Saturday, October 22, 2011
Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल
Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल
By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना
Pioneering Alternative Journalism in India
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वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल
पी. के. खुराना
'वॉल स्ट्रीट विरोध' को कई नए नाम मिल गए हैं और अब इसे 'आक्युपाई वॉल स्ट्रीट' के अलावा 'हम 99 प्रतिशत हैं', 'टी पार्टी विरोध' तथा 'अक्तूबर क्रांति' आदि नामों से भी जाना जाने लगा है। वॉल स्ट्रीट और पूंजीवाद के विरोध में उपजे इस आंदोलन ने अब भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया है और यह अमरीका की सीमाओं को लांघकर इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड, जर्मनी, स्पेन, ग्रीस और रोम तक में फैल गया है। हर जगह से प्रदर्शनकारी घरों से बाहर निकल रहे हैं और पूंजीवाद के विरोध में एकजुट होकर इस अनूठे आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि इस आंदोलन की अगुवाई कोई एक व्यक्ति या समूह नहीं कर रहा है और ये लोग यह भी साफ नहीं कर पाये हैं कि उन्हें क्या चाहिए, तथा जो चाहिए वह कैसे संभव होगा, तो भी आंदोलन के प्रति लोगों का समर्थन बढ़ रहा है।
वॉल स्ट्रीट से शुरू हुए प्रदर्शन को अब कारपोरेट अमरीका के खिलाफ आम अमरीकियों के आक्रोश के रूप में देखा जा रहा है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अमरीकी प्रशासन हमेशा कारपोरेट जगत के हितों का संरक्षण करता है अत: कारपोरेट जगत की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, अमीरों पर ज्य़ादा टैक्स लगना चाहिए और देश के 99% लोगों पर 1% लोगों का नियंत्रण खत्म होना चाहिए। प्रदर्शनकारी गोल्डमैन सैक्स, जनरल इलैक्ट्रिक और बैंक ऑफ अमेरिका जैसी संस्थाओं का भी विरोध कर रहे हैं।
मोटे तौर पर यह आंदोलन आर्थिक असमानता के विरुद्ध है जिसमें अमीर और भी ज्य़ादा अमीर, और गरीब और भी ज्य़ादा गरीब होते जा रहे हैं। पूंजीवाद के इस दौर में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमरीका में समाज के सबसे ऊपर के पायदान के 1% लोग देश की 42% वित्तीय संपत्ति को नियंत्रित करते हैं। अमरीका की 70% वित्तीय संपत्ति का नियंत्रण शीर्ष 5% लोगों के पास है। कारपोरेट लाभ सर्वोच्च स्तर पर होने के बावजूद बेरोज़गारी अपने चरम पर है। बड़ी कंपनियों के सीईओ का वेतन सामान्य कर्मचारी के मुकाबले 350 गुणा ज्य़ादा है। सन् 1990 के बाद सीईओ का वेतन 300 गुणा बढ़ा है, कंपनियों का लाभ दोगुणा हो गया है जबकि सामान्य कर्मचारियों का वेतन औसतन सिर्फ 4 से 6 गुणा ही बढ़ा है। महंगाई समायोजित करने के बाद यह बढ़ोत्तरी लगभग शून्य हो जाती है। अमरीका की आधी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का सिर्फ 2.5 प्रतिशत हिस्सा है। यही नहीं, सर्वाधिक आमदनी वाले लोग कम टैक्स का आनंद ले रहे हैं।
सवाल यह है कि इस आर्थिक असमानता में पूंजीवाद का दोष कितना है? इससे पहले हम साम्यवाद को असफल होता देख चुके हैं। कभी विश्व, अमरीका और रूस दो महाशक्तियों में बंटा होता था। साम्यवादी रूस का इतना विघटन हुआ कि वह अमरीका का मोहताज हो गया और आज अमरीका विश्व की अकेली महाशक्ति है। चीन उसे चुनौती तो दे रहा है पर अभी वह अमरीका के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए चीन ने बहुत सी पूंजीवादी नीतियां अपनायी हैं।
अपने ही देश की बात करें तो यहां उदारवाद की शुरुआत सन् 1991 से हुई, लेकिन उससे पहले भी देश की अर्थव्यवस्था का 57% नियंत्रण मात्र 1% आबादी वाले जैन समाज के पास रहा है। सच तो यह है कि देश की शासन व्यवस्था कैसी भी हो, वह अमीर को और ज्य़ादा अमीर और गरीब को और ज्य़ादा गरीब बनाती ही है। एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं। मान लीजिए कुल पांच व्यक्ति एक दौड़ में हिस्सा ले रहे हों, उनमें से एक व्यक्ति पैदल हो, दूसरा साइकिल पर हो, तीसरा स्कूटर पर हो, चौथा कार पर हो और पांचवां हवाई जहाज़ पर हो तो समय बीतने के साथ-साथ प्रतियोगियों में फासला बढ़ता चला जाएगा और अंतत: पैदल चलने वाला या साइकिल पर चलने वाला पूरा ज़ोर लगाकर दौड़ते हुए भी दौड़ से बाहर होने की स्थिति में रहेगा। स्कूटर पर चलने वाले को आप निम्न मध्य वर्ग और कार पर चलने वाले को आप उच्च मध्य वर्ग मान सकते हैं। हवाई जहाज़ का खर्च उठा सकने की कूवत निश्चय ही 1% लोगों तक ही सीमित रहेगी जो दौड़ में हर किसी को पछाड़ेंगे ही। आर्थिक संपन्नता का यह अंतर साम्यवाद या पूंजीवाद के कारण नहीं है। यह अंतर साधनों की उपलब्धता और सामर्थ्य के कारण बना और बढ़ा है, और इस असमानता को दूर करने के लिए हमें राजनीतिक व्यवस्था बदलने के बजाए सामाजिक व्यवस्था बदलने, लोगों का नज़रिया बदलने और जनसामान्य को आर्थिक रूप से शिक्षित करने की आवश्यकता है। