Thursday, November 24, 2011

एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women

एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Alternative Journalism
वैकल्पिक पत्रकारिता

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pkk@lifekingsize.com




एकल महिलाओं की समस्याएं
-- पी. के. खुराना

हाल ही में नई दिल्ली में महिलाओं के एक संघ की सदस्या महिलाएं समाज और सरकार के रवैये के प्रति अपना विरोध जताने के लिए इकट्ठी हुईं। देश की राजधानी दिल्ली के लिए यह कोई नई बात नहीं है कि किसी संगठन के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए आए। इन महिलाओं के विरोध प्रदर्शन में भी ऐसा कुछ उल्लेखनीय अथवा खास नहीं था, अगर कुछ खास था तो वह था इस संगठन की प्रकृति और इसके उद्देश्य जिसने मुझे महिलाओं की एक और समस्या पर फिर से सोचने के लिए विवश किया।

'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' नामक इस संगठन की सदस्या महिलाओं में विधवाएं, परित्यक्ताएं, तलाकशुदा महिलाएं व ऐसी अविवाहित महिलाएं शामिल हैं जो अपने परिवार और समाज से उपेक्षापूर्ण व्यवहार का दंश झेल रही हैं। इनमें से अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि की साधनहीन महिलाएं हैं जिनके पास अपनी कठिनाइयां बताने का कोई उपाय नहीं था। यह संगठन ऐसी महिलाओं के अधिकारों की वकालत ही नहीं करता बल्कि उन्हें अधिकारों के प्रति शिक्षित भी करता है। इससे भी बड़ी बात, यह सिर्फ ऐसी वंचिता महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के साथ-साथ उनके ससुराल पक्ष के परिवारों को काउंसलिंग के माध्यम से उनके बीच की गलतफहमियां दूर करके परिवारों को जोडऩे का प्रयत्न भी करता है। यानी, 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' अधिकारों की वकालत करते हुए सिर्फ झगड़ा बढ़ाने का ही काम नहीं करता, बल्कि झगड़ा निपटाने का रचनात्मक प्रयत्न भी करता है।

अपने ममतामयी दृष्टिकोण के लिए जानी जाने वाली महिलाएं विपरीत स्थितियों में खुद कितनी उपेक्षा का शिकार होती हैं, इसकी कहानी सचमुच अजीब है। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिये जाते हैं। विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है लेकिन परित्यक्ताओं, तलाक शुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्य़ादा जागरूक नहीं हैं।

एकल महिलाओं को हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवैतनिक कामकाज के अलावा यौन शोषण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांवों में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं होता, समाज की रूढि़वादिता और संस्कार उन्हें विरोध करने से रोकते हैं और वे असहाय पिसती रह जाती हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार ऐसी महिलाओं की संख्या तीन करोड़ साठ लाख के आसपास थी और इनमें से अधिकांश विधवाएं थीं। सन् 2011 में संपन्न जनगणना में एकल महिलाओं की गिनती का विवरण अभी नहीं आया है।

यही नहीं, जिन परिवारों में मर्द लोग कामकाज के सिलसिले में शहर से बाहर रहने को विवश हैं वहां उनकी पत्नियां घर में अकेली पड़ जाती हैं और कई तरह की समस्याएं झेलती हैं लेकिन ज़ुबान नहीं खोल पातीं। घर से बाहर रह रहा मर्द अगर कठिनाइयां झेल कर पैसे कमाता है तो घर में अकेली पड़ गई उसकी पत्नी भी कई तरह से अपमान और उपेक्षा का शिकार हो रही हो सकती है। महिलाओं की शारीरिक बनावट के कारण उनकी समस्याएं अलग हैं। यही नहीं, उनकी भावनात्मक सोच भी पुरुषों से अलग होती है और अक्सर पुरुष उसे नहीं समझ पाते। इसके कारण भी कई बार महिलाओं को कई तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। इससे भी ज्य़ादा बड़ी समस्या तब आती है जब रोज़गार के सिलसिले में मर्द शहर से बाहर जाता है और वहीं पर दूसरा विवाह कर लेता है। ऐसे बहुत से पुरुष अपनी पहली पत्नी को अक्सर पूरी तरह से बिसरा देते हैं या फिर दोनों महिलाओं से झूठ बोलते रह सकते हैं।

हिमाचल प्रदेश निवासी 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्या निर्मल चंदेल इस पहाड़ी राज्य की महिलाओं की इस व्यथा का बखान करते हुए कहती हैं कि हिमाचल प्रदेश में रोज़गार की बहुलता न होने के कारण मर्दों का राज्य से बाहर प्रवास जितना आम है, नये शहर में बस कर आधुनिका महिलाओं अथवा महिला सहकर्मियों से दूसरी शादी भी कम आम नहीं है। हिमाचल प्रदेश जैसे कम आबादी वाले छोटे से राज्य से ही 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्याओं की संख्या 9,000 से कुछ ही कम है। इसीसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में महिलाएं शोषण और उपेक्षा का शिकार हो रही हैं।

महिलाओं की एक अन्य समस्या को भी पुरुष अक्सर नहीं समझ पाते और अक्सर उसका परिणाम यह होता है कि पूरा परिवार बिखर जाता है। करियर के जाल में फंसा पुरुष वर्ग पत्नी और परिवार की उपेक्षा की गंभीरता को समझ ही नहीं पाता, कई बार तो तब तक जब परिवार टूट ही न जाए या टूटने के कगार पर ही न पहुंच जाए। तब भी पुरुष लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहां गलत थे। वे तो तब भी यही मान रहे होते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे थे वह परिवार की भलाई, खुशी और समृद्धि के ही लिए था। यहां पतियों और पत्नियों का नज़रिया एकदम अलग-अलग नज़र आता है। पत्नियां पैसा कम और पति का साथ ज्य़ादा चाहती हैं और पति यह मानते रह जाते हैं कि यदि उनके पास धन होगा तो वे पत्नी के लिए सारे सुख खरीद सकेंगे। बिना यह समझे कि उनकी पत्नी की भावनात्मक आवश्यकताएं भी हैं और उनकी पूर्ति के लिए उन्हें पति के पैसे की नहीं, बल्कि पति के संसर्ग और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है।

हमारा देश तेजी से विकास कर रहा है, हमारे जीवन स्तर में सुधार हो रहा है लेकिन सोच बदलने में समय लग रहा है, खासकर ग्रामीण इलाकों में अभी भी रुढि़वादिता का बोलबाला है। अब समय आ गया है कि हम पुरुष समाज को महिलाओं की आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित करें और महिलाओं के प्रति ज्य़ादा सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाएं ताकि समाज के दोनों अंगों का समान विकास संभव हो सके और समाज में संतुलन बना रहे। ***

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Saturday, October 29, 2011

Wellness Prosperity & Success :: स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता

Wellness Prosperity & Success

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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pkk@lifekingsize.com


स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता
 पी. के. खुराना

बहुत साल पहले मुझे जनसामान्य में पीजीआई के नाम से विख्यात, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में आयोजित एक सेमिनार में शामिल विश्व भर के डाक्टरों के विचार सुनने का मौका मिला जिसमें बताई गई बातों का सार यह था कि व्यक्ति जवानी में सफलता के लिए अथक मेहनत करता है। अक्सर उसे घर से दूर रहना पड़ता है, शहर, राज्य या देश छोड़ कर परदेसी होना पड़ता है, पर करियर की सफलता के आदमी यह सब बर्दाश्त करता है, दिन रात मेहनत करता है और खुश होता है कि वह सफलता की सीढिय़ां चढ़ता चल रहा है। जवानी में शरीर अपने ऊपर हुई इन ज्य़ादतियों को बर्दाश्त करता चलता है पर चालीस की उम्र के बाद शरीर में भिन्न-भिन्न बीमारियों के लक्षण उभरने लगते हैं, आदमी दवाइयों पर निर्भर होने लगता है और जब व्यक्ति इतना अनुभवी हो जाता है कि लोग-बाग उसके ज्ञान का लोहा मानने लगते हैं और वह और भी तेजी से उन्नति कर सकता है तब शारीरिक व्याधियां उसकी राह में रोड़ा बनना शुरू हो जाती हैं, व्यक्ति की कार्यक्षमता घटनी शुरू हो जाती है और वह उस उन्नति से महरूम रह जाता है, जिसके कि वह काबिल है, या फिर वह अपने शरीर की आवश्यकताओं की और ज्य़ादा उपेक्षा करने लगता है और अंतत: अगले कुछ सालों में और भी ज्य़ादा बड़ी बीमारियों से घिर जाता है।

कहा गया है कि आदमी पहले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गंवाता है, फिर स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए धन खर्च करता है और अंतत: दोनों गंवा लेता है। बहुत से मामलों में यह विश्लेषण एकदम सटीक है। यह सच है कि धन कमाना आसान नहीं है, धन चला जाए तो उसकी भरपाई में बड़ी मुश्किलें आती हैं, कई बार तो दोबारा उस स्तर तक पहुंच पाना संभव ही नहीं हो पाता, या धन कमाना शुरू होने पर छूट गए अवसरों की भरपाई भी शायद हमेशा संभव नहीं होती तो भी यह सच है कि धन कमाने के अवसर आते रह सकते हैँ पर ज्य़ादा धन कमाने की धुन में शरीर को ऐसी बहुत सी बीमारियां लग जाती हैं जो जीवन भर साथ नहीं छोड़तीं। फिर न आप नमक खा सकते हैं, न मीठा। कई तरह की इच्छाओं को लेकर मन मारना पड़ता है और जीवन का असली स्वाद पीछे रह जाता है।

हमारे स्कूलों में फिजि़कल एजुकेशन एक विषय भर है, विद्यार्थियों को उसकी असली आवश्यकता से कभी परिचित नहीं करवाया जाता। सर्दियों के दिनों में भी छोटे-छोटे बच्चे बिस्तर से बाहर निकलते ही स्कूल के लिए तैयार होने लगते हैं, व्यायाम या योग के लिए उनके जीवन में कोई जगह नहीं होती, न ही उन्हें नियमित व्यायाम का महत्व ढंग से सिखाया जाता है। मां-बाप जीवन निर्वाह के लिए पैसा कमाने की चक्की में पिस रहे होते हैं और बच्चे स्कूलों में किताबों में सिर खपाते रह जाते हैं। परिणाम यह होता है कि पढ़ाई खत्म होते ही आदमी नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में पड़ जाता है और व्यायाम को सिरे से उपेक्षित कर देता है।

यह खेदजनक है कि व्यायाम हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग नहीं बन पाया है जिससे स्वास्थ्य संबंधी सारी व्याधियां पैदा हो रही हैं, और जब तक व्यक्ति कुछ सफल होकर जीवन का आनंद लेने के काबिल होता है तब उसके शरीर को कोई न कोई ऐसी बीमारी लग चुकी होती है कि वह जीवन के आनंद से महरूम रहने के लिए विवश हो जाता है।

देश भर में बहुत से जिम और योग केंद्र हैं लेकिन दोनों में आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। बहुत से जिम बच्चों को नशीली दवाओं की आदत डालने के लिए बदनाम हुए और योग केंद्रों के अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित कर्णधार व्यक्ति की क्षमता और उम्र की परवाह किये बिना सबको एक जैसा पाठ पढ़ाते हुए कई बार उन्हें नई व्याधियों का उपहार दे डालते हैं। बहुत से योग गुरू योग कैंप का आयोजन करते हैं पर ये शिविर इतनी छोटी अवधि के होते हैं कि उनसे लोगों में नई आदतें स्थाई नहीं हो पातीं। योग कैंप की समाप्ति के बाद फिर से वही पुरानी दिनचर्या आरंभ हो जाती है और शिविर का कोई स्थाई लाभ लोगों को नहीं मिल पाता। योग कैंप की महत्ता को सिरे से नकारना तो गलत है पर इन्हें ज्य़ादा उपयोगी बनाने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों से स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को लेकर मेरी बातचीत से मुझे जो समझ में आया उसका सार यह है कि यदि हम हर सुबह लगभग एक घंटा और रात को खाना खाने से पहले आधा घंटा सैर करें तो हम उम्र भर अधिकांश बीमारियों से बचे रह सकते हैं। ब्रिस्क वॉक के नाम से जानी जाने वाली यह सैर साधारण से कुछ तेज़ चाल में पूरी की जाती है। हालांकि इस मामले में मतैक्य नहीं है तो भी ज्य़ादातर डॉक्टरों का यह मानना है कि ब्रिस्क वॉक, जॉगिंग से भी ज्य़ादा सुरक्षित और लाभदायक है। इस संबंध में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले बीस मिनट की सैर के बाद ही हमारे शरीर के अंग खुलने शुरू होते हैं और सैर का असली लाभ उसके बाद मिलता है, अत: सैर की अवधि 40 मिनट से 60 मिनट के बीच रहना आवश्यक है। इससे कम अवधि की सैर का लाभ कम होगा। सवेरे की सैर करने वाले व्यक्तियों के लिए रात्रि सैर की आधे घंटे की अवधि भी काफी है। रात्रि की सैर को लेकर भी कई भ्रम हैं। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि रात्रि के भोजन से पूर्व ब्रिस्क वॉक दवाई की तरह है। भोजन के बाद तेज़ सैर नहीं की जानी चाहिए। यदि आप रात्रि के भोजन के बाद सैर के लिए निकलते हैं तो टहलने जैसा होना चाहिए जिसका उद्देश्य यह है कि खाना खाते ही बिस्तर पर नहीं जाना चाहिए बल्कि नींद से पहले खाना पचने का समय मिलना चाहिए।

