Monday, February 20, 2012

Is our country a mere Election Constituency ? :: क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?




Is our country a mere Election Constituency ?
क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?



By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)


प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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क्या देश महज़ एक चुनाव क्षेत्र है?

 पी.के. खुराना



पिछले कुछ समय से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में बहुत सक्रिय हैं क्योंकि वे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत देखना चाहते हैं। मीडिया भी राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा से संबंधित खबरें नमक-मिर्च-मसाले सहित पेश कर रहा है। वहीं भाजपा भी सुश्री उमा भारती के सहारे उत्तर प्रदेश में कुछ और सीटें जीतने की जुगत में है। चुनावी दंगल में यह सब सामान्य है। क्षेत्रीय दलों की बात छोड़ दें तो ये दोनों देश के प्रमुख राष्ट्रीय दल हैं जो उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

पर ऐसा क्यों है कि चुनाव के समय राजनेता सक्रिय हो जाते हैं और घोषणाओं और तमाशों का अंबार लगा देते हैं और चुनाव के बाद सब सो जाते हैं, यहां तक कि अक्सर मीडिया भी सो जाता है और जनता भी मान लेती है कि चूंकि अब चुनाव का समय नहीं रहा अत: नेताओं का उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। चुनाव के बाद गाहे-बगाहे पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बयान आते हैं जब वे सरकार की किसी नीति पर कोई टिप्पणी करते हैं पर ज्य़ादातर मामलों में वे बयान, बयानों तक सीमित रह जाते हैं, ज़मीन के स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं होती, जब तक कि कोई बड़ा कांड न हो जाए और उस कांड के माध्यम से बड़े प्रचार की उम्मीद न हो।

चुनाव के बाद अक्सर विश्लेषक लोग यह कहते सुने जाते हैं कि जनता ने सबको (विश्लेषकों सहित) आश्चर्यचकित किया है और जनता बहुत समझदार हो गई है तथा जनता अब अपना वोट अपनी मर्जी से देती है। अगर हम सचमुच बहुत समझदार हो गए हैं तो ऐसा क्यों होता है कि मीडिया को तथा स्वयंसेवी संस्थाओं को लोगों को वोट डालने की अपील के अभियान चलाने पड़ते हैं? सब जानते हैं कि आज भी देश में शराब, कंबल और नोटों से वोट खरीदे और बेचे जाते हैं; जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और राज्य के नाम पर वोटों का बंटवारा होता है। राजनेता इसे बखूबी जानते हैं और वोट लेने के लिए हर हथियार आजमाते हैं। अफसोस यह है कि ज़मीनी हकीकतों से नावाकिफ टीवी और अखबारों के विद्वान पत्रकार और स्वतंत्र विश्लेषक लोग अपना अनाड़ीपन छुपाने के लिए ‘जनता समझदार हो गई है’ का जुमला उछालते हैं। चुनाव परिणामों के बारे में पूरी तरह से गलत भविष्यवाणी करने और सार्वजनिक रूप से देश से माफी मांगने के बावजूद अगली बार भी वे ही विश्लेषक हर टीवी चैनल पर नज़र आते हैं और असलियत की तह तक गए बिना उसी बेशर्मी से अगली भविष्यवाणियां करते हैं।

आज राजनेता देश और जनता को महज़ एक चुनाव क्षेत्र और जनता को सिर्फ मतदाता के रूप में ही देखते हैं। उनकी रणनीति, घोषणाएं और सारे कामकाज वोट बैंक बनाने की नीयत से संचालित होते हैं। अफसोस की बात यह है कि मीडिया भी उनकी इस चाल को पहचान नहीं पाया है बल्कि मीडिया भी देश और जनता के साथ चुनाव क्षेत्र और मतदाता की ही तरह व्यवहार करता है।

चुनाव के बाद विपक्ष की क्या भूमिका है? सरकारी नीतियों की आलोचना करना, सदन में शोर मचाना, सदन से बहिर्गमन करना और आंदोलन करना मात्र? क्या विपक्ष के पास किसी रचनात्मक काम की कोई योजना नहीं होनी चाहिए? क्या विपक्ष जनता की समस्याओं के समाधान के लिए कोई कार्यक्रम नहीं चला सकता? क्या हर रचनात्मक कार्यक्रम चलाने के लिए सरकार में होना ही आवश्यक है?

