Sunday, July 31, 2011

शासन में जनता की भागीदारी :: Shaasan Main Janata Ki Bhagidari





शासन में जनता की भागीदारी :: Shaasan Main Janata Ki Bhagidari


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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शासन में जनता की भागीदारी

 पी. के. खुराना


भारतीय संविधान की मूल भावना है, 'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी और सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक-कल्याणकारी राज्य बने जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें। क्या यह संभव है कि देश के विकास में नागरिकों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करके देश में सच्चे प्रजातंत्र का माहौल बनाया जाए ? अगर ऐसा हो सका तो यह देश में प्रजातंत्र की मजबूती की दिशा में उठाया गया एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।

लोकतंत्र में तंत्र नहीं, बल्कि 'लोक’ की महत्ता होनी चाहिए। तंत्र का महत्व सिर्फ इतना-सा है कि काम सुचारू रूप से चले, व्यक्ति बदलने से नियम न बदलें, परंतु इसे दुरूह नहीं होना चाहिए और लोक पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जब ऐसा होगा तभी हमारा लोकतंत्र सफल होगा, लेकिन ऐसा होने के लिए हमें अपने आप को बदलना होगा, हर नागरिक को अपने आप को बदलना होगा। यह काम कोई सरकार नहीं कर सकती, प्रशासन नहीं कर सकता, लोग कर सकते हैं। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू में रख सकते हैं।

महत्वपूर्ण यह है कि क्रांति से पहले हमें तय करना होगा कि आखिर हम कैसी क्रांति चाहते हैं? इस क्रांति के परिणाम क्या हों ? इन पर विचार किये बिना हमारी हर क्रांति अर्थहीन होगी।

विश्व भर में अब तक की सभी क्रांतियों का एक ही उद्देश्य रहा है और वह है कि सबको जीवन में चार तरह की स्वतंत्रताएं मिल पायें। वे हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, अभावों से छुटकारा और भय से आज़ादी। भारतवर्ष में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मनपसंद धर्म चुनने, धर्म-निरपेक्ष होने अथवा नास्तिक होने की स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन हमारे देश की जनता के एक बहुत बड़े भाग के लिए अभावों से आज़ादी और भय से आज़ादी अभी एक सपना है। शिक्षा सेवा, सामान्य चिकित्सा सेवा का अभाव, पीने योग्य पानी की समस्या, सफाई का अभाव, रोज़गार की कमी, भूख और कुपोषण आदि समस्याएं, महंगाई, भ्रष्टाचार आदि समस्याएं विकराल हैं और आम आदमी को इनसे राहत की कोई राह नज़र नहीं आती। हमारी अगली कोई भी क्रांति ऐसी होनी चाहिए जो जनता को अभावों और भय से आज़ादी दिलवा सके।

दुर्भाग्यवश, हमारे राजनेताओं के स्वार्थी व्यवहार के कारण प्रशासन तंत्र भी भ्रष्ट हो गया है और चूंकि प्रशासन तंत्र या नौकरशाही इन राजनेताओं से भी ज्य़ादा ताकतवर है, अत: आज नौकरशाही राजनीतिज्ञों से भी ज्यादा भ्रष्ट, निरंकुश और असंवेदनशील हो गई है और जनता की समस्याओं से इसका कोई वास्ता नहीं रह गया है। अत: शासन व्यवस्था में ऐसी संस्थाओं और प्रावधानों का समावेश आवश्यक हो गया है कि अधिकारियों और राजनेताओं पर अंकुश रहे तथा वे मनमानी न कर सकें। इसके लिए शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी आवश्यक है।

दिल्ली में बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन के बाद उनसे हुए समझौते के अनुसार यह पहली बार संभव हुआ कि किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के लोगों का सीधा हस्तक्षेप स्वीकार किया गया। स्थानीय स्तर पर भी इस पहल को दुहराया जा सकता है और स्थानीय स्वशासन के मामलों में जनता के प्रतिनिधियों की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है। पश्चिम बंगाल की ममता सरकार की यह घोषित नीति है कि हर फैसले में जनता की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाएगा। भविष्य ही बताएगा कि पश्चिम बंगाल में भी यह नीति किस हद तक लागू हो पाती है और नौकरशाही इसे कितना सफल होने देती है, पर यदि यह संभव हो पाया तो यह नीति भी एक मिसाल बनेगी।