प्रसिद्ध योग गुरू स्वामी लालजी महाराज शायद अकेले ऐसे योगाचार्य हैं जो स्वास्थ्य रक्षा में योग, जिम और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समन्वय की वकालत करते हैं। जिम में व्यायाम करते हुए यदि व्यक्ति श्वास-प्रक्रिया पर भी नियंत्रण करे तो व्यायाम का लाभ दोगुणा हो सकता है। बहुत से डाक्टर भी अब यह स्वीकार करते हैं कि यदि चिकित्सा विज्ञान में योग का भी समावेश हो जाए तो रोगी को ज्य़ादा लाभ होता है। डा. पूनम नायर द्वारा संचालित, चंडीगढ़ योग सभा और पीजीआई में ही इस संबंध में लगभग दो साल तक चले एक अध्ययन में यह पाया गया कि योग की सहायता से रोगियों में तनाव कम हुआ, रोग से छुटकारा पाने में आसानी हुई और लाभ स्थाई रहा। यही नहीं, पीजीआई में खुद डाक्टरों और नर्सों को भी जब योग क्रियाएं करवाई गईं तो उनमें तनाव की कमी आई और वे ज्यादा कुशलता से अपनी ड्यूटी निभा सकने में सक्षम पाये गए। स्पष्ट है कि हम अपने जीवन में योग और व्यायाम को भी उतार पायें तो जीवन कहीं ज्य़ादा स्वस्थ, संपन्न और खुशहाल हो सकता है। ***

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Saturday, October 22, 2011

जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man









जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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जनता का सशक्तिकरण
पी. के. खुराना



जापानी मूल के प्रसिद्ध अमरीकी लेखक राबर्ट टी. कियोसाकी मेरे मनपसंद लेखक और विचारक हैं। उनकी प्रथम पुस्तक 'रिच डैड पुअर डैडÓ ने ही विश्व भर में तहलका मचा दिया। वर्तमान शिक्षा पद्धति पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैंैं, ''स्कूल में मैंने दो चुनौतियों का सामना किया। पहली तो यह कि स्कूल मुझ पर नौकरी पाने की प्रोग्रामिंग करना चाहता था। स्कूल में सिर्फ यह सिखाया जाता है कि पैसे के लिए काम कैसे किया जाता है। वे यह नहीं सिखाते हैं कि पैसे से अपने लिए काम कैसे लिया जाता है। दूसरी चुनौती यह थी कि स्कूल लोगों को गलतियां करने पर सजा देता था। हम गलतियां करके ही सीखते हैं। साइकिल चलाना सीखते समय मैं बार-बार गिरा। मैंने इसी तरह सीखा। अगर मुझे गिरने की सजा दी जाती तो मैं साइकिल चलाना कभी नहीं सीख पाता।“

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें लोगों के साथ चलने, लोगों को साथ लेकर चलने, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी होने, प्रयोगधर्मी होने से रोकती है। गलतियां करने वाले को सज़ा देकर हमारी शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों में भय की मानसिकता भर देती है। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें स्वस्थ रहना नहीं सिखाती, स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक अच्छी आदतें हम स्कूल में नहीं सीखते। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने सभी साधनों का प्रयोग करना भी नहीं सिखाती। पूंजी एक बहुत बड़ा साधन है पर हमारी शिक्षा हमें पूंजी के उपयोग का तरीका नहीं सिखाती। हमारी शिक्षा हमें पैसे के लिए काम करना सिखाती है, पैसे से काम लेना नहीं सिखाती।

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने कर्तव्यों का बोध नहीं देती, अपने नागरिक अधिकारों का ज्ञान नहीं देती। यह शिक्षा प्रणाली हममें नैतिक साहस पैदा नहीं करती। वर्तमान शिक्षा पद्धति न तो हमें अच्छा नागरिक बनना सिखाती है और न ही सफल व्यक्ति बनना। यह शिक्षा सशक्तिकरण की शिक्षा नहीं, पंगुता की शिक्षा है।

हमारी शासन व्यवस्था इतनी लचर है कि सूचना के अधिकार के बावजूद हमें समय पर सूचनाएं नहीं मिल पातीं, पूरी सूचनाएं नहीं मिल पातीं और यदि कोई अधिकारी इसमें रोड़े अटकाता है तो नागरिकों के पास उसके प्रभावी प्रतिकार का कोई उपाय नहीं है। शिक्षा का अधिकार लागू होने का क्या मतलब है? यदि उसके लिए आवश्यक प्रबंध न किये जाएं, आवश्यक संख्या में स्कूल और अध्यापक न हों तो शिक्षा के अधिकार का कानून बना देने से क्या होगा?

हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। हमारी पूरी कर-प्रणाली ही अतर्कसंगत और उद्यमिता विरोधी है। सच तो यह है कि टैक्स व्यवस्था की कमियों के कारण ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है।

आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं जबकि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

हमारे देश में उद्यमिता के लिए प्रोत्साहन के नाम पर जो कुछ किया जाता है वह सब एक बहुत बड़ा मज़ाक है। कोई नया उद्योग लगाने में इतनी अड़चनें हैं और इतने विभागों से अन्नापत्ति प्रमाणपत्र (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) लेना होता है कि अन्नापत्ति प्रमाणपत्र लेने में ही सालों-साल लग जाते हैं। दूसरी ओर, हम लोग भी अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति उदासीन रहकर प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं के रहमोकरम की आदी हो गए हैं। हम अपने जनप्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा करने के बाद उन्हें वोट देने के बजाए, किसी नारे के पीछे लगकर, जाति अथवा क्षेत्र की राजनीति से प्रभावित होकर अथवा किसी एक दल से बंधकर अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं।

उपरोक्त सभी व्यवस्थाएं नागरिक के रूप में हमें कमज़ोर करती हैं और हम दूसरों की कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। इस स्थिति को बदलने का एक ही तरीका है कि शिक्षा का सही स्वरूप तय किया जाए, उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाए, कर प्रणाली को तर्कसंगत बनाया जाए, सस्ता राशन, सब्सिडी और आरक्षण की जगह वंचितों के सशक्तिकरण के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी तय की जाए और रिश्वतखोरों, भ्रष्टाचारियों व बलात्कारियों के लिए कड़ी सजा सुनिश्चित की जाए।

यह सब कैसे होगा? इसका एक ही तरीका है कि हम जागें, अपने आसपास के लोगों में जागरूकता का भाव जगाएं। यह संतोष का विषय है कि सरकार और शेष राजनीतिक दलों के तिरस्कारपूर्ण रवैये के बावजूद गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे को देश भर से अच्छा समर्थन मिल रहा है। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर अन्ना की खूब चर्चा है। लेकिन क्या इतना ही काफी है? बाबा अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल में जनता की भागीदारी की बात मनवा कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। हालांकि सरकार ने बाद में इस जीत पर पानी फेर दिया पर लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है और 16 अगस्त से जनता की यह लड़ाई अपने दूसरे चरण में कर चुकी है। इस लड़ाई से तुरंत कोई बड़ी जीत हासिल करना शायद मुश्किल है। लड़ाई अभी लंबी चलने की आशंका है, तो भी यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि अन्ना जी को बिना शर्त जनता का पूर्ण समर्थन मिल रहा है। इस आंदोलन को सफल बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है। छोटी-छोटी उपलब्धियां मिलकर बड़ी जीत में बदल जाती हैं। हमें इसी दिशा में काम करना है ताकि देश के विकास के शेष अवरोधों को भी दूर किया जा सके। 


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Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल







Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल
 पी. के. खुराना


'वॉल स्ट्रीट विरोध' को कई नए नाम मिल गए हैं और अब इसे 'आक्युपाई वॉल स्ट्रीट' के अलावा 'हम 99 प्रतिशत हैं', 'टी पार्टी विरोध' तथा 'अक्तूबर क्रांति' आदि नामों से भी जाना जाने लगा है। वॉल स्ट्रीट और पूंजीवाद के विरोध में उपजे इस आंदोलन ने अब भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया है और यह अमरीका की सीमाओं को लांघकर इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड, जर्मनी, स्पेन, ग्रीस और रोम तक में फैल गया है। हर जगह से प्रदर्शनकारी घरों से बाहर निकल रहे हैं और पूंजीवाद के विरोध में एकजुट होकर इस अनूठे आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि इस आंदोलन की अगुवाई कोई एक व्यक्ति या समूह नहीं कर रहा है और ये लोग यह भी साफ नहीं कर पाये हैं कि उन्हें क्या चाहिए, तथा जो चाहिए वह कैसे संभव होगा, तो भी आंदोलन के प्रति लोगों का समर्थन बढ़ रहा है।

वॉल स्ट्रीट से शुरू हुए प्रदर्शन को अब कारपोरेट अमरीका के खिलाफ आम अमरीकियों के आक्रोश के रूप में देखा जा रहा है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अमरीकी प्रशासन हमेशा कारपोरेट जगत के हितों का संरक्षण करता है अत: कारपोरेट जगत की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, अमीरों पर ज्य़ादा टैक्स लगना चाहिए और देश के 99% लोगों पर 1% लोगों का नियंत्रण खत्म होना चाहिए। प्रदर्शनकारी गोल्डमैन सैक्स, जनरल इलैक्ट्रिक और बैंक ऑफ अमेरिका जैसी संस्थाओं का भी विरोध कर रहे हैं।

मोटे तौर पर यह आंदोलन आर्थिक असमानता के विरुद्ध है जिसमें अमीर और भी ज्य़ादा अमीर, और गरीब और भी ज्य़ादा गरीब होते जा रहे हैं। पूंजीवाद के इस दौर में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमरीका में समाज के सबसे ऊपर के पायदान के 1% लोग देश की 42% वित्तीय संपत्ति को नियंत्रित करते हैं। अमरीका की 70% वित्तीय संपत्ति का नियंत्रण शीर्ष 5% लोगों के पास है। कारपोरेट लाभ सर्वोच्च स्तर पर होने के बावजूद बेरोज़गारी अपने चरम पर है। बड़ी कंपनियों के सीईओ का वेतन सामान्य कर्मचारी के मुकाबले 350 गुणा ज्य़ादा है। सन् 1990 के बाद सीईओ का वेतन 300 गुणा बढ़ा है, कंपनियों का लाभ दोगुणा हो गया है जबकि सामान्य कर्मचारियों का वेतन औसतन सिर्फ 4 से 6 गुणा ही बढ़ा है। महंगाई समायोजित करने के बाद यह बढ़ोत्तरी लगभग शून्य हो जाती है। अमरीका की आधी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का सिर्फ 2.5 प्रतिशत हिस्सा है। यही नहीं, सर्वाधिक आमदनी वाले लोग कम टैक्स का आनंद ले रहे हैं।
सवाल यह है कि इस आर्थिक असमानता में पूंजीवाद का दोष कितना है? इससे पहले हम साम्यवाद को असफल होता देख चुके हैं। कभी विश्व, अमरीका और रूस दो महाशक्तियों में बंटा होता था। साम्यवादी रूस का इतना विघटन हुआ कि वह अमरीका का मोहताज हो गया और आज अमरीका विश्व की अकेली महाशक्ति है। चीन उसे चुनौती तो दे रहा है पर अभी वह अमरीका के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए चीन ने बहुत सी पूंजीवादी नीतियां अपनायी हैं।

अपने ही देश की बात करें तो यहां उदारवाद की शुरुआत सन् 1991 से हुई, लेकिन उससे पहले भी देश की अर्थव्यवस्था का 57% नियंत्रण मात्र 1% आबादी वाले जैन समाज के पास रहा है। सच तो यह है कि देश की शासन व्यवस्था कैसी भी हो, वह अमीर को और ज्य़ादा अमीर और गरीब को और ज्य़ादा गरीब बनाती ही है। एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं। मान लीजिए कुल पांच व्यक्ति एक दौड़ में हिस्सा ले रहे हों, उनमें से एक व्यक्ति पैदल हो, दूसरा साइकिल पर हो, तीसरा स्कूटर पर हो, चौथा कार पर हो और पांचवां हवाई जहाज़ पर हो तो समय बीतने के साथ-साथ प्रतियोगियों में फासला बढ़ता चला जाएगा और अंतत: पैदल चलने वाला या साइकिल पर चलने वाला पूरा ज़ोर लगाकर दौड़ते हुए भी दौड़ से बाहर होने की स्थिति में रहेगा। स्कूटर पर चलने वाले को आप निम्न मध्य वर्ग और कार पर चलने वाले को आप उच्च मध्य वर्ग मान सकते हैं। हवाई जहाज़ का खर्च उठा सकने की कूवत निश्चय ही 1% लोगों तक ही सीमित रहेगी जो दौड़ में हर किसी को पछाड़ेंगे ही। आर्थिक संपन्नता का यह अंतर साम्यवाद या पूंजीवाद के कारण नहीं है। यह अंतर साधनों की उपलब्धता और सामर्थ्य के कारण बना और बढ़ा है, और इस असमानता को दूर करने के लिए हमें राजनीतिक व्यवस्था बदलने के बजाए सामाजिक व्यवस्था बदलने, लोगों का नज़रिया बदलने और जनसामान्य को आर्थिक रूप से शिक्षित करने की आवश्यकता है। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त असमानता की खाई पाटने के लिए हमें इन तीनों सूत्रों को ज़रा बारीकी से समझना होगा।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर स्तर का व्यक्ति हर नये व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था।

