Monday, March 21, 2011

Loktantra Ki Sabse Badi Chunauti :: लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती





Loktantra Ki Sabse Badi Chunauti

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना

pkk@lifekingsize.com

Pioneering Alternative Journalism in India


लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती
-- पी. के. खुराना


सरकारों के बड़े-बड़े दावों के बावजूद गरीबी की समस्या हमें लगातार परेशान कर रही है। हम सिर्फ ‘भारत उदय’ और ‘जय हो’ के नारे ही सुनते रह जाते हैं। विभिन्न सरकारें रोजगार गारंटी योजना, गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को आवासीय प्लाट, सस्ते आटा-दाल आदि की आपूर्ति आदि जैसी योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च कर रही हैं। यह पैसा सरकारी खजाने में करदाता की कमाई के हिस्से के रूप में आया है। यह देखना उचित होगा कि गरीबी दूर करने की सरकारों की कोशिशें वास्तव में कितनी सही और कामयाब रही हैं।

कुछ समय पहले हरियाणा के शहर रोहतक में स्थित एक अनुसंधान संस्थान ने राज्य के गरीब वर्ग की गणना संबधी नियमों का अध्ययन करने पर पाया कि ये नियम ईमानदारी से इनकी संख्या दर्ज नहीं करने का औजार हैं। राज्य के ग्रामीण इलाकों में ही नहीं, कस्बों और शहरों में भी अनेक परिवार इन नियमों के चलते गरीबों को राहत देने वाले कार्यक्रमों का लाभ नहीं पा रहे हैं। जहां अनेक परिवार गरीबी रेखा से बाहर होने के बावजूद सस्ते अनाज और मुफ्त आवासीय प्लाट लेने में कामयाब हो जाते हैं, वहीं हजारों परिवार अपने हिस्से का सस्ता राशन भी नहीं ले पाते क्योंकि उनके नाम बीपीएल सूची में दर्ज नहीं किये जाते। गरीब परिवारों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के अंतर्गत स्वास्थ्य सुरक्षा कवर देने की योजना हो, रोजगार गारंटी योजना हो या बुढ़ापा पेंशन योजना, आम तौर पर सभी के लिये सरकारी अफसरों या पंच-सरपंच अथवा किसी सत्ताधारी राजनेता की मेहरबानी की जरूरत पड़ती है। परंतु सच यह है कि सरकार द्वारा विकास पर खर्च किया जाने वाला पैसा सही पात्रों तक नहीं पंहुचता, इसलिए ज्यादातर योजनायें सिर्फ कागजी बनकर रह गयी हैं।

सरकार द्वारा दशकों से चलाए जा रहे विभिन्न गरीबी हटाओ कार्यक्रम पूर्णत: बेअसर और बेमानी साबित हुए हैं। गरीबों की गणना के तौर तरीकों को पर गंभीर प्रश्रचिन्ह लगे हुए हैं। गरीबी दूर करने की रणनीति को लेकर सरकारों के अंदर ही मतभेद हैं। गरीबों की संख्या को लेकर केंद्र और विभिन्न राज्य भी अलग-अलग खड़े हैं। यह हैरानी की बात है कि जमीनी तौर पर गरीबी कम न होने के बावजूद सरकारी आंकड़ों मे गरीब कम हो गए हैं। ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से सरकारें पूरी तरह वाकिफ हैं लेकिन इसके बावजूद इनकी स्थिति सुधारने की कोई गंभीर कोशिश कहीं दिखाई नहीं देती। गांव और शहरों में सरकारी अस्पताल और डिस्पेंसरियां सिर्फ नुमाइशी काम करती हैं और आम आदमी झोला छाप डाक्टरों पर आश्रित है।

सरकारी योजनाओं को लागू करने में चूक के लिए सरकारी अफसरों तो जिम्मेदार हैं ही, पर इस अमले की कारगुजारी की ठीक से व्यवस्था नहीं करने के लिए जन प्रतिनिधि भी कम जि़म्मेदार नहीं। आम अदमी के भले के लिए जनता के पैसे के इस्तेमाल की योजनाएं बनाते हुए उनका फायदा आम आदमी तक पहुंचाने की पुख्ता व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी जन प्रतिनिधि सदनों की है। सत्ताधारी अपने को मिले जनादेश का ठीक से इस्तेमाल नहीं करें तो वह पटरी पर रखने का काम विपक्षी दलों को निभाना होता है। विधान सभा या संसद द्वारा बनाये गये कानूनों का लाभ गरीब को नहीं मिल रहा यह बात सामने आने के बाद भी व्यवस्था सुधारने की अनदेखी के लिए सभी जनप्रतिनिधि - भले ही वे किसी भी दल के हों - जिम्मेदार हैं। इसके लिए सरकार या प्रशासन से जुड़े लोग आसानी से तैयार नहीं होंगे क्योंकि इसके लिए उनके पास न दृष्टि है, न योजना और न ही समय अथवा नीयत।