बाबा अन्ना हज़ारे के दिल्ली के पहले आंदोलन के बाद बाबा रामदेव के नाटक तथा सरकारी रवैये से जन लोकपाल बिल के निर्माण में जनता की भागीदारी के समझौते में फच्चर पड़ गए हैं और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लोकपाल बिल के सरकारी प्रारूप को स्वीकृति दे दी है। सरकार और अन्य राजनीतिक दलों के व्यवहार से यह प्रतीत होता है कि भविष्य में किसी कानून के निर्माण की प्रक्रिया में जनता के प्रतिनिधियों को भी शामिल किये जाने की संभावनाएं धूमिल हो गई हैं। परंतु यदि यह प्रक्रिया जारी रहती और अन्य कानूनों के निर्माण के समय भी कानूनों को ज्य़ादा व्यावहारिक बनाने के लिए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ जनता के अन्य नुमांइदों की भी राय लिये जाने की प्रक्रिया को जारी रखा जाता तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना तथा लोकतंत्र में लोक की सत्ता स्थापति करना संभव हो जाता। अभी हम संसद की संप्रभुता के नियम पर चल रहे हैं। लेकिन यदि संसद की संप्रभुता के नियम को बदल कर या उसमें कुछ ढील देकर समाज के चुनिंदा लोगों की भागीदारी करनी हो तो भी हमें कई अन्य मुद्दों पर विचार करना होगा।

मान लीजिए कि कभी कोई स्थिति विस्फोटक रुख अख्तियार कर ले, दंगे हो जाएं और कई जानें चली जाएं तो जवाबदेही किसकी होगी ? चुने हुए जनप्रतिनिधियों की या समाजसेवी लोगों की? क्या यह आशंका गलत है कि अब कोई अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति भूख हड़ताल की धमकी देकर सरकार को सचमुच ब्लैकमेल ही करने पर नहीं उतर आयेगा ? मान लीजिए यदि श्री अन्ना हज़ारे के समर्थन वाला जन लोकपाल बिल बन गया और उसकी वजह से समस्याएं आईं तो हम जवाबतलबी किससे करेंगे ? अत: जनता की भागीदारी की एक सुनिश्चित सीमा और व्याख्या होनी चाहिए ताकि भविष्य में कभी अराजकता की स्थिति न बने। आज स्थिति दूसरी है। भ्रष्टाचार अंतहीन हो जाने की वजह से देश परेशान है और सरकार भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं लग रही है। यह एक विशिष्ट स्थिति है। इसमें श्री अन्ना हज़ारे की दखलअंदाज़ी का देश भर ने स्वागत किया है। परंतु यह सच है कि हमें सोच-समझ कर तय करना होगा कि सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का स्वरूप क्या हो ? ऐसा अभी ही किया जाना आवश्यक है ताकि बाद में कभी इस नीति के कारण अव्यवस्था अथवा अराजकता की स्थिति न बन सके। 


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स्वतंत्रता की समग्र क्रांति :: Swatantrata Ki Samagra Kranti









स्वतंत्रता की समग्र क्रांति :: Swatantrata Ki Samagra Kranti

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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स्वतंत्रता की समग्र क्रांति
 पी. के. खुराना


रामराज्य वह अकेला शब्द है जो शायद हमारे सपनों के भारत की समग्र व्याख्या प्रस्तुत करता है। रामराज्य को किसी धर्म विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता। किसी एक धर्म अथवा किसी एक राजनीतिक दल से जुड़ कर कई बार अच्छे विचार भी अपना अर्थ खो बैठते हैं। मैं न किसी एक धर्म का पक्षधर हूं और न ही किसी धर्म विशेष से जुड़े किसी राजनीतिक दल का समर्थक। रामराज्य एक दर्शन, एक व्यवस्था और एक शासन प्रणाली का प्रतीक है, जिसे लगभग हर भारतीय समझता है। अत: एक आदर्श भारत की व्यवस्था की व्याख्या के लिए मैं 'रामराज्य’ शब्द का प्रयोग कर रहा हूं। मेरा आशय सिर्फ इतना है कि भारत की पूरी व्यवस्था ऐसी हो जिसकी तुलना 'रामराज्य’ से की जा सके।