दृष्टिकोण बदलने की बात करें तो हमें यह समझना होगा कि समाज के दोनों वर्गों को अपना-अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। संपन्न वर्ग को सदाशय होना होगा और अमीरी की दौड़ में पिछड़ रहे लोगों को धन की महत्ता को समझना और अपने संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करना सीखना होगा। आइये, दोनों मुद्दों पर ज़रा और विस्तार से बात करें।

आज कारपोरेट सेक्टर सामाजिक उत्तरदायित्व की बात करता तो है, पर यह उसका फोकस नहीं है। बहुत कम कारपोरेट घराने ऐसे हैं जो सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन को अपनी नीति में प्राथमिकता का स्थान देते हैं। हमें यह दृष्टिकोण बदलना होगा। कारपोरेट नेताओं को इस ओर ज्य़ादा ध्यान देना होगा वरना जो स्थिति आज अमरीका में कारपोरेट सेक्टर की है वह विश्व के शेष हर देश में भी होगी जो किसी क्रांति में बदल सकती है। यदि कारपोरेट सेक्टर इस स्थिति से बचना चाहता है तो उसे समाज कल्याण को प्राथमिकता देनी ही होगी। इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायण मूर्ति के शब्दों में कहूं तो हमें सहृदय पूंजीवाद अपनाना होगा।

दूसरी ओर, अमीरी की दौड़ में पीछे चल रहे लोगों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो अमीर होना चाहता है पर अमीरों से घृणा करता है। आज दुनिया में दो ही जातियां हैं, एक अमीर जाति और दूसरी गरीब जाति। दुर्भाग्यवश दोनों जातियां एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं और गरीब लोग अमीरों की मेहनत और काबलियत से सीखने के बजाए उनसे घृणा करते हैं और अमीर लोग गरीबों को अपने सामने कुछ नहीं समझते। वस्तुत: सही आर्थिक शिक्षा के अभाव में गरीब लोग गरीब रह जाते हैं और मध्यवर्गीय लोग भी अपने स्तर से ज्य़ादा ऊपर नहीं जा पाते। आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को अपने पैसे को काम में लाना और पैसे से पैसा बनाना नहीं सिखाती।

हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। परिणाम यह होता है कि शिक्षित होने के कारण उन्हें तो रोजगार मिल जाता है पर यह आवश्यक नहीं है कि रोजगार के नये अवसरों के सृजन में उनकी कोई बड़ी भूमिका हो, जबकि उद्यमी न केवल अपने लिए रोज़गार का सृजन करता है बल्कि अपने साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उद्यमियों को ज्यादा जोखिम बर्दाश्त करने पड़ते हैं, ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, सफलता के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है, पर जब वे सफल होना शुरू कर देते हैं तो उनकी राह आसान होती चलती है। समस्याओं से उनका भी वास्ता पड़ता है पर वे किसी भी समस्या अथवा चुनौती से घबराने के बजाए उसके समाधान के एक से अधिक हल खोजने का प्रयास करते हैं और सबसे बेहतर विकल्प को आजमाते हैं। उनकी यह प्रतिभा उनकी आदत बन जाती है और सफल होना उनकी नियति। अत: हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो व्यक्ति को नेतृत्व करने, सोचे-समझे जोखिम लेने और उद्यमी बनने के लिए भी तैयार करे। इससे गरीबी तो दूर होगी ही, राजनीतिक स्वतंत्रता भी सार्थक हो सकेगी, देश विकास की राह पर तेज़ी से बढ़ेगा और कारपोरेट सेक्टर के प्रति जनता में असंतोष की भावना भी नहीं होगी। 

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Thursday, September 29, 2011

Terrorism Tumult : आतंकवाद का जलजला







आतंकवाद का जलजला :: Aatankvaad Ka Jaljalaa

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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pkk@lifekingsize.com





आतंकवाद का जलजला
 पी. के. खुराना


दिल्ली उच्च न्यायालय में दूसरे धमाके के बाद आगरा में भी दहशतगर्दों ने अपना खेल खेला और कई जानें गईं। हमेशा की तरह सरकार की तरफ से निरर्थक बयानबाज़ी का दौर चला और टीवी चैनल भी दो दिन के लिए व्यस्त हो गए। यह खेदजनक है कि आम भारतवासी को लगता है कि अब आतंकवाद हमारे जीवन का हिस्सा बनकर रह गया है और पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां और सरकार इसमें कुछ खास नहीं कर सकते। ये सब आपस में ही एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपने काम से छुटकारा पा लेने के आदी हो गये हैं। सरकार के पास न महंगाई का कोई इलाज है और न आतंकवाद का। महंगाई गरीबों की जान लेती है, पर आतंकवाद किसी को नहीं बख्शता, आतंकवादियों तक को नहीं!

आतंकवाद की दो किस्में हैं, घरेलू आतंकवाद और वैश्विक आतंकवाद। बहुत से देश वैश्विक आतंकवाद को अपने राजनीतिक, रणनीतिक, सामरिक या आर्थिक हित साधने के लिए भी प्रयोग करते हैं। आतंकवाद घरेलू हो या वैश्विक, वस्तुत: वह कानून व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। पंजाब के स्व. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सदैव कहते थे कि आतंकवाद की समस्या कानून और व्यवस्था का प्रश्न है और इसे इसी ढंग से हल किया जाना चाहिए। उन्होंने पंजाब की जड़ों तक पैठे आतंकवाद को नेस्तनाबूद कर दिखाने का इतिहास बनाया।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जि़ंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के जारी रहने के और भी कई कारण हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद के जारी रहने में आतंकवाद से जुड़े लोगों का ही नहीं राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों का भी स्वार्थ सधता है क्योंकि आतंकवाद के कारण ये सब मोटी कमाई करते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा प्रदेश है जो आतंकवाद से त्रस्त है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं। आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है।

आतंकवाद से जुड़ा सच ऐसा है कि सहसा विश्वास नहीं होता। आतंकवादी नेताओं को विभिन्न स्रोतों से तगड़ा धन मिलता है। यही नहीं, आतंकवाद की रोकथाम के लिए सरकारों को केंद्र से भी बड़ी सहायता मिलती है। इस सहायता का अधिकांश भाग राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी डकार जाते हैं। यानी आतंकवाद फैलाने वाले और उसकी रोकथाम करने वाले, दोनों ही के लिए आतंकवाद मोटी कमाई का साधन है।

आतंकवादियों को समाज के कई वर्गों की सहानुभूति मिल जाती है। आतंकवादी उनकी भावनाओं का शोषण करते हैं और बड़े आतंकी नेता अपने लिए अकूत धन-संपदा इक_ी कर लेते हैं। कई आतंकवादी संगठनों को धर्म और मजहब के नाम पर बड़ा दान मिलता है। इसके अलावा बहुत से देश भी अपनी आवश्यकतानुसार किसी दुश्मन देश में आतंकवाद फैलाने के षडयंत्र में शामिल रहते हैं। आतंकवाद से जुड़े लगभग सभी संगठन नशे के व्यापार से भी जुड़े हुए हैं और हथियार खरीदने के लिए उन्हें यहीं से पैसा मिलता है।

आतंकवाद से जुडऩे वाले लोगों की बड़ी संख्या निचले वर्ग के लोगों की है। समाज से तरह-तरह के अत्याचार सह चुके ये दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धनलाभ की भी बड़ी भूमिका है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

वैश्विक आतंकवाद अक्सर किसी ऐसे देश से जुड़ जाता है जो अपने विभिन्न हितों की खातिर आतंकवादियों को प्रश्रय देता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे ज्यादातर देशों में मुस्लिम बहुल आबादी है जिसके कारण पूरा मुस्लिम समुदाय ही बदनामी झेल रहा है। सच तो यह है कि मुस्लिम समुदाय को ही आतंक का पर्याय मान लेने से भी समस्या जटिल होती है और सरकारें समस्या के सही समाधान तक नहीं पहुंच पातीं।

मोटी बात यह है कि यदि हम आतंकवाद से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें आतंकवाद को देशद्रोह का दर्जा देना होगा और इसमें शामिल हर व्यक्ति और संगठन को देशद्रोही मानना होगा। आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार और समाज के सभी अंगों में समन्वय आवश्यक है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और सामाजिक संगठन, सभी को एकजुट होकर योजनाबद्ध तरीके से आतंकवाद का मुकाबला करना होगा। अपनी सुरक्षा एजेंसिंयों को सही प्रशिक्षण और स्वतंत्रता देनी होगी, उन्हें आधुनिकतम हथियारों से लैस करना होगा। पंजाब के अलावा हमारे सामने एक और बहुत अच्छा उदाहरण मौजूद है। 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जे.के.त्रिपाठी ने सन् 1999 में जब त्रिची के पुलिस कमिश्नर के रूप में कामकाज संभाला तो वहां सांप्रदायिक लावा उबल रहा था और उस ज्वालामुखी में विस्फोट कभी भी संभव था। उन्होंने अपनी निष्ठा और सूझबूझ से वहां की पुलिस के चरित्र में करिश्माई परिवर्तन ला दिया। लब्बोलुबाब यह कि आतंकवाद भी कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान संभव न हो पर उसके लिए गहन निरीक्षण, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास, धैर्य और अदम्य साहस की आवश्यकता है। क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ सोच से ही संभव नहीं होते, उनके लिए कदम-कदम पर लड़ाई लडऩी होती है और साथियों को साथ रखना होता है। यह भी सही है कि आतंकवाद के प्रतिरोध के लिए काफी पैसा खर्च होगा पर आतंकवाद जारी रहने से होने वाले नुकसान के मुकाबले में यह बहुत कम है और इस मामले में लापरवाही खतरनाक साबित हो रही है। आतंकवाद जारी रहने से पर्यटन पर बुरा असर पड़ता है, उद्योग धंधे बंद होते हैं, कामगरों को काम नहीं मिलता और उद्योगों को कामगर नहीं मिलते जिससे पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।

अभी तक हमारी सरकारों ने आतंकवाद के मामले में बहुत ढुलमुल रवैया अपनाया है। यूपीए सरकार तो इस मामले में पूरी तरह से विफल रही है। यह खेदजनक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा इस सरकार के एजेंडे में काफी नीचे है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम था लेकिन उसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का मुद्दा शामिल ही नहीं था। जब तक सरकार इस मामले में मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करेगी, आतंकवाद जारी रहेगा, निरपराध नागरिक काल-कवलित होते रहेंगे, जान-माल का नुकसान होता रहेगा और सरकार की बयानबाज़ी जारी रहेगी।

हमारी समस्या यह है कि हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही कर रहे हैं यानी आतंकवाद की किसी घटना के बाद जागते हैं, अन्यथा हमारी सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस और सरकार सोए रहते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। देखना यह है कि सरकार खुद जागती है या इसके लिए भी हमें किसी अन्ना हज़ारे की आवश्यकता होगी। 


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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Wednesday, September 21, 2011

Idea That Will Change Our Life : आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया





Idea That Will Change Our Life : आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया
 पी.के. खुराना



बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन का दूसरा चरण पूरा हुआ। इस बीच कई नाटक हुए, सरकार ने कई रुख बदले, हर जगह मात खाई और अंतत: अन्ना हज़ारे का जादू संसद के सिर चढ़कर बोला। यह अन्ना हज़ारे का जलाल ही था कि मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल की बयानबाज़ी पर लगाम लग सकी। स्थाई समिति का गठन हो गया है और यह समिति लोकपाल बिल के सभी प्रारूपों का अध्ययन करके अपनी सिफारिशें देगी। समिति की सिफारिशें आने के बाद ही पता चल पायेगा कि सरकार वाकई जनलोकपाल बिल के प्रति गंभीर है या यह भी उसकी ओर से समय बर्बाद करने और जनता के गुस्से को ठंडा होने का वक्त देने की ही एक तिकड़म थी।

वस्तुस्थिति यह है कि अगर जनलोकपाल बिल की कुछ सिफारिशों को सरकार अपने बिल में शामिल कर ले और एक शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति स्वीकार कर ले तो भी यह सिर्फ एक छोटी जीत है। सब जानते हैं कि शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति से भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम तो लगेगी पर इस अकेले कदम से भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता। पर यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि यह वह एक आइडिया है, जो हमारी दुनिया को बदल सकता है, क्योंकि शक्तिशाली लोकपाल के बाद ‘राइट टु रीकॉल’, ‘राइट टु रिजेक्ट’, ‘गारंटी विधेयक’, ‘जनमत विधेयक’ और ‘जनप्रिय विधेयक’ की बारी है। इन कानूनों के अस्तित्व में आने से सरकारी कर्मचारियों एवं जनप्रतिनिधियों पर आवश्यक अंकुश लगेगा, भ्रष्टाचार का अंत होगा, जनता की सर्वोच्चता स्थापित होगी और लोकतंत्र में ‘तंत्र’ के बजाए ‘लोक’ की महत्ता बढ़ेगी, जो अंतत: जनतंत्र को सार्थक बनाएगा। यदि ये कानून अमल में आएं तो जनता वास्तव में जनार्दन बन जाएगी और उन जनप्रतिनिधियों पर जनता की सुनवाई का दबाव बनेगा जो सिर्फ चुनाव के समय ही जनता के दरवाजे पर जाते हैं।

