Monday, February 20, 2012
Is our country a mere Election Constituency ? :: क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?
Is our country a mere Election Constituency ?
क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?
By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना
Pioneering Alternative Journalism in India
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क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?
पी.के. खुराना
पिछले कुछ समय से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में बहुत सक्रिय हैं क्योंकि वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत देखना चाहते हैं। मीडिया भी राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा से संबंधित खबरें नमक-मिर्च-मसाले सहित पेश कर रहा है। वहीं भाजपा भी सुश्री उमा भारती के सहारे उत्तर प्रदेश में कुछ और सीटें जीतने की जुगत में है। चुनावी दंगल में यह सब सामान्य है। क्षेत्रीय दलों की बात छोड़ दें तो ये दोनों देश के प्रमुख राष्ट्रीय दल हैं जो उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।
पर ऐसा क्यों है कि चुनाव के समय राजनेता सक्रिय हो जाते हैं और घोषणाओं और तमाशों का अंबार लगा देते हैं और चुनाव के बाद सब सो जाते हैं, यहां तक कि अक्सर मीडिया भी सो जाता है और जनता भी मान लेती है कि चूंकि अब चुनाव का समय नहीं रहा अत: नेताओं का उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। चुनाव के बाद गाहे-बगाहे पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बयान आते हैं जब वे सरकार की किसी नीति पर कोई टिप्पणी करते हैं पर ज्य़ादातर मामलों में वे बयान, बयानों तक सीमित रह जाते हैं, ज़मीन के स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं होती, जब तक कि कोई बड़ा कांड न हो जाए और उस कांड के माध्यम से बड़े प्रचार की उम्मीद न हो।
चुनाव के बाद अक्सर विश्लेषक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि जनता ने सबको (विश्लेषकों सहित) आश्चर्यचकित किया है और जनता बहुत समझदार हो गई है तथा जनता अब अपना वोट अपनी मर्जी से देती है। अगर हम सचमुच बहुत समझदार हो गए हैं तो ऐसा क्यों होता है कि मीडिया को तथा स्वयंसेवी संस्थाओं को लोगों को वोट डालने की अपील के अभियान चलाने पड़ते हैं? सब जानते हैं कि आज भी देश में शराब, कंबल और नोटों से वोट खरीदे और बेचे जाते हैं; जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और राज्य के नाम पर वोटों का बंटवारा होता है। राजनेता इसे बखूबी जानते हैं और वोट लेने के लिए हर हथियार आजमाते हैं। अफसोस यह है कि ज़मीनी हकीकतों से नावाकिफ टीवी और अखबारों के विद्वान पत्रकार और स्वतंत्र विश्लेषक लोग अपना अनाड़ीपन छुपाने के लिए ‘जनता समझदार हो गई है’ का जुमला उछालते हैं। चुनाव परिणामों के बारे में पूरी तरह से गलत भविष्यवाणी करने और सार्वजनिक रूप से देश से माफी मांगने के बावजूद अगली बार भी वे ही विश्लेषक हर टीवी चैनल पर नज़र आते हैं और असलियत की तह तक गए बिना उसी बेशर्मी से अगली भविष्यवाणियां करते हैं।
आज राजनेता देश और जनता को महज़ एक चुनाव क्षेत्र और जनता को सिर्फ मतदाता के रूप में ही देखते हैं। उनकी रणनीति, घोषणाएं और सारे कामकाज वोट बैंक बनाने की नीयत से संचालित होते हैं। अफसोस की बात यह है कि मीडिया भी उनकी इस चाल को पहचान नहीं पाया है बल्कि मीडिया भी देश और जनता के साथ चुनाव क्षेत्र और मतदाता की ही तरह व्यवहार करता है।
चुनाव के बाद विपक्ष की क्या भूमिका है? सरकारी नीतियों की आलोचना करना, सदन में शोर मचाना, सदन से बहिर्गमन करना और आंदोलन करना मात्र? क्या विपक्ष के पास किसी रचनात्मक काम की कोई योजना नहीं होनी चाहिए? क्या विपक्ष जनता की समस्याओं के समाधान के लिए कोई कार्यक्रम नहीं चला सकता? क्या हर रचनात्मक कार्यक्रम चलाने के लिए सरकार में होना ही आवश्यक है?
