Sunday, January 23, 2011

Patrakarita Ke Badalte Mizaj : पत्रकारिता के बदलते मिज़ाज

Patrakarita Ke Badlte Mizaj
By :
P.K.Khurana

(Pramod Krishna Khurana)
 प्रमोद कृष्ण खुराना

पत्रकारिता के बदलते मिज़ाज
 पी. के. खुराना

पत्रकारिता में हम अब एक नई अवधारणा का उदय देख रहे हैं। इसे वैकल्पिक पत्रकारिता अथवा अल्टरनेटिव जर्नलिज्म का नाम दिया गया है। लेकिन वैकल्पिक पत्रकारिता को लेकर काफी संशय का माहौल है। स्थापित मीडियाकर्मी इसे छिछोरापन मानते हैं और कतिपय तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। यही नहीं, वे यह भी मानते हैं कि इसमें अनुशासन और पेशेवर दृष्टिकोण का अभाव है अत: वैकल्पिक पत्रकारिता को तथ्यात्मक पत्रकारिता मानना भूल है।

हमें समझना होगा कि वैकल्पिक पत्रकारिता का जन्म कैसे हुआ। पत्रकारिता के अपने नियम हैं, अपनी सीमाएं हैं। आदमी कुत्ते को काट ले तो खबर बन जाती है, कोई दुर्घटना, कोई घोटाला, चोरी-डकैती-लूटपाट खबर है, महामारी खबर है, नेताजी का बयान खबर है, राखी सावंत खबर है, बिग बॉस खबर है, और भी बहुत कुछ खबर की सीमा में आता है। कोई किसी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करवा दे, तो वह खबर है, चाहे अभी जांच शुरू भी न हुई हो, चाहे आरोपी ने कुछ भी गलत न किया हो, तो भी सिर्फ एफआईआर दर्ज हो जाना ही खबर है। ये पत्रकारिता की खूबियां हैं, ये पत्रकारिता की सीमाएं हैं।

अभी तक वैकल्पिक पत्रकारिता को सिटिजन जर्नलिज्म से ही जोडक़र देखा जाता रहा है, जबकि वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। बहुत से अनुभवी पत्रकारों के अपने ब्लॉग हैं जहां ऐसी खबरें और विश्लेषण उपलब्ध हैं जो अन्यत्र कहीं प्रकाशित नहीं हो पाते। सिटिज़न जर्नलिज्म और अल्टरनेटिव जर्नलिज्म में यही फर्क है कि सिटिज़न जर्नलिज्म ऐसे लोगों का प्रयास है जो पत्रकारिता से कभी जुड़े नहीं रहे पर वेअपने आसपास की घटनाओं के प्रति जागरूक रहकर समाज को, अथवा मीडिया के माध्यम से समाज को उसकी सूचना देते हैं और उस पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। दूसरी ओर, वैकल्पिक पत्रकारिता ऐसे अनुभवी लोगों की पत्रकारिता है जो पत्रकारिता के बारे में गहराई से जानते हैं लेकिन पत्रकारिता की मानक सीमाओं से आगे देखने की काबलियत और ज़ुर्रत रखते हैं। यह देश और समाज के विकास की पत्रकारिता है, स्वास्थ्य, समृद्धि और खुशहाली की पत्रकारिता है। वैकल्पिक पत्रकारिता, स्थापित पत्रकारिता की विरोधी नहीं है, यह उसके महत्व को कम करके आंकने का प्रयास भी नहीं है। वैकल्पिक पत्रकारिता, परंपरागत पत्रकारिता को सप्लीमेंट करती है, उसमें कुछ नया जोड़ती है, जो उसमें नहीं था, या कम था, और जिसकी समाज को आवश्यकता थी। वैसे ही जैसे आप भोजन के साथ-साथ न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट्स लेते हैं ताकि आपके शरीर में पोषक तत्वों का सही संतुलन बना रहे और आप पूर्णत: स्वस्थ रहें। वैकल्पिक पत्रकारिता, परंपरागत पत्रकारिता के अभावों की पूर्ति करते हुए उसे और समृद्ध, स्वस्थ तथा और भी सुरुचिपूर्ण बना सकती है।

पारंपरिक पत्रकारिता में दो बड़े वर्ग उभर कर सामने आये हैं। एक बड़ा वर्ग नेगेटिव पत्रकारिता को पत्रकारिता मानता है, जो सिर्फ खामियां ढूंढऩे में विश्वास रखता है, जो मीडिया घरानों के अलावा बाकी सारी दुनिया को अपराधी, टैक्स चोर अथवा मुनाफाखोर मानकर चलता है, जबकि दूसरा वर्ग पेज-3 पत्रकारिता कर रहा है जो मनभावन फीचर छापकर पाठकों को रिझाये रखता है। वैकल्पिक पत्रकारिता इससे अलग हटकर देश की असल समस्याओं पर गंभीर चर्चा के अलावा विकास और समृद्धि की पत्रकारिता पर भी ज़ोर दे रही है।