अभी स्थिति यह है कि यदि आपको चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद नहीं है तो आप या तो वोट देने जाते ही नहीं या वोटिंग मशीन पर किसी भी बटन को दबाकर अपने इस अति महत्वपूर्ण अधिकार का व्यर्थ उपयोग कर आते हैं। ‘राइट टु रिजेक्ट’ कानून हमें अधिकार देगा कि कोई भी उम्मीदवार हमारी पसंद का न होने पर हम वोटिंग मशीन पर दिये गए अतिरिक्त बटन को दबाकर उपलब्ध उम्मीदवारों के प्रति अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर दें। इससे राजनीतिक दलों पर बेदाग और प्रभावी उम्मीदवारों के चयन का दबाव बनेगा जो राजनीति की गंदगी दूर करने में सहायक होगा।

‘राइट टु रीकॉल’ भी जनता के पास एक महत्वपूर्ण हथियार होगा ताकि चुने जाने के बाद जनप्रतिनिधि निरंकुश न हो जाएं। यदि चुना हुआ प्रतिनिधि जनता की उपेक्षा करने लगे या मनमानी पर उतर आये तो जनता को उसे वापिस बुलाने का हक होगा। इससे जनप्रतिनिधियों पर विधानसभा अथवा संसद में अपना व्यवहार संयत रखने, विभिन्न सदनों में जनता की आवाज़ बनने तथा अपने क्षेत्र में विकास कार्य करवाने का दबाव बनेगा।

इसी प्रकार ‘गारंटी विधेयक’ नामक एक तीसरा कानून सरकारी अधिकारियों पर लागू होगा। यदि सरकारी कर्मचारी समय पर काम न करें, रिश्वत के जुगाड़ के लिए अकारण काम को टालते रहें तो उनका वेतन कटेगा या उन पर जुर्माना लगेगा या दोनों सजाएं भुगतनी पड़ सकती हैं। इससे सरकारी कर्मचारी निट्ठले और भ्रष्ट नहीं हो सकेंगे, नौकरशाही पर लगाम लगेगी और भ्रष्टाचार की प्रभावी रोकथाम होगी।

‘जनमत विधेयक’ का अर्थ है कि कोई भी कानून बनाने से पहले नागरिक समाज की राय ली जाएगी। एक निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से नागरिक समाज प्रस्ताविक विधेयक में संशोधन सुझा सकेगा या फिर उसे पूरी तरह से रद्द करवा सकेगा। इस प्रकार कोई भी बिल, कानून उसी रूप में बन सकेगा जिस रूप में जनता को उसकी आवश्यकता है।

‘जनप्रिय विधेयक’ का अर्थ है कि यदि नागरिक समाज कोई कानून बनावाना चाहता है, जो कि पहले से अस्तित्व में नहीं है, तो राज्य अथवा केंद्र के जनप्रतिनिधियों को वह कानून बनाना आवश्यक हो जाएगा।

इस समय भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जनसामान्य इस स्थिति से इतना नाराज़ है कि उसने अन्ना हज़ारे और उनके साथियों की हर गलती और कमी को नज़रअंदाज़ किया और सरकार के विरोध में ऐसी लहर बनाई कि सरकार को घुटने टेकने पड़े। सामान्यजन शायद जनलोकपाल बिल के प्रावधानों के बारे में ज्य़ादा नहीं जानते, जानना भी नहीं चाहते, वे सिर्फ भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना चाहते हैं। सरकार द्वारा बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन के सामने घुटने टेकने का कोई संबंध जनलोकपाल बिल के गुणों-अवगुणों से नहीं है। आंदोलन को आम आदमी का समर्थन भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक नफरत के कारण मिला, न कि जनलोकपाल बिल के प्रति सकारात्मक समर्थन के। कहा जा सकता है कि यह आंदोलन वस्तुत: अन्नागिरी का सफल परीक्षण साबित हुआ है और अब इसे और भी मजबूती से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
एक ज़माना था जब कहा जाता था -- ‘यथा राजा, तथा प्रजा’। यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदला, शासन के तरीके बदले, यहां तक कि शासकों की नियुक्ति के तरीके बदले और लोकतंत्र के ज़माने में प्रजा ही अपने भाग्य विधाता जन-प्रतिनिधियों की भाग्य विधाता बन बैठी। आज के ज़माने में व्यावहारिक स्थिति ऐसी है कि इस पर ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ की उक्ति ही सटीक लगती है। मतलब यह है कि प्रजा जैसी होगी, देश की बागडोर थामने वाले शासकों को भी वैसा ही होना पड़ेगा।

आवश्यकता इस बात की है कि हम सरकारी कर्मचारियों, नौकरशाहों और अपने प्रतिनिधियों की कारगुज़ारी पर लगातार नज़र रखें। हम यदि नहीं बदलेंगे तो हम इन्हें भी नहीं बदल पायेंगे। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शहरी मतदाता, खासकर पढ़े-लिखे लोग मतदान इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि सरकारें बदलने से उनका कुछ भी बदलने वाला नहीं है। हमें अपनी इस सोच को भी बदलना होगा। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू कर सकते हैं। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। 


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Sunday, July 31, 2011

शासन में जनता की भागीदारी :: Shaasan Main Janata Ki Bhagidari





शासन में जनता की भागीदारी :: Shaasan Main Janata Ki Bhagidari


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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शासन में जनता की भागीदारी

 पी. के. खुराना


भारतीय संविधान की मूल भावना है, 'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी और सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक-कल्याणकारी राज्य बने जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। क्या यह संभव है कि देश के विकास में नागरिकों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करके देश में सच्चे प्रजातंत्र का माहौल बनाया जाए ? अगर ऐसा हो सका तो यह देश में प्रजातंत्र की मजबूती की दिशा में उठाया गया एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।

लोकतंत्र में तंत्र नहीं, बल्कि 'लोक’ की महत्ता होनी चाहिए। तंत्र का महत्व सिर्फ इतना-सा है कि काम सुचारू रूप से चले, व्यक्ति बदलने से नियम न बदलें, परंतु इसे दुरूह नहीं होना चाहिए और लोक पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जब ऐसा होगा तभी हमारा लोकतंत्र सफल होगा, लेकिन ऐसा होने के लिए हमें अपने आप को बदलना होगा, हर नागरिक को अपने आप को बदलना होगा। यह काम कोई सरकार नहीं कर सकती, प्रशासन नहीं कर सकता, लोग कर सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू में रख सकते हैं।

महत्वपूर्ण यह है कि क्रांति से पहले हमें तय करना होगा कि आखिर हम कैसी क्रांति चाहते हैं? इस क्रांति के परिणाम क्या हों ? इन पर विचार किये बिना हमारी हर क्रांति अर्थहीन होगी।

विश्व भर में अब तक की सभी क्रांतियों का एक ही उद्देश्य रहा है और वह है कि सबको जीवन में चार तरह की स्वतंत्रताएं मिल पायें। वे हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, अभावों से छुटकारा और भय से आज़ादी। भारतवर्ष में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मनपसंद धर्म चुनने, धर्म-निरपेक्ष होने अथवा नास्तिक होने की स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन हमारे देश की जनता के एक बहुत बड़े भाग के लिए अभावों से आज़ादी और भय से आज़ादी अभी एक सपना है। शिक्षा सेवा, सामान्य चिकित्सा सेवा का अभाव, पीने योग्य पानी की समस्या, सफाई का अभाव, रोज़गार की कमी, भूख और कुपोषण आदि समस्याएं, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि समस्याएं विकराल हैं और आम आदमी को इनसे राहत की कोई राह नज़र नहीं आती। हमारी अगली कोई भी क्रांति ऐसी होनी चाहिए जो जनता को अभावों और भय से आज़ादी दिलवा सके।

दुर्भाग्यवश, हमारे राजनेताओं के स्वार्थी व्यवहार के कारण प्रशासन तंत्र भी भ्रष्ट हो गया है और चूंकि प्रशासन तंत्र या नौकरशाही इन राजनेताओं से भी ज्य़ादा ताकतवर है, अत: आज नौकरशाही राजनीतिज्ञों से भी ज्यादा भ्रष्ट, निरंकुश और असंवेदनशील हो गई है और जनता की समस्याओं से इसका कोई वास्ता नहीं रह गया है। अत: शासन व्यवस्था में ऐसी संस्थाओं और प्रावधानों का समावेश आवश्यक हो गया है कि अधिकारियों और राजनेताओं पर अंकुश रहे तथा वे मनमानी न कर सकें। इसके लिए शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी आवश्यक है।

दिल्ली में बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन के बाद उनसे हुए समझौते के अनुसार यह पहली बार संभव हुआ कि किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के लोगों का सीधा हस्तक्षेप स्वीकार किया गया। स्थानीय स्तर पर भी इस पहल को दुहराया जा सकता है और स्थानीय स्वशासन के मामलों में जनता के प्रतिनिधियों की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है। पश्चिम बंगाल की ममता सरकार की यह घोषित नीति है कि हर फैसले में जनता की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाएगा। भविष्य ही बताएगा कि पश्चिम बंगाल में भी यह नीति किस हद तक लागू हो पाती है और नौकरशाही इसे कितना सफल होने देती है, पर यदि यह संभव हो पाया तो यह नीति भी एक मिसाल बनेगी।

बाबा अन्ना हज़ारे के दिल्ली के पहले आंदोलन के बाद बाबा रामदेव के नाटक तथा सरकारी रवैये से जन लोकपाल बिल के निर्माण में जनता की भागीदारी के समझौते में फच्चर पड़ गए हैं और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लोकपाल बिल के सरकारी प्रारूप को स्वीकृति दे दी है। सरकार और अन्य राजनीतिक दलों के व्यवहार से यह प्रतीत होता है कि भविष्य में किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के प्रतिनिधियों को भी शामिल किये जाने की संभावनाएं धूमिल हो गई हैं। परंतु यदि यह प्रक्रिया जारी रहती और अन्य कानूनों के निर्माण के समय भी कानूनों को ज्य़ादा व्यावहारिक बनाने के लिए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ जनता के अन्य नुमांइदों की भी राय लिये जाने की प्रक्रिया को जारी रखा जाता तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना तथा लोकतंत्र में लोक की सत्ता स्थापति करना संभव हो जाता। अभी हम संसद की संप्रभुता के नियम पर चल रहे हैं। लेकिन यदि संसद की संप्रभुता के नियम को बदल कर या उसमें कुछ ढील देकर समाज के चुनिंदा लोगों की भागीदारी करनी हो तो भी हमें कई अन्य मुद्दों पर विचार करना होगा।

मान लीजिए कि कभी कोई स्थिति विस्फोटक रुख अख्तियार कर ले, दंगे हो जाएं और कई जानें चली जाएं तो जवाबदेही किसकी होगी ? चुने हुए जनप्रतिनिधियों की या समाजसेवी लोगों की? क्या यह आशंका गलत है कि अब कोई अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति भूख हड़ताल की धमकी देकर सरकार को सचमुच ब्लैकमेल ही करने पर नहीं उतर आयेगा ? मान लीजिए यदि श्री अन्ना हज़ारे के समर्थन वाला जन लोकपाल बिल बन गया और उसकी वजह से समस्याएं आईं तो हम जवाबतलबी किससे करेंगे ? अत: जनता की भागीदारी की एक सुनिश्चित सीमा और व्याख्या होनी चाहिए ताकि भविष्य में कभी अराजकता की स्थिति न बने। आज स्थिति दूसरी है। भ्रष्टाचार अंतहीन हो जाने की वजह से देश परेशान है और सरकार भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं लग रही है। यह एक विशिष्ट स्थिति है। इसमें श्री अन्ना हज़ारे की दखलअंदाज़ी का देश भर ने स्वागत किया है। परंतु यह सच है कि हमें सोच-समझ कर तय करना होगा कि सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का स्वरूप क्या हो ? ऐसा अभी ही किया जाना आवश्यक है ताकि बाद में कभी इस नीति के कारण अव्यवस्था अथवा अराजकता की स्थिति न बन सके। 


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स्वतंत्रता की समग्र क्रांति :: Swatantrata Ki Samagra Kranti









स्वतंत्रता की समग्र क्रांति :: Swatantrata Ki Samagra Kranti

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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स्वतंत्रता की समग्र क्रांति
 पी. के. खुराना


रामराज्य वह अकेला शब्द है जो शायद हमारे सपनों के भारत की समग्र व्याख्या प्रस्तुत करता है। रामराज्य को किसी धर्म विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता। किसी एक धर्म अथवा किसी एक राजनीतिक दल से जुड़ कर कई बार अच्छे विचार भी अपना अर्थ खो बैठते हैं। मैं न किसी एक धर्म का पक्षधर हूं और न ही किसी धर्म विशेष से जुड़े किसी राजनीतिक दल का समर्थक। रामराज्य एक दर्शन, एक व्यवस्था और एक शासन प्रणाली का प्रतीक है, जिसे लगभग हर भारतीय समझता है। अत: एक आदर्श भारत की व्यवस्था की व्याख्या के लिए मैं 'रामराज्य’ शब्द का प्रयोग कर रहा हूं। मेरा आशय सिर्फ इतना है कि भारत की पूरी व्यवस्था ऐसी हो जिसकी तुलना 'रामराज्य’ से की जा सके।