सन् 1974 में लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का नारा दिया था और एक आदर्श शासन व्यवस्था की कल्पना की थी। परिणामस्वरूप जनता पार्टी का जन्म हुआ लेकिन दुर्भाग्यवश जनता पार्टी ने जय प्रकाश नारायण के आदर्शों को शीघ्र ही दरकिनार कर दिया। आंध्र प्रदेश में भगवान की तरह पूजे जाने वाले स्व. एन. टी. रामराव ने आदर्श शासन व्यवस्था की लहर पर सवार होकर कांग्रेस को धूल चटा दी लेकिन एक शासक के रूप में वे भी अन्य शासकों से अलग साबित नहीं हुए। बाद में केंद्र में स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार और उनके दल का हाल भी वही हुआ। प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री बने रहने के लिए उन्होंने आरक्षण का पिटारा खोला और समाज के दो हिस्सों के बीच ऐसी गहरी खाई बना दी जिसे पाटना आज तक संभव नहीं हो पाया है।

अब हम गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों का आंदोलन देख रहे हैं। बाबा अन्ना हज़ारे का आंदोलन ठुस्स करने के लिए सभी राजनीतिक दल एक हो गए हैं। यहां तक कि बाबा रामदेव के कारण भी इस आंदोलन को क्षति हुई है। लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि यदि यह आंदोलन सफल हो जाए तो हम इस से किन परिणामों की उम्मीद करते हैं ? हमारा उद्देश्य और कार्य-योजना दोनों स्पष्ट होने चाहिएं अन्यथा या तो यह आंदोलन असफल हो जाएगा या इससे मिली सफलता दीर्घजीवी नहीं होगी अथवा सफलता का रूप वह नहीं होगा, जिसके लिए आंदोलन किया जा रहा है।

यह सच है कि हम एक स्वतंत्र और प्रभुसत्तासंपन्न गणराज्य के रूप में अपने आंतरिक एवं बाह्य मामलों में अपनी इच्छा से निर्णय लेते हैं। देश की जनता को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि जनता की यह स्वतंत्रता अभी अधूरी है। ज्य़ादातर मामलों में आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता मज़ाक बन कर रह जाती है और गरीबों और वंचितों का शोषण आम बात है। एक विद्वान ने कहा है कि दुनिया में सिर्फ दो जातियां हैं, एक अमीर और दूसरी गरीब। हमारा दुर्भाग्य यह है कि सारी प्रगति और सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बन जाने के बावजूद हम अभी गरीब देशों में शुमार हैं और हमारे देश की जनता का एक बड़ा भाग सचमुच गरीब है। यह बड़ी चिंता का विषय है।

देश का समग्र विकास तभी संभव है जब देश के सभी नागरिक खुशहाल हों। खुशहाली यदि एक छोटे से वर्ग तक सीमित रह जाए तो वह असली विकास नहीं है। अभी भी विकास का प्रवाह सब ओर नहीं हो रहा है तो इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि वंचितों और गरीबों को आरक्षण, स्कूल-कॉलेजों में फीस में माफी, नौकरी में प्राथमिकता जैसे लॉलीपॉप तो दिये जाते हैं पर उनकी गरीबी दूर करने के लिए उन्हें मानसिक धरातल पर शिक्षित करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। किसी भूखे को भोजन खिलाना ही काफी नहीं है। उसे भोजन कमाने के काबिल बनाना ज्यादा जरूरी है, और अब उससे भी एक कदम आगे बढ़कर उसे इस काबिल बनाना ज्यादा जरूरी है कि वह न केवल स्वयं के लिए भोजन कमा सके बल्कि अपने आसपास के समुदाय को भी भोजन कमाने के काबिल बना सके। यही कारण है कि कि गरीबी से लड़ाई के साथ-साथ गरीबी की मानसिकता से भी लडऩा आवश्यक है ताकि देश के विकास की राह में रोड़े अटकाने वाली बाधाओं को दूर किया जाए और विकास की राह पर तेज़ी से बढ़ा जाए।

