Sunday, June 26, 2011
Soochna, Samachar Aur Media : सूचना, समाचार और मीडिया
Soochna, Samachar Aur Media : सूचना, समाचार और मीडिया
By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना
सूचना, समाचार और मीडिया
पी. के. खुराना
मीडिया की ताकत बहुत बड़ी है और दुनिया का हर सूरमा मीडिया से डर कर रहता है। मीडिया के विरोध में खड़े होकर बहुत कम लोग सुखी रह पाए हैं। यही कारण है कि कई बार लोगों को मीडिया की ज्य़ादतियों का शिकार होकर भी चुप रहना पड़ता है। ऐसे लोगों की एक ही प्रतिक्रिया होती है -- 'बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?' या 'पानी में रहकर मगर से बैर कौन करे?'
मैं कुछ उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मुकद्दमे के फैसले के समय टिप्पणी की कि विधि-समाचारों की कवरेज के लिए, यानी लीगल रिपोर्टिंग के लिए कानून का सामान्य ज्ञान रखने वाले रिपोर्टर होने चाहिएं। यह एक बहुत गहरी बात है। अक्सर आपका पाला ऐसे संवाददाताओं से भी पड़ता है जो अपनी 'बीट’ की आवश्यकताओं से अनजान होते हैं, जिन्हें अपने विषय की बारीकियों की जानकारी नहीं होती और ज्ञान, अनुभव अथवा परिपक्वता की कमी की वजह से वे गलत समाचार फाइल कर डालते हैं। उदाहरणार्थ, चिकित्सा संबंधी समाचारों में तकनीकी शब्दों का प्रयोग सामान्य बात है, पर यदि कोई आर्ट्स गे्रजुएट मेडिकल बीट पर काम करे तो वह अर्थ का अनर्थ भी कर सकता है। दुर्भाग्यवश, पत्रकारिता में ऐसा अक्सर होता है।
पत्रकारिता के अपने नियम हैं, और अपनी सीमाएं भी हैं। आदमी कुत्ते को काट ले तो खबर बन जाती है। कोई दुर्घटना, कोई घोटाला, चोरी-डकैती-लूटपाट खबर है, महामारी खबर है, नेताजी का बयान खबर है, राखी सावंत खबर है, बिग बॉस खबर है, और भी बहुत कुछ खबर की सीमा में आता है। कोई किसी के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दे, तो वह खबर है, चाहे अभी जांच शुरू भी न हुई हो, चाहे आरोपी ने कुछ भी गलत न किया हो, तो भी सिर्फ शिकायत दर्ज हो जाना ही खबर है, और कई बार यह बड़ी खबर बन जाती है। आरोपी अपनी सफाई दे, उससे पहले ही वह खबर आरोपी की प्रतिष्ठा का जनाज़ा निकाल देती है। ये पत्रकारिता की खूबियां हैं, ये पत्रकारिता की सीमाएं हैं। इसे आप विशेषता कहें, सीमा कहें, गुण कहें या अवगुण कहें, पर बहुत से लोग इस तरह की पत्रकारिता के शिकार बन चुके हैं और लगातार बन रहे हैं।
एक और उदाहरण लेते हैं। अगर श्रीलंका के प्रधानमंत्री का बयान आये कि उनका देश अमरीका के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर रहा है और वे अमरीका को सबक सिखाकर छोड़ेंगे, तो किसी पत्रकार की प्रतिक्रिया क्या होगी? शायद वह इस बयान पर हंसेगा और उसे कूड़े के डिब्बे में डाल देगा। लेकिन बिजनेस बीट, मेडिकल बीट तथा एजुकेशन बीट के बहुत से पत्रकार बहुत बार कई छोटी कंपनियों द्वारा बड़ी कंपनियों के बारे में ऐसे ही दावों को बिना सोचे-समझे छाप देते हैं। कई बार तो फाइनेंशल समाचारपत्रों तक में भी ऐसी खबरें देखने को मिल जाती हैं।