सन् 1974 में लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का नारा दिया था और एक आदर्श शासन व्यवस्था की कल्पना की थी। परिणामस्वरूप जनता पार्टी का जन्म हुआ लेकिन दुर्भाग्यवश जनता पार्टी ने जय प्रकाश नारायण के आदर्शों को शीघ्र ही दरकिनार कर दिया। आंध्र प्रदेश में भगवान की तरह पूजे जाने वाले स्व. एन. टी. रामराव ने आदर्श शासन व्यवस्था की लहर पर सवार होकर कांग्रेस को धूल चटा दी लेकिन एक शासक के रूप में वे भी अन्य शासकों से अलग साबित नहीं हुए। बाद में केंद्र में स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार और उनके दल का हाल भी वही हुआ। प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री बने रहने के लिए उन्होंने आरक्षण का पिटारा खोला और समाज के दो हिस्सों के बीच ऐसी गहरी खाई बना दी जिसे पाटना आज तक संभव नहीं हो पाया है।

अब हम गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों का आंदोलन देख रहे हैं। बाबा अन्ना हज़ारे का आंदोलन ठुस्स करने के लिए सभी राजनीतिक दल एक हो गए हैं। यहां तक कि बाबा रामदेव के कारण भी इस आंदोलन को क्षति हुई है। लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि यदि यह आंदोलन सफल हो जाए तो हम इस से किन परिणामों की उम्मीद करते हैं ? हमारा उद्देश्य और कार्य-योजना दोनों स्पष्ट होने चाहिएं अन्यथा या तो यह आंदोलन असफल हो जाएगा या इससे मिली सफलता दीर्घजीवी नहीं होगी अथवा सफलता का रूप वह नहीं होगा, जिसके लिए आंदोलन किया जा रहा है।

यह सच है कि हम एक स्वतंत्र और प्रभुसत्तासंपन्न गणराज्य के रूप में अपने आंतरिक एवं बाह्य मामलों में अपनी इच्छा से निर्णय लेते हैं। देश की जनता को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि जनता की यह स्वतंत्रता अभी अधूरी है। ज्य़ादातर मामलों में आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता मज़ाक बन कर रह जाती है और गरीबों और वंचितों का शोषण आम बात है। एक विद्वान ने कहा है कि दुनिया में सिर्फ दो जातियां हैं, एक अमीर और दूसरी गरीब। हमारा दुर्भाग्य यह है कि सारी प्रगति और सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बन जाने के बावजूद हम अभी गरीब देशों में शुमार हैं और हमारे देश की जनता का एक बड़ा भाग सचमुच गरीब है। यह बड़ी चिंता का विषय है।

देश का समग्र विकास तभी संभव है जब देश के सभी नागरिक खुशहाल हों। खुशहाली यदि एक छोटे से वर्ग तक सीमित रह जाए तो वह असली विकास नहीं है। अभी भी विकास का प्रवाह सब ओर नहीं हो रहा है तो इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि वंचितों और गरीबों को आरक्षण, स्कूल-कॉलेजों में फीस में माफी, नौकरी में प्राथमिकता जैसे लॉलीपॉप तो दिये जाते हैं पर उनकी गरीबी दूर करने के लिए उन्हें मानसिक धरातल पर शिक्षित करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। किसी भूखे को भोजन खिलाना ही काफी नहीं है। उसे भोजन कमाने के काबिल बनाना ज्यादा जरूरी है, और अब उससे भी एक कदम आगे बढ़कर उसे इस काबिल बनाना ज्यादा जरूरी है कि वह न केवल स्वयं के लिए भोजन कमा सके बल्कि अपने आसपास के समुदाय को भी भोजन कमाने के काबिल बना सके। यही कारण है कि कि गरीबी से लड़ाई के साथ-साथ गरीबी की मानसिकता से भी लडऩा आवश्यक है ताकि देश के विकास की राह में रोड़े अटकाने वाली बाधाओं को दूर किया जाए और विकास की राह पर तेज़ी से बढ़ा जाए।

लड़ाई में गिरना हार नहीं है, गिर कर न उठना हार है। गरीबी की मानसिकता उस हताशा का प्रतीक है जब व्यक्ति गिर जाने पर दोबारा उठने की हिम्मत नहीं करता। गरीबी दूर करना हमारी एक बड़ी चुनौती है, पर गरीबी की मानसिकता उससे भी बड़ी समस्या है। गरीबी की मानसिकता के दुष्प्रभावों को समझे बिना गरीबी के विरुद्ध लड़ाई संभव ही नहीं है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बदलते जमाने की समस्याएं भी नई हैं और उनके समाधान भी पुराने तरीकों से संभव नहीं है।

हमें समझना होगा कि आदर्श शासन व्यवस्था के आवश्यक घटक क्या हैं और फिर उन्हें पाने के लिए एक समग्र कार्ययोजना बनाकर उस पर अमल करना होगा तभी रामराज्य का हमारा सपना सच हो सकेगा वरना अलग-अलग समय पर आंदोलन होते रहेंगे। कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन भी हो जाएंगे। यहां तक कि कभी-कभार शासन व्यवस्था भी बदलेगी पर उसके परिणाम कुछ भी नहीं होंगे।

तो आइये, हमारे सपनों के भारत की आदर्श व्यवस्था के आवश्यक घटकों पर विचार करें। सबसे पहले देश में सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से रोज़गार के नये अवसरों के सृजन की आवश्यकता है ताकि गरीबी दूर की जा सके। समृद्धि को स्थाई बनाने के लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो विद्यार्थियों को रोज़गार और स्व-रोज़गार दोनों के योग्य बनाए, नागरिकों को उनके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक और संवदेनशील बनाए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आरंभ से ही विद्यार्थियों में स्वास्थ्य के प्रति आवश्यक जागरूकता लाए और हमारी शिक्षा व्यवस्था देश को स्वस्थ और खुशहाल नागरिक दे। कर-प्रणाली न्यायसंगत हो और कर-प्रणाली के दोषों के कारण लोगों को काले धन की व्यवस्था का हिस्सा न बनना पड़े। राजनीतिक एवं आर्थिक विकास के साथ-साथ संवेदनशील मानसिकता का विकास भी हो ताकि हम अत्यधिक लालच में पड़कर अपने ही साधनों और संसाधनों का दुरुपयोग न करें, विकास के साथ सुरक्षा भी सुनिश्चित हो। शासन व्यवस्था में जनता की भागीदारी हो ताकि शासक निरंकुश न हो जाएं और भ्रष्टाचार पर लगाम लग सके। यदि हम ऐसा कर सके तो हमारी स्वतंत्रता सचमुच सार्थक होकर देश के समग्र विकास में सहायक होगी। यह स्वतंत्रता की समग्र क्रांति होगी जो सब के लिए उपयोगी और मंगलकारी होगी। 


Public Participation in Governance and Decision Making, Good Governance, Civil Society, Black Money, Education System, Grievance Redressal, “Alternative Journalism”, Pioneering Alternative Journalism in India, Alternative Journalism and PK Khurana, Compassionate Capitalism.

Sunday, July 24, 2011

स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं :: Swasthya, Swachchhta Aur Mahilayen

स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं :: Swasthya, Swachchhta Aur Mahilayen


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Please write to me at :
pkk@lifekingsize.com

स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं
 पी. के. खुराना


सब जानते हैं कि पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक अलग ही रंग दे दिया। भारतीय संसद अभी तक महिला आरक्षण के बारे में अनिश्चित है, भारतीय समाज इस समस्या से अनजान है और भारतीय मीडिया के लिए यह एक फैशनेबल मुद्दा मात्र है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मीडिया में महिला आरक्षण, पुरुषों द्वारा महिलाओं के शोषण और महिला अधिकारों की बात की जाती है। कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, सेमिनार होते हैं, जुलूस-जलसे होते हैं, संसद में शोर मचता है, खबरें छपती हैं और फिर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को भूलकर अगले किसी 'दिवस’ की तैयारी में मशगूल हो जाते हैं। इन सब से परे हटकर मैंने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैंने महिलाओं से संबंधित एक महत्वूपर्ण मुद्दा उठाया था, जिसे अक्सर अनजाने में उपेक्षित कर दिया जाता है।

यह सच है कि महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला अधिकारों पर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता प्राप्त की है। इसके अलावा कामकाजी महिलाओं की संख्या न केवल बढ़ी है बल्कि बहुत सी सफल महिलाओं ने इतना नाम कमाया है कि वे पुरुषों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी हैं। परंतु भारतीय समाज में हम महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मन:स्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में बात ही नहीं करते। सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या हो, या माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल का मुद्दा हो, पुरुष इससे अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां बहनें या पुत्रियां अपने भाइयों और पिता को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में बहुत से पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन अभी भारतीय समाज और शिक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं बन पाया है, यही कारण है कि इस बारे में बात भी नहीं की जाती।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 2008 को अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष घोषित किया था। स्वच्छ रहने के लिए साफ पानी की उपलब्धता अत्यंत आवश्यक है और स्वच्छता, पानी की उपलब्धता से जुड़ा हुआ मुद्दा है। विश्व भर में लगभग 2 अरब 60 करोड़ लोगों को स्वच्छता संबंधी मूल सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सन् 2008 को अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष घोषित करने के पीछे उद्देश्य यह था कि लोगों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए और सन् 2015 तक स्वच्छता संबंधी सुविधाओं से वंचित लोगों की संख्या आधी की जा सके। संयुक्त राष्ट्र संघ इस सहस्राब्दि में विकास के जिन लक्ष्यों की पूर्ति चाहता है, यह उसका एक महत्वपूर्ण भाग है।

महंगाई, बीमारी, संघर्ष और प्राकृतिक व अन्य आपदाओं से त्रस्त गरीबों के लिए स्वच्छता सचमुच एक बड़ी चुनौती है। तरह-तरह की सरकारी घोषणाओं और सामाजिक कार्यकलापों के बावजूद भारतवर्ष में पानी और सफाई दो बड़े मुद्दे हैं। अभी केवल एक तिहाई भारतीय ही स्वच्छ लोगों की गिनती में आते हैं। देश के बहुत से क्षेत्रों में टायलेट न होना स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है और यहां तक कि शहरों में भी खुले में शौच जाने की विवशता एक आम बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सन् 2002 के एक सर्वे में कहा था कि भारतवर्ष में हर वर्ष लगभग सात लाख लोग दस्त से मरते हैं। दूसरी ओर, हरियाणा के जिला कुरुक्षेत्र के एक छोटे से गांव में भी किफायती टायलेट का प्रबंध है, जिनके कारण वहां खुले में शौच की विवशता समाप्त हो गई है। यह उन ग्रामीण महिलाओं के लिए बड़ी राहत की बात है जिन्हें अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो सुबह-सवेरे या फिर सांझ गए घर से निकलना पड़ता था।

मीडिया में भी इस विषय पर ज्य़ादा चर्चा नहीं होती और यह माना जाता है कि इस बारे में लिखना सिर्फ उन पत्रकारों का काम है जो विकास अथवा पर्यावरण संबंधी मामलों पर लिखते हैं, हालांकि यह एक ऐसा मुद्दा है जो मानव मात्र से जुड़ा हुआ है। सरकार स्वास्थ्य योजनाओं पर हर साल अरबों रुपये खर्च कर डालती है लेकिन पानी और सफाई के इस मूल मुद्दे पर अभी तक गंभीरता से फोकस नहीं किया गया है, परिणामस्वरूप यह लक्ष्य अभी तक अधूरा है। साफ पानी के अभाव और स्वच्छता से जुड़े मूल नियमों की जानकारी न होने से बहुत से मौतें होती हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। सरकारों और सामाजिक संगठनों को इस के प्रति जागरूक होकर ऐसे कार्यक्रम बनाने होंगे ताकि सफाई के अभाव के कारण असमय मृत्यु से बचा जा सके।

मुझे विश्वास है कि महिला अधिकारों के झंडाबरदार तथा मीडियाकर्मी मिलकर प्रशासन को इस ओर ध्यान देने के लिए आगे आएंगे ताकि फैशन के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के बजाए हम महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर सकें। क्या मीडियाकर्मी पुरुष समाज को इन मुद्दों पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेंगे या हम सिर्फ फैशनेबल मुद्दों तक ही सीमित रह जाएंगे? मैं मानता हूं कि कोई आवश्यक मुद्दा मीडिया के ध्यान में लाया जाए तो मीडिया उसकी उपेक्षा नहीं करता। इसी विश्वास के साथ मैं अपने पुरुष साथियों को यह भी याद दिलाना चाहता हूं कि कई बुनियादी आवश्यकताओं के मामले में पुरुष और स्त्रियां सचमुच इतने भिन्न हैं मानो हम मंगल ग्रह के निवासी हों और महिलाएं शुक्र ग्रह की निवासी हों। मुझे पूरा विश्वास है कि जागरूक भारतीय एवं मीडियाकर्मी स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण के उद्देश्य से जुड़े इस मुद्दे की उपेक्षा नहीं करेंगे। 


International Womens Day, Womens’ Liberation, Womens’ Rights, Sanitation & Health, Water and Sanitation, “Alternative Journalism”, Pioneering Alternative Journalism in India, Alternative Journalism and PK Khurana, Women and Media, Defacation & Hygiene.

