Saturday, November 24, 2012

तमसो मा ज्योतिर्गमय




तमसो मा ज्योतिर्गमय
                                                                                                        l पी. के. खुराना
तमसो मा ज्योतिर्गमय, यानी, 'हे प्रभु, हमें अंधकार से प्रकाश में ले चल!’ -- यह हमारी शाश्वत प्रार्थना है। अंधकार से प्रकाश की ओर की यात्रा अज्ञान से ज्ञान की ओर की यात्रा है। पर क्या हमने कभी सोचा है कि अज्ञानवश और काम तथा पारिवारिक  जि़म्मेदारियों के बोझ तले दब कर तथा आधुनिक जीवन शैली के कारण हम जिस प्रकाश की उपेक्षा कर रहे हैं, उससे हम अपना कितना नुकसान करते हैं? यहां हम सूर्य के प्रकाश की बात कर रहे हैं।
सूर्य का प्रकाश इतना स्वास्थ्यकर माना जाता है कि प्राचीन भारतीय योग गुरुओं ने सूर्य नमस्कार के रूप में हमें सूर्य की ऊर्जा का लाभ लेने की शिक्षा दी। सूर्य का प्रकाश विटामिन-डी का भंडार है और अक्सर नवजात बच्चों को सुबह सवेरे वस्त्ररहित स्थिति में सूर्य की रोशनी में रखा जाता है। खेद की बात है कि आधुनिक जीवन शैली ने हमसे यह सुविधा छीन ली है और शहरों में रहने वाली आबादी का एक बड़ा भाग सूर्य के दर्शन ही नहीं करता।
शहरी जीवन में ऊंची अट्टालिकाओं में बने कार्यालय, एक ही मंजिल पर कई-कई कार्यालयों के होने से हर कार्यालय में सूर्य के प्रकाश की सीधी पहुंच की सुविधा नहीं है। यही नहीं, जहां यह सुविधा है, वहां भी बहुत से लोग भारी परदों की सहायता से सूर्य के प्रकाश को बाहर रोक देते हैं और ट्यूबलाइट तथा एयर कंडीशनर में काम करना पसंद करते हैं। घर से कार्यालय के लिए सुबह जल्दी निकलना होता है। हम बस पर जाएं, ट्रेन पर जाएं या अपनी कार से जाएं, गाड़ी में बैठे रहने पर सूर्य का प्रकाश नसीब नहीं होता, अधिकांश कार्यालयों में सूर्य का प्रकाश नहीं होता और शाम को दफ्तर से छुट्टी के समय भी फिर गाड़ी का लंबा सफर हमें सूर्य के प्रकाश से वंचित कर देता है। घर आकर हम परिवार अथवा टीवी में यूं गुम हो जाते हैं कि सूर्य के प्रकाश की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार हम प्रकृति के एक अनमोल उपहार से स्वयं को वंचित रख रहे हैं और अपने स्वास्थ्य का नुकसान कर रहे हैं।
इसी समस्या का एक और पहलू भी है जिसका पूरे वातावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। औद्योगिक विकास ने जहां एक ओर अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, वहीं बहुत से गैरजि़म्मेदार उद्योगपतियों ने उद्योग लगाते समय प्रदूषण नियंत्रण प्रणाली न विकसित करके पर्यावरण का बहुत नुकसान किया है। उद्योग और व्यवसाय में माल की ढुलाई के कारण ट्रकों से निकलने वाली गैसों से प्रदूषण फैलता है। गैरजि़म्मेदारी के पैमाने पर व्यक्तिगत रूप से भी हम लोग किसी से पीछे नहीं हैं। सुविधाजनक जीवन जीने के आदी हो चुके बहुत से लोगों के पास अपनी गाड़ियां हैं। होली-दीवाली के समय तो हम प्रदूषण फैलाते ही हैं, रोज़मर्रा की जि़दगी में भी गाड़ियों का अधिक से अधिक प्रयोग करके, हमने न केवल सड़कों पर भीड़ बढ़ाई है, बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाया है। पर्यावरण के प्रदूषण का कारण है कि सूर्य की रोशनी ज़्यादा समय तक पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाती और शाम जल्दी ढल जाती है।
