Mars, Venus Aur Media
By :
P.K.Khurana
Prmaod Krishna Khurana
प्रमोद कृष्ण खुराना
Promoting 'Alternative Journalism' in India
मार्स, वीनस और मीडिया
पीके खुराना
संपादक
समाचार4मीडिया.कॉम
जॉन ग्रे की प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेन आर फ्राम मार्स, वीमेन आर फ्राम वीनस’ में शायद पहली बार पुरुषों और महिलाओं के व्यवहार और दृष्टिकोण तथा तनाव के समय उनकी प्रतिक्रियाओं के अंतर के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, इस पुस्तक में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं में इतनी असमानताएं हैं, मानो वे दो भिन्न ग्रहों (मार्स-मंगल, वीनस-शुक्र) के प्राणी हों। यह पुस्तक इस अवधारणा का प्रतिपादन करती है कि दोनों को एक दूसरे के संवाद के तरीकों और भावनात्मक आवश्यकताओं का पता हो तो पुरुषों और महिलाओं में बेहतर समझ बनेगी। इस पुस्तक का वास्तविक उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं को एक-दूसरे की असमानताएं बताकर उनमें बेहतर समझ पैदा करना है।
पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक अलग ही रंग दे दिया। भारतीय संसद अभी तक महिला आरक्षण के बारे में अनिश्चित है, भारतीय समाज इस समस्या से अनजान है और भारतीय मीडिया के लिए यह एक फैशनेबल मुद्दा मात्र है।
परसों सोमवार 8 मार्च को हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाएंगे। हर साल की तरह इस बार भी मीडिया में महिला आरक्षण, पुरुषों द्वारा महिलाओं के शोषण और महिला अधिकारों की बात की जाएगी। कई कार्यक्रम होंगे, सेमिनार होंगे, जुलूस जलसे होंगे, संसद में शोर मचेगा, खबरें छपेंगी और फिर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की तरह के किसी अगले ‘दिवस’की तैयारी में मशगूल हो जाएंगे।
ऐसा नहीं है कि मीडिया महिलाओं से संबंधित मुद्दों को नहीं उठाता है। वस्तुत: महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला अधिकारों पर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता प्राप्त की है। इसके अलावा मीडिया में महिलाओं की संख्या न केवल बढ़ी है बल्कि बहुत सी सफल महिला पत्रकारों ने इतना नाम कमाया है कि वे पुरुषों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी हैं। पत्रकारिता के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं ने अपना सिक्का मनवाने में सफलता प्राप्त की है। परंतु भारतीय समाज में हम पुरुष लोग महिलाओं की वास्तविक समस्याओं और आवश्यकताओं से वाकिफ नहीं हैं और भारतीय मीडिया उनके बारे में बात ही नहीं करता है। महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मन:स्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में पुरुष लगभग सारी उम्र पूर्णत: अनजान रहते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या हो या माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल का मुद्दा हो, पुरुष महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं से अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां लड़कियां अपने पिता अथवा भाइयों को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन अभी भारतीय समाज और शिक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं बन पाई है, यही कारण है कि इस बारे में बात भी नहीं की जाती।
नलिनी राजन द्वारा संपादित पुस्तक ‘ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी जर्नलिज्म इन इंडिया’में अपने लेख ‘दि जेंडर फैक्टर’में अम्मू जोसेफ ने यह बताया है कि सन् 2005 के सुनामी के कहर के कारण किस प्रकार से उन परिवारों को ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा, जहां परिवार की मुखिया कोई महिला थी और परिवार में कोई वयस्क पुरुष नहीं था। शरणार्थी कैंपों में महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं की ओर ध्यान न दिये जाने के कारण (महिलाओं के आतंरिक परिधान, सैनिटरी नैपकिन, खुले पानी की सुविधा वाले महिला टायलेट , माहवारी आदि के समय प्राइवेसी की आवश्यकता आदि) महिलाओं को अतिरिक्त परेशानियों का शिकार होना पड़ा। मीडिया ने महिलाओं की इस समस्या और आवश्यकता पर कभी भी खुलकर चर्चा नहीं की, क्योंकि माना यह जाता रहा कि सुनामी में लोग मरे हैं, सिर्फ महिलाएं नहीं, पर सच तो यह है कि हम मीडिया वाले महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं से अनजान होने के कारण इस मुद्दे की गंभीरता को नहीं समझ पाये।
क्या इस बार भी ऐसा ही होगा? क्या हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की चर्चा में महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं की बात भी करेंगे? क्या मीडिया पुरुष समाज को इन मुद्दों पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेगा, या हम सिर्फ फैशनेबल मुद्दों तक ही सीमित रह जाएंगे? मुझे विश्वास है कि कोई ऐसा आवश्यक मुद्दा मीडिया के ध्यान में लाया जाए तो मीडिया उसकी उपेक्षा नहीं करता। इसी विश्वास के साथ मैं अपने पुरुष साथियों को यह याद दिलाने की हिमाकत कर रहा हूं कि कई बुनियादी आवश्यकताओं के मामले में पुरुष और स्त्रियां सचमुच इतने भिन्न हैं मानो हम मंगल ग्रह के निवासी हों, और महिलाएं शुक्र ग्रह से आई हों। मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी है कि भारतवर्ष के जागरूक मीडियाकर्मी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर इस मुद्दे का भी ध्यान रखेंगे।
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