष में हम पश्चिम से मिलने वाली आसान चीजों की नकल कर रहे हैं लेकिन लाभदायक बातों को सीखने की कोशिश कुछ कम कर रहे हैं। समय की पाबंदी जीवन में सफलता के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। लेकिन हमारी परियोजनाएं हमेशा अलग ही कहानी कहती हैं। कोई भी सरकारी परियोजना समय पर पूरी नहीं होती, समय पर पूरी न होने के कारण उनकी कीमत कई-कई गुणा बढ़ जाती है। बहुत-सी परियोजनाएं इसलिए अधर में लटक जाती हैं कि सत्तासीन दल बदल गया। भारतवर्ष में सरकारी परियोजनाओं में समय की पाबंदी का कोई महत्व नहीं है। सरकारी लोगों के लिए आई.एस.टी. का मतलब ‘इंडियन स्टैंडर्ड टाइम’ नहीं बल्कि ‘इंडियन स्ट्रैचेबल टाइम’ है। सरकारी डिक्शनरी वाले ‘समय’ को आप रबड़ की तरह जितना चाहें लंबा खींच सकते हैं।

स्ट्रैचेबल टाइम की इस फिलासफी ने भारत का बहुत नुकसान किया है। अनुशासनहीनता, काम के प्रति गैर-जिम्मेदारी का स्थाई भाव हमारी कार्य-संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। इसके इलाज के लिए अब हमें वैलेंडाइन डे की तरह ‘वैल-इन-टाइम-डे’ मनाना शुरू करने की आवश्यकता है।

जापान में सुनामी के समय कुछ अधिकारियों को रिएक्टरों को बंद करने का कार्य सौंपा गया। अपनी जान की परवाह किये बिना उन लोगों ने किस तल्लीनता और शालीनता से वह कर्तव्य निभाया, यह सारी दुनिया ने देखा। चीन और ताईवान का सामान दुनिया भर के बाजारों में कैसे बढ़त बना रहा है, यह हम सब के सामने है। भारतीय त्योहारों और भारतीय संस्कृति से जुड़ा चीनी और ताईवान सामान भारत भी इतना सटीक, उपयोगी और सार्थक होता है कि आश्चर्य होता है कि किसी भारतीय ने ऐसा क्यों नहीं सोचा?

लगभग 25 वर्ष पूर्व रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण ‘सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट’ में एक लेख छपा था जिसमें यह बताया गया था कि भारतवर्ष में अंग्रेजों के शासनकाल के समय में मुंबई (तब बंबई) म्युनिसिपल कारपोरेशन के भवन के निर्माण के लिए ठेका दिया गया। वह निर्माण तय समय से पूर्व पूरा हुआ, तय बजट से कम खर्च में पूरा हुआ और भवन के उद्घाटन के समय उस पर लगी उद्घाटन पट्टिका में उपरोक्त दोनों तथ्यों का जिक्र शामिल था। क्या इस उदाहरण से तथा चीन, जापान और ताईवान के उदाहरणों से हम कुछ सीख सकते हैं ?

हरियाणा में पूर्व मंत्री तथा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे श्री फूल चंद मुलाना समय की पाबंदी के लिए जाने जाते हैं। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप समय की पाबंदी का नियम कैसे निभा पाते हैं, कैसे हर आयोजन में आप समय पर पहुंच जाते हैं। इसका उत्तर दिखने में जितना साधारण था, उन शब्दों में उतनी ही गहराई भी है। श्री मुलाना ने मुझे कहा, “मैं वैसे ही हर जगह समय पर पहुंचता हूं, जैसे हर दूसरा आदमी देर से पहुंचता है!” उनका अभिप्राय यह था कि समय पर पहुंचना उतना ही आसान है, जितना देर से पहुंचना, यानी समय की पाबंदी मात्र एक आदत है। शुरू में हर आदत अनुशासन से बनती है, बाद में वह सिर्फ एक आदत होती है और हमारा अवचेतन मस्तिष्क उसे अपना लेता है तो वह सामान्य रुटीन बन जाती है।

मैं फिर कहना चाहूंगा कि पश्चिम से, या कहीं से भी अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है। दिमाग की खिड़की खुली रखने पर ही हम रोशनी अंदर आने दे सकते हैं। हमें भारत को जगद्गुरू कहने में गर्व होता है। जगद्गुरू बने रहने के लिए आंतरिक विकास एक आवश्यक शर्त है। आज जगद्गुरू भारत को हर अच्छी बात सीखने के लिए तैयार होना होगा, चाहे वह पश्चिम से आये या जापान, चीन अथवा ताइवान से। ***