भारतीय मौसम विभाग तथा अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (स्पेस एप्लीकेशन सेंटर) के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि तमाम तरह के प्रदूषण के कारण सूर्य की रोशनी के पृथ्वी तक सीधे पहुंचने का समय लगातार घटता जा रहा है जिसके कारण धूप और रोशनी का तीखापन प्रभावित हो रहा है जिससे दिन की लंबाई का समय घट जाता है। इससे शाम जल्दी ढलती है और हमें सूर्य की ऊर्जा का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है, बल्कि इससे स्वास्थ्य संबंधी कई नई परेशानियां उत्पन्न हो सकती हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया है कि सन् 1971 से सन् 2005 के बीच पृथ्वी पर आने वाली सूर्य की सीधी रोशनी में गिरावट के कारण वर्ष भर की औसत दैनिक रोशनी का समय 8.4 घंटों से घट कर साढ़े सात घंटे रह गया है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन, वाहनों और उद्योगों से होने वाले प्रदूषण, फसलों और सूखे पत्तों को खुले में जलाए जाने, बायोमास पदार्थों के जलने आदि से हवा में फैले कार्बन कणों के कारण कालिख बढ़ जाती है। यह कालिख सूर्य की रोशनी को जज्ब कर लेती है और उसकी आगे की यात्रा में व्यवधान पैदा करती है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता सहित सभी बड़े शहरों में पर्यावरण प्रदूषण की यह अवांछनीय बीमारी बढ़ रही है जो दिन की रोशनी के समय को प्रभावित करती है। शिलांग जैसे पर्वतीय स्थानों पर इसका असर कम है लेकिन महानगरों में दिन का समय घट चुका है और वैज्ञानिकों को आशंका है कि पिछले 40 वर्षों में दिन की रोशनी की औसत अवधि 10 प्रतिशत के आसपास घट गई है।
दिन की रोशनी को घटाने वाले प्रदूषणकारी तत्व मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं और इससे सांस संबंधी बीमारियां बढ़ती हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि कम रोशनी वाले दिनों की अपेक्षा तेज रोशनी वाले दिनों में हमारे मस्तिष्क से सेरोटोनिन नामक द्रव्य ज्यादा मात्रा में पैदा होता है जो हमारी मन:स्थिति (मूड) को खुशनुमा बनाता है। यदि धुंधलका लगातार बना रहे तो मन:स्थिति के विकार भी बढ़ सकते हैं।
पर्यावरण के प्रदूषित होने से हमें नुकसान हो रहा है, इसमें तो कोई शक है ही नहीं, अध्ययन सिर्फ यह बताएंगे कि यह नुकसान किस हद तक है और इससे हमारे स्वास्थ्य पर जो बुरा असर पड़ेगा उसके परिणाम क्या हो सकते हैं। मौसम और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिक एकमत हैं कि सूर्य की रोशनी के पृथ्वी पर आने का समय घटने से स्वास्थ्य संबंधी कई नई परेशानियां आयेंगी। खेद की बात है कि सरकार की ओर से इस संबंध में कोई भी जागरूकता अभियान नहीं चलाया जा रहा और न ही स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिया है जबकि यह अध्ययन पिछले 40-45 वर्षों से जारी है।
यह एक विडंबना ही है कि हम लोग सुविधासंपन्न जीवन के इस हद तक आदी हो चुके हैं कि अब हमें प्राकृतिक जीवन जीना असंभव लगने लगा है। आधुनिक जीवन शैली हमारे जीवन को आसान तो बना रही है पर यह उसे बीमार भी बना रही है। यह एक ऐसा अंतर्विरोध है जिसका तोड़ यही है कि कार्यालय जाने वाले लोग दोपहर के भोजन के अवकाश के समय सैर को निकलें और सूर्य की रोशनी से शरीर को ऊर्जा दें, शनिवार, रविवार तथा अवकाश वाले अन्य दिनों में खुले में ज्यादा समय बिताएं अथवा अपना दिन कुछ और पहले आरंभ करें और कार्यालय जाने से पहले खुले में योगाभ्यास करते हुए अथवा फुटबाल या बैडमिंटन जैसा कोई खेल खेलते हुए व्यायाम और सूर्य की ऊर्जा दोनों का सम्मिलित लाभ लें। हमें याद रखना चाहिए कि लंबे सुखमय जीवन के लिए सुविधा वांछनीय है परंतु स्वास्थ्य आवश्यक है। ***

P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Alternative Journalism
वैकल्पिक पत्रकारिता

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जलाओ दिमाग की बत्ती




जलाओ दिमाग की बत्ती
