Aao Khelen Holi !
By :
PK Khurana
Pramod Krishna Khurana
प्रमोद कृष्ण खुराना
आओ, खेलें होली !
पी. के. खुराना
होली फिर आई है और होली के नाम से ही हमारी कल्पना में रंगों की बहार छाने लगती है। होलिका दहन, मिठाई, भाभियों, सालियों, देवरों आदि से ठिठोली, दोस्तों के संग मस्ती, रूठे हुए मित्रों से मिल बैठकर गिले-शिकवे दूर करने का मौका .... और अबीर, गुलाल तथा रंगों की बहार। भारत के बहुत से हिस्सों में तो होली मनाते हुए कपड़े के कोड़े तथा कीचड़ तक का इस्तेमाल किया जाता है। जहां इस हद तक नहीं जाते, वहां भी पिचकारी के बिना होली अधूरी मानी जाती है।
हमारे सांस्कृतिक मूल्य हमारी विरासत हैं और इनसे भावनाएं जुड़ी होती हैं। अक्सर इनके बारे में टिप्पणी करना खतरनाक होता है क्योंकि आप नहीं जानते कि कौन-सा दल या संगठन आपके घर-कार्यालय के बाहर विरोध की तख्तियां लेकर खड़ा हो जाएगा, या तोड़-फोड़ करना आरंभ कर देगा।
भारत में यह असहिष्णुता इसलिए नहीं है कि लोगों में जागरूकता की कमी है। दरअसल, यह असहिष्णुता भी नहीं है। ऐसे संगठन बहुत चालाक हैं। उन्हें पता है कि ऐसा विरोध सबसे आसान काम है, जहां न विशेष योजना की आवश्यकता है, न कोई नीतिगत बात करने की आवश्यकता है और न ही समाज को किसी ज्वलंत समस्या का समाधान सुझाने की आवश्यकता है, बस एक उग्र प्रदर्शन और कुछ तोड़-फोड़ करेंगे तो मीडिया वाले भागे चले आएंगे और टीवी, रेडियो, अखबार, ऑनलाइन, सब जगह उनकी खबर चली जाएगी, प्रसिद्धि मिल जाएगी, नेतागिरी जम जाएगी और चुनाव जीतना आसान हो जाएगा। कार्यकर्ताओं को भी फोटोंएं खिंचवाने-छपवाने का मौका मिल जाएगा। सब कुछ इतना आसान हो तो विरोध क्यों न हो?
ऐसे संगठन अपने हित में मीडिया का उपयोग (या दुरुपयोग) करने में माहिर हैं। उन्हें मालूम है कि मीडियाकर्मी ऐसी खबरें छापने के लिए लालायित रहते हैं। उन्हें यह भी मालूम है कि साधारण बयानबाज़ी की अपेक्षा थोड़ी-सी एक्शन की खबर फोटो सहित छपती और प्रसारित होती है। यह स्पांसर्ड वायलेंस भारत में बहुत कामयाब है और अभी तक मीडिया ने इस स्पांसर्ड वायलेंस के प्रचार की रोकथाम के लिए कोई नीति नहीं बनाई है। किसी छुटपुट घटना को प्रकाशित-प्रसारित न करना एक अलग बात है और ऐसी घटनाओं के प्रचार का साधन न बनने के लिए कोई नीति बनानी एक दूसरी बात है। इस मोर्चे पर हमारा मीडिया विफल ही रहा है।
खैर ... मैं अपने विषय पर वापिस आता हूं।
होली के त्योहार में रंगों का बहुत महत्व है। हम भारतीयों को रंगहीन होली की कल्पना ही असंभव लगती है। बहुत से अखबार भी जो होली को सही ढंग से मनाने के अभियान चलाते हैं, होली वाले दिन अपने फोटोग्राफरों और रिपोर्टरों को रंगीन होली की कवरेज के लिए भेजते हैं। स्कूलों, कालेजों, कंपनियों में होली मनाने के रंगीन विवरण छापते हैं।
सवाल यह है कि क्या रंगों का प्रयोग इस तरह से होना आवश्यक है, जो हमारी सेहत और हमारे पर्यावरण के लिए नुकसानदेह हो? हमें सोचना होगा कि जो रिवाज़ कल तक हमारे लिए प्रासंगिक था, आज हमारी जरूरतें बदल जाने के कारण अप्रासंगिक हो गया हो, उसे भी ढोते रहना, संस्कृति के लिए अच्छा है या बुरा?
होली में शराब, भांग और अन्य नशीले पदार्थों का प्रयोग, जुआ खेलने का रिवाज़, कीचड़ और अस्वास्वाथ्यकर रंगों का प्रयोग, होलिका दहन के नाम पर लकड़ी की अतर्कसंगत खपत और इन सब से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे में सोचना हमारा कर्तव्य है। पर क्या हम मीडियाकर्मियों को इस मामले में समाज का नेतृत्व नहीं करना चाहिए? क्या खुद हमें पहले रोल-मॉडल नहीं बनना चाहिए? होली के समय एकाध अबीर-गुलाल से तिलक लगाकर दोस्ती और खुशी प्रकट करने में क्या कमी है? क्या चेहरा रंगे बिना भाभी-साली से ठिठोली नहीं हो सकती? क्या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना दोस्तों के साथ मस्ती नहीं हो सकती?
अब समय आ गया है कि हम इस बारे में सिर्फ लेख और संपादकीय ही न लिखें, सेमिनार और गोष्ठियां ही न करेंख् बल्कि खुद कुछ करें और समाज के सामने उदाहरण बनें। इसलिए अपने सभी बुद्धिजीवी पत्रकार भाइयों से मेरा करबद्ध निवेदन है कि होली मनाएं, खुशियां मनाएं पर गीले रंगों का इस्तेमाल करके पानी की बर्बादी न करें, होलिका दहन करके प्रदूषण न फैलाएं और नशीले पदार्थों का प्रयोग करके या जुआ खेल कर गलत परिपाटी को जारी न रखें, यह संदेश अपने आसपास फैलाएं और लोगों को इस पर चलने के लिए प्रेरित करें। अबीर-गुलाल के मजे उड़ाइये और जितना हो सके, पानी बचाइये। आइये, हम अंधेरे को गाली देना बंद करके दीपक बनकर दिखाएं।
होली वाले दिन मैं चंडीगढ़ में अपने परिवार के साथ रहूंगा। हर साल की तरह इस बार भी वहां सब मित्रों का स्वागत है। निवेदन यही है कि गीले रंग न लाएं, और न उनकी अपेक्षा करें। आइए, हम समाज के लिए उदाहरण बनें और होली को सचमुच मुबारक बनाएं !
आप सब मित्रों को होली की हार्दिक बधाई !
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