Saturday, April 2, 2011
Jansankhya Ki Samasya, Samasyaon Ki Jansankhya : जनसंख्या की समस्या, समस्याओं की जनसंख्या
Jansankhya Ki Samasya, Samasyaon Ki Jansankhya
By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना
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जनसंख्या की समस्या, समस्याओं की जनसंख्या
पी. के. खुराना
भारतवर्ष की आबादी के प्रारंभिक आंकड़े आ चुके हैं। अगर आबादी के आकार की बात करें तो हमारा देश अमरीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, पाकिस्तान, बांग्लादेश और जापान की सम्मिलित आबादी के बराबर है और अगर वर्तमान आंकड़ों पर विश्वास करें तो पिछले 10 वर्षों में हमारे देश की जनसंख्या में एक पूरे देश ब्राज़ील की जनसंख्या और जुड़ गई है। जनसंख्या के आगे के बारीक विश्लेषण में जाए बिना आइये, मतलब की बात पर आयें।
जनसंख्या बढऩे का मतलब है कि हमें ज्यादा लोगों के शिक्षा के साधन, रोज़गार, खाना और रहने के लिए मकान चाहिएं। हमारी जनसंख्या में बहुत से लोग गरीब, साधनहीन, पिछड़े और अति पिछड़ों में शामिल हैं, स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, शिक्षा की कमी है, साधनों की कमी है और विवश होकर लोगों को आरक्षण की मांग करनी पड़ रही है। हमारा देश अभी जाटों के आरक्षण को लेकर पसोपेश में था, जाटों ने लंबा आंदोलन करके रेलें रोके रखीं और अदालती आदेश के बाद सरकार को अंतत: आंशिक रूप से ही सही, पर उनके सामने झुकना पड़ा। अगड़ों, पिछड़ों में भेदभाव करने से ही विभाजनकारी नीति का आरंभ होता है। सच तो यह है कि एक बार विभाजनकारी नीति आरंभ हो जाए तो उसका कोई अंत नहीं होता। यह एक ऐसा इकतरफा रास्ता है जिसमें कोई यू-टर्न नहीं है। हमारे देश में यही सब हो रहा है।
यह एक अलग बहस का विषय है कि कौन गरीब है, या पिछड़ा है और किसे आरक्षण की आवश्यकता है, पर हमारा देश दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश है जहां लोग काबलियत के बजाए पिछड़े होने को उन्नति का साधन बनाने के लिए आंदोलन करते हैं!
पूरी तस्वीर की बात करें तो विकास धीमा पड़ गया है। दुनिया भर में भारत में आरक्षण का प्रतिशत सबसे ज्यादा है और यही एकमात्र ऐसा देश बन गया है जहां प्रतिभा गौण हो गई है। हम आविष्कार का देश होने के बजाए 'जुगाड़' का देश बन गए हैं। हम विकासशील देश तो हैं ही, विकासशील देश की मानसिकता के भी शिकार हैं, अर्थात् हम विकसित देश बनने के लिए मानसिक रूप से ही तैयार नहीं हैं। प्रसिद्ध अध्यापक और विद्वान लेखक श्री सी.के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायण मूर्ति से कहा था कि कहा था कि विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है। श्री नारायण मूर्ति उनसे सहमत हुए बिना नहीं रह सके थे। मैं समझता हूं कि देश का हर समझदार नागरिक इस तथ्य से सहमत होगा ही।
श्री नारायण मूर्ति ने अपनी पुस्तक 'बेहतर भारत, बेहतर दुनिया' में उपरोक्त घटना का जिक्र करते हुए आगे लिखा है कि जब वे सत्तर के दशक के शुरू में फ्रांस गए तो उन्हें विकासशील देश और विकसित देश की मानसिकता के अंतर का पता चला। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाओं पर चर्चा करना और फटाफट इस दिशा में कार्य करना उनका ही काम हो। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, बहस करते चलते हैं और सिर्फ बहस ही करते रह जाते हैं। अगर हमें विकसित देश बनना है तो हमें इस मानसिकता को बदलना होगा जो सभी सार्वजनिक मुद्दों से जुड़ सके और सार्वजनिक क्षेत्र में किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए तेजी से कार्य कर सके। दोनों तरह की मानसिकताओं में मूलभूत अंतर यह है कि विकसित देशों के लोग सार्वजनिक समस्याओं को भी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं की तरह गंभीरता से लेते हैं और उन्हें दूर करने के लिए तुरंत कार्यवाही आरंभ कर देते हैं।
