Saturday, May 28, 2011

Achchhe Insaan, Achchhe Naagrik : अच्छे इन्सान, अच्छे नागरिक





Achchhe Insaan, Achchhe Naagrik : अच्छे इन्सान, अच्छे नागरिक

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


Pioneering Alternative Journalism in India

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अच्छे इन्सान, अच्छे नागरिक
 पी. के. खुराना



अंग्रेज़ी में एक शब्द है 'कम्युनिटी’ जो लैटिन भाषा के दो शब्दों 'कॉम’ (साथ) और 'उनस’ (एक) से मिलकर बना है। कम्युनिटी बहुत से लोगों का एकीकृत समूह है, यानी यह एक और बहुत दोनों ही है, यह समूह भर नहीं, बल्कि एकीकृत बाहुल्य है। कम्युनिटी तभी बनती है जब हम समाज के हितों को अपने व्यक्तिगत हितों से पहले रखें। आज भारत के सामने बहुत सी चुनौतियां हैं और उन चुनौतियों का हल तभी संभव है जब हम वैयक्तिक और सामाजिक हितों में संतुलन बिठाते हुए एक प्रगतिशील समुदाय बना सकें। यह शायद अकेली सबसे बड़ी चुनौती है। इसके लिए हमें एक ऐसी मूल्य प्रणाली (वैल्यू सिस्टम) विकसित करनी होगी जहां हम सामान्य हित के लिए छोटे-छोटे त्याग कर सकें। इस तरह की सामाजिक मूल्य प्रणाली में हम अपने व्यक्तिगत हित से पहले समुदाय के हित का ध्यान रखते हैं।

सामाजिक मूल्य प्रणाली के तीन चरण हैं -- पहला, समाज के प्रति वफादारी; दूसरा, परिवार के प्रति वफादारी और तीसरा, खुद के प्रति वफादारी। समस्या यह है कि भारतीय समाज में हम परिवार के प्रति वफादारी को समाज के प्रति वफादारी से ऊपर रखते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में आमतौर पर समाज के प्रति वफादारी पर कहीं ज्य़ादा ध्यान दिया जाता है। हम अपना घर साफ करते हैं लेकिन सड़कों को गंदा करने से गुरेज़ नहीं करते। हम अपने आसपास गंभीर समस्याओं को देखकर भी उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करते। हम इस तरह बर्ताव करते हैं मानो वे किसी और की समस्याएं हों। हम अपने संवैधानिक कर्तव्यों की अवहेलना करते हैं और समाज की भलाई के प्रति उदासीन रहते हैं। समाज की भलाई के नाम पर हम तभी आगे आते हैं जब हमें किसी व्यावसायिक लाभ या प्रचार का लालच हो।

सन् 1956 में भारत सरकार ने एक योजना बनाई थी जिसके अनुसार अगले 25 वर्षों में भारत को गरीबी मुक्त राष्ट्र बनना था। सन् 1981 में वे 25 साल पूरे हो गए, पर सपना अब भी अधूरा है जबकि 1981 के बाद 30 और साल गुज़र चुके हैं। मानव विकास सूचकांक में हम 177 देशों में से 125वें स्थान पर हैं, 30 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे हैं। बड़ी बात यह है कि यह गरीबी रेखा भी अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित न होकर, भारत सरकार द्वारा बनाई गई है जो सही स्थिति को कम करके आंकती है। आज हमारे देश में 30 करोड़ से भी ज्यादा लोग अशिक्षित हैं। यह दुनिया में अशिक्षितों का सबसे बड़ा समूह है। देश की बाल जनसंख्या का आधा हिस्सा कुपोषण का शिकार है, बेरोज़गारी की दर 10 प्रतिशत है। समस्याओं की यह सूची बहुत लंबी है। उसके बावजूद आज भी हम अपनी असफलताओं को तर्कसंगत ठहराते हैं और हमारे राजनीतिक और धार्मिक नेता भारतवर्ष को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश बताने की डींग हांकने में व्यस्त हैं।

सबसे बुरी बात यह है कि अत्यधिक कम प्रगति के बावजूद हम अपने से बेहतर समाजों के प्रति घृणा का दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं। हम अलग-अलग बहानों से विकसित देशों की निंदा के मौके ढूंढ़ लेते हैं और अपनी संस्कृति की डींगे हांकते हैं। हमारे देश में हर कोई विचारक बनना चाहता है, कर्ता नहीं, क्योंकि कुछ भी करने के लिए मेहनत करनी होती है और उसे नीचा समझा जाता है। यही कारण है कि हमारे देश में सेमिनार, गोष्ठियां और सभाएं तो बहुत होती हैं पर किसी समस्या का हल फिर भी नहीं होता। अपनी सोच में बदलाव लाए बिना हम विकसित देश नहीं बन सकते। सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखनी होगी। हमें अच्छे इन्सान ही नहीं, बल्कि अच्छे नागरिक भी बनना है, वरना याद रखिए कि अपने दायित्वों से मुकरना आसान है, लेकिन हम अपने दायित्वों से मुकरने के परिणामों से नहीं मुकर सकते।