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त असमानता की खाई पाटने के लिए हमें इन तीनों सूत्रों को ज़रा बारीकी से समझना होगा।
जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर स्तर का व्यक्ति हर नये व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था।
दृष्टिकोण बदलने की बात करें तो हमें यह समझना होगा कि समाज के दोनों वर्गों को अपना-अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। संपन्न वर्ग को सदाशय होना होगा और अमीरी की दौड़ में पिछड़ रहे लोगों को धन की महत्ता को समझना और अपने संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करना सीखना होगा। आइये, दोनों मुद्दों पर ज़रा और विस्तार से बात करें।
आज कारपोरेट सेक्टर सामाजिक उत्तरदायित्व की बात करता तो है, पर यह उसका फोकस नहीं है। बहुत कम कारपोरेट घराने ऐसे हैं जो सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन को अपनी नीति में प्राथमिकता का स्थान देते हैं। हमें यह दृष्टिकोण बदलना होगा। कारपोरेट नेताओं को इस ओर ज्य़ादा ध्यान देना होगा वरना जो स्थिति आज अमरीका में कारपोरेट सेक्टर की है वह विश्व के शेष हर देश में भी होगी जो किसी क्रांति में बदल सकती है। यदि कारपोरेट सेक्टर इस स्थिति से बचना चाहता है तो उसे समाज कल्याण को प्राथमिकता देनी ही होगी। इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायण मूर्ति के शब्दों में कहूं तो हमें सहृदय पूंजीवाद अपनाना होगा।
दूसरी ओर, अमीरी की दौड़ में पीछे चल रहे लोगों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो अमीर होना चाहता है पर अमीरों से घृणा करता है। आज दुनिया में दो ही जातियां हैं, एक अमीर जाति और दूसरी गरीब जाति। दुर्भाग्यवश दोनों जातियां एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं और गरीब लोग अमीरों की मेहनत और काबलियत से सीखने के बजाए उनसे घृणा करते हैं और अमीर लोग गरीबों को अपने सामने कुछ नहीं समझते। वस्तुत: सही आर्थिक शिक्षा के अभाव में गरीब लोग गरीब रह जाते हैं और मध्यवर्गीय लोग भी अपने स्तर से ज्य़ादा ऊपर नहीं जा पाते। आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को अपने पैसे को काम में लाना और पैसे से पैसा बनाना नहीं सिखाती।
हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। परिणाम यह होता है कि शिक्षित होने के कारण उन्हें तो रोजगार मिल जाता है पर यह आवश्यक नहीं है कि रोजगार के नये अवसरों के सृजन में उनकी कोई बड़ी भूमिका हो, जबकि उद्यमी न केवल अपने लिए रोज़गार का सृजन करता है बल्कि अपने साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उद्यमियों को ज्यादा जोखिम बर्दाश्त करने पड़ते हैं, ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, सफलता के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है, पर जब वे सफल होना शुरू कर देते हैं तो उनकी राह आसान होती चलती है। समस्याओं से उनका भी वास्ता पड़ता है पर वे किसी भी समस्या अथवा चुनौती से घबराने के बजाए उसके समाधान के एक से अधिक हल खोजने का प्रयास करते हैं और सबसे बेहतर विकल्प को आजमाते हैं। उनकी यह प्रतिभा उनकी आदत बन जाती है और सफल होना उनकी नियति। अत: हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो व्यक्ति को नेतृत्व करने, सोचे-समझे जोखिम लेने और उद्यमी बनने के लिए भी तैयार करे। इससे गरीबी तो दूर होगी ही, राजनीतिक स्वतंत्रता भी सार्थक हो सकेगी, देश विकास की राह पर तेज़ी से बढ़ेगा और कारपोरेट सेक्टर के प्रति जनता में असंतोष की भावना भी नहीं होगी।
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