Tuesday, April 26, 2011

Nyayapalika Main Sudhar Ki Gunjayish : न्यायपालिका में न्यायपालिका में सुधार की गुंजाइश






Nyayapalika Main Sudhar Ki Gunjayish : न्यायपालिका में न्यायपालिका में सुधार की गुंजाइश

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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न्यायपालिका में सुधार की गुंजाइश

 पी. के. खुराना

शनिवार 23 अप्रैल को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनैशनल सेंटर में न्यायपालिका में खामियों के कारण जानने के लिए एक सेमिनार हुआ। सेमिनार का आयोजन डा. कैलाश नाथ काटजू स्मारक समिति की ओर से किया गया जो हर वर्ष न्यायपालिका से जुड़े मुद्दों पर उच्च स्तरीय सेमिनारों के आयोजन के लिए प्रसिद्ध है। डा. कैलाश नाथ काटजू स्मारक समिति के इस सेमिनार में बड़ी संख्या में जज और न्यायविद बड़े उत्साह से हिस्सा लेते हैं और अपने विचार रखते हैं। इस बार के सेमिनार में केंद्रीय गृहमंत्री श्री पी. चिंदबरम मुख्य अतिथि थे जबकि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा कार्यक्रम के अध्यक्ष थे। सेमिनार के अन्य वक्ताओं में दि हिंदु के मुख्य संपादक श्री एन. राम, प्रमुख न्यायविद् श्री केके वेणुगोपाल, सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस मार्क न्डेय काटजृ तथा फिल्म निर्देशक महेश भट्ट जैसी विभूतियां शामिल थीं।

डा. कैलाश नाथ काटजू स्मारक समिति के महासचिव डा. हरीश भल्ला मेरे अनन्य मित्र हैं और हमारी कंपनी पिछले कुछ वर्षों से इस कार्यक्रम के जनसंपर्क का कार्यभार संभालती है, इसलिए मुझे भी इस कार्यक्रम में शामिल होने का सौभाग्य मिला और मैं विद्वान वक्ताओं के विचार जान सका।

इस कार्यक्रम में जो तीन भिन्न दृष्टिकोण उभर कर आये उनके प्रतिनिधि तीन व्यक्ति थे। पहले दृष्टिकोण के प्रतिनिधि वक्ता, विधि विशेषज्ञ श्री केके वेणुगोपाल थे, जिनका मत था कि सुप्रीम कोर्ट को अपील का कोर्ट बने रहने के बजाए संविधान की व्याख्या का काम करना चाहिए ताकि यह अन्य न्यायालयों के लिए प्रकाश स्तंभ का काम करे। दूसरे दृष्टिकोण के प्रवक्ता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जस्टिस कुलदीप सिंह बने जो इस कार्यक्रम के प्रमुख वक्ता भी थे। जस्टिस कुलदीप सिंह का मत था कि भारतीय समाज में भ्रष्टाचार चरम पर है और समाज के किसी एक वर्ग का इससे पूरी तरह से अछूता रह पाना संभव नहीं है। फिर भी न्यायपालिका उतनी भ्रष्ट नहीं है, जितना शोर मचाया जा रहा है। तीसरे दृष्टिकोण के प्रतिनिधि गृहमंत्री श्री पी. चिंदबरम थे जिन्होंने कहा कि हर समस्या का कानूनी हल संभव नहीं है और न्यायालयों को अपने सीमाक्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। उनका मत था कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर के लोग भीषण महत्वाकांक्षा के शिकार हैं।

श्री वेणुगोपाल ने कहा कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के बीच एक और स्तर होना चाहिए जो अपील न्यायालय का काम करें और उच्च न्यायालय के बाद वादियों को वहां जाने की स्वतंत्रता हो, पर सर्वोच्च न्यायालय को अपील का न्यायालय बना देना गलत है। इसे तो संविधान की व्याख्या करने वाली पीठ का काम करना चाहिए। श्री वेणुगोपाल ने सुझाव दिया कि देश में चार अपील न्यायालय बनाए जाने चाहिएं जो सर्वोच्च न्यायालय का अनावश्यक भार अपने ऊपर ले लें। उन्होंने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में दो जजों की खंडपीठ के बजाए ज्यादा जजों की खंडपीठ का नियम होना चाहिए ताकि विभिन्न न्यायिक फैसलों में असंगति को रोका जा सके।