Friday, July 22, 2011

खेल, खिलाड़ी और खिलवाड़ :: Khel, Khiladi Aur Khilwad






खेल, खिलाड़ी और खिलवाड़ :: Khel, Khiladi Aur Khilwad


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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pkk@lifekingsize.com

खेल, खिलाड़ी और खिलवाड़
 पी. के. खुराना

देश भर में शर्म और गुस्से की नई लहर उफान पर है। एक के बाद एक, कई खिलाडिय़ों का डोप टेस्ट में दोषी पाया जाना सचमुच शर्म की बात है और देशवासियों का गुस्सा जायज़ है। महिला धावकों मनदीप कौर और सिनी जोस के बाद अश्विनी अकुंजी के भी डोप टेस्ट में 'पाजिटिव’ पाये जाने के बाद इन खिलाडिय़ों का कैरियर बर्बाद होने के कगार पर है। यदि आगे की जांच में भी इन पर प्रतिबंधित दवाएं लेने का आरोप पुष्ट हो जाता है तो ये खिलाड़ी ओलिंपिक खेलों में भाग नहीं ले पायेंगे। इन खिलाडिय़ों ने गत वर्ष चीन में आयोजित एशियन गेम्स तथा नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीत कर भारत का नाम रोशन किया था और अगले वर्ष लंदन ओलिंपिक्स में इन खिलाडिय़ों के पदक लाने की आशा थी। अब यह आशा धूमिल हो गई है।

सन् 2009 में नैशनल एंटी डोपिंग एजेंसी के गठन के बाद कुल 6607 खिलाडिय़ों में से 242 खिलाड़ी दोषी पाये गए हैं। सन् 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों से पहले 12 खिलाडिय़ों को नशीली दवाइयां लेने का दोषी पाया गया था। सन् 2001 से अब तक 25 भारतीय भारोत्तोलकों को दोषी करार दिया जा चुका है और सन् 2006 के राष्ट्रमंडल खेलों में इंडियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन के खिलाडिय़ों के भाग लेने पर रोक लगा दी गई थी। सन् 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में भारी जुर्माना भरने के बाद ही उन्हें खेलों में भाग लेने की अनुमति मिल पाई थी।

यूक्रेनी कोच यूरी ओगोरडनिक की इस स्वीकारोक्ति पर कि महिला धावकों मनदीप, सिनी और अश्विनी को डाइटरी सप्लीमेंट लेने की सलाह उन्होंने ही दी थी, उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने सभी दोषियों के विरुद्ध कार्यवाही का विश्वास दिलाया है, लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि 'सभी दोषियोंÓ की परिभाषा में कौन-कौन आते हैं।

सन् 1958 में भारत को राष्ट्रमंडल खेलों में पहला स्वर्ण पदक दिलाने वाले तथा फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर भारतीय एथलीट मिल्खा सिंह ने हालांकि एक बयान में दोषी कोच और खिलाडिय़ों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के साथ-साथ खिलाडिय़ों को मिले सभी सम्मान और नगद पुरस्कार वापिस लेने की सिफारिश की है, लेकिन धारणाओं और सच में ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जिन्हें अंग्रेज़ी में 'ग्रे एरियाज़’ कहा जाता है, यानी ऐसी स्थितियां जहां स्पष्टता का अभाव है। डोप टेस्ट के सभी पहलुओं की गहराई में जाने पर दोषी करार दिये गए अधिकांश खिलाडिय़ों की कहानी भी कुछ ऐसी ही नज़र आती है।

वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी के महानिदेशक राहुल भटनागर कहते हैं कि उनकी वेबसाइट पर प्रतिबंधित पदार्थों की पूरी सूची है। पर सच यह है कि यह सूची अंग्रेजी में है और वेबसाइट में प्रतिबंधित पदार्थों के वैज्ञानिक नाम दिये गए हैं। डाइटरी सप्लीमेंट एवं दवाइयां बनाने वाली कंपनियों के उत्पाद के नाम उनसे अलग होते हैं। बहुत बार कोई एक प्रतिबंधित पदार्थ 200 से भी अधिक दवाइयों में शामिल हो सकता है और इसकी कोई गारंटी नहीं है कि उस दवाई के पैक पर प्रतिबंधित पदार्थ का नाम भी दिया ही गया हो। वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी की वेबसाइट में भी उन सभी दवाइयों के व्यावसायिक नाम उपलब्ध नहीं हैं जिनमें इन प्रतिबंधित पदार्थों को शामिल किया जाता है। खिलाड़ी की तो बात ही छोडि़ए, कोई एक अकेला डाक्टर भी इनका पूरा रिकार्ड नहीं रख सकता। सच तो यह है कि हमारे देश में बहुत सी चीजें 'जुगाड़’ से चलती हैं। उनके लिए स्पष्ट नियमों और प्रणालियों का विकास नहीं किया गया है और न ही आवश्यक साधन उपलब्ध करवाये गये हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि खिलाडिय़ों के साथ भी ऐसा ही होता है।

पटियाला की नैशनल इंस्टीट्यूट आफ स्पोर्ट्स में खिलाडिय़ों को एंटी-डोपिंग पर तीन चार लेक्चर दिये तो जाते हैं, पर उन्हें समझ पाना अधिकांश खिलाडिय़ों के बस की बात नहीं है। लेक्चर अंग्रेजी में होते हैं जिसे हर खिलाड़ी नहीं समझ पाता। दक्षिणी और उत्तर पूर्वी राज्यों से आने वाले बहुत से खिलाड़ी तो हिंदी भी नहीं समझ पाते। बहुत से खिलाड़ी अधिक शिक्षित नहीं होते। उनसे यह उम्मीद करना गलत है कि वे किसी प्रशिक्षित डाक्टर की तरह प्रतिबंधित पदार्थों की सूची को समझ पायेंगे।

खेल के कैंप में फिजियोथेरापिस्ट, मसाजर, रिकवरी एक्सपर्ट तथा खिलाडिय़ों की आवश्यकतानुरूप विशेषज्ञ डाक्टरों की टीम होनी चाहिए तथा वहां आइस-बाथ का प्रबंध होना चाहिए, तभी आप खिलाडिय़ों को कड़ी मशक्कत वाला प्रशिक्षण दे सकते हैं अन्यथा उन्हें एक दिन के प्रशिक्षण के बाद तीन दिन तक के आराम की आवश्यकता पड़ेगी, जो कि व्यावहारिक नहीं है। इन सुविधाओं के अभाव में खिलाड़ी विवश होकर अन्य वरिष्ठ खिलाडिय़ों, प्रशिक्षकों तथा प्राइवेट डाक्टरों की सलाह पर निर्भर हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में अभी यही स्थिति है। यहां पूरा सिस्टम ही अभावग्रस्त है, उसके बावजूद डोप टेस्ट में असफल होने पर सबसे ज्यादा नुकसान केवल खिलाड़ी का ही होता है।

खेल कोई खिलवाड़ नहीं है। पेशेवर खिलाड़ी बनने के लिए वर्षों की कड़ी मेहनत, साधना और अनुशासन की आवश्यकता होती है। महिला खिलाडिय़ों के लिए तो और भी परेशानियां हैं जहां उनके साथ-साथ उनके मायके और ससुराल सहित उनके पूरे परिवार का बलिदान भी जुड़ा होता है। ऐसा कोई भी खिलाड़ी जान-बूझकर अपने कैरियर को दांव पर नहीं लगाना चाहेगा। जब तक पूरे सिस्टम की खामियों को दूर नहीं किया जाता और अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाई जातीं, खेल मंत्री अजय माकन का यह बयान कोई मायने नहीं रखता कि सभी दोषियों को दंडित किया जाएगा। नियम बनाने के साथ-साथ सुविधाएं उपलब्ध करवाना भी आवश्यक है, अन्यथा जो भी कार्यवाही होगी वह इस बुराई को रोक नहीं पायेगी, परिणामस्वरूप भविष्य में भी देश को शर्मिंदगी होती रहेगी, खिलाडिय़ों के जीवन के साथ खिलवाड़ होता रहेगा और उनके पदक पाने की आशा धूल-धूसरित होती रहेगी। 


Sports, Sportsperson, Sports Academy, Self esteem, “Alternative Journalism”, Pioneering Alternative Journalism in India, Alternative Journalism and PK Khurana, Doping Shame.

Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

शिक्षा, नौकरी और रोज़गार :: Shiksha, Naukari Aur Rozgar





शिक्षा, नौकरी और रोज़गार :: Shiksha, Naukari Aur Rozgar


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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शिक्षा, नौकरी और रोज़गार
 पी. के. खुराना


नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के रोजगार के आंकड़े सामने आते ही विरोधी दलों ने शोर-शराबा शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें शोर मचाने के लिए एक आकर्षक मुद्दा मिल गया है। हालांकि योजना आयोग के मुख्य सलाहकार प्रणब सेन ने कहा है कि सैंपल में खामियां हो सकती हैं और सर्वे के नतीजों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2004-05 से लेकर 2009-10 के बीच यूपीए सरकार की नीतियों से प्रति वर्ष सिर्फ दो लाख रोजगार ही पैदा हुए हैं। एनएसएसओ के ही आकंड़े ये बताते हैं कि एनडीए के शासन यानि 1999-2000 से 2004-05 के बीच एक करोड़ बीस लाख रोजगार पैदा हुए। एनएसएसओ के 2004-05 से लेकर 2009-10 के रोजगार आंकड़ों से जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं, उनमें से एक यह भी है कि देश में 51 फीसदी श्रम शक्ति के पास स्वरोजगार है, यानि उसे सरकारी मशीनरी के जरिये काम नहीं मिला है।

अगर यूपीए के शासनकाल में साल में सिर्फ दो लाख रोजगारों का सृजन सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रमों की सीमा का द्योतक है। यूपीए सरकार के पहले शासनकाल में मनरेगा को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया और इससे साल में सौ दिन रोजगार की गांरटी मिली। लेकिन गरीबी हटाने और रोजगार बढ़ाने के इस कार्यक्रम से असली मकसद नहीं सध रहा है। मनरेगा सिर्फ रोजगार मुहैया करा रहा है इसका सृजन नहीं कर रहा है। इसके अलावा यह कार्यक्रम भ्रष्टाचार का शिकार बन चुका है। परियोजनाओं में काम हो चाहे न हो, सरकार के खजाने से पैसा निकल जाता है और यह उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता है, जिनके लिए यह कार्यक्रम लाया गया था।

विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार नए रोज़गार के सृजन में असमर्थ रही है और यह सरकारी योजनाओं की बड़ी असफलता है। आंकड़ों के आधार पर विपक्ष का आरोप यह भी है कि 15.6 फीसदी स्थायी कर्मचारियों की तुलना में 33.5 फीसदी कर्मचारी कैजुअल हैं। यानी, अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ती जा रही है जिससे बाद में कभी बड़ा श्रमिक असंतोष पैदा हो सकता है। इसी कड़ी का अगला आरोप है कि महिला कर्मचारियों को समान काम के लिए भी अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। सर्वे की यह रिपोर्ट निश्चय ही सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और सरकार फिर से बचाव की मुद्रा में है क्योंकि समावेशी विकास का उसका नारा इस रिपोर्ट से ठुस्स हो कर रह गया है, और सरकार कितनी भी सफाइयां दे ले, विपक्ष के पास उसकी आलोचना के लिए एक तगड़ा मुद्दा हाथ आ गया है।

मीडिया में भी इस रिपोर्ट के विश्लेषण को लेकर तर्क-वितर्क का लंबा सिलसिला चला है। मीडिया के विभिन्न विश्लेषणों के जवाब में भारत के चीफ स्टैटीशियन श्री टीसीए अनंत तथा नैशनल सैंपल सर्वे के एडिशनल डायरेक्टर जनरल श्री राजीव मेहता ने कहा है कि सर्वे की रिपोर्ट का मीडिया का विश्लेषण भ्रामक है। इन दोनों अधिकारियों का तर्क है कि पिछले वर्षों में स्कूल और कालेज जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है। इसके साथ ही उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी अब ज्यादा लंबे समय तक कालेज में रहते हैं जिसके कारण नये रोज़गार में जाने का उनका प्रतिशत घटा है। पंद्रह वर्ष से कम के बच्चों के रोज़गार में जाने के आंकड़ों की प्रशंसा करते हुए ये दोनों अधिकारी इसे इस रूप में परिभाषित करते हैं कि देश में बाल श्रमिकों की संख्या कम हो रही है जो वस्तुत: एक अच्छा संकेत है।

आइये, अब स्थिति के कुछ और पहलओं का भी आकलन करें। सरकारी नौकरियों का एक पहलू यह है कि पिछले कुछ वर्षों से सरकार, सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की नियुक्तियां खुद करने के बजाए काम ठेके पर आबंटित करने लगी है। परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में भी आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो वस्तुत: सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। हमें समझना होगा कि किसी भी सरकार के लिए अंतहीन सरकारी नौकरियों का सृजन संभव नहीं है और देश की पूरी आबादी के लिए सरकारी नौकरियों के सृजन की आशा व्यर्थ है। स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि उदारीकरण के बाद से नए निजी संस्थान स्थापित हुए और उनमें बड़ी संख्या में नए लोगों को रोज़गार मिला। अत: सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिएं जो लोगों को नए उद्यम खोलने और चलाने में सहायक हों ताकि सरकार से इतर भी रोज़गार के अवसर पैदा हो सकें। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि हमारी शिक्षा प्रणाली नए उद्यमियों को जन्म दे सके और उनकी सफलता के लिए आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध करवा सके। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हमारे बिज़नेस स्कूल भी ज्य़ादातर विद्यार्थियों को पेशेवर (प्रोफेशनल) अथवा विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) तो बनाते हैं पर उसका फोकस विद्यार्थियों को उद्यमी (एंटरप्रेन्योर) बनाने की ओर नहीं है। पेशेवर अथवा विशेषज्ञ जब उद्यमी बनते हैं तो वे कई नए लोगों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रोज़गार देते हैं। विभिन्न शिक्षा संस्थानों और व्यावसायिक एवं पेशेवर संगठनों से हाथ मिलाकर सरकार इस काम को बेहतर अंजाम दे सकती है।

देखा गया है कि हमारे शिक्षा संस्थान और उनसे जुड़े अध्यापकगण अपने विद्यार्थियों को उद्यमी बनने की शिक्षा अथवा प्रेरणा नहीं देते। यदि हमारे शिक्षा संस्थान अपनी दृष्टिकोण बदलें तो विद्यार्थियों के सोचने का तरीका बदलेगा और ज्य़ादा से ज्य़ादा विद्यार्थी उद्यमी बनने के विकल्पों की आकर्षित होंगे जिससे बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर अंकुश लगेगा। हमें अब इसी ओर प्रयास करने की आवश्यकता है। रोज़गार का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी ही नहीं है। राजनीति के शोर-शराबे से गुमराह होने के बजाए हमें समस्या के हल की ओर ध्यान देने की जरूरत है। बेरोज़गारी से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि सरकारी नौकरियों के साथ-साथ रोज़गार के अन्य विकल्पों की ओर भी ध्यान दिया जाए और उनके विकास की दिशा में ठोस काम किए जाएं। 

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Public, Legislators and Jan Lok Pal Bill !