देश के हर जि़म्मेदार नागरिक को एकजुट होकर सरकार की सोच और ढांचे को बदलने की कोशिश करनी होगी। हम सब को मिलकर, गरीब तथा पिछड़े वर्ग के मतदाता को रिझाने की लोकलुभावनी घोषणाओं और नीतियों के मायाजाल को बेअसर बनाने की जरूरत स्पष्ट है। वक्त का तकाज़ा है कि सरकारें हर गरीब को गरीबी से मुक्ति दिलाने की समयबद्ध रणनीति बनाये। समयबद्ध रणनीति का न होना ही योजनाओं की असफलता का सबसे बड़ा कारण है। इसके लिये गरीबी की परिभाषा बदलनी होगी ताकि प्रशासन मनमाने ढंग से पात्रों को सुविधा से वंचित न कर सके । गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों को बीपीएल राशन कार्ड देने का ढंग आसान बनाना होगा। काम के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा देना जरूरी है। बेरोजगार नौजवानों को विशेष प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार के लिये तैयार किया जाना चाहिए। गरीबी दूर करने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ विशेष ध्यान देना जरूरी है, वरना हम भविष्य में भी गरीबी का रोना ही रोते रह जाएंगे। मूलभूत शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार तीन ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी सुविधाओं के बिना गरीबी के अभिशाप से छुटकारा संभव नहीं है।

यह एक स्थापित तथ्य है कि गरीबी और पिछड़ापन दूर करने के लिए शिक्षा का महत्व सर्वोपरि है। गरीबों के पास खाने को पैसा न हो तो शिक्षा उनकी प्राथमिकता नहीं रहती। अशिक्षित व्यक्ति खुद भी उम्र भर गरीबी की चक्की में पिसता है और अपने बच्चों को भी गरीबी का अभिशाप विरासत में दे डालता है। शिक्षा का अधिकार अगर मौलिक अधिकार नहीं बनता तो देश की चहुंमुखी प्रगति संभव ही नहीं है।

रोज़गार को मौलिक अधिकार न बनाने के कई सारे बहाने हैं जो सभी के सभी कागज़ी हैं और निहित स्वार्थों द्वारा गढ़े गए हैं। रोज़गार के लिए सिर्फ सरकारी नौकरी ही एकमात्र साधन नहीं है। स्वरोज़गार भी रोज़गार का एक बड़ा साधन है, लेकिन हमारे देश में रोज़गारपरक शिक्षा भी सिर्फ दिखने में ही रोज़गारपरक है। वस्तुत: उसे रोज़गारपरक बनाने का कोई गंभीर प्रयास होता ही नहीं क्योंकि तथाकथित बी-स्कूलों और आईआईटी के विद्यार्थी भी ज्य़ादा से ज्य़ादा किसी बड़ी नौकरी के काबिल ही बन पाते हैं। शिक्षा के बाद स्वरोज़गार उनके लिए भी एक दु:स्वप्न की ही तरह होती है क्योंकि उन्हें मार्केटिंग, वितरण, खरीद, जन-प्रबंधन और जन-संपर्क आदि क्षेत्रों की विशद जानकारी नहीं होती। वे केवल एक विषय के जानकार बनकर कूप-मंडूक ही बने रहते हैं। पारिवारिक विरासत के बिना स्वरोज़गार में लगे बहुत से युवक कर्ज पर ली गई पूंजी भी लुटा बैठते हैं।

स्व-रोज़गार का दूसरा पहलू यह है कि अत्यंत छोटे स्तर के यानी माइक्रो क्षेत्र के स्व-रोज़गार के लिए सरकारों ने कोई पुख्ता कदम नहीं उठाये। ज्य़ादातर एनजीओ कागज़ी हैं जो सिर्फ ग्रांट खाते हैं और खबरें छपवाते हैं, काम नहीं करते। देश भर में बहुत बड़ी शामलात ज़मीन बंजर पड़ी है जिसका कोई उपयोग नहीं होता। उसे काश्त के काबिल बनाकर भूमिहीन खेतिहर मजदूरों में बांटने से न केवल उनकी बेरोज़गारी दूर होगी बल्कि अनाज की पैदावार भी बढ़ेगी।

शासन के वर्तमान स्वरूप में व्यापक सुधार के बिना यह संभव नहीं है। लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन’ की परिभाषा के मुताबिक यह जरूरी है कि जनप्रतिनिधि और तंत्र दोनों जनसंवेदी बनें। इसके लिए तंत्र और जनप्रतिनिधि दोनों में सकारात्मक सहयोग की जरूरत है। जनहित का तकाजा है कि जनप्रतिनिधि और शासन तंत्र दोनों ईमानदारी से जन-जन और समाज के प्रति जवाबदेह रहें। देश के सर्वाधिक गरीब व्यक्ति तक लोकतंत्र का लाभ तभी पहुंच सकेगा। ***

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