सरकार बन जाने पर क्या यह नहीं होना चाहिए कि सरकार अपने कामकाज की अर्धवार्षिक अथवा वार्षिक समीक्षा करे और बताए कि चुनाव घोषणा पत्र में से कितने वायदे पूरे हो गए, कितने बाकी हैं और जो बाकी हैं उनकी स्थिति क्या है?

चुनाव के बाद सरकार और विपक्ष के कामकाज की सर्वांगीण समीक्षा के लिए मीडिया कितने अभियान चलाता है? जनमत निर्माण में यहां बुद्धिजीवियों और मीडिया की भूमिका की समीक्षा भी आवश्यक है। और, इससे भी ज्य़ादा आवश्यक है कि चुनाव की मारामारी खत्म हो जाने के बाद जनता के सभी वर्गों में जागरूकता के लिए कोई नियोजित अभियान चलाया जाए। लोकसभा और राज्यसभा में ऐसे बहुत से लोग चुने गए जो शपथ लेने के बाद सदन में गए ही नहीं, या फिर अपने कार्यकाल की पूरी अवधि में एक बार भी बोले ही नहीं। क्या ऐसे लोगों की अलग से पहचान आवश्यक नहीं है? क्या मतदाताओं को ऐसे लोगों की कारगुज़ारी के बारे में सूचित करना आवश्यक नहीं है?

सवाल यह है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, जब तक एक नागरिक के रूप में हम जागरूक नहीं होंगे, अपने अधिकारों और कर्तव्यों की बारीकियां नहीं समझेंगे तब तक यही होता रहेगा। सच तो यह है कि इसमें राजनेताओं को दोष सबसे कम है, क्योंकि उन्हें तो येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना है, और हो सके तो बहुमत प्राप्त करना है ताकि वे सत्ता में आ सकें। मतदाता के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, राज्य और पार्टी से ऊपर उठकर सोचें और सही प्रत्याशी का समर्थन करें। चुनाव के बाद भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं की लगाम खींचते रहें और उन्हें अहसास दिलाते रहें कि हम जनता हैं और हम निर्वाचक हैं। यह बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे इस पर सेमिनार करें, बहस करें, आंदोलन करें। इसी प्रकार यह मीडिया का कर्तव्य है कि चुनाव के बाद भी वह चुनाव और पक्ष-विपक्ष के कामकाज को लेकर लगातार जनमत तैयार करते रहें। यह एक अनवरत प्रक्रिया होनी चाहिए, जो फिलहाल नहीं है।

देखा तो यह भी गया है कि कोई मीडिया घराना सूखी होली के पक्ष में अभियान चलाता है, पर वह अभियान इतना कागज़ी होता है कि उस संस्थान से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और पत्रकार भी खुद सूखी होली नहीं मनाते और वह अभियान दरअसल सिर्फ अखबार में छपे विज्ञापनों तक ही सीमित होकर रह जाता है।

हमारे देश में अभी पौधारोपण कार्यक्रम के बाद, उन पौधों की सुरक्षा की संस्कृति नहीं बन पाई है। दहेज़ ने लेने की शपथ दिलाने वाली संस्थाएं उसके बाद शपथ लेने वालों का ट्रैक नहीं रखतीं। अब हमें का$गज़ी कार्यवाहियों की संस्कृति से ऊपर उठना होगा और प्रचार या ग्रांट के लिए कार्यक्रम आयोजित करने वाली संस्थाओं की असलियत को समझना होगा और नीति के साथ-साथ नीयत को भी परखना होगा। हमें खुद जागरूक होना होगा और अपने आसपास के लोगों को जागरूक करना होगा। हमें दीपक जलाना होगा और उस दीपमाला में परिवर्तित करना होगा। यह हमारी जिम्मेदारी है, हम सबकी जिम्मेदारी है। 