Well-in-time Day
by : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Responsibility Should be Fixed Personally :: व्यक्तिगत हो जिम्मेदारी





व्यक्तिगत हो जिम्मेदारी
• पी. के. खुराना

बात तो राजस्थान की है, पर लागू सारे देश पर होती है। राजस्थान उच्च न्यायालय में रामगढ़ बांध के भराव के मुद्दे पर सुनवाई चल रही है। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने कुछ सरकारी अधिकारियों को गवाही के लिए बुलाया है। मुकद्दमे चलते हैं तो गवाह बुलाए ही जाते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। पर इस मामले में एक बात नई अवश्य है, और वह यह है कि न्यायालय ने जिन अधिकारियों को तलब किया है उन्हें उनके पदनाम (डेजिगनेशन) से नहीं, बल्कि उनके नाम से सम्मन भेजे गए हैं। सरकारी अधिकारियों को नामजद करके सम्मन भेजने का यह काम नया है और यदि यह एक स्थापित प्रथा बन जाए तो देश का बहुत भला हो सकता है।

निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले श्री गुलाब कोठारी एक प्रतिष्ठित संपादक हैं और पत्रकारिता में वे तथ्यपरक पत्रकारिता के पक्षधर रहे हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय के इस मामले का हवाला देते हुए श्री कोठारी ने कई विचारणीय मुद्दे उठाए हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई न्यायालय किसी अधिकारी को उनके नाम के बजाए उनके पद के नाम से सम्मन भेजता है तो अधिकारी उसकी परवाह नहीं करते, क्योंकि सम्मन आते रहते हैं और अधिकारी बदलते रहते हैं। निर्णय कोई व्यक्ति लेता है और सम्मन उसकी जगह किसी नये आये अधिकारी को मिल जाता है। इससे व्यक्ति की जिम्मेदारी आयद नहीं होती और अधिकारी लोग गलतियों अथवा भ्रष्टाचार के बावजूद सज़ा से बच निकलते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि यदि नामजद नोटिस देना शुरू हो गया तो अधिकारीगण न्यायालय की अवहेलना अथवा अवमानना का दुस्साहस नहीं कर पायेंगे और अपनी जिम्मेदारी निभाने में कुछ ज्य़ादा मुस्तैदी दिखाएंगे।

कानूनी जिम्मेदारी से बचने के लिए आज अधिकारीगण अपने लिखे आदेशों और पत्रों पर दस्तखत करते हैं, मुहर भी लगाते हैं और अपना पदनाम तो लिखते हैं पर नाम नहीं लिखते। इससे यदि किसी मामले में भ्रष्टाचार हुआ हो, पक्षपात हुआ हो, लापरवाही हुई हो या जाने-अनजाने गलती हुई हो तो संबंधित अधिकारी की जिम्मेदारी आयद कर पाना आसान नहीं होता। अधिकारियों के पास कानूनी रूप से जिम्मेदारी से बचने का यह आसान उपाय है जिसका वे लगातार दुरुपयोग करते हैं, और करते चले जा रहे हैं। इस चालाकी के चलते अधिकारी और राजनेता सब गड़बडिय़ों के बावजूद कानून की गिरफ्त से बच निकलते हैं क्योंकि इसके कारण उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी आयद नहीं हो पाती।
नाम के बजाए सिर्फ पदनाम से काम करने की प्रथा के परिणामस्वरूप अक्सर सम्मन तामील ही नहीं होते। किसी एक अधिकारी के नामजद न होने की वजह से उसके आला अधिकारी भी उसके सम्मन की तामील के लिए कुछ नहीं कर पाते। अधिकारियों के नामजद होने की स्थिति में सम्मन तामील करवाने की जिम्मेदारी उसके वरिष्ठ अधिकारियों पर डाली जा सकती है। नामजद अधिकारी की फरारी की स्थिति में भी तुरंत आवश्यक कार्यवाही की जा सकती है।

