Sunday, January 22, 2012

Rise of Peoples' Power : लोकशक्ति के उदय का साल




Rise of Peoples' Power : लोकशक्ति के उदय का साल
Lokshakti Ke Uday Ka Saal : लोकशक्ति के उदय का साल

By :
P. K. Khurana(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

Please write to me at :
pkk@lifekingsize.com

लोकशक्ति के उदय का साल
पी. के. खुराना


हमारा देश इस समय हर ओर मुसीबतों से घिरा नज़र आ रहा है। महंगाई ने सभी बजट बिगाड़ दिये हैं। रुपया अपने निम्नतम स्तर पर है। निर्यात का बुरा हाल है, जबकि आयात लगातार महंगा होता जा रहा है। शेयर बाज़ार ने कइयों को धोखा दिया है। विभिन्न घोटालों के शोर के बीच भारत सरकार की कुछ उल्लेखनीय उपलब्धियां भी दब कर रह गई हैं। यह पहली बार हुआ है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत साख बुरी तरह से प्रभावित हुई है और आम जनता उनकी क्षमताओं के बारे में विश्वस्त नहीं है। हम एक और मंदी की ओर बढ़ रहे प्रतीत होते हैं और यदि मंदी की शुरुआत हो गई तो इस बार भारतवर्ष के पास बचाव के वैसे साधन नहीं हैं जैसे 2008 की मंदी के समय थे, और आशंका यही है कि इस बार की मंदी का परिणाम भारत के लिए अच्छा नहीं होगा।

पिछले साल का लेखा-जोखा बहुत तरह से हो चुका है और हर विश्लेषण में निराशा के गहरे स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। सन् 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दोबारा सत्ता में आने के बाद सन् 2010 की शुरुआत अच्छी थी। सुश्री ममता बैनर्जी ने कम्युनिस्टों का 35 साल पुराना किला ध्वस्त करके पश्चिम बंगाल में इतिहास रचा। उनके 12 साल लंबे संघर्ष की परिणति के रूप में वे राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। कांग्रेस और जयललिता के गठबंधन ने करुणानिधि को भी धूल चटाई। परंतु साल के मध्य में बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन को हल्के से लेने की गलती के बाद केंद्र सरकार गलती पर गलती करती चली गई और कांग्रेस तथा इसके बड़बोले प्रवक्ताओं को मुंह की खानी पड़ी। अंतत: संसद को भी बुज़ुर्ग अन्ना हज़ारे के पक्ष में एकमत प्रस्ताव पास करना पड़ा।

हज़ारों-हज़ार निराशाओं, कुंठाओं और कठिनाइयों के बीच भी सन् 2010 एक खास बदलाव के लिए जाना जाएगा। इतिहास में सन् 2010 को लोकशक्ति के उदय के लिए याद किया जाएगा। समाजसेवी अन्ना हज़ारे के कारण पिछला वर्ष एक बड़े परिवर्तन का साल रहा कि लोगों ने देश भर में एकजुटता दिखाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध रोष प्रदर्शन इतना ज़बरदस्त रहा कि सरकार घुटनों के बल चलती हुई अन्ना के दरबार में हाजिरी भरती नज़र आई।

हालांकि बीच-बीच में संदेह के बादल भी घिरते रहे। पहले बाबा रामदेव ने अन्ना के आंदोलन की फूंक निकालने की कोशिश की परंतु वे एक कमज़ोर व्यक्ति साबित हुए और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षांओं पर कुछ समय के लिए तो विराम लग ही गया है। फिर कभी श्री शशि भूषण पर, कभी श्री अरविंद केजरीवाल पर तथा कभी श्रीमती किरन बेदी पर भी आरोप लगे, लेकिन भ्रष्टाचार पर रोक के लिए जन लोकपाल की मांग इससे ज्य़ादा प्रभावित नहीं हुई और सभी आरोपों और संदेहों के बावजूद लोग एकजुट रहे।

जब बाबा अन्ना हज़ारे पहली बार दिल्ली में अनशन पर बैठे तो देश भर से उन्हें जो जनसमर्थन मिला वह अनपेक्षित था और मीडिया ने जैसे ही इसे नोटिस किया, मीडिया भी अन्ना जी के साथ हो लिया। इस बार सोशल मीडिया ने भी सूचनाएं देने और लोगों को एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई। पारंपरिक मीडिया के समर्थन और सोशल मीडिया में जनता की सक्रियता के चलते लोगों का जोश बढ़ा और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन मजबूत होता चला गया। यह लोकशक्ति का ऐसा उदय था जैसा इससे पहले सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश के समग्र क्रांति के आंदोलन के समय ही देखा गया था। अपने कामकाज की परवाह किये बिना, हज़ारों-हज़ार लोगों का समूह अन्ना जी के समर्थन में खड़ा नज़र आया। लोकशक्ति के उदय का ही परिणाम था कि गुंडों की भाषा में बात कर रहे कांग्रेस के कुछ नेताओं को अंतत: अन्ना जी से माफी मांगनी पड़ी। यह कमाल अन्ना जी की साफ-सुथरी और जुझारू छवि का तो था, पर उससे भी ज्य़ादा यह लोकशक्ति का कमाल था। अगर लोग उनके साथ न जुड़े होते तो सरकार इस तरह न झुकती और अगर राजनीतिक दलों को जनता का यह उदय न दिखता तो वे अन्ना के समर्थन में न बोलते। अन्ना का समर्थन अथवा विरोध करने में किसी भी राजनीतिक दल का कुछ भी स्वार्थ रहा हो, यह निश्चित है कि राजनीतिक दलों के सुर इस लिए बदले क्योंकि अन्ना जी को लोगों का भारी समर्थन मिला।