हाल ही में मैं मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक ऐसे सम्मेलन में शामिल था जहां कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारपोरेट कम्युनिकेशन्स मैनेजर मौजूद थे। उन सबसे बातचीत के बाद एक डरावना तथ्य सामने आया कि यदि कोई संवाददाता किसी कंपनी पर लगाए गए आरोपों से संबंधित कोई सवाल पूछे तो वे उस संवाददाता के सवालों का जवाब देना सबसे ज्यादा खतरनाक काम मानते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं बड़ी कंपनियों के कामकाज को लेकर अक्सर कई व्यक्ति या समूह, सवाल उठाते रहते हैं। ऐसे सवाल उठाने वाले लोगों में कई बार कुछ राजनीतिज्ञ, किसी विशिष्ट फंड से चल रहे एनजीओ और निहित स्वार्थी भी शामिल होते हैं जिनके आरोप अतर्कसंगत और बेबुनियाद होते हैं। ऐसे समय में संवाददाता अक्सर कंपनी की आधिकारिक प्रतिक्रिया चाहते हैं। शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि 90 प्रतिशत कारपोरेट कम्युनिकेशन्स मैनेजर ऐसे में कोई भी प्रतिक्रिया देने से बचते हैं और अपने प्रबंधन को भी कुछ भी जवाब न देने की सलाह देते हैं क्योंकि उनका सामान्य अनुभव यह बताता है कि संबंधित संवाददाता को आरोपों के जवाब में नुक्ता-दर-नुक्ता सफाई देने पर भी छ: कॉलम में जो समाचार छपता है उसमें पूरी खबर में आरोपों का जिक्र तो विस्तार से होता है जबकि प्रतिक्रिया के नाम पर सारी खबर के अंत में सिर्फ एक पंक्ति में लिखा जाता है कि कंपनी ने सभी आरोपों से इन्कार किया। यूं लगता है मानो खबर तो पहले से लिखी जा चुकी थी सिर्फ दिखावे के लिए कंपनी से प्रतिक्रिया मांग ली गई और समाचार के अंत में एक पंक्ति में आरोपों से इन्कार का जिक्र करके 'निष्पक्ष’ समाचार लिखने की जिम्मेदारी पूरी कर ली गई।
विवादित आरुषि हत्याकांड के मामले में मीडियाकर्मियों ने साफ-साफ माना कि मीडिया ने पूरे घटनाक्रम को अति नाटकीय रूप देकर अपने दायरे से बाहर जाकर तालवाड़ परिवार की छीछालेदारी की। उससे भी ज्य़ादा दुखदायी बात यह है कि मीडिया ने अपनी गलती स्वीकार करने के बावजूद भी गलती से कोई सबक नहीं सीखा, या उसे सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया, कोई सर्वमान्य आचार-संहिता नहीं बनाई। बाद में जब तालवाड़ परिवार ने जांच बंद होने का विरोध किया और आरुषि के पिता पर फिर से हत्यारा होने का संदेह जताया गया तो एक बार फिर मीडिया ने संयत आचरण को दरकिनार करते हुए खबर को नाटकीय स्वरूप दे दिया। मीडिया जांच एजेंसी नहीं है, और उसे किसी जांच एजेंसी के मत को प्रकाशित-प्रसारित करने का अधिकार है तो मीडिया को यह अधिकार किसने दिया है कि जांच पूरी हुए बिना या आरोप सिद्ध हुए बिना ही वह किसी की इज्ज़त उतार दे?
यह सही है कि मीडिया के व्यावसायिक हित भी हैं और चैनल की टीआरपी अथवा समाचारपत्र का प्रसार बढ़ाने के लिए सजग रहना आवश्यक है। सवाल यह है कि क्या मीडिया को अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरों की प्रतिष्ठा से खेलने का क्या हक है? मीडियाकर्मियों द्वारा विज्ञापन लेने के लिए हर तरह उचित-अनुचित हथकंडे अपनाना भी अब सामान्य बात हो गई है। स्थिति पेड न्यूज़ से ज्य़ादा खराब है और मीडिया की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। मीडिया और माफिया में फर्क रहना जरूरी है, और यह फर्क साफ नज़र आना चाहिए। यह संतोष की बात है कि अभी तक सामान्यजन में मीडिया की विश्वसनीयता बरकरार है। समाचारपत्र विश्वसनीय सूचना-स्रोत हैं, इनकी विश्वसनीयता अखंड रहना परम आवश्यक है। यह मीडियाकर्मियों का धर्म है कि वे आत्ममंथन करें और अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखने के लिए हर संभव प्रयत्न करें। इसी में उनका व शेष समाज का भला है।
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