Sunday, February 19, 2012

गलत होता व्याकरण




गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना


हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 

Population : Boon or Bane / जनसंख्या : समस्या अथवा वरदान




Population : Boon or Bane
जनसंख्या : समस्या अथवा वरदान


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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जनसंख्या : समस्या अथवा वरदान -- पी. के. खुराना

जनसंख्या के लिहाज़ से भारतवर्ष विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। आबादी के आकार की बात करें तो हमारा देश अमरीका, इंडोनेशिया, ब्राज़ील, पाकिस्तान, बांग्लादेश और जापान की सम्मिलित आबादी के बराबर है और पिछले 10 वर्षों में हमारे देश की जनसंख्या में एक पूरे देश ब्राज़ील की जनसंख्या और जुड़ गई है। जनसंख्या बढऩे का मतलब है कि हमें ज्यादा लोगों के शिक्षा के साधन, रोज़गार, खाना और रहने के लिए मकान चाहिएं। हमारे देश में बहुत सी समस्याएं हैं, जनसंख्या की समस्या उनमें से बहुतों का मूल है, पर यह भी सच है कि ज्यादा आबादी के कारण आज हम लाभ की स्थिति में भी हैं।

भारतवर्ष में 15 वर्ष से 59 वर्ष के लोगों की वृद्धि का अनुपात आबादी की वृद्धि के अनुपात से अधिक है और यह स्थिति 2030 तक बने रहने की उम्मीद है। यह वह आबादी है जो काम में लगी है अथवा काम में लगाई जा सकती है। ऐसी जनसंख्या वाला भारत एकमात्र विकासशील देश है।

आज हमारे सामने सवाल यह है कि जनसंख्या के इस वर्ग को काम में लगाकर हम इसे अपने लिए वरदान बना लेंगे या फिर राजनेताओं की थोथी बयानबाज़ी और अपनी खुद की लापरवाही, अकर्मण्यता तथा अज्ञान के कारण बढ़ती आबादी को अपने लिए अभिशाप बना लेंगे तथा वर्तमान से भी ज्य़ादा गरीबी तथा साधनहीनता की स्थिति में पहुंच जाएंगे। हमारे सामने यह एक बड़ी चुनौती है, और यही एक बड़ा अवसर भी है।

फ्रेंच पोलिटिकल सांइटिस्ट क्रिस्टोफर जैफरेलो दक्षिण-पश्चिम एशिया मामलों के विशेषज्ञ हैं और भारत-पाकिस्तान पर उनकी खास पकड़ है। उनकी संपादित पुस्तक ‘इंडिया सिंस 1950 : सोसाइटी, पॉलिटिक्स, इकोनामी एंड कल्चर’ में भारत का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विश्लेषण किया गया है। इसी पुस्तक के अध्याय ‘इंडिया 2025’ के अनुसार भारतवर्ष उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सर्वाधिक संभावनाओं वाला देश है। यहां न सिर्फ राजनीतिक स्थिरता है बल्कि यहां लोकतंत्र के साथ बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था भी है। हालांकि भारत की विकास दर यदा-कदा ही दोहरे अंक तक पहुंच सकी है लेकिन पिछले दस वर्षों से यह 7-8 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है। जीडीपी के लिहाज से 2025 तक हमारा देश अमरीका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश बन जाएगा। बचत और निवेश की अच्छी दर का भी भारत को लाभ मिलेगा और सन् 2020 तक देश की उत्पादकता भी बढ़ती रहने के संकेत हैं।

विद्वानों का मानना है कि उत्पादकता बढऩे के पांच मुख्य कारण हैं। एक, अर्थव्यवस्था में कृषि की जगह उद्योग और सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी; दो, विश्व अर्थव्यवस्था में भारतीय कंपनियों की बढ़ती हिस्सेदारी; तीन, बैंकिंग सेक्टर का आधुनिकीकरण; चार, आईटी टूल्स का बढ़ता इस्तेमाल; और पांच, संचार व परिवहन के साधनों का विकास।