हालांकि बाद में कांगेस ने राजनीतिक षड्यंत्र करते हुए घोर जनविरोधी लोकपाल बिल संसद में पेश कर दिया जो लोकसभा में पास भी हो गया पर राज्यसभा में ज्यों का त्यों पास नहीं हुआ और सरकार को बहाना और समय दोनों मिल गए। दूसरी गड़बड़ी यह हुई कि ठंड के कारण मुंबई के हालिया अनशन में लोगों का समर्थन वैसा नहीं दिखा जैसा दिल्ली में दिखा था। यही नहीं, वृद्ध और कृशकाय अन्ना हज़ारे का स्वास्थ्य एकदम से गड़बड़ा गया और उन्हेंं अपना अनशन बीच में ही तोडऩा पड़ा। हो सकता है अब कुछ समय के लिए यह आंदोलन कमज़ोर पड़ता नज़र आये पर यह अंतत: फिर मजबूत होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ी जनता कई तरीकों से अपना रोष ज़ाहिर करेगी। कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। अन्ना के अनशन का कुछ प्रभाव कहीं न कहीं अवश्य दिखेगा। पिछले साल के मध्य तक पंजाब में कांग्रेस भारी बहुमत से वापिसी करती नज़र आ रही थी पर साल का अंत आते-आते स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ गया और अकाली-भाजपा गठबंधन से कांग्रेस की लड़ाई अब संघर्ष में बदल गई है जिसमें ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।


अभी यह कहना दूर की कौड़ी है कि जनता को अपनी मंजि़ल मिल गई है या अन्ना जी के अनशन का कोई बड़ा तात्कालिक प्रभाव होगा ही। तो भी, यही भी सच है कि लोकपाल बिल आया ही जनता के दबाव में। यह स्पष्ट है कि यदि बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन की शुरुआत ही कमज़ोर होती तो कांग्रेस लोकपाल बिल लाती ही नहीं। लोकपाल का यह बिल कितना ही विवादास्पद रहा हो, या इस बिल का तात्कालिक परिणाम क्या हो, यह एक अगल बात है पर यह तो निश्चित है कि अन्ना के अनशन के दूरगामी परिणाम हुए हैं और जनता ने अपनी शक्ति को पहचाना है। यह खेद की बात है कि प्रमुख राजनीतिक दलों में से कोई भी जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है और कांग्रेस अभी भी 'टीनाÓ (देयर इज़ नो अल्टरनेटिव) फैक्टर का लाभ उठा रही है। पर इसमें निराश होने का कोई कारण नहीं है। जनता के दबाव के कारण राजनीतिक दलों ने सुर बदले हैं, जनशक्ति के उदय को पहचानते हुए उनके रुख में और भी परिवर्तन आयेगा और अंतत: लोकशक्ति को अपना वांछित स्थान और सत्कार अवश्य मिलेगा। 

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No Subsidy Can Remove Poverty -- गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'






No Subsidy Can Remove Poverty : गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'

Garibi Nahin Hataa Sakti Koi Khairat ! : गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

Please write to me at :
pkk@lifekingsize.com




गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!
 पी. के. खुराना


धारणा के स्तर पर हमारा देश एक लोककल्याणकारी राज्य, एक 'वेलफेयर स्टेट' है। धारणा के स्तर पर हम पूंजीवादी नहीं हैं। यह सही भी है क्योंकि किसी आम आदमी के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि प्रगति के सारे सोपानों के बावजूद 35 करोड़ से भी अधिक भारतीय अशिक्षित हैं, 32 करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं और 25 करोड़ देशवासियों को सामान्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं है और देश के 51 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही सही प्रतीत होती है।

सन् 1956 में भारत सरकार ने एक योजना बनाई थी जिसके अनुसार अगले 25 वर्षों में भारत को गरीबी मुक्त राष्ट्र बनना था। सन् 1981 में वे 25 साल पूरे हो गए, पर सपना अब भी अधूरा है जबकि 1981 के बाद 30 और साल गुज़र चुके हैं। इस समय हमारी सबसे बड़ी समस्या है सर्वाधिक गरीबी का जीवन जी रहे वंचितों के लिए भोजन की व्यवस्था करना, उससे ऊपर के लोगों के जीवन के स्तर में सुधार लाने के लिए स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना और किफायती शिक्षा की व्यवस्था करना तथा शेष समाज की आवश्यकताओं के लिए कृषि में नई तकनीकों का लाभ लेना, भूमि अधिग्रहण कानून को सभी संबंधित पक्षों के लिए लाभदायक बनाना तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना उद्योगों का विस्तार करना।