                                                                                                                                l पी. के. खुराना
जनसामान्य में पीजीआई के नाम से प्रसिद्ध चंडीगढ़ स्थित चिकित्सा शिक्षा एवं शोध के स्नातकोत्तर संस्थान 'पोस्टग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्चसे जुड़े तीन अलग-अलग अध्ययनों ने मेरे दिमाग की बत्ती जलाई है और मुझे उम्मीद है कि ये अध्ययन कुछ और लोगों के दिमाग की बत्ती भी जला सकते हैं।
मेरे मित्र और हास्य की दुनिया के बेताज बादशाह रहे स्वर्गीय जसपाल भट्टी ने अपने प्रसिद्ध कार्यक्रम उलटा-पुलटा के एक शो में आधुनिक जीवन की विकृति को चित्रित करते हुए बताया था कि आज के बच्चे खेल के नाम पर कंप्यूटर गेम्स या प्ले स्टेशन गेम्स में खोये रहते हैं और इस कारण शारीरिक गतिविधियों और व्यायाम से उनका नाता टूट गया है जिसके कारण उन्हें छोटी उम्र में ही स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं।
आज लगभग हर घर में केबल टेलिविज़न सुविधा उपलब्ध है, यानी सारा साल, हर रोज़, चौबीसों घंटे टीवी के किसी न किसी चैनल पर कोई न कोई मनोरंजक अथवा मनपसंद कार्यक्रम आ ही रहा होता है। हर कोई टीवी का दीवाना है। छोटे बच्चे कार्टून कार्यक्रमों में मस्त हो जाते हैं। मां-बाप इसे बड़ी सुविधा मानते हैं क्योंकि कार्टून शो में खोये बच्चे को कुछ भी और कितना भी खिलाना आसान होता है, बच्चा टीवी में व्यस्त हो जाता है और घर से बाहर नहीं जाता, शरारतें नहीं करता, फालतू की जि़द नहीं करता। संपन्न आधुनिक शहरी घरों में बच्चों के लिए प्ले स्टेशन पोर्टेबल (पीएसपी) भी उपलब्ध हैं और बच्चे इनमें खोये रहते हैं।
मां-बाप सोचते हैं कि बच्चा कार्टून ही तो देख रहा है, लेकिन वे उससे होने वाले दिमागी प्रभाव को नहीं समझ पाते। कार्टून शो में सीन बदलने की गति यानि फ्लिकरिंग इतनी तेज़ होती है कि कई बार बच्चे का दिमाग उसे पकड़ नहीं पाता और वह कन्फ्यूज़ हो जाता है। इससे बच्चे को उलटी होने जैसा महसूस हो सकता है। सीन बदलने के कारण रोशनी की तीव्रता तेजी से घटती-बढ़ती है, जिसे फ्लैशिंग कहते हैं। इससे भी बच्चों की आंखों पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जिसे फोटोफोबिया कहा जाता है। लगातार कार्टून देखने वाले अथवा प्ले स्टेशन पर खेलने वाले बच्चे अक्सर इसीलिए बाद में थकान महसूस करते हैं और उन्हें मिरगी की शिकायत हो सकती है। पीजीआई में पीडियाट्रिक मेडिसिन की प्रोफेसर डा. प्रतिभा सिंघी तथा पीजीआई के ही स्कूल ऑव पब्लिक हेल्थ के डा. सोनू गोयल ने शहर के दो दर्जन से अधिक स्कूलों में हुए एक सर्वेक्षण के परिणामों की पुष्टि करते हुए बताया कि बच्चों द्वारा लंबे समय तक कार्टून देखना अथवा प्ले स्टेशन पर खेलना उनकी सेहत के लिए खतरनाक है।
अल्ज़ाइमर एक ऐसी बीमारी है जिससे ग्रस्त व्यक्ति रोज़मर्रा की साधारण चीजों को भी भूलने लगता है, मसलन, अलमारी खोलनी हो तो फ्रिज खोलकर खड़े हो जाएं, बात करते समय भूल जाएं कि बातचीत का विषय क्या था, अपनी कोई बात समझाने के लिए किसी विशिष्ट घटना का जिक्र शुरू कर दें और यह भूल जाएं कि उस उदाहरण से समझाना क्या चाहते थे, हाथ में पकड़ी या गोद में पड़ी किसी चीज को इधर-उधर ढूंढ़ें। 'डिमेंशियाÓ यानी दिमाग के तंतुओं के मरने के कारण होने वाली बीमारी अल्ज़ाइमर से बचने के लिए तथा स्मरण शक्ति के विकास के लिए आयुर्वेद ब्रह्मी बूटी के प्रयोग की सिफारिश करता है।