क्या भारतीय अर्थव्यवस्था इसी रफ्तार से आगे बढ़ सकती है? अगर हां, तो आने वाले वर्षों में इसके क्या समाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणाम होंगे? एक चुनौती तो स्पष्ट रूप से बढ़ती असमानता है। यह असमानता सिर्फ सामाजिक स्तर पर नहीं, बल्कि भौगोलिक स्तर पर भी है। ग्रामीण भारत आगे नहीं बढ़ रहा है। इससे ग्रामवासियों में शहरी मध्यवर्ग के मुकाबले गहरी हताशा पैठ सकती है और यह असंतोष माओवादियों अथवा ऐसे ही अन्य संगठनों के पक्ष में जा सकता है। हमारी चुनौती यह है कि आबादी को हम बोझ न बनने दें बल्कि उसे परिसंपत्ति में परिवर्तित कर दें।

माना जाता है कि भारत की आबादी इक्कीसवीं सदी के मध्य तक चीन को पार कर डेढ़ अरब हो जाएगी। साल 2025 तक कामकाजी वर्ग की आबादी मे 25 करोड़ लोगों का इज़ाफा होगा। इसका अर्थ है कि भारत अन्य देशों के मुकाबले में युवा रहेगा और शायद वेतन भी कम रखने की स्थिति में होगा। इस वर्ग को परिसंपत्ति बनाने के लिए हमें शिक्षा सुविधाओं का तेज विकास करना होगा और नए रोजगार पैदा करने होंगे। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा ऐसी हो जिससे कृषक वर्ग भी लाभान्वित हो सके। आबादी में हर साल एक करोड़ सत्तर लाख लोगों के जुडऩे का मतलब है कि खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनने के लिए हमें कृषि उत्पादन में सालाना 4 से 4.5 प्रतिशत तक की वृद्धि सुनिश्चित करनी होगी। उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में पिछले दस वर्षों में कृषि उत्पादन गिरा है। राष्ट्रीय स्तर पर गेहूं और चावल का उत्पादन स्थिर हो गया है। इससे प्रति व्यक्ति अनाज और दालों की उपलब्धता घटी है। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।

कमज़ोर इन्फ्रास्ट्रक्चर एक अहम अड़चन है। सड़कों और रेलों के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। ऊर्जा की स्थिति और भी संकटपूर्ण है। कोयले और तेल की बढ़ती खपत का संकट अलग से है। परिणामस्वरूप बिजली की कटौती जारी रहने की आशंका है। ऐसे में बढ़ती आबादी का बड़ा हिस्सा बेरोज़गार, अर्धशिक्षित अथवा अशिक्षित तथा साधनहीन होगा। इस स्थिति को न बदला गया तो बढ़ती आबादी सचमुच अभिशाप बन जाएगी। स्थिति को बदलने के लिए सबसे पहले कस्बों और गांवों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के तेज विकास के लिए काम करना होगा, उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी तथा उन्हें रोज़गारपरक उद्यमिता की शिक्षा देनी होगी। कंज्य़ूमर गुड्स कंपनियों को आज ग्रामीण भारत में बड़ा बाज़ार नज़र आ रहा है। इस बाज़ार को बढ़ाने के लिए यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में योगदान उनके अपने हित में है। विभिन्न सरकारें भी इस ओर ध्यान दें तो समाज में असमानता नहीं होगी तथा सामाजिक विघटन का खतरा नहीं रहेगा। हमारी अधिकांश आबादी कामकाजी होगी तो गरीबी मिटेगी, देश समृद्ध होगा और उसके कारण भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास होगा। यह एक ऐसा सार्थक चक्र होगा जो देश को विकास की नई दिशा देगा और हमें विकसित देश बनने में मददगार साबित होगा।

अगर हमने ऐसा न किया तो यह आबादी अभिशाप बन जाएगी, स्लग एरिया बढ़ेगा, चोरियां, हत्याएं और सभी तरह के अपराध बढ़ेंगे, गांवों को विकास नहीं होगा और शहरों का जीवन असुरक्षित हो जाएगा। हमें याद रखना चाहिए कि गरीबी और विकास के बीच चुनाव हमें करना है, परिणाम भी हम ही भुगतेंगे। 