सरकार बन जाने पर क्या यह नहीं होना चाहिए कि सरकार अपने कामकाज की अर्धवार्षिक अथवा वार्षिक समीक्षा करे और बताए कि चुनाव घोषणा पत्र में से कितने वायदे पूरे हो गए, कितने बाकी हैं और जो बाकी हैं उनकी स्थिति क्या है?
चुनाव के बाद सरकार और विपक्ष के कामकाज की सर्वांगीण समीक्षा के लिए मीडिया कितने अभियान चलाता है? जनमत निर्माण में यहां बुद्धिजीवियों और मीडिया की भूमिका की समीक्षा भी आवश्यक है। और, इससे भी ज्य़ादा आवश्यक है कि चुनाव की मारामारी खत्म हो जाने के बाद जनता के सभी वर्गों में जागरूकता के लिए कोई नियोजित अभियान चलाया जाए। लोकसभा और राज्यसभा में ऐसे बहुत से लोग चुने गए जो शपथ लेने के बाद सदन में गए ही नहीं, या फिर अपने कार्यकाल की पूरी अवधि में एक बार भी बोले ही नहीं। क्या ऐसे लोगों की अलग से पहचान आवश्यक नहीं है? क्या मतदाताओं को ऐसे लोगों की कारगुज़ारी के बारे में सूचित करना आवश्यक नहीं है?
सवाल यह है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, जब तक एक नागरिक के रूप में हम जागरूक नहीं होंगे, अपने अधिकारों और कर्तव्यों की बारीकियां नहीं समझेंगे तब तक यही होता रहेगा। सच तो यह है कि इसमें राजनेताओं को दोष सबसे कम है, क्योंकि उन्हें तो येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना है, और हो सके तो बहुमत प्राप्त करना है ताकि वे सत्ता में आ सकें। मतदाता के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, राज्य और पार्टी से ऊपर उठकर सोचें और सही प्रत्याशी का समर्थन करें। चुनाव के बाद भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं की लगाम खींचते रहें और उन्हें अहसास दिलाते रहें कि हम जनता हैं और हम निर्वाचक हैं। यह बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे इस पर सेमिनार करें, बहस करें, आंदोलन करें। इसी प्रकार यह मीडिया का कर्तव्य है कि चुनाव के बाद भी वह चुनाव और पक्ष-विपक्ष के कामकाज को लेकर लगातार जनमत तैयार करते रहें। यह एक अनवरत प्रक्रिया होनी चाहिए, जो फिलहाल नहीं है।
देखा तो यह भी गया है कि कोई मीडिया घराना सूखी होली के पक्ष में अभियान चलाता है, पर वह अभियान इतना कागज़ी होता है कि उस संस्थान से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और पत्रकार भी खुद सूखी होली नहीं मनाते और वह अभियान दरअसल सिर्फ अखबार में छपे विज्ञापनों तक ही सीमित होकर रह जाता है।
हमारे देश में अभी पौधारोपण कार्यक्रम के बाद, उन पौधों की सुरक्षा की संस्कृति नहीं बन पाई है। दहेज़ ने लेने की शपथ दिलाने वाली संस्थाएं उसके बाद शपथ लेने वालों का ट्रैक नहीं रखतीं। अब हमें का$गज़ी कार्यवाहियों की संस्कृति से ऊपर उठना होगा और प्रचार या ग्रांट के लिए कार्यक्रम आयोजित करने वाली संस्थाओं की असलियत को समझना होगा और नीति के साथ-साथ नीयत को भी परखना होगा। हमें खुद जागरूक होना होगा और अपने आसपास के लोगों को जागरूक करना होगा। हमें दीपक जलाना होगा और उस दीपमाला में परिवर्तित करना होगा। यह हमारी जिम्मेदारी है, हम सबकी जिम्मेदारी है।
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