कुछ वर्ष पूर्व तक अखबारों में खबर का मतलब राजनीति की खबर हुआ करता था। प्रधानमंत्री ने क्या कहा, संसद में क्या हुआ, कौन सा कानून बना, आदि ही समाचारों के विषय थे। उसके अलावा कुछ सामाजिक सरोकार की खबरें होती थीं। समय बदला और अखबारों ने खेल को ज्यादा महत्व देना शुरू किया। आज क्रिकेट के सीज़न में अखबारों के पेज के पेज क्रिकेट का जश्न मनाते हैं। इसी तरह से बहुत से अखबारों ने अब बिजनेस और कार्पोरेट खबरों को प्रमुखता से छापना आरंभ कर दिया है। फिर भी देखा गया है कि जो पत्रकार बिजनेस बीट पर नहीं हैं, वे इन खबरों का महत्व बहुत कम करके आंकते हैं। वे भूल जाते हैं कि शेयर मार्केट अब विश्व में तेज़ी और मंदी ला सकती है, वे भूल जाते हैं कि आर्थिक गतिविधियां हमारे जीवन का स्तर ऊंचा उठा सकती हैं। इससे भी बढक़र वे यह भी भूल जाते हैं कि पंूजी के अभाव में खुद उनके समाचारपत्र बंद हो सकते हैं। कुछ मीडिया घराने जहां बिजनेस बीट की खबरों से पैसा कमाने की फिराक में हैं, वहीं ज्य़ादातर पत्रकार बिजनेस बीट की खबरों को महत्वहीन मानते हैं।

उदारवाद के बाद से भारतवर्ष में मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग का काफी विस्तार हुआ है। इस वर्ग की आय तेजी से बढ़ी है और बढ़ती महंगाई के बावजूद यह वर्ग महंगाई से त्रस्त नहीं दिखता और यह वर्ग बड़ी कारों, बड़े टीवी सेटों तथा आराम की अन्य वस्तुओं पर भी लट्टू हो रहा है। दूसरी ओर निम्न मध्यवर्ग और निम्नवर्ग महंगाई की चक्की में बुरी तरह पिस रहा है और उसे कोई राह नहीं सूझ रही। समस्या यह है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली इस वर्ग का जीवन स्तर सुधारने में सहायक नहीं है। इस वर्ग को गरीबी से निज़ात पाने का मार्गदर्शन नहीं मिलता और वे न केवल गरीब रह जाते हैं बल्कि गरीबी की मानसिकता के कारण और भी गरीब होते चलते हैं और अमीरी के विरोधी बन जाते हैं। वे हर अमीर व्यक्ति को शोषक और भ्रष्ट मानकर उनके प्रति ही नहीं, अमीरी के प्रति भी घृणा का भाव पाल लेते हैं।

इसका एक ऐतिहासिक कारण भी है। हमारे देश में सांसारिक विषयों और मोह-माया के त्याग की बड़ी महत्ता रही है जिसके कारण धनोपार्जन को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। ‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान’ की धारणा पर चलने वाले भारतीयों ने गरीबी को महिमामंडित किया या फिर अपनी गरीबी के लिए कभी समाज को, कभी किस्मत को दोष दिया तो कभी ‘धन’ को ‘मिट्टी’ बता कर धनोपार्जन से मुंह मोडऩे का बहाना बना लिया। दुर्भाग्यवश दो सौ साल की लंबी गुलामी ने धन के मामले में हमें आत्मसंतोषी ही नहीं पलायनवादी भी बनाया। परिणाम यह हुआ कि सामान्यजन यह मानकर चलते रहे कि ‘जो धन कमाता है वह गरीबों का खून चूसता है।’ यानी, धारणा यह बनी कि धन कमाना बुराई है। मीडियाकर्मी, खासकर भाषाई अखबारों से जुड़े पत्रकार भी जाने-अनजाने इस सोच के वाहक और पोषक बने। हमारे देश में 50 से 80 के दशक के बीच की हिंदी फिल्मों ने भी यही किया। यह गरीबी नहीं, गरीबी की मानसिकता है।

वैकल्पिक पत्रकारिता शोषण और अन्याय के विरोध तो करती है पर यह अमीरी और विकास की विरोधी नहीं है। इस रूप में वैकल्पिक पत्रकारिता को आप मिशन पत्रकारिता भी कह सकते हैं। गड़बड़ी यह है कि वैकल्पिक पत्रकारिता ज्यादातर वेब पत्रकारिता तक सीमित है। विभिन्न ब्लॉग और वेबसाइटें वैकल्पिक पत्रकारिता की वाहक तो हैं पर उनकी पहुंच अत्यंत सीमित है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह धारा और मजबूत होगी और आने वाले कुछ वर्षों में यह पत्रकारिता के तेवर बदलने में सहायक होगी। 

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