Alternative Journalism, Alternative Journalism in India, Pioneering Alternative Journalism, Pioneering Alternative Journalism in India, Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana, Alternative Journalism and PK Khurana, भारत में वैकल्पिक पत्रकारिता, वैकल्पिक पत्रकारिता, भारत में वैकल्पिक पत्रकारिता के जनक, वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रवर्तक, भारतवर्ष में वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रवर्तक, भारतवर्ष में वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रवर्तक पी. के. खुराना

Crisis, Opportunity & Development :: संकट, अवसर और विकास




Crisis, Opportunity & Development :: संकट, अवसर और विकास


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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संकट, अवसर और विकास
-- पी. के. खुराना

भारत एक विकासशील देश है। नब्बे के दशक में जब उदारवाद आया तो विदेशी कंपनियों को भारत के मध्य वर्ग में एक बड़ा बाज़ार दिखा और यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्टोर फटाफट खुलने आरंभ हो गये, परंतु ऊंचे किराये, ऊंची तनखाहों वाला स्टाफ और महंगे सामान से अटे स्टोर ग्राहकों की राह देखते रह गये। विभिन्न मॉल भी इसलिए असफल हुए क्योंकि वे मूलरूप से ऊंची क्रयशक्ति वाले ग्राहकों की आवश्यकताओं की ही पूर्ति करते थे। परिणाम यह हुआ कि लोग मॉल में सामान खरीदने के बजाए पिकनिक मनाने के लिए जाने लगे। मॉल के फूड कोर्ट में तो ग्राहक थे पर अन्य स्टोर ग्राहकों को ज्य़ादा आकर्षित नहीं कर सके। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को धीरे-धीरे समझ में आया कि भारतीय मध्य वर्ग बड़ा अवश्य है पर उसकी क्रयशक्ति सीमित है। तब एक और धारणा ने बल पकड़ा कि भारतीय ग्राहक गरीब है और उसे अन्य क्षेत्रों के सफल उत्पादों का तामझामरहित, सीधा-सादा संस्करण चाहिए। साम्राज्यवादी मानसिकता का यह ऐसा उदाहरण है जो दिखने में तो तर्कसंगत लगता है पर व्यावहारिक नहीं है। गुज़रे समय के अनुभव ने इसे भी सिद्ध कर दिया है। वस्तुत: ग्रामीणों को सिटी बैंक का 'गरीब संस्करण' नहीं चाहिए था, उन्हें ग्रामीण बैंक चाहिए था। उन्हें भारतीय आवश्यकताओं और नज़रिये वाले उत्पादों और सेवाओं की आवश्यकता थी।

आज भारत की अर्थव्यवस्था दबाव में है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी उत्साहजनक नहीं है, मुद्रा के रूप में रुपये का बुरा हाल है, आयात महंगा हो गया है, निर्यात हो नहीं रहा, महंगाई बढ़ रही है, बेरोज़गारी की दर बढ़ रही है, भ्रष्टाचार चरम पर है और आम नागरिक असहाय है। सरकार गठबंधन की विवशताओं की दुहाई दे रही है और विपक्ष सरकार की हर नीति की आलोचना कर रहा है। समाजसेवी अन्ना हज़ारे के आंदोलन में चाहे वक्ती ही सही, पर ठहराव आया है और अभी यह कह पाना मुश्किल है कि भविष्य की करवट कैसी होगी।