लड़ाई में गिरना हार नहीं है, गिर कर न उठना हार है। गरीबी की मानसिकता उस हताशा का प्रतीक है जब व्यक्ति गिर जाने पर दोबारा उठने की हिम्मत नहीं करता। गरीबी दूर करना हमारी एक बड़ी चुनौती है, पर गरीबी की मानसिकता उससे भी बड़ी समस्या है। गरीबी की मानसिकता के दुष्प्रभावों को समझे बिना गरीबी के विरुद्ध लड़ाई संभव ही नहीं है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बदलते जमाने की समस्याएं भी नई हैं और उनके समाधान भी पुराने तरीकों से संभव नहीं है।

हमें समझना होगा कि आदर्श शासन व्यवस्था के आवश्यक घटक क्या हैं और फिर उन्हें पाने के लिए एक समग्र कार्ययोजना बनाकर उस पर अमल करना होगा तभी रामराज्य का हमारा सपना सच हो सकेगा वरना अलग-अलग समय पर आंदोलन होते रहेंगे। कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन भी हो जाएंगे। यहां तक कि कभी-कभार शासन व्यवस्था भी बदलेगी पर उसके परिणाम कुछ भी नहीं होंगे।

तो आइये, हमारे सपनों के भारत की आदर्श व्यवस्था के आवश्यक घटकों पर विचार करें। सबसे पहले देश में सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से रोज़गार के नये अवसरों के सृजन की आवश्यकता है ताकि गरीबी दूर की जा सके। समृद्धि को स्थाई बनाने के लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो विद्यार्थियों को रोज़गार और स्व-रोज़गार दोनों के योग्य बनाए, नागरिकों को उनके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक और संवदेनशील बनाए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आरंभ से ही विद्यार्थियों में स्वास्थ्य के प्रति आवश्यक जागरूकता लाए और हमारी शिक्षा व्यवस्था देश को स्वस्थ और खुशहाल नागरिक दे। कर-प्रणाली न्यायसंगत हो और कर-प्रणाली के दोषों के कारण लोगों को काले धन की व्यवस्था का हिस्सा न बनना पड़े। राजनीतिक एवं आर्थिक विकास के साथ-साथ संवेदनशील मानसिकता का विकास भी हो ताकि हम अत्यधिक लालच में पड़कर अपने ही साधनों और संसाधनों का दुरुपयोग न करें, विकास के साथ सुरक्षा भी सुनिश्चित हो। शासन व्यवस्था में जनता की भागीदारी हो ताकि शासक निरंकुश न हो जाएं और भ्रष्टाचार पर लगाम लग सके। यदि हम ऐसा कर सके तो हमारी स्वतंत्रता सचमुच सार्थक होकर देश के समग्र विकास में सहायक होगी। यह स्वतंत्रता की समग्र क्रांति होगी जो सब के लिए उपयोगी और मंगलकारी होगी। 


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Sunday, July 24, 2011

स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं :: Swasthya, Swachchhta Aur Mahilayen

स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं :: Swasthya, Swachchhta Aur Mahilayen


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं
 पी. के. खुराना


सब जानते हैं कि पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक अलग ही रंग दे दिया। भारतीय संसद अभी तक महिला आरक्षण के बारे में अनिश्चित है, भारतीय समाज इस समस्या से अनजान है और भारतीय मीडिया के लिए यह एक फैशनेबल मुद्दा मात्र है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मीडिया में महिला आरक्षण, पुरुषों द्वारा महिलाओं के शोषण और महिला अधिकारों की बात की जाती है। कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, सेमिनार होते हैं, जुलूस-जलसे होते हैं, संसद में शोर मचता है, खबरें छपती हैं और फिर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को भूलकर अगले किसी 'दिवस’ की तैयारी में मशगूल हो जाते हैं। इन सब से परे हटकर मैंने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैंने महिलाओं से संबंधित एक महत्वूपर्ण मुद्दा उठाया था, जिसे अक्सर अनजाने में उपेक्षित कर दिया जाता है।