पीजीआई में न्यूरोलाजी विभाग के प्रोफेसर व मुखिया डा. सुदेश प्रभाकर के अनुसार चूहों पर किए प्रयोगों से डाक्टरों ने पाया है कि भूलने की बीमारी के इलाज के लिए ब्रह्मी बूटी सचमुच लाभदायक है और अब वह भूलने की बीमारी से ग्रस्त मरीजों पर ब्रह्मी बूटी के क्लीनिकल प्रयोग की तैयारी कर रहे हैं। इसके तहत डिमेंशिया से पीड़ित सौ मरीजों का चयन किया गया है। इनमें से 50 को परंपरागत एलोपैथी दवाएं दी जाएंगी और बाकी 50 को ब्रह्मी से बनी दवाएं। फर्क यह है कि ब्रह्मी से बनी दवाओं की गुणवत्ता और पैकिंग आदि का जिम्मा पीजीआई के ही फार्माकोलाजी विभाग को दिया गया है, जहां मान्य अंतरराष्ट्रीय मानकों का भी ध्यान रखा जाएगा ताकि दवा के परिणाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश किए जा सकें। इस परियोजना की देखरेख कर रही टीम में पीजीआई के न्यूरोलाजी विभाग के डाक्टरों के अलावा एक आयुर्वेदाचार्य को भी शामिल किया गया है।
दिल्ली में रह रहीं डा. पूनम नायर ने चंडीगढ़ योग सभा के तत्वावधान में पीजीआई के साथ मिलकर विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त मरीजों को योगासनों से इलाज की पद्धति का अध्ययन किया ही, साथ ही उन्होंने पीजीआई में कार्यरत नर्सों को भी योगासन के माध्यम से अपने कार्य में दक्षता लाने की शिक्षा दी। यह अध्ययन चिंता, तनाव और उदासी से ग्रस्त मरीजों, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर) से ग्रस्त मरीजों और काम के दबाव से ग्रस्त नर्सों पर आधारित था। मरीजों को तीन समूहों में बांटा गया, पहले समूह को परंपरागत एलोपैथिक दवाइयां दी गईं, दूसरे समूह को यौगिक क्रियाओं, योगासनों, यौगिक प्राणायाम और योग मुद्राओं और काउंसलिंग की यौगिक चिकित्सा दी गई और तीसरे समूह को शवासन, प्राणायाम, खुशी और सफलता की स्थिति में स्वयं की कल्पना करने, अपने इष्ट भगवान के ध्यान आदि से यौगिक विश्राम से संबंधित क्रियाएं करवाई गईं।
डाक्टरों और नर्सों का जीवन बहुत कठिन होता है और लगातार रोगियों के संपर्क में रहने के कारण उनका अपना स्वास्थ्य हमेशा खतरे में रहता है। काम का दबाव उन्हें चिड़चिड़ा बना देता है और वे तनावग्रस्त हो सकते हैं। इसीलिए डा. पूनम नायर ने योग क्रियाओं का प्रयोग नर्सों पर भी किया। मरीजों और नर्सों पर यह प्रयोग कुछ वर्ष चला और इसके परिणाम आश्चर्यजनक रूप से उत्साहवर्धक रहे।
आज हमारा जीवन बहुत व्यस्त है और करिअर की दौड़ में सरपट भागते हुए हम सोच ही नहीं पा रहे कि हम जीवन में क्या खो रहे हैं। एकल परिवार में कामकाजी दंपत्ति के बच्चे अकेलापन महसूस करने पर टीवी और प्ले स्टेशन में व्यस्त होने की कोशिश करते हैं। भावनात्मक परेशानियों से जूझ रहा बच्चा एक बार इनका आदी हो जाए तो वह कई स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार हो जाता है। किशोर अथवा युवा होते बच्चे भी व्यायाम के बजाए डिस्कोथेक के रेशमी अंधेरों, चौंधियाने वाली रोशनियों और तेज संगीत के शोर में गुम होते हुए सोच ही नहीं पाते कि उनका जीवन किन किस ओर बढ़ रहा है।
पीजीआई के उपरोक्त तीनों अध्ययनों का लब्बोलुबाब यह है कि योग और आयुर्वेद को एलोपैथी के शोध और गुणवत्ता के मानकों से जोड़ दिया जाए तो चिकित्सा विज्ञान विकसित होगा और रोगियों को लाभ होगा। इन अध्ययनों का एक और महत्वपूर्ण सबक यह भी है कि परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे के साथ ज्यादा समय बिताएं और एक-दूसरे को भावनात्मक सहयोग दें। परिवार के सदस्यों का साथ और प्यार किसी भी बच्चे के लिए वरदान है जो उसे जीवन की कठिनाइयां झेलने के काबिल बनाता है और नशे और बीमारी की परेशानियों से बचाए रखता है। इस मंत्र की उपेक्षा करना आसान है पर उससे उत्पन्न होने वाली परेशानियों का सामना करना बहुत मुश्किल है। ***

P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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