Saturday, October 22, 2011

जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man









जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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जनता का सशक्तिकरण
पी. के. खुराना



जापानी मूल के प्रसिद्ध अमरीकी लेखक राबर्ट टी. कियोसाकी मेरे मनपसंद लेखक और विचारक हैं। उनकी प्रथम पुस्तक 'रिच डैड पुअर डैडÓ ने ही विश्व भर में तहलका मचा दिया। वर्तमान शिक्षा पद्धति पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैंैं, ''स्कूल में मैंने दो चुनौतियों का सामना किया। पहली तो यह कि स्कूल मुझ पर नौकरी पाने की प्रोग्रामिंग करना चाहता था। स्कूल में सिर्फ यह सिखाया जाता है कि पैसे के लिए काम कैसे किया जाता है। वे यह नहीं सिखाते हैं कि पैसे से अपने लिए काम कैसे लिया जाता है। दूसरी चुनौती यह थी कि स्कूल लोगों को गलतियां करने पर सजा देता था। हम गलतियां करके ही सीखते हैं। साइकिल चलाना सीखते समय मैं बार-बार गिरा। मैंने इसी तरह सीखा। अगर मुझे गिरने की सजा दी जाती तो मैं साइकिल चलाना कभी नहीं सीख पाता।“

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें लोगों के साथ चलने, लोगों को साथ लेकर चलने, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी होने, प्रयोगधर्मी होने से रोकती है। गलतियां करने वाले को सज़ा देकर हमारी शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों में भय की मानसिकता भर देती है। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें स्वस्थ रहना नहीं सिखाती, स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक अच्छी आदतें हम स्कूल में नहीं सीखते। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने सभी साधनों का प्रयोग करना भी नहीं सिखाती। पूंजी एक बहुत बड़ा साधन है पर हमारी शिक्षा हमें पूंजी के उपयोग का तरीका नहीं सिखाती। हमारी शिक्षा हमें पैसे के लिए काम करना सिखाती है, पैसे से काम लेना नहीं सिखाती।

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने कर्तव्यों का बोध नहीं देती, अपने नागरिक अधिकारों का ज्ञान नहीं देती। यह शिक्षा प्रणाली हममें नैतिक साहस पैदा नहीं करती। वर्तमान शिक्षा पद्धति न तो हमें अच्छा नागरिक बनना सिखाती है और न ही सफल व्यक्ति बनना। यह शिक्षा सशक्तिकरण की शिक्षा नहीं, पंगुता की शिक्षा है।

हमारी शासन व्यवस्था इतनी लचर है कि सूचना के अधिकार के बावजूद हमें समय पर सूचनाएं नहीं मिल पातीं, पूरी सूचनाएं नहीं मिल पातीं और यदि कोई अधिकारी इसमें रोड़े अटकाता है तो नागरिकों के पास उसके प्रभावी प्रतिकार का कोई उपाय नहीं है। शिक्षा का अधिकार लागू होने का क्या मतलब है? यदि उसके लिए आवश्यक प्रबंध न किये जाएं, आवश्यक संख्या में स्कूल और अध्यापक न हों तो शिक्षा के अधिकार का कानून बना देने से क्या होगा?

हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। हमारी पूरी कर-प्रणाली ही अतर्कसंगत और उद्यमिता विरोधी है। सच तो यह है कि टैक्स व्यवस्था की कमियों के कारण ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है।

आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं जबकि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

हमारे देश में उद्यमिता के लिए प्रोत्साहन के नाम पर जो कुछ किया जाता है वह सब एक बहुत बड़ा मज़ाक है। कोई नया उद्योग लगाने में इतनी अड़चनें हैं और इतने विभागों से अन्नापत्ति प्रमाणपत्र (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) लेना होता है कि अन्नापत्ति प्रमाणपत्र लेने में ही सालों-साल लग जाते हैं। दूसरी ओर, हम लोग भी अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति उदासीन रहकर प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं के रहमोकरम की आदी हो गए हैं। हम अपने जनप्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा करने के बाद उन्हें वोट देने के बजाए, किसी नारे के पीछे लगकर, जाति अथवा क्षेत्र की राजनीति से प्रभावित होकर अथवा किसी एक दल से बंधकर अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं।

उपरोक्त सभी व्यवस्थाएं नागरिक के रूप में हमें कमज़ोर करती हैं और हम दूसरों की कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। इस स्थिति को बदलने का एक ही तरीका है कि शिक्षा का सही स्वरूप तय किया जाए, उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाए, कर प्रणाली को तर्कसंगत बनाया जाए, सस्ता राशन, सब्सिडी और आरक्षण की जगह वंचितों के सशक्तिकरण के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी तय की जाए और रिश्वतखोरों, भ्रष्टाचारियों व बलात्कारियों के लिए कड़ी सजा सुनिश्चित की जाए।

यह सब कैसे होगा? इसका एक ही तरीका है कि हम जागें, अपने आसपास के लोगों में जागरूकता का भाव जगाएं। यह संतोष का विषय है कि सरकार और शेष राजनीतिक दलों के तिरस्कारपूर्ण रवैये के बावजूद गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे को देश भर से अच्छा समर्थन मिल रहा है। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर अन्ना की खूब चर्चा है। लेकिन क्या इतना ही काफी है? बाबा अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल में जनता की भागीदारी की बात मनवा कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। हालांकि सरकार ने बाद में इस जीत पर पानी फेर दिया पर लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है और 16 अगस्त से जनता की यह लड़ाई अपने दूसरे चरण में कर चुकी है। इस लड़ाई से तुरंत कोई बड़ी जीत हासिल करना शायद मुश्किल है। लड़ाई अभी लंबी चलने की आशंका है, तो भी यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि अन्ना जी को बिना शर्त जनता का पूर्ण समर्थन मिल रहा है। इस आंदोलन को सफल बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है। छोटी-छोटी उपलब्धियां मिलकर बड़ी जीत में बदल जाती हैं। हमें इसी दिशा में काम करना है ताकि देश के विकास के शेष अवरोधों को भी दूर किया जा सके। 


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