यह सच है कि महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला अधिकारों पर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता प्राप्त की है। इसके अलावा कामकाजी महिलाओं की संख्या न केवल बढ़ी है बल्कि बहुत सी सफल महिलाओं ने इतना नाम कमाया है कि वे पुरुषों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी हैं। परंतु भारतीय समाज में हम महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मन:स्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में बात ही नहीं करते। सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या हो, या माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल का मुद्दा हो, पुरुष इससे अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां बहनें या पुत्रियां अपने भाइयों और पिता को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में बहुत से पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन अभी भारतीय समाज और शिक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं बन पाया है, यही कारण है कि इस बारे में बात भी नहीं की जाती।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 2008 को अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष घोषित किया था। स्वच्छ रहने के लिए साफ पानी की उपलब्धता अत्यंत आवश्यक है और स्वच्छता, पानी की उपलब्धता से जुड़ा हुआ मुद्दा है। विश्व भर में लगभग 2 अरब 60 करोड़ लोगों को स्वच्छता संबंधी मूल सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सन् 2008 को अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष घोषित करने के पीछे उद्देश्य यह था कि लोगों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए और सन् 2015 तक स्वच्छता संबंधी सुविधाओं से वंचित लोगों की संख्या आधी की जा सके। संयुक्त राष्ट्र संघ इस सहस्राब्दि में विकास के जिन लक्ष्यों की पूर्ति चाहता है, यह उसका एक महत्वपूर्ण भाग है।

महंगाई, बीमारी, संघर्ष और प्राकृतिक व अन्य आपदाओं से त्रस्त गरीबों के लिए स्वच्छता सचमुच एक बड़ी चुनौती है। तरह-तरह की सरकारी घोषणाओं और सामाजिक कार्यकलापों के बावजूद भारतवर्ष में पानी और सफाई दो बड़े मुद्दे हैं। अभी केवल एक तिहाई भारतीय ही स्वच्छ लोगों की गिनती में आते हैं। देश के बहुत से क्षेत्रों में टायलेट न होना स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है और यहां तक कि शहरों में भी खुले में शौच जाने की विवशता एक आम बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सन् 2002 के एक सर्वे में कहा था कि भारतवर्ष में हर वर्ष लगभग सात लाख लोग दस्त से मरते हैं। दूसरी ओर, हरियाणा के जिला कुरुक्षेत्र के एक छोटे से गांव में भी किफायती टायलेट का प्रबंध है, जिनके कारण वहां खुले में शौच की विवशता समाप्त हो गई है। यह उन ग्रामीण महिलाओं के लिए बड़ी राहत की बात है जिन्हें अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो सुबह-सवेरे या फिर सांझ गए घर से निकलना पड़ता था।

मीडिया में भी इस विषय पर ज्य़ादा चर्चा नहीं होती और यह माना जाता है कि इस बारे में लिखना सिर्फ उन पत्रकारों का काम है जो विकास अथवा पर्यावरण संबंधी मामलों पर लिखते हैं, हालांकि यह एक ऐसा मुद्दा है जो मानव मात्र से जुड़ा हुआ है। सरकार स्वास्थ्य योजनाओं पर हर साल अरबों रुपये खर्च कर डालती है लेकिन पानी और सफाई के इस मूल मुद्दे पर अभी तक गंभीरता से फोकस नहीं किया गया है, परिणामस्वरूप यह लक्ष्य अभी तक अधूरा है। साफ पानी के अभाव और स्वच्छता से जुड़े मूल नियमों की जानकारी न होने से बहुत से मौतें होती हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। सरकारों और सामाजिक संगठनों को इस के प्रति जागरूक होकर ऐसे कार्यक्रम बनाने होंगे ताकि सफाई के अभाव के कारण असमय मृत्यु से बचा जा सके।