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Congress spokesman Manish Tiwari had dubbed Gandhian and anti-corruption crusader Anna Hazare as an “unelected dictator”. The UPA Government and Congress chief Sonia Gandhi seem to agree with Tiwari. However, before we delve into the issue, it is essential to understand the sequence of events that has led the Dr Manmohan Singh government and Congress party to come out so strongly against Hazare.

When Hazare had started his campaign against corruption at Jantar-Mantar, Congress leader Digvijay Singh and Cabinet Minister Kapil Sibal had raised several questions on his protest. Even the government had termed Hazare’s crusade a mockery. However, when the entire nation and the media came out in large numbers to support Hazare, Congress and UPA had to turn around to strike a compromise.

The support that Hazare got from all quarters was so overwhelming and unprecedented that no one, including Anna, had expected it.

Initially, spiritual leaders Baba Ramdev and Sri Sri Ravi Shankar had offered support but only in the form of press statements. But the extraordinary support that Anna got brought Ramdev into the forefront of things – probably because the astute Baba did not want the campaign against corruption, which was originally started by him, to be hijacked by Hazare. He could not let all the credit go to Anna, after all.

Among those who supported Anna right from the beginning include RTI activist Arvind Kejriwal, former super cop Kiran Bedi and veteran Supreme Court lawyer Shashi Bhushan along with his advocate son Prashant Bhushan. The support from these big-wigs became the strong point for Anna’s crusade.

When support started pouring in from various quarters, shrewd politicians were forced to sit up and take notice. Former Chief Minister of Haryana Om Prakash Chautala was the first one who tried to cash in on the campaign that had assumed the proportions of a mass movement. He was soon followed by former Chief Minister of Madhya Pradesh Uma Bharti. But Hazare and his men continued to protest in a peaceful way, keeping politics out of the agenda. They even went a step ahead and dismissed Chautala and Bharti somewhat contemptuously.

As a result, the campaign won accolades from all corners and people’s trust in it was upheld. It was also saved from being a pointless protest against the opposition.

Mass and media support forced the government into a compromise which agreed to include social leaders into the committee set up to frame the draft Lok Pal Bill.

It is often said when the prime ministers of two nations together announce an agreement, it is nothing but a policy decision. Later, senior officials of both the countries together frame an implementation plan which needs to be reviewed repeatedly in order to make it flawless. Similarly, the government’s compromise with Hazare was also a policy announcement and cannot be taken to be the final decision until all provisions are agreed upon by both the sides.

At this juncture, things took a dramatic turn. Baba Ramdev announced his own campaign against corruption. The campaign, clearly, was not non-political, as was being portrayed.

Somehow, with a shrewd play of words, efforts were made to make the masses believe that Hazare’s protest was anti-political while that of Ramdev was non-political. However, the role of Rashtriya Swamsewak Sangh (RSS) and Govindacharya as policy makers of Ramdev’s campaign was clear right from the very beginning.

Yoga guru Ramdev has a huge following across India and cash flowed freely right from the onset for his campaign. All arrangements were five-star. Anna Hazare lent support to Ramdev because the initial aim of both, Ramdev and him, was the same.

To avoid any misinterpretation, Hazare offered support to Ramdev but the latter’s list of demands was so long and ambiguous that it threatened to cast its shadow on the achievements of Hazare’s campaign.

How dissimilar both the campaigns were from each other, and how contradicting their aims were, is now clear. Perhaps, both the protests were opposing in nature.

Ramdev’s campaign lost fizz soon after government action against him forced him to flee. At this, the government lost no time in declaring that it would not bow down to pressures from non-elected people and that, the final decision would eventually be of the elected representatives.

The intentions of the UPA Government were as it is not too good. The fate of Ramdev’s campaign added fuel to fire. The government, which was determined to dodge Anna and his supporters, first launched an offensive against the Yoga Guru and later, against the Gandhian Anna.

Congress spokesman Manish Tiwari went a step ahead and dubbed Hazare an “unelected tyrant”. Tiwari perhaps forgot that this was the first time since Independence that the powers were vested in the hands of Congress chief Sonia Gandhi and not at the Centre.

Another noteworthy fact is that not all of Tiwari’s associates in the National Advisory Council (NAC) are elected members. In fact, they are not even accountable to the public. These IAS officers, who have gained entry into the NAC through bureaucracy, behave like ‘super ministers’. Can Tiwari explain what authority these ‘unelected’ people have to pass directions to the country’s elected leaders? And if they are doing so, then why is there objection over inclusion of social representatives in the draft committee of a Bill?

However, we should not ignore the other aspect of the system of public partnership. For example: If a situation turns violent, riots break out and several innocent lives are lost, who will be accountable – elected representatives or social servants? Is the fear unfounded that yet another public figure might adopt the path of hunger strike to blackmail the government into accepting his demands? And in case Anna’s Lok Pal Bill is framed but is fraught with problems, then who will be answerable?

Hence, logically speaking, the extent of public participation should be clearly defined to avoid anarchy-like situation in the times to come.

Today, however, the situation is different. There is widespread corruption in the country and the government is not ready to resolve the issue. This is a peculiar situation. Hence, Anna’s intervention has been wholeheartedly welcomed.

Questions have been raised and fingers have been pointed at Hazare as well but the Ramdev episode drew much flak. The Yoga Guru’s statements and his acts have endangered Hazare’s achievements as well.

It is time to make a wise and carefully thought-over decision as to what degree and form of public participation is required to keep the government’s autocratic activities under check. If a decision in this regard is not made immediately, the nation will have to suffer anarchy in the times to come. 

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Pioneeering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Sportspersons and Doping Shame!




By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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pkk@lifekingsize.com




Failure of the country’s leading athletes in doping test has the nation seething with anger and shame. One after the other, sportspersons are failing the dope test. Like Mandeep Kaur and Sini Jose, Ashwini Akkunji, too, was found to have used anabolic steroids. Unfortunately, the shocking revelation comes with a realisation that perhaps the sporting careers of these athletes are now on the verge of collapse.

In case the athletes are found guilty during further investigations as well, they would not be allowed to participate in the forthcoming Olympics.

It was not very long ago when ‘Golden Girls’ Mandeep Kaur, Sini Jose, Ashwini along with Manjeet Kaur, were the toast of the nation when they won gold in the 2010 Commonwealth Games in New Delhi and later repeated their sterling performance at Asian Games in China. The nation had pinned great hopes on the girls to win glory in London Olympics next year. However, with the doping scandal casting its ugly shadow on the athletes’ names, India’s hopes have dashed yet again.

Since the inception of the National Anti-Doping Agency in 2009, out of a total of 6,607 sportspersons, as many as 242 have been found to be guilty of doping.

In 2010, 12 sportspersons were found guilty of using banned drugs just ahead of the Commonwealth Games at New Delhi.

Shockingly, since 2001, as many as 25 Indian weightlifters have been pronounced guilty of taking banned drugs. The menace was found to be so widespread among Indian sportspersons that members of the Indian Weightlifters’ Federation were barred from Commonwealth Games of 2006. Even during the 2010 Commonwealth Games, the weightlifters were allowed to participate only after paying hefty fines.

Ukrainian coach Yuri Ogorodnik was shown the door after he admitted to have advised Mandeep Kaur, Sini and Ashwini to take dietary supplements. Sports Minister Ajay Maken has assured of stringent action against all accused. However, it remains to be seen who all make it to Maken’s list of “accused”.

Legendary athlete ‘Flying Sikh’ Milkha Singh, gold medallist at the Asian and Commonwealth Games 1958, has said in a statement that along with strict action against the dope cheats, all cash incentives and awards given to them should be taken back as well to serve as a deterrent to other athletes. However, there are many grey areas that lie between perceptions and truth. Classic cases of such grey areas are perhaps the sportspersons who have been pronounced guilty of doping.

According to Rahul Bhatnagar, director, World Anti-Doping Agency, there is a detailed list of banned substances on the agency’s official website. However, fact of the matter is that the list is in English, a language that is alien to numerous Indian sportspersons. Moreover, the website uses scientific names for banned substances, which are very different from the generic names used by the manufacturers of dietary supplements and drugs.

Quite often, a banned substance can be found in over 200 drugs with absolutely no indication of its presence on the packaging of the drug. Even the official website of the National Anti-Doping Agency does not specify the commercial names of drugs in which these banned substances are used. The list is so long that it is almost impossible for even a qualified doctor to keep a record of all the names and expecting the same from a sportsperson would not be fair. The loopholes in the system make sportspersons fall prey to them.

At National Institute of Sports, Patiala, sportspersons are given special anti-doping lectures. However, with English as the medium of instruction, the lectures fail to serve the purpose as most of the players are not very well educated. Others come from areas like South and North-East India and do not even understand Hindi. Hence, it is extremely unfair to expect the sportspersons to have a deep understanding of the list of banned substances.

Another important factor is to have a proper team of physiotherapist, masseur, recovery expert and specialist doctors, along with appropriate arrangements for ice-bath for the players. Only then will the sportspersons be able to get proper physical training else they will suffer serious injuries.

Unfortunately, the Indian sports scene is marred by an acute lack of proper facilities for the players. In such scenario, the sportspersons have to depend upon the advice and guidance of senior players, private doctors and experts. And when they fail the dope test, no one, but they themselves, stand to lose.

Sports is no child’s play. It takes years of hard work, dedication and discipline to become a professional sportsperson of repute. It is all the more difficult for women sportspersons who have their own families as well as their husband’s families to take care of. No player intentionally ruins his/ her sporting career.

Sports Minister Ajay Maken should understand that not much can be achieved by giving sweeping statements about punishing dope cheats. There is an urgent need to revamp and reform the Indian sports scene if the sporting fraternity is to be purged of the dope shame which has been haunting the country for ages now. Else, hundreds of sportspersons will continue to fall prey to the loopholes in the system and ruin their sporting careers, bringing shame to their motherland in the bargain. 