केवल पदनाम या डेजिगनेशन के प्रयोग का एक और परिणाम यह भी है कि यदि कोई अधिकारी कोई गड़बड़ी करने के बाद तबादले पर चला जाए, प्रमोट हो जाए या रिटायर हो जाए और गड़बड़ी का पता बाद में चले तो सम्मन तत्कालीन अधिकारी के नाम पर जाने के बजाए उसकी जगह पर नये आये अधिकारी को जारी किये जाएंगे, जिसका उस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। न्यायालय में मामला चलने पर भी न तो पुराने अधिकारी को तलब किया जाता है और न ही उसकी जगह नये आये अधिकारी को दोषी ठहराया जा सकता है।

दूसरा सवाल यह है कि जिस आदेश अथवा पत्र पर किसी अधिकारी का नाम नहीं है, उसकी कानूनी वैधता क्या है। होना तो यह चाहिए कि जानबूझ कर अपना नाम देने से बचने वाले ऐसे हर अधिकारी एवं राजनेता के विरुद्ध कार्यवाही हो और नाम न देना निषिद्ध हो जाए। यह नियम केवलसरकारी अधिकारियों पर ही लागू न हो बल्कि मंत्रियों, जिला परिषदों के अधिकारियों और पंचों-सरपंचों के आदेशों, परिपत्रों और पत्रों पर भी लागू होना चाहिए। बहुत बार सरकारी अधिकारियों की ओर से कई तरह के पत्र नागरिकों को मिलते हैं। कई बार नागरिकों को धमकाने के लिए भी दुर्भावनावश कई पत्र जारी किये जाते हैं। यदि वे गलत हैं, कानून के विरुद्ध हैं, कानून की अवहेलना करते हैं या कानून का दुरुपयोग करते प्रतीत होते हैं तो शिकायत किसकी होगी? यदि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले का नाम होगा तो उस व्यक्ति विशेष की शिकायत संभव है, जो कि अन्यथा संयोग पर निर्भर करेगी। ऐसा एक गलत पत्र किसी निर्दोष नागरिक को बेतरह परेशान कर सकता है, उसके तलुवे घिसवा सकता है जबकि अधिकारी का कुछ भी नहीं बिगड़ता।

बहुत बार नेतागण किसी ट्रस्ट में ट्रस्टी बनने के लिए, अधिकारीगण कहीं से कोई स्वार्थ पूरा करने या रिश्वत लेने का जुगाड़ बनाने के लिए या कसी शिकायत से अपना पिंड छुड़वाने के लिए अनाप-शनाप नोटिस जारी करवा देते हैं, जिन पर अधिकारी के पद का हवाला तो होता है पर किसी का नाम नहीं होता। ऐसे हर पत्र की कानूनी वैधता समाप्त कर दी जानी चाहिए।

जब तक किसी आदेश पर, परिपत्र पर या पत्र पर पत्र लिखने वाले या आदेश जारी करने वाले का नाम नहीं होगा तब तक यह गड़बड़ी चलती रहेगी। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि केवल पदनाम की कानूनी परिपाटी को बदला जाए। ऐसे में तबादला हो जाने, प्रमोशन हो जाने या रिटायर हो जाने की स्थिति में भी वही अधिकारी नामजद होगा जिसने पत्र या आदेश जारी किया होगा। जब व्यक्तिगत जिम्मेदारी आयद होने की प्रथा सुदृढ़ होगी तो प्रशासनिक भ्रष्टाचार और ज्य़ादतियों की रोकथाम हो सकेगी। इसी प्रकार किसी मामले में पदनामधारी अधिकारी कानून की अवहेलना करता है या न्यायालय के आदेश को लागू नहीं करवाता है तो उस अधिकारी को पदनाम के साथ-साथ नामजद बुलाया जाना ही न्यायसंगत है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति विशेष की जि़म्मेदारी के आधार पर निर्णय होने चाहिएं। लोकतंत्र में न्याय की भूमिका सर्वोपरि है। कानून और दंड के भय से ही बहुत सा कार्य सही चलता है।

आम आदमी तो मरते दम तक कोर्ट जाता है और उसके मरने के बाद उसके बच्चे भी न्यायालय में जूतियां घिसते रह जाते हैं। इस दृष्टि से सरकारी पदों पर बैठे लोगों को भी नामजद पार्टी बनाना और तबादला, प्रमोशन या सेवानिवृत्ति के बाद भी नामजद व्यक्ति को बुलाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।