जीवन में 'पुरस्कार’ और 'सज़ा’ नहीं होते, 'परिणाम’ होते हैं, अर्थात् हमरी सफलता और असफलता इस पर निर्भर करती है कि हम उपलब्ध विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कर पाते हैं या नहीं। विकल्पों के चुनाव की सटीकता के कारण हम सफल या असफल होते हैं। सफलता का श्रेय लेने से हम कभी नहीं चूकते, पर यदि असफल हो जाएं तो दोष परिस्थिति के सिर मढ़ देते हैं, पर इससे सच्चाई नहीं बदल जाती। कहने का आशय है कि हम अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें और यह भी समझ लें कि यदि आज हम गलत चुनाव करेंगे तो कल असफलता का दंश भी हमें ही भोगना होगा। यदि हम भारतवर्ष को विकसित देश बनाना चाहते हैं तो हम केवल सरकार पर निर्भर नहीं रह सकते। यह पहल हमें खुद करनी होगी। अपने आसपास की समस्याओं पर निगाह रखनी होगी और उनके समाधान के लिए सक्रिय भूमिका निभानी होगी। उदासीन रहकर, या 'हमें क्या लेना?’ कहकर हम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।

हमें बचपन से ही अच्छा इन्सान बनना सिखाया जाता है, लेकिन शायद अच्छा नागरिक बनने की शिक्षा पर ज़ोर नहीं दिया जाता। अच्छा नागरिक बनने के लिए आवश्यक है कि हम मतदाताओं के रूप में जागरूक हों, अपने आसपास की समस्याओं के समाधान में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार रहें और समस्याओं पर सिर्फ चर्चा करते रहने या सरकार को कोसते रहने के बजाए उसके समाधान के लिए आवश्यक कदम उठायें।

बाबा अन्ना हज़ारे ने एक अनुकरणीय पहल करके जनलोकपाल बिल बनवाने में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करवाई है। यह एक बहुत बड़ी सफलता या एक बड़ा टर्निंग प्वायंट है। इससे पहले हमारे देश में कानून बनाने में जनता की कोई प्रत्यक्ष भूमिका संभव नहीं थी। यह पहली बार हुआ है कि एक कानून बनाने के लिए बनी समिति में जनता के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया गया है। परिणाम चाहे जो हो, लेकिन यह एक बड़ी शुरुआत है।

स्थानीय स्तर पर भी इस पहल को दुहराया जा सकता है और स्थानीय स्वशासन के मामलों में जनता के प्रतिनिधियों की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है। पश्चिम बंगाल की ममता सरकार की यह घोषित नीति है कि हर फैसले में जनता की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाएगा। भविष्य ही बताएगा कि यह किस हद तक लागू हो पाता है और नौकरशाही इसे कितना सफल होने देती है, पर यदि यह संभव हो पाया तो यह भी एक मिसाल बनेगी।

हमें मतदाताओं के रूप में जागरूक होना होगा और मतदान से पहले प्रत्याशियों से यह वचन लेना होगा कि वे प्रशासन के निर्णयों में जनता की भूमिका बढ़ाने के लिए काम करेंगे। हमें अपने जनप्रतिनिधियों पर निगाह रखनी होगी, उनके कामकाज की समीक्षा करते रहना होगा और उन्हें जाति, धर्म, क्षेत्र और पार्टी के आधार पर वोट देने के बजाए उनकी कारगुज़ारी पर ध्यान देना होगा। जागरूक और सक्रिय हुए बिना हम अच्छे नागरिक नहीं बन सकते। यदि हम देश का विकास और अपनी समस्याओं का हल चाहते हैं तो हमारे लिए अच्छा इन्सान होना ही काफी नहीं है, हमें अच्छा नागरिक भी होना होगा, अन्यथा हम और हमारी आने वाली पीढिय़ां भी समस्याओं के लिए सिर्फ सरकार को दोष देती रह जाएंगी, समस्या का हल कभी नहीं होगा और हम अभावों में जीने के लिए विवश और अभिशप्त रहेंगे। 


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