इस बीच सभी औद्योगिक संघ एक स्वर में सुधारों में तेजी लाने की वकालत कर रहे हैं और वर्तमान अव्यवस्था के लिए सरकार की ढुलमुल नीति को दोष दे रहे हैं। उद्योगपतियों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों में आर्थिक सुधार की दिशा में उठाये गए कदमों की गति धीमी हुई है या रुकी रही है। उद्योग संघों के इस नज़रिये के आलोचक कहते हैं कि अगर खुली अर्थव्यवस्था ही सब समस्याओं का समाधान होती तो अमेरिका और यूरोप में मंदी न आती। इन आलोचकों का मानना है कि केंद्रीय बैंक के महंगाई रोकने के कदमों का विरोध करने वाले मुनाफा बटोरने की हवस से ग्रस्त उद्योगपति सिर्फ अपने लाभ के लिए कम ब्याज दरों की वकालत कर रहे हैं। उनके अनुसार समस्याओं का मूल एफडीआई की अनुमति न होना नहीं है बल्कि गरीबी है जिसे दूर करने में सरकार विफल रही है और उद्योगपतियों को उसमें कोई रुचि नहीं है। कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि खेती को लाभदायक बनाने के लिए उसे सीधी आय का समर्थन दिया जाना चाहिए क्योंकि खेती लाभप्रद हुई तो देश की अर्थव्यवस्था खुद-ब-खुद पटरी पर आ जाएगी।

यह कहना गलत नहीं है कि इस समय सरकार का नज़रिया पूंजीवादी है और कंपनियों के लिए राहत पैकेज के आंकड़े इतने चौंकाने वाले हैं कि दिमाग घूम जाता है। जीटीएल का बिल 22,000 करोड़ रुपये का है, एयर इंडिया को 30,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता है और किंगफिशर एयरलाइन्स की देनदारियां 6,500 करोड़ रुपये की हैं और भारतीय स्टेट बैंक उसे 'मदद' देने की योजना पर काम कर रहा है। यह तो उसी पुरानी कहावत को चरितार्थ करता है कि यदि आप पर लाखों रुपये का कर्ज है तो आप संकट में हैं पर यदि आप पर अरबों रुपये का कर्ज है तो यह बैंक की समस्या है। यह सही है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक खर्च में 30-40 हजार करोड़ रुपये का खर्च होगा लेकिन कंपनियों के लिए राहत पैकेज के मुकाबले में यह राशि कुछ भी नहीं है।

मैंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया है कि खैरात से गरीबी दूर नहीं हो सकती। हमें गरीबों का सब्सिडी और आरक्षण की बैसाखी देने के बजाए उन्हें रोज़परक तथा उद्यमिता की शिक्षा और साधन देने होंगे जो उन्हें गरीबी के अभिशाप से मुक्ति दिला सके। इसके अलावा सरकार के सभी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भ्रष्टाचार में फंसकर अप्रभावी हो जाते हैं और अंतत: अमीरों को और अमीर बनाने के काम आते हैं।

यदि हम पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से सहमत नहीं हैं और सरकार की लोक कल्याणकारी नीतियों में भी खामियां देखते हैं तो हमारे पास कौन सा रास्ता बचता है ? उत्तर है कि हमें मध्यमार्गी होना होगा।

सन् 2011 में संकट में फंसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए नया साल, नई ज़मीन, नये विचार और नए लक्ष्य तय करने का साल होना चाहिए। एक तरह से हम एक टिपिंग प्वायंट, यानी बदलाव की धुरी पर खड़े हैं। संकट के समय ही नये अवसरों की खोज होती है। हमें इस संकट को अवसर में बदलना होगा।

हमें आर्थिक सुधार तेजी से लागू करने होंगे, निर्यात के नये बाज़ार खोजने होंगे, आयात को नियंत्रित करने की रणनीति बनानी होगी, कर सुधार लागू करने होंगे, बुनियादी ढांचा मजबूत बनाने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, युवा वर्ग को प्रतिभा और कौशल उन्नयन से सज्जित करना होगा, घरेलू क्षेत्र में मांग को बढ़ाना होगा, कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे।

राजकोषीय हालात दुरुस्त करने के लिए खर्च में इस तरह से कटौती करनी होगी कि इस कटौती के कारण ही मंदी के हालात न बन जाएं। विकसित देशों की खराब वित्तीय स्थिति से सबक लेकर हमें आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार नीतियां बनानी होंगी। मार्च में विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद केंद्र सरकार नीतिगत फैसले लेने की गति तेज़ कर सकती है और केवल आर्थिक सुधार ही नहीं बल्कि तमाम जरूरी विधेयकों को कानून में बदल सकती है। पिछले दो साल से पॉलिसी पैरालाइसिस का आरोप झेल रही सरकार मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देकर इस आरोप से मुक्त हो सकती है।