मुझे विश्वास है कि महिला अधिकारों के झंडाबरदार तथा मीडियाकर्मी मिलकर प्रशासन को इस ओर ध्यान देने के लिए आगे आएंगे ताकि फैशन के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के बजाए हम महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर सकें। क्या मीडियाकर्मी पुरुष समाज को इन मुद्दों पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेंगे या हम सिर्फ फैशनेबल मुद्दों तक ही सीमित रह जाएंगे? मैं मानता हूं कि कोई आवश्यक मुद्दा मीडिया के ध्यान में लाया जाए तो मीडिया उसकी उपेक्षा नहीं करता। इसी विश्वास के साथ मैं अपने पुरुष साथियों को यह भी याद दिलाना चाहता हूं कि कई बुनियादी आवश्यकताओं के मामले में पुरुष और स्त्रियां सचमुच इतने भिन्न हैं मानो हम मंगल ग्रह के निवासी हों और महिलाएं शुक्र ग्रह की निवासी हों। मुझे पूरा विश्वास है कि जागरूक भारतीय एवं मीडियाकर्मी स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण के उद्देश्य से जुड़े इस मुद्दे की उपेक्षा नहीं करेंगे। 


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Friday, July 22, 2011

खेल, खिलाड़ी और खिलवाड़ :: Khel, Khiladi Aur Khilwad






खेल, खिलाड़ी और खिलवाड़ :: Khel, Khiladi Aur Khilwad


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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खेल, खिलाड़ी और खिलवाड़
 पी. के. खुराना

देश भर में शर्म और गुस्से की नई लहर उफान पर है। एक के बाद एक, कई खिलाडिय़ों का डोप टेस्ट में दोषी पाया जाना सचमुच शर्म की बात है और देशवासियों का गुस्सा जायज़ है। महिला धावकों मनदीप कौर और सिनी जोस के बाद अश्विनी अकुंजी के भी डोप टेस्ट में 'पाजिटिव’ पाये जाने के बाद इन खिलाडिय़ों का कैरियर बर्बाद होने के कगार पर है। यदि आगे की जांच में भी इन पर प्रतिबंधित दवाएं लेने का आरोप पुष्ट हो जाता है तो ये खिलाड़ी ओलिंपिक खेलों में भाग नहीं ले पायेंगे। इन खिलाडिय़ों ने गत वर्ष चीन में आयोजित एशियन गेम्स तथा नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीत कर भारत का नाम रोशन किया था और अगले वर्ष लंदन ओलिंपिक्स में इन खिलाडिय़ों के पदक लाने की आशा थी। अब यह आशा धूमिल हो गई है।

सन् 2009 में नैशनल एंटी डोपिंग एजेंसी के गठन के बाद कुल 6607 खिलाडिय़ों में से 242 खिलाड़ी दोषी पाये गए हैं। सन् 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों से पहले 12 खिलाडिय़ों को नशीली दवाइयां लेने का दोषी पाया गया था। सन् 2001 से अब तक 25 भारतीय भारोत्तोलकों को दोषी करार दिया जा चुका है और सन् 2006 के राष्ट्रमंडल खेलों में इंडियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन के खिलाडिय़ों के भाग लेने पर रोक लगा दी गई थी। सन् 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में भारी जुर्माना भरने के बाद ही उन्हें खेलों में भाग लेने की अनुमति मिल पाई थी।

यूक्रेनी कोच यूरी ओगोरडनिक की इस स्वीकारोक्ति पर कि महिला धावकों मनदीप, सिनी और अश्विनी को डाइटरी सप्लीमेंट लेने की सलाह उन्होंने ही दी थी, उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने सभी दोषियों के विरुद्ध कार्यवाही का विश्वास दिलाया है, लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि 'सभी दोषियोंÓ की परिभाषा में कौन-कौन आते हैं।

सन् 1958 में भारत को राष्ट्रमंडल खेलों में पहला स्वर्ण पदक दिलाने वाले तथा फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर भारतीय एथलीट मिल्खा सिंह ने हालांकि एक बयान में दोषी कोच और खिलाडिय़ों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के साथ-साथ खिलाडिय़ों को मिले सभी सम्मान और नगद पुरस्कार वापिस लेने की सिफारिश की है, लेकिन धारणाओं और सच में ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं जिन्हें अंग्रेज़ी में 'ग्रे एरियाज़’ कहा जाता है, यानी ऐसी स्थितियां जहां स्पष्टता का अभाव है। डोप टेस्ट के सभी पहलुओं की गहराई में जाने पर दोषी करार दिये गए अधिकांश खिलाडिय़ों की कहानी भी कुछ ऐसी ही नज़र आती है।

वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी के महानिदेशक राहुल भटनागर कहते हैं कि उनकी वेबसाइट पर प्रतिबंधित पदार्थों की पूरी सूची है। पर सच यह है कि यह सूची अंग्रेजी में है और वेबसाइट में प्रतिबंधित पदार्थों के वैज्ञानिक नाम दिये गए हैं। डाइटरी सप्लीमेंट एवं दवाइयां बनाने वाली कंपनियों के उत्पाद के नाम उनसे अलग होते हैं। बहुत बार कोई एक प्रतिबंधित पदार्थ 200 से भी अधिक दवाइयों में शामिल हो सकता है और इसकी कोई गारंटी नहीं है कि उस दवाई के पैक पर प्रतिबंधित पदार्थ का नाम भी दिया ही गया हो। वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी की वेबसाइट में भी उन सभी दवाइयों के व्यावसायिक नाम उपलब्ध नहीं हैं जिनमें इन प्रतिबंधित पदार्थों को शामिल किया जाता है। खिलाड़ी की तो बात ही छोडि़ए, कोई एक अकेला डाक्टर भी इनका पूरा रिकार्ड नहीं रख सकता। सच तो यह है कि हमारे देश में बहुत सी चीजें 'जुगाड़’ से चलती हैं। उनके लिए स्पष्ट नियमों और प्रणालियों का विकास नहीं किया गया है और न ही आवश्यक साधन उपलब्ध करवाये गये हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि खिलाडिय़ों के साथ भी ऐसा ही होता है।

पटियाला की नैशनल इंस्टीट्यूट आफ स्पोर्ट्स में खिलाडिय़ों को एंटी-डोपिंग पर तीन चार लेक्चर दिये तो जाते हैं, पर उन्हें समझ पाना अधिकांश खिलाडिय़ों के बस की बात नहीं है। लेक्चर अंग्रेजी में होते हैं जिसे हर खिलाड़ी नहीं समझ पाता। दक्षिणी और उत्तर पूर्वी राज्यों से आने वाले बहुत से खिलाड़ी तो हिंदी भी नहीं समझ पाते। बहुत से खिलाड़ी अधिक शिक्षित नहीं होते। उनसे यह उम्मीद करना गलत है कि वे किसी प्रशिक्षित डाक्टर की तरह प्रतिबंधित पदार्थों की सूची को समझ पायेंगे।

खेल के कैंप में फिजियोथेरापिस्ट, मसाजर, रिकवरी एक्सपर्ट तथा खिलाडिय़ों की आवश्यकतानुरूप विशेषज्ञ डाक्टरों की टीम होनी चाहिए तथा वहां आइस-बाथ का प्रबंध होना चाहिए, तभी आप खिलाडिय़ों को कड़ी मशक्कत वाला प्रशिक्षण दे सकते हैं अन्यथा उन्हें एक दिन के प्रशिक्षण के बाद तीन दिन तक के आराम की आवश्यकता पड़ेगी, जो कि व्यावहारिक नहीं है। इन सुविधाओं के अभाव में खिलाड़ी विवश होकर अन्य वरिष्ठ खिलाडिय़ों, प्रशिक्षकों तथा प्राइवेट डाक्टरों की सलाह पर निर्भर हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में अभी यही स्थिति है। यहां पूरा सिस्टम ही अभावग्रस्त है, उसके बावजूद डोप टेस्ट में असफल होने पर सबसे ज्यादा नुकसान केवल खिलाड़ी का ही होता है।