श्री गुलाब कोठारी के उठाये ये मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये सिर्फ बहस के मुद्दे नहीं हैं, इन पर कार्यवाही होनी चाहिए। इसी में लोकतंत्र की सफलता है और देश का भला है। ***

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Sunday, April 1, 2012

Information, News & Technique : सूचना, समाचार और तकनीक





सूचना, समाचार और तकनीक
 पी. के. खुराना


इसमें कोई शक नहीं है कि सूचना और समाचार हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और आज भी टीवी तथा समाचारपत्र, सूचना एवं समाचार देने के प्राथमिक स्रोत हैं। आज भी समाचारपत्र और टीवी, अपने तथा समाचार एजेंसियों के नेटवर्क के ज़रिये समाचार इकट्ठे करते हैं। लोग समाचार जानना चाहते हैं, समाचारपत्र और टीवी समाचार को ‘रूप’ और ‘आकार’ देते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सूचना एवं समाचार के प्राथमिक स्रोत होने के बावजूद वे अपने इस ‘उत्पाद’ से वह लाभ नहीं ले पा रहे हैं जो शायद उन्हें मिलना चाहिए था।

इंटरनेट और स्मार्ट फोन के संगम ने समाचार जानने के तरीकों में भारी परिवर्तन कर दिया है। समाचारपत्रों के इंटरनेट संस्करण अब मोबाइल फोन हैंडसेट तथा टेबलेट पर भी उपलब्ध हैं और अब विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपने मोबाइल फोन अथवा टेबलेट के माध्यम से समाचार पढ़ता है। सफर में चल रहे लोग तथा व्यस्त एग्जीक्यूटिव समाचारपत्र का छपा हुआ संस्करण देखने के बजाए उसका ऑनलाइन संस्करण देखने के आदी होते जा रहे हैं। इसका सीधा सा परिणाम यह है कि सूचना और समाचार जानने की बढ़ती मांग का लाभ समाचारपत्र इंडस्ट्री को होने के बजाए इंटरनेट और तकनीक कंपनियों को हो रहा है।

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रोजेक्ट फार एक्सीलेंस इन जर्नलिज़्म के तहत सन् 2012 की ‘स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडिया’ हाल ही में जारी की गई है। अमरीका में मीडिया इंडस्ट्री की वार्षिक रिपोर्ट का यह नौवां संस्करण है, जो हर वर्ष अमरीकी पत्रकारिता और मीडिया इंडस्ट्री के रुझानों की छानबीन करता है। इस वर्ष के अध्ययन में मोबाइल टेक्नालॉजी और सोशल मीडिया के समाचारों पर प्रभाव को विशेष रूप से शामिल किया गया है।

इस अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन और टेबलेट का प्रयोग करने वाले लोग दिन में कई बार अपने फोन या टेबलेट पर समाचार देखते हैं। यही नहीं, कंप्यूटर अथवा लैपटाप का प्रयोग करने वाले लोगों में से 34 प्रतिशत लोग अपने स्मार्टफोन पर भी समाचार देखते हैं और स्मार्टफोन का प्रयोग करने वाले लोगों में से 27 प्रतिशत लोग अपने टेबलेट पर भी समाचार देखते हैं। अमरीका में समाचार जानने की इच्छा रखने वाला ऑनलाइन वर्ग बढ़ता जा रहा है और समाचारपत्रों की प्रसार संख्या तथा विज्ञापन से होने वाली आय घटती जा रही है। सन् 2000 से अब तक इसमें 43 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है, और अब अमरीका में अधिकतर लोग यह विश्वास करते हैं कि अगले 5 वर्षों में समाचारपत्रों का घरों में वितरण बाधित हो सकता है।

समाचारों के ऑनलाइन पाठक वर्ग में इस वर्ष 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई और विज्ञापनों से होने वाली आय में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई। विज्ञापन पर किये जाने वाले कुल खर्च का 40 प्रतिशत अकेले गूगल के हिस्से में जाता है और ऑनलाइन विज्ञापन बाज़ार का 68 प्रतिशत गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट और एओएल में ही बंट जाता है। दूसरी ओर, समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की आय घटी है और समाचारपत्रों को विज्ञापनों से होने वाली आय घटकर 1984 के स्तर पर आ गई है, वह भी तब जब इसमें महंगाई के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया है। सन् 2011 के आखिरी तीन महीनों यानी अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में ऐप्पल के हालीडे सीज़न की आय 46 अरब डालर थी जब इसी साल पूरे वर्ष के दौरान दैनिक समाचारपत्रों की विज्ञापन और प्रसार से होने वाली कुल आय 34 अरब डालर थी।