दूसरी ओर उद्योग जगत को भी मुनाफाखोरी की हवस छोड़कर सस्ते उत्पाद विकसित करने होंगे जो आम आदमी की पहुंच में हों। उद्योग जगत की ओर से बुनियादी ढांचा सुदृढ़ करने के लिए कुछ विशेष नहीं किया जा रहा है। सारे काम सिर्फ सरकार के ही नहीं हैं। उद्योग जगत को इस ओर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है।

यह कहना मुश्किल है कि केंद्र की यूपीए सरकार ऐसा करेगी या नहीं, या कर पायेगी या नहीं। पर आज हमारे सामने एक बड़ा संकट है और इस संकट को अवसर में बदलने का अवसर भी है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारी सरकार और उद्योग जगत मिलकर इस अवसर का लाभ उठायेंगे। ***



“Alternative Journalism”, “Alternative Journalism in India”, “Pioneering Alternative Journalism”, वैकल्पिक पत्रकारिता, भारतवर्ष में वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रवर्तक पी. के. खुराना

Subsidies Cannot Eliminate Poverty :: गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!




Subsidies Cannot Eliminate Poverty :: गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!
 पी. के. खुराना

धारणा के स्तर पर हमारा देश एक लोककल्याणकारी राज्य, एक 'वेलफेयर स्टेट' है। धारणा के स्तर पर हम पूंजीवादी नहीं हैं। यह सही भी है क्योंकि किसी आम आदमी के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि प्रगति के सारे सोपानों के बावजूद 35 करोड़ से भी अधिक भारतीय अशिक्षित हैं, 32 करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं और 25 करोड़ देशवासियों को सामान्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं है और देश के 51 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही सही प्रतीत होती है।

सन् 1956 में भारत सरकार ने एक योजना बनाई थी जिसके अनुसार अगले 25 वर्षों में भारत को गरीबी मुक्त राष्ट्र बनना था। सन् 1981 में वे 25 साल पूरे हो गए, पर सपना अब भी अधूरा है जबकि 1981 के बाद 30 और साल गुज़र चुके हैं। इस समय हमारी सबसे बड़ी समस्या है सर्वाधिक गरीबी का जीवन जी रहे वंचितों के लिए भोजन की व्यवस्था करना, उससे ऊपर के लोगों के जीवन के स्तर में सुधार लाने के लिए स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना और किफायती शिक्षा की व्यवस्था करना तथा शेष समाज की आवश्यकताओं के लिए कृषि में नई तकनीकों का लाभ लेना, भूमि अधिग्रहण कानून को सभी संबंधित पक्षों के लिए लाभदायक बनाना तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना उद्योगों का विस्तार करना।

गरीबी दूर करने के नाम पर हमारे देश में आरक्षण और सब्सिडी का जो नाटक चल रहा है उसने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है। हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। दूसरी ओर, आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया भर में भारत में आरक्षण का प्रतिशत सर्वोच्च है और हमारा देश एकमात्र ऐसा देश बन गया है जहां लोग पिछड़ा कहलाने के लिए आंदोलन करते हैं। परिणामस्वरूप, आज लोग मेहनत, ज्ञान और ईमानदारी की तुलना में पिछड़ेपन को उन्नति का साधन मानते हैं। सच्चाई यह है कि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