गरीबी दूर करने के नाम पर हमारे देश में आरक्षण और सब्सिडी का जो नाटक चल रहा है उसने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है। हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। दूसरी ओर, आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया भर में भारत में आरक्षण का प्रतिशत सर्वोच्च है और हमारा देश एकमात्र ऐसा देश बन गया है जहां लोग पिछड़ा कहलाने के लिए आंदोलन करते हैं। परिणामस्वरूप, आज लोग मेहनत, ज्ञान और ईमानदारी की तुलना में पिछड़ेपन को उन्नति का साधन मानते हैं। सच्चाई यह है कि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

अभी पिछले सप्ताह ही वरिष्ठ पत्रकार श्री टी एन नाइनन ने अपने एक लेख में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पैदा हुई इस स्थिति का विस्तार से जायज़ा लिया है। उन्होंने उदाहरण दिया है कि दिल्ली में पेट्रेाल की कीमत 65 रुपये प्रति लीटर है, डीज़ल 41 प्रति लीटर में बिकता है जबकि इस वर्ग में उच्चतम सब्सिडी के कारण मिट्टी के तेल की कीमत 17 रुपये प्रति लीटर है। परिणाम यह है कि दिल्ली में बिकने वाले कुल पेट्रोल में कम से कम आधे पेट्रोल में मिट्टी के तेल की मिलावट होती है। इतने बड़े स्तर पर मिलावट का यह खेल सिर्फ इसलिए चल पाता है क्योंकि इस खेल में राजनेता, अधिकारी, पुलिस और व्यापारियों का साझा गिरोह है जो गरीबों की सब्सिडी को लूट ले जाता है और गरीबों के नाम पर मिली यह खैरात अमीरों में बंट जाती है।

अमीरों से पैसा छीनकर गरीबों में बांटने की अवधारणा इस हद तक विकृत हुई कि स्व. इंदिरा गांधी के ज़माने में आयकर की दर 97 प्रतिशत तक जा पहुंची। सत्तानवे प्रतिशत! यानी, अगर आप मेहनत करके सौ रुपये कमाएं तो सत्तानवे रुपये सरकार छीन लेती थी और आपके पास बचते थे तीन रुपये! क्या आप नहीं समझ सकते कि टैक्स की इस अतर्कसंगत प्रथा ने ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था का सूत्रपात किया और आज शायद पक्ष और विपक्ष का एक भी राजनीतिज्ञ, सरकार का एक भी बड़ा अधिकारी और बड़े व्यापारियों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसके पास काला धन न हो। ऐसे में किसी एक व्यक्ति को दोष देना पेड़ की पत्तियों को दोष देने के समान है जबकि बुराई जड़ों में है। किसानों के लिए मुफ्त बिजली, बीपीएल परिवारों के लिए सस्ता राशन, स्कूलों मे मिड-डे मील, नरेगा, कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आम आदमी के नाम पर बनने वाली योजनाओं का असली लाभ अमीरों को मिलता है और गरीब लोग लाइनों में खड़े अपनी बारी का इंतज़ार करते रह जाते हैं।

सवाल यह है कि यदि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से लाभ नहीं मिल रहा है तो क्या किया जाए? इसके लिए आवश्यक है कि गरीब और वंचित लोगों को रोज़गारपरक तथा उद्यमिता की शिक्षा दी जाए। उनकी स्किल बढ़े, वे कमाने लायक बन सकें और उत्पादकता में भी योगदान दें। दलितों को आरक्षण और गरीबों को सब्सिडी की बैसाखी देने के बजाए उन्हें रोज़ी-रोटी कमाने के लायक बनाया जाए। देश में सरकारी नौकरियों की कमी हो सकती है, नौकरियों की भी कमी हो सकती है लेकिन रोज़गार की कमी नहीं है। मुंबई के डिब्बेवाले एक आदर्श उदाहरण हैं। दूसरा उदाहरण सोशल इन्नोवेशन का है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं। हिंदुस्तान लीवर ने आंध्र प्रदेश में विधवा महिलाओं को घर-घर जाकर अपने उत्पाद बेचने की ट्रेनिंग दी जिससे कंपनी की बिक्री बढ़ी और जरूरतमंद विधवाओं को सम्मानप्रद रोज़गार मिला। कई एनजीओ और सहकारी संस्थाएं भी सम्मानप्रद रोज़गार की इस मुहिम में शामिल हैं। लिज्जत पापड़, अमुल डेयरी आदि इसके बढिय़ा उदाहरण हैं।

बीपीएल परिवारों को रोटी या पैसा देने मात्र से यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट यानी ऐसे विकास की आवश्यकता है जिसमें उन लोगों की हिस्सेदारी हो जिन्हें वाजिब लागत पर भोजन नहीं मिलता, सार्वजनिक परिवहन नहीं मिलता, अस्पताल की सुविधा नहीं मिलती, या जिनके पास घर नहीं हैं। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह सोशल इन्नोवेशन से संभव है और यह गरीबी दूर करने का शायद सबसे बढिय़ा उपाय है। हमें इसी विचार को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। 

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