यह तो स्पष्ट है कि अमरीका में समाचारपत्रों का भविष्य स्पष्ट नहीं है और कोई एक ही कार्य-योजना सभी समाचारपत्रों की मुश्किलें दूर करने के लिए काफी नहीं है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब मीडिया इंडस्ट्री को अपने कार्यक्षेत्र को दोबारा से परिभाषित करने की आवश्यकता है। समाचारपत्र कभी मात्र जनहित के लिए समाचार देते थे, अब उसी रूप में वह स्थिति तो नहीं रही, पर अब भी समाचारपत्र उद्योग की महत्ता समाप्त नहीं हुई है। ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ के नियमानुसार मीडिया उद्योग को जिंदा रहने के लिए आय के स्रोतों तथा कुल आय में वृद्धि की आवश्यकता है।

प्रसिद्ध अमरीकी मीडिया विश्लेषक श्री रयान फ्रैंक का मानना है कि मीडिया उद्योग के पराभव का कारण यह है कि वह पूरी तस्वीर को न देखकर, मार्केटिंग दृष्टिदोष (मार्केटिंग मायोपिया) से ग्रस्त है और मीडिया उद्योग ग्राहक-केंद्रित (कस्टमर ओरिएंटेड) होने के बजाए उत्पाद-केंद्रित (प्राडक्ट ओरिएंटेड) हो गया है। श्री फ्रैंक का मत है कि मीडिया उद्योग को अब राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय होने के बजाए ‘क्षेत्रीय’ और ‘स्थानीय’ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा स्थानीय सूचना, जानकारी एवं समाचारों का विश्वसनीय स्रोत बनना चाहिए। उनका मानना है कि मीडिया उद्योग को ‘इनीशिएटिव, इन्नोवेशन और इन्वेस्ट’ के मंत्र पर चलकर ही अपनी मौजूदा कठिनाइयों से राहत मिल सकती है। समाचारपत्रों को स्थानीय समुदाय के लिए मोबाइल एप्लीकेशन्स (मोबाइल ऐप्स) का विकास करना चाहिए ताकि वे स्थानीय लोगों के लिए प्रासंगिक बने रहें। यही नहीं, वे समाचारों व सूचनाओं को आकार देने में इंटरनेट के पिछलग्गू की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व की स्थिति में आयें तथा समाचारों एवं शेष सामग्री के माध्यम से जनमत निर्माण में स्वतंत्र भूमिका निभाएं।

इसी तरह विज्ञापनदाताओं के लिए प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें पाठकों के बारे में अधिकाधिक जानकारी होनी चाहिए, यानी, उनके पास सही-सही ‘रीडर प्रोफाइल’ होना लाभदायक होगा। यह इस हद तक होना चाहिए कि उन्हें पता हो कि उनकी कौन सी पाठिका कब गर्भवती होकर तद्नुसार खरीदारी कर रही है।

मीडिया उद्योग को शोध एवं विकास (रिसर्च एंड डेवलेपमेंट) में निवेश पर ज़ोर देते हुए श्री फ्रैंक कहते हैं कि गूगल अपनी प्रयोगशाला में शोध एवं विकास पर बहुत ध्यान देता है तथा भविष्य के रुझान को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि बदलने के लिए भी वह लगातार निवेश करता है। डिजिटल क्षेत्र में गूगल के अग्रणी रहने का यही रहस्य है और मीडिया इंडस्ट्री को इससे सीख लेनी चाहिए।

श्री रयान फ्रैंक मानते हैं कि मीडिया उद्योग को सभी संभावनाओं पर विचार करते हुए अपनी रणनीति तय करनी चाहिए ताकि उसका क्षय रुके और विकास संभव हो सके। देखना यह है कि ‘स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडिया’ अध्ययन से भारतीय मीडिया उद्योग क्या सीख लेता है ? ***

Information, News & Technique
By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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“State of the News Media”, Pew Research Centre, Excellence in Journalism, Alternative Journalism and PK Khurana, Pioneering Alternative Journalism in India, वैकल्पिक पत्रकारिता