श्री नारायण मूर्ति आगे कहते हैं कि हमारी लंबी गुलामी का एक बड़ा अभिशाप है हमारी उदासीनता की आदत, वह भी तब जब हल एकदम हमारे सामने हो। हमें हज़रत मुहम्मद के शब्दों को याद रखना होगा जिन्होंने कहा था, "खुदा किसी शख्स में तब तक कुछ नहीं बदलता, जब तक कि वे खुद अपने आप को नहीं बदलते।" हम एक ऐसा देश बन गए हैं जो शब्दाडंबर में तो श्रेष्ठ है लेकिन कामों में नाकारा। विकसित राष्ट्र बनने के लिए हमें बातें छोड़कर कामों पर फोकस करना होगा।
सबसे पहले तो हमें उच्च महत्वकांक्षाएं चाहिएं। सौ टके की बात यह है कि महत्वाकांक्षाएं हमें उन बाधाओं को पार करने की ऊर्जा देती हैं जिन्हें हमारा माहौल हमारे ऊपर थोप देता है। राष्ट्र-निर्माण के कार्य में कटुता का कोई स्थान नहीं होता। हमें ऐसा हर विचार और अवधारणाएं छोडऩी होंगी जो उग्र राष्ट्रवाद और संकीर्णता की ओर ले जाते हैं। आपस में जुड़े विश्वग्राम के इस युग में आर्थिक उन्नति चाहने वाले किसी भी राष्ट्र को बाहरी दुनिया से खुद को काटना नहीं चाहिए। स्वदेशी-स्वदेशी का नारा लगाने वाले लोगों को समझना चाहिए कि भारत की हजारों कंपनियां भी अन्य देशों में व्यापार करती हैं, अगर अन्य देशों के लोग भी स्वदेशी की रट लगाने लगें तो भारत से निर्यात बिलकुल ठप हो जाएगा, भारत में चलने वाले केपीओ, बीपीओ और कॉल सेंटर बंद हो जाएंगे। भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियां बननी बंद हो जाएंगी और देश की उन्नति का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो जाएगा।
हमारे देश में बहुत सी समस्याएं हैं, जनसंख्या की समस्या उनमें से बहुतों का मूल है, पर ज़रा और गहराई से विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारी मूल समस्याएं सिर्फ दो हैं। पहली समस्या है, गरीबी और पिछड़ेपन की मानसिकता और दूसरी समस्या है, समस्याओं के हल के लिए कोई काम करने के बजाए समस्याओं की आलोचना करना और सरकार की आलोचना करना।
गरीबी और पिछड़ेपन की मानसिकता को छोड़कर हमें विकसित देशों की आलोचना करने के बजाए उनसे सीखना होगा कि वे विकसित कैसे बने। हमें फ्रांसीसियों से हर सार्वजनिक समस्या को व्यक्तिगत समस्या मानना सीखना होगा, जापान से सीखना होगा कि सुनामी, भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट के बाद भी संयत रहकर कैसे देश के विकास में लगे रहा जा सकता है। खुद हमारे देश में ही गुजरात में भयावह भूकंप आया लेकिन आज गुजरात में जीवन न केवल सामान्य है बल्कि वहां के लोगों ने भूकंप से हुए नुकसान को पीछे छोड़ कर, उस संकट से उबर कर विकास की राह अपनाई है। सारे देश को गुजरात की जनता का अनुकरण करना होगा, तभी हमारी समस्याएं हल होंगी और तभी हम एक विकसित देश बनने का सपना पूरा कर सकेंगे।
Population, Problems, Reservation, Jat Movement, Mentality of the Poor,
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बहुत अच्छा लिखा।
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