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Pioneeering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Sunday, July 3, 2011

Education, Job and Employment : शिक्षा, नौकरी और रोज़गार





Shiksha, Naukari Aur Rozgar : शिक्षा, नौकरी और रोज़गार

By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)


प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

Write to me at :
pkk@lifekingsize.com



शिक्षा, नौकरी और रोज़गार
 पी. के. खुराना

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के रोजगार के आंकड़े सामने आते ही विरोधी दलों ने शोर-शराबा शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें शोर मचाने के लिए एक आकर्षक मुद्दा मिल गया है। हालांकि योजना आयोग के मुख्य सलाहकार प्रणब सेन ने कहा है कि सैंपल में खामियां हो सकती हैं और सर्वे के नतीजों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2004-05 से लेकर 2009-10 के बीच यूपीए सरकार की नीतियों से प्रति वर्ष सिर्फ दो लाख रोजगार ही पैदा हुए हैं। एनएसएसओ के ही आकंड़े ये बताते हैं कि एनडीए के शासन यानि 1999-2000 से 2004-05 के बीच एक करोड़ बीस लाख रोजगार पैदा हुए। एनएसएसओ के 2004-05 से लेकर 2009-10 के रोजगार आंकड़ों से जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं, उनमें से एक यह भी है कि देश में 51 फीसदी श्रम शक्ति के पास स्वरोजगार है, यानि उसे सरकारी मशीनरी के जरिये काम नहीं मिला है।

अगर यूपीए के शासनकाल में साल में सिर्फ दो लाख रोजगारों का सृजन सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रमों की सीमा का द्योतक है। यूपीए सरकार के पहले शासनकाल में मनरेगा को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया और इससे साल में सौ दिन रोजगार की गांरटी मिली। लेकिन गरीबी हटाने और रोजगार बढ़ाने के इस कार्यक्रम से असली मकसद नहीं सध रहा है। मनरेगा सिर्फ रोजगार मुहैया करा रहा है इसका सृजन नहीं कर रहा है। इसके अलावा यह कार्यक्रम भ्रष्टाचार का शिकार बन चुका है। परियोजनाओं में काम हो चाहे न हो, सरकार के खजाने से पैसा निकल जाता है और यह उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता है, जिनके लिए यह कार्यक्रम लाया गया था।

विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार नए रोज़गार के सृजन में असमर्थ रही है और यह सरकारी योजनाओं की बड़ी असफलता है। आंकड़ों के आधार पर विपक्ष का आरोप यह भी है कि 15.6 फीसदी स्थायी कर्मचारियों की तुलना में 33.5 फीसदी कर्मचारी कैजुअल हैं। यानी, अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ती जा रही है जिससे बाद में कभी बड़ा श्रमिक असंतोष पैदा हो सकता है। इसी कड़ी का अगला आरोप है कि महिला कर्मचारियों को समान काम के लिए भी अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। सर्वे की यह रिपोर्ट निश्चय ही सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और सरकार फिर से बचाव की मुद्रा में है क्योंकि समावेशी विकास का उसका नारा इस रिपोर्ट से ठुस्स हो कर रह गया है, और सरकार कितनी भी सफाइयां दे ले, विपक्ष के पास उसकी आलोचना के लिए एक तगड़ा मुद्दा हाथ आ गया है।

मीडिया में भी इस रिपोर्ट के विश्लेषण को लेकर तर्क-वितर्क का लंबा सिलसिला चला है। मीडिया के विभिन्न विश्लेषणों के जवाब में भारत के चीफ स्टैटीशियन श्री टीसीए अनंत तथा नैशनल सैंपल सर्वे के एडिशनल डायरेक्टर जनरल श्री राजीव मेहता ने कहा है कि सर्वे की रिपोर्ट का मीडिया का विश्लेषण भ्रामक है। इन दोनों अधिकारियों का तर्क है कि पिछले वर्षों में स्कूल और कालेज जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है। इसके साथ ही उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी अब ज्यादा लंबे समय तक कालेज में रहते हैं जिसके कारण नये रोज़गार में जाने का उनका प्रतिशत घटा है। पंद्रह वर्ष से कम के बच्चों के रोज़गार में जाने के आंकड़ों की प्रशंसा करते हुए ये दोनों अधिकारी इसे इस रूप में परिभाषित करते हैं कि देश में बाल श्रमिकों की संख्या कम हो रही है जो वस्तुत: एक अच्छा संकेत है।

आइये, अब स्थिति के कुछ और पहलओं का भी आकलन करें। सरकारी नौकरियों का एक पहलू यह है कि पिछले कुछ वर्षों से सरकार, सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की नियुक्तियां खुद करने के बजाए काम ठेके पर आबंटित करने लगी है। परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में भी आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो वस्तुत: सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। हमें समझना होगा कि किसी भी सरकार के लिए अंतहीन सरकारी नौकरियों का सृजन संभव नहीं है और देश की पूरी आबादी के लिए सरकारी नौकरियों के सृजन की आशा व्यर्थ है। स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि उदारीकरण के बाद से नए निजी संस्थान स्थापित हुए और उनमें बड़ी संख्या में नए लोगों को रोज़गार मिला। अत: सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिएं जो लोगों को नए उद्यम खोलने और चलाने में सहायक हों ताकि सरकार से इतर भी रोज़गार के अवसर पैदा हो सकें। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि हमारी शिक्षा प्रणाली नए उद्यमियों को जन्म दे सके और उनकी सफलता के लिए आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध करवा सके। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हमारे बिज़नेस स्कूल भी ज्य़ादातर विद्यार्थियों को पेशेवर (प्रोफेशनल) अथवा विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) तो बनाते हैं पर उसका फोकस विद्यार्थियों को उद्यमी (एंटरप्रेन्योर) बनाने की ओर नहीं है। पेशेवर अथवा विशेषज्ञ जब उद्यमी बनते हैं तो वे कई नए लोगों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रोज़गार देते हैं। विभिन्न शिक्षा संस्थानों और व्यावसायिक एवं पेशेवर संगठनों से हाथ मिलाकर सरकार इस काम को बेहतर अंजाम दे सकती है।

देखा गया है कि हमारे शिक्षा संस्थान और उनसे जुड़े अध्यापकगण अपने विद्यार्थियों को उद्यमी बनने की शिक्षा अथवा प्रेरणा नहीं देते। यदि हमारे शिक्षा संस्थान अपनी दृष्टिकोण बदलें तो विद्यार्थियों के सोचने का तरीका बदलेगा और ज्य़ादा से ज्य़ादा विद्यार्थी उद्यमी बनने के विकल्पों की आकर्षित होंगे जिससे बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर अंकुश लगेगा। हमें अब इसी ओर प्रयास करने की आवश्यकता है। रोज़गार का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी ही नहीं है। राजनीति के शोर-शराबे से गुमराह होने के बजाए हमें समस्या के हल की ओर ध्यान देने की जरूरत है। बेरोज़गारी से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि सरकारी नौकरियों के साथ-साथ रोज़गार के अन्य विकल्पों की ओर भी ध्यान दिया जाए और उनके विकास की दिशा में ठोस काम किए जाएं। 

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Education, Job and Employment : Shiksha, Naukari Aur Rozgar

Sunday, June 26, 2011

Udyog, Vikas Aur Paryavaran : उद्योग, विकास और पर्यावरण





Udyog, Vikas Aur Paryavaran : उद्योग, विकास और पर्यावरण


By : P. K. Khurana

(Pramod Krishna Khurana)
प्रमोद कृष्ण खुराना


उद्योग और पर्यावरण
 पी. के. खुराना


यह एक लंबी बहस है कि उद्योगों से पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है। अभी तक इस पर कोई समग्र और आधिकारिक अध्ययन उपलब्ध नहीं था, क्योंकि इसके लिए आवश्यक कोई दीर्घकालीन आंकड़े ही उपलब्ध नहीं थे। हालांकि अब इस क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई है और कुछ नये और उपयोगी अध्ययन सामने आये हैं। इन अध्ययनों से किसी अंतिम निष्कर्ष पर चाहे न पहुंचा जा सके पर ये एक निश्चित दिशा की ओर इंगित अवश्य करते हैं।

चेन्नई में स्थित इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च का ताज़ा अध्ययन 'एनवायरनमेंटल सस्टेनेबिलिटी इंडेक्स फार इंडियन स्टेट्स’ (भारतीय राज्यों का पर्यावरण स्थिरता सूचकांक) 28 राज्यों की स्थितियों की जांच पड़ताल का नतीजा है। इस अध्ययन में 5 प्रमुख मानक थे। ये हैं, जनसंख्या का दबाव, पर्यावरण पर दबाव, पर्यावरण प्रणालियां, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव तथा पर्यावरण प्रबंधन। इन राज्यों में अध्ययन के समय वायु प्रदूषण, वायु की गुणवत्ता, जल प्रदूषण, कूड़े की उत्पत्ति आदि का भी ध्यान रखा गया।

यह सच है कि आर्थिक प्रगति से किसी राज्य के असली विकास का पूरा चित्रण नहीं हो पाता क्योंकि इसमें पारिस्थितिक और प्राकृतिक संसाधनों पर उसके प्रभाव की चर्चा नहीं होती। राज्य की आर्थिक प्रगति और विकास के विश्लेषण में यदि इन मानकों को भी शामिल कर लिया जाए तो राज्य के वास्तविक विकास को बेहतर समझा जा सकता है। पर्यावरण स्थिरता सूचकांक तय करना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस तरह से राज्य के विकास और पर्यावरण की आवश्यकताओं का विश्लेषण करके प्राथमिकताओं को तय करना आसान हो जाता है। इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च के 'भारतीय राज्यों के पर्यावरण स्थिरता सूचकांकÓ नामक अध्ययन से प्राथमिकताएं तय करने में मदद मिलेगी।

इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने जब भिन्न-भिन्न राज्यों के पर्यावरण स्थिरता सूचकांक का अध्ययन किया तो यह पाया गया कि पर्यावरण स्थिरता सूचकांक के मानकों में मणिपुर सबसे आगे है। मणिपुर के बाद क्रमश: सिक्किम, त्रिपुरा, नागालैंड और मिज़ोरम प्रथम 5 राज्यों में शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ जहां औद्योगीकरण बहुत अधिक है, सातवें स्थान पर है, जबकि पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान सबसे नीचे की पायदानों पर हैं। सतही तौर पर देखने पर ऐसा लगता है कि चंूकि सिक्किम में बड़े उद्योग नहीं हैं, अत: उसका सबसे ऊपर की पायदान पर होना तथा गुजरात जैसे औद्योगिक प्रदेश का सबसे निचली पायदानों में से एक पर होना स्वाभाविक है, पर यदि जरा बारीक विश्लेषण करें तो एक अलग ही तस्वीर उभरती है।

पर्यावरण पर दबाव के मानकों में प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, प्रदूषण, कूड़ा बनना आदि कारक शामिल हैं। इनको ध्यान में रखते हुए यह तय किया जाता है कि किसी राज्य में पर्यावरण की हानि का पैमाना कैसा है। इंस्टीट्यूट आफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट एंड रिसर्च ने 0-100 के पैमाने पर सभी राज्यों के पर्यावरण दृश्य को परखा, इसमें 100 के निकटतम रहने वाले राज्यों में पर्यावरण का सबसे कम नुकसान हुआ है जबकि 0 के निकट आने वाले राज्यों में पर्यावरण का नुकसान सर्वाधिक है। विश्लेषण में मणिपुर को 98, हिमाचल प्रदेश को 82, छत्तीसगढ़ को 77, महाराष्ट्र को 51, गुजरात को 30 और गोवा को 27 अंक मिले हैं।

उपरोक्त अंक तालिका से स्पष्ट है कि गोआ को गुजरात से भी कम अंक मिले जबकि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ को गोवा के मुकाबले में बहुत अधिक अंक मिले। सब जानते हैं कि गोवा की प्रसिद्धि उद्योगों के कारण नहीं है, और महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ जहां औद्योगीकरण बहुत अधिक है, वहां वातावरण का नुकसान गोवा जैसा नहीं है। इस तालिका से यह सिद्ध होता है कि यह आवश्यक नहीं है कि किसी राज्य में पर्यावरण का नुकसान उद्योगों के ही कारण होगा, यानी यह भी आवश्यक नहीं है कि उद्योग पर्यावरण के लिए नुकसानदेह होंगे ही।

इसी प्रकार जब प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण का विश्लेषण किया गया तो यह पाया गया कि गुजरात में यह नुकसान सबसे ज्य़ादा है जबकि महाराष्ट्र में वैसा नहीं है। छत्तीसगढ़ को यहां भी अच्छे नंबर मिले हैं और हिमाचल प्रदेश ने, जहां पिछले कुछ वर्षों में औद्योगीकरण हुआ है, काफी अच्छे नंबर लिये हैं। अत: यह कहना गलत नहीं होगा कि औद्योगीकरण से प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान सीधे जुड़ा हुआ नहीं है, वरना हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ जहां सीमेंट प्लांट भी हैं, प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण में सबसे आगे होता, जबकि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है।

पहाड़ी राज्य होने के कारण उत्तरांचल व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में अक्सर औद्योगीकरण को लेकर पर्यावरण संतुलन तथा प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण की बहस चलती है। लोगों में, और कई बार मीडिया में भी इस बहस को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है क्योंकि लोगों के पास असल विकास या पर्यावरण के नुकसान को मापने का कोई मान्य, वैज्ञानिक अथवा तर्कसंगत तरीका नहीं होता।

कई लोग भिन्न-भिन्न कारणों से औद्योगीकरण के खिलाफ हैं। उनमें से कई कारण वैध हैं, लेकिन बहुत बार या तो किसी निहित स्वार्थ के कारण अथवा अज्ञान और गरीबी की मानसिकता के कारण भी लोग बड़े उद्योगों का विरोध करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि सरकारी नौकरियों का जमाना खत्म हो गया है, कृषि लाभदायक व्यवसाय नहीं रह गया है और विकास के लिए और रोज़गार के नये अवसर पैदा करने के लिए आपको बड़े उद्योगों का सहारा लेना ही पड़ेगा। देश में गरीबी की समस्या को हल करने का एकमात्र तरीका रोज़गार के नये अवसरों को पैदा करना है। इसके लिए उद्यमों की जरूरत है। कृषि क्षेत्र में पहले से ही बहुत कम पगार पर बहुत से लोग लगे हुए हैं, इसलिए आपको मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों में रोज़गार पैदा करना होगा। अत: हमें यह सोचना होगा कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बिना औद्योगीकरण कैसे हो सकता है ताकि रोज़गार के अवसर बढ़ें और देश में समृद्धि आये।

हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और सत्रहवीं सदी की मानसिकता से हम देश का विकास नहीं कर सकते। नई स्थितियों में नई समस्याएं हैं और उनके समाधान भी पुरातनपंथी नहीं हो सकते। यदि हमें गरीबी, अशिक्षा से पार पाना है और देश का विकास करना है तो हमें इस मानसिक यात्रा में भागीदार होना पड़ेगा जहां हम नये विचारों को आत्मसात कर सकें और ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें। 


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