अभी पिछले सप्ताह ही वरिष्ठ पत्रकार श्री टी एन नाइनन ने अपने एक लेख में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पैदा हुई इस स्थिति का विस्तार से जायज़ा लिया है। उन्होंने उदाहरण दिया है कि दिल्ली में पेट्रेाल की कीमत 65 रुपये प्रति लीटर है, डीज़ल 41 प्रति लीटर में बिकता है जबकि इस वर्ग में उच्चतम सब्सिडी के कारण मिट्टी के तेल की कीमत 17 रुपये प्रति लीटर है। परिणाम यह है कि दिल्ली में बिकने वाले कुल पेट्रोल में कम से कम आधे पेट्रोल में मिट्टी के तेल की मिलावट होती है। इतने बड़े स्तर पर मिलावट का यह खेल सिर्फ इसलिए चल पाता है क्योंकि इस खेल में राजनेता, अधिकारी, पुलिस और व्यापारियों का साझा गिरोह है जो गरीबों की सब्सिडी को लूट ले जाता है और गरीबों के नाम पर मिली यह खैरात अमीरों में बंट जाती है।

अमीरों से पैसा छीनकर गरीबों में बांटने की अवधारणा इस हद तक विकृत हुई कि स्व. इंदिरा गांधी के ज़माने में आयकर की दर 97 प्रतिशत तक जा पहुंची। सत्तानवे प्रतिशत! यानी, अगर आप मेहनत करके सौ रुपये कमाएं तो सत्तानवे रुपये सरकार छीन लेती थी और आपके पास बचते थे तीन रुपये! क्या आप नहीं समझ सकते कि टैक्स की इस अतर्कसंगत प्रथा ने ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था का सूत्रपात किया और आज शायद पक्ष और विपक्ष का एक भी राजनीतिज्ञ, सरकार का एक भी बड़ा अधिकारी और बड़े व्यापारियों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसके पास काला धन न हो। ऐसे में किसी एक व्यक्ति को दोष देना पेड़ की पत्तियों को दोष देने के समान है जबकि बुराई जड़ों में है। किसानों के लिए मुफ्त बिजली, बीपीएल परिवारों के लिए सस्ता राशन, स्कूलों मे मिड-डे मील, नरेगा, कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आम आदमी के नाम पर बनने वाली योजनाओं का असली लाभ अमीरों को मिलता है और गरीब लोग लाइनों में खड़े अपनी बारी का इंतज़ार करते रह जाते हैं।

सवाल यह है कि यदि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से लाभ नहीं मिल रहा है तो क्या किया जाए? इसके लिए आवश्यक है कि गरीब और वंचित लोगों को रोज़गारपरक तथा उद्यमिता की शिक्षा दी जाए। उनकी स्किल बढ़े, वे कमाने लायक बन सकें और उत्पादकता में भी योगदान दें। दलितों को आरक्षण और गरीबों को सब्सिडी की बैसाखी देने के बजाए उन्हें रोज़ी-रोटी कमाने के लायक बनाया जाए। देश में सरकारी नौकरियों की कमी हो सकती है, नौकरियों की भी कमी हो सकती है लेकिन रोज़गार की कमी नहीं है। मुंबई के डिब्बेवाले एक आदर्श उदाहरण हैं। दूसरा उदाहरण सोशल इन्नोवेशन का है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं। हिंदुस्तान लीवर ने आंध्र प्रदेश में विधवा महिलाओं को घर-घर जाकर अपने उत्पाद बेचने की ट्रेनिंग दी जिससे कंपनी की बिक्री बढ़ी और जरूरतमंद विधवाओं को सम्मानप्रद रोज़गार मिला। कई एनजीओ और सहकारी संस्थाएं भी सम्मानप्रद रोज़गार की इस मुहिम में शामिल हैं। लिज्जत पापड़, अमुल डेयरी आदि इसके बढिय़ा उदाहरण हैं।

बीपीएल परिवारों को रोटी या पैसा देने मात्र से यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट यानी ऐसे विकास की आवश्यकता है जिसमें उन लोगों की हिस्सेदारी हो जिन्हें वाजिब लागत पर भोजन नहीं मिलता, सार्वजनिक परिवहन नहीं मिलता, अस्पताल की सुविधा नहीं मिलती, या जिनके पास घर नहीं हैं। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह सोशल इन्नोवेशन से संभव है और यह गरीबी दूर करने का शायद सबसे बढिय़ा उपाय है। हमें इसी विचार को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। 

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