एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women
By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना
Alternative Journalism
वैकल्पिक पत्रकारिता
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एकल महिलाओं की समस्याएं
-- पी. के. खुराना
हाल ही में नई दिल्ली में महिलाओं के एक संघ की सदस्या महिलाएं समाज और सरकार के रवैये के प्रति अपना विरोध जताने के लिए इकट्ठी हुईं। देश की राजधानी दिल्ली के लिए यह कोई नई बात नहीं है कि किसी संगठन के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए आए। इन महिलाओं के विरोध प्रदर्शन में भी ऐसा कुछ उल्लेखनीय अथवा खास नहीं था, अगर कुछ खास था तो वह था इस संगठन की प्रकृति और इसके उद्देश्य जिसने मुझे महिलाओं की एक और समस्या पर फिर से सोचने के लिए विवश किया।
'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' नामक इस संगठन की सदस्या महिलाओं में विधवाएं, परित्यक्ताएं, तलाकशुदा महिलाएं व ऐसी अविवाहित महिलाएं शामिल हैं जो अपने परिवार और समाज से उपेक्षापूर्ण व्यवहार का दंश झेल रही हैं। इनमें से अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि की साधनहीन महिलाएं हैं जिनके पास अपनी कठिनाइयां बताने का कोई उपाय नहीं था। यह संगठन ऐसी महिलाओं के अधिकारों की वकालत ही नहीं करता बल्कि उन्हें अधिकारों के प्रति शिक्षित भी करता है। इससे भी बड़ी बात, यह सिर्फ ऐसी वंचिता महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के साथ-साथ उनके ससुराल पक्ष के परिवारों को काउंसलिंग के माध्यम से उनके बीच की गलतफहमियां दूर करके परिवारों को जोडऩे का प्रयत्न भी करता है। यानी, 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' अधिकारों की वकालत करते हुए सिर्फ झगड़ा बढ़ाने का ही काम नहीं करता, बल्कि झगड़ा निपटाने का रचनात्मक प्रयत्न भी करता है।
अपने ममतामयी दृष्टिकोण के लिए जानी जाने वाली महिलाएं विपरीत स्थितियों में खुद कितनी उपेक्षा का शिकार होती हैं, इसकी कहानी सचमुच अजीब है। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिये जाते हैं। विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है लेकिन परित्यक्ताओं, तलाक शुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्य़ादा जागरूक नहीं हैं।
एकल महिलाओं को हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवैतनिक कामकाज के अलावा यौन शोषण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांवों में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं होता, समाज की रूढि़वादिता और संस्कार उन्हें विरोध करने से रोकते हैं और वे असहाय पिसती रह जाती हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार ऐसी महिलाओं की संख्या तीन करोड़ साठ लाख के आसपास थी और इनमें से अधिकांश विधवाएं थीं। सन् 2011 में संपन्न जनगणना में एकल महिलाओं की गिनती का विवरण अभी नहीं आया है।
यही नहीं, जिन परिवारों में मर्द लोग कामकाज के सिलसिले में शहर से बाहर रहने को विवश हैं वहां उनकी पत्नियां घर में अकेली पड़ जाती हैं और कई तरह की समस्याएं झेलती हैं लेकिन ज़ुबान नहीं खोल पातीं। घर से बाहर रह रहा मर्द अगर कठिनाइयां झेल कर पैसे कमाता है तो घर में अकेली पड़ गई उसकी पत्नी भी कई तरह से अपमान और उपेक्षा का शिकार हो रही हो सकती है। महिलाओं की शारीरिक बनावट के कारण उनकी समस्याएं अलग हैं। यही नहीं, उनकी भावनात्मक सोच भी पुरुषों से अलग होती है और अक्सर पुरुष उसे नहीं समझ पाते। इसके कारण भी कई बार महिलाओं को कई तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। इससे भी ज्य़ादा बड़ी समस्या तब आती है जब रोज़गार के सिलसिले में मर्द शहर से बाहर जाता है और वहीं पर दूसरा विवाह कर लेता है। ऐसे बहुत से पुरुष अपनी पहली पत्नी को अक्सर पूरी तरह से बिसरा देते हैं या फिर दोनों महिलाओं से झूठ बोलते रह सकते हैं।
हिमाचल प्रदेश निवासी 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्या निर्मल चंदेल इस पहाड़ी राज्य की महिलाओं की इस व्यथा का बखान करते हुए कहती हैं कि हिमाचल प्रदेश में रोज़गार की बहुलता न होने के कारण मर्दों का राज्य से बाहर प्रवास जितना आम है, नये शहर में बस कर आधुनिका महिलाओं अथवा महिला सहकर्मियों से दूसरी शादी भी कम आम नहीं है। हिमाचल प्रदेश जैसे कम आबादी वाले छोटे से राज्य से ही 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्याओं की संख्या 9,000 से कुछ ही कम है। इसीसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में महिलाएं शोषण और उपेक्षा का शिकार हो रही हैं।
महिलाओं की एक अन्य समस्या को भी पुरुष अक्सर नहीं समझ पाते और अक्सर उसका परिणाम यह होता है कि पूरा परिवार बिखर जाता है। करियर के जाल में फंसा पुरुष वर्ग पत्नी और परिवार की उपेक्षा की गंभीरता को समझ ही नहीं पाता, कई बार तो तब तक जब परिवार टूट ही न जाए या टूटने के कगार पर ही न पहुंच जाए। तब भी पुरुष लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहां गलत थे। वे तो तब भी यही मान रहे होते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे थे वह परिवार की भलाई, खुशी और समृद्धि के ही लिए था। यहां पतियों और पत्नियों का नज़रिया एकदम अलग-अलग नज़र आता है। पत्नियां पैसा कम और पति का साथ ज्य़ादा चाहती हैं और पति यह मानते रह जाते हैं कि यदि उनके पास धन होगा तो वे पत्नी के लिए सारे सुख खरीद सकेंगे। बिना यह समझे कि उनकी पत्नी की भावनात्मक आवश्यकताएं भी हैं और उनकी पूर्ति के लिए उन्हें पति के पैसे की नहीं, बल्कि पति के संसर्ग और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है।
हमारा देश तेजी से विकास कर रहा है, हमारे जीवन स्तर में सुधार हो रहा है लेकिन सोच बदलने में समय लग रहा है, खासकर ग्रामीण इलाकों में अभी भी रुढि़वादिता का बोलबाला है। अब समय आ गया है कि हम पुरुष समाज को महिलाओं की आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित करें और महिलाओं के प्रति ज्य़ादा सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाएं ताकि समाज के दोनों अंगों का समान विकास संभव हो सके और समाज में संतुलन बना रहे। ***
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