-- पी. के. खुराना
केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की राजनीतिक चालों का जवाब नहीं। पूर्व केंद्रीय मंत्री ए. राजा और कामनवेल्थ खेलों के खलनायक कलमाड़ी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो उन्हें गद्दी छोडऩी पड़ी जबकि शरद पवार इतनी नफासत से काम करते हैं जिससे उनका और उनके समर्थकों का लाभ भी हो और उन पर कोई आंच भी न आये। कुछ समय पूर्व उन्होंने चीनी के दामों को लेकर बयान दिया और चीनी के दाम आसमान छूने लगे। हाल ही में उन्होंने बयान दिया कि प्याज के दाम नीचे आने में दो-तीन हफ्ते लगेंगे, परिणाम यह हुआ कि प्याज के दाम इतने बढ़ गए कि सेब भी उनके मुकाबले में सस्ते हो गये।
यहां जो बात ध्यान देने वाली है, वह सिर्फ इतनी-सी है कि गन्ना और प्याज, दोनों ही महाराष्ट्र की मुख्य फसलों में से हैं और शरद पवार चीनी मिल मालिकों तथा प्याज के थोक व्यापारियों के इस बड़े वोट बैंक का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके समर्थकों के लाभ में ही उनका भी लाभ है। परंतु अपने समर्थकों को लाभ पहुंचाने के लिए उन्हें किसी राडिया की आवश्यकता नहीं पड़ी, सिर्फ एक बयान दागा और मामला हल। राडिया ने अपना काम करवाने के लिए मीडिया के लोग गांठे और लाबिंग की। अब राडिया को सीबीआई ने घेर रखा है। लेकिन शरद पवार की नफासत का आलम यह है कि उन्होंने बयान दागा, मीडिया ने पहले तो बयान प्रकाशित किया, फिर बयान के परिणामों का जिक्र किया और शरद पवार का मकसद हल करने में उनका साथ दिया। मज़े की बात तो यह है कि शरद पवार ने मीडिया की ताकत को समझा, उसे अपने हक में प्रयोग किया और खुद मीडियाकर्मियों को भी यह समझ नहीं आया कि वे अनजाने ही शरद पवार का हथियार बन गए हैं।
आइए, इस पर जरा बारीकी से गौर करें। चीनी के दाम बढ़े तो मीडिया ने शरद पवार की आलोचना करनी आरंभ कर दी कि चीनी के दाम बढऩे से भारतीय गृहणियों का बजट गड़बड़ा गया है, आम आदमी परेशानी में है और कृषि मंत्री चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। जवाब में शरद पवार ने कहा कि वे कोई जादूगर नहीं हैं कि यह बता सकें कि चीनी के दाम कब कम होंगे। उनके बयान का ही असर था कि चीनी के दाम और भी चढ़ गए। फिर प्याज की बारी आई। मीडिया ने फिर से उनकी आलोचना की। इस बार शरद पवार ने बयान में थोड़ा सा संशोधन किया और कहा कि प्याज के दाम दो-तीन हफ्ते में नीचे आ जाएंगे। मीडिया ने इसे फिर से हाईलाइट किया और प्याज के दाम और भी चढ़ गए। यही नहीं, इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि बाकी सब्जियों के दाम भी चढ़ गए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे प्रमुख खबरी चैनल और अखबार महानगर-केंद्रित हैं। मुंबई और दिल्ली के थोक व्यापारी तो ऐसी स्थितियों का लाभ उठाने के लिए जाने ही जाते हैं। मीडिया ने शरद पवार के बयान को उछाल कर शरद पवार के समर्थकों को उनकी मंशा का संकेत दे दिया। शरद पवार के बयान का लाभ उठाते हुए उन्होंने दाम बढ़ाये तो वे जानते थे कि सरकार अभी चुप बैठेगी। इस प्रकार मीडिया ने शरद पवार का हथियार बनकर उनका ही काम किया और उनके समर्थकों को मनमानी करने का संदेश पहुंचाया।
मीडिया के महानगर-केंद्रित होने का एक और भी नुकसान हुआ। दिल्ली और मुंबई की मंडियों में जब चीनी अथवा प्याज के दाम बढ़े थे तो देश के शेष भागों के कस्बों और गांवों में उसका प्रभाव कम था और दाम आसमान नहीं छू रहे थे पर जब मीडिया ने इस एक खबर पर ही फोकस बनाया और टीवी चैनलों ने शरद पवार के बयान को दोहरा-दोहरा कर उसकी नाटकीयता बढ़ाई तो छोटे शहरों के खुदरा व्यापारियों ने भी तुरंत दाम बढ़ा दिये। इस प्रकार मीडिया ने वस्तुत: महंगाई बढ़ाने का काम किया और आम आदमी की परेशानी में इज़ाफा किया।
खबरों का प्रभाव बढ़ाने के लिए टीवी चैनल जिस नाटकीयता का सहारा लेते हैं वह अक्सर हानिकारक ही होती है। नाटकीयता की अति समाचार प्रस्तोताओं के लिए नशा बन गया है। टीआरपी की दौड़ में लगे टीवी चैनल इस दौड़ से परेशान हैं पर वे इसका कोई प्रभावी विकल्प खोजने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। टीवी चैनलों की देखादेखी प्रिंट मीडिया भी नाटकीयता का शिकार होता चल रहा है। खबरी चैनल, मनोरंजन चैनलों की नकल कर रहे हैं और अखबार, खबरिया चैनलों की नकल पर उतारू हैं। ऐसे में कोई नीरा राडिया या शरद पवार मीडिया की ताकत का नाजायज़ फायदा उठा ले जाए तो मीडिया को भी पता नहीं चलता कि वह किसी शातिर दिमाग व्यक्ति का हथियार बन गया है। टीवी चैनलों को टीआरपी का गुड़ नज़र आता है और वे अपनी पीठ थपथपाने में जुट जाते हैं जबकि आम आदमी मीडिया की नाटकीयता का शिकार होकर परेशानी भुगतता रह जाता है।
ऐसा नहीं है कि आम आदमी को मीडिया से हानियां ही हैं। मीडिया ने आम जनता के हितों की रक्षा के कई अद्वितीय काम किये हैं। मीडिया आम आदमी का प्रहरी है और लोकतंत्र का चौथा मजबूत खंभा है। मीडिया ने बहुत से रहस्योद्घाटन किये हैं और जनता को सच से रूबरू करवाया है। मीडियाकर्मियों ने ईमानदारी से मीडिया में आ रही विकृतियों का विश्लेषण करने और उनसे निपटने के कई सार्थक प्रयास किये हैं। यह बात अलग है कि खुद मीडियाकर्मी मीडिया की कारगुजारियों की जितनी आलोचना करते हैं, आम आदमी उससे वाकिफ नहीं है। मीडिया व्यवसाय से जुड़े पेशेवरों तथा मीडिया से सीधे प्रभावित होने वाले लोगों की बात छोड़ दें तो आम आदमी की निगाह में अभी भी मीडिया का महत्व और सम्मान घटा नहीं है। अभी आम पाठक और आम दर्शक मीडिया की नाटकीयता के दुष्प्रभावों से अनजान है और वह इसका आनंद ले रहा है।
अब समय आ गया है कि मीडिया से जुड़े लोग यह देखें कि देशहित और जनहित, खबर और खबर के प्रभाव से ज्यादा बड़े हैं तथा उनके समाचारों के प्रस्तुतिकरण के तरीके से आम आदमी का नुकसान न हो। ***
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