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह ने कहा कि न्यायपालिका में जबावदेही और पारदर्शिता की प्रणाली लागू की जानी चाहिए ताकि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सके। भारतीय समाज काले धन, भ्रष्टाचार, अपराध, घोटाले आदि बड़े स्तर के भ्रष्ट आचरण की चुनौतियों से जूझ रहा है। निश्चय ही न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मामले सामने आये हैं, पर वे शेष समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुकाबले बहुत छोटे हैं। उन्होंने आगे कहा कि भारतीय शासन प्रणाली के तीन अंगों, विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में से विधानपालिका और कार्यपालिका बहुत बार अपनी जि़म्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं पर न्यायपालिका ने कभी कोताही नहीं की, बल्कि इसने कई बार आम लोगों की और आम जनता की परेशानियों को हल करने में मदद की है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के सामने आ रहे ताज़ा मामलों को मामूली संक्रमण माना जा सकता है, लेकिन यह खतरे का संकेत है। ऐसे में यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक हो गया है कि इस पर तुरंत रोक का प्रबंध किया जाए।

गृहमंत्री श्री पी. चिंदबरम ने कार्यपालिका और विधायिका की प्रतिनिधि आवाज के रूप में न्यायिक सक्रियता के लिए न्यायालयों की प्रशंसा की लेकिन साथ ही चेतावनी भी दे डाली कि हर समस्या का कानूनी समाधान संभव नहीं है, कुछ काम कार्यपालिका और विधायिका को ही करने होते हैं, चाहे उसमें कुछ गलतियां भी हों। न्यायालयों को अपने कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण करने और 'अति महत्वाकांक्षी’ होने से बचना चाहिए।

दि हिंदू के मुख्य संपादक श्री एन. राम ने जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में अपनी शिकायत दर्ज कराई कि न्यायालय की मानहानि का मुद्दा ऐसा है जहां न्यायाधीश बहुत संवेदनशील हो जाते हैं और अक्सर तर्क पर भावनाएं हावी होती दिखाई देती हैं।

न्यायपालिका में और भी बहुत सी खामियां हैं, जिनमें सुधार की गुंजाइश है। न्यायालयों में हर स्तर पर बहुत से पद खाली पड़े हैं, बढ़ती आबादी के साथ-साथ कानूनी झगड़े बढ़ते जा रहे हैं और न्यायालयों पर बोझ भी बढ़ता जा रहा है, लेकिन न्यायालय भी खामियों से मुक्त नहीं हैं। मामले की सुनवाई में वादियों की पीढिय़ां खप जाती हैं और मुकद्दमा चलता रहता है। वकील और न्याय प्रणाली अत्यधिक महंगे हो गए हैं। न्यायालयों में बच्चों के स्कूलों की तरह छुट्टियां होती हैं, और न्यायालयों में ज्यादा पारदर्शिता की दरकार है। शीघ्र न्याय, सस्ता न्याय और पारदर्शी न्यायिक प्रणाली किसी भी समाज के स्थायित्व के लिए अत्यंत आवश्यक हैं क्योंकि यदि न्यायपालिका से ही समाज का विश्वास उठ जाए तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

यदि हम चाहते हैं कि नागरिकों को शीघ्र और सस्ता न्याय मिले तो सरकार और न्यायपालिका, दोनों को यह सुनिश्चित करना होगा कि न्याय प्रणाली की वर्तमान खामियों को दूर किया जाए, खाली पड़े पदों को भरा जाए, न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने के व्यावहारिक उपाय सोचे जाएं, आवश्यक होने पर उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के बीच एक और स्तर बनाया जाए तथा कार्यपालिका और विधायिका अपने काम में चुस्त हों ताकि न्यायपालिका से न्यायिक सक्रियता की उनकी शिकायत दूर हो सके और जन सामान्य को भी समय पर न्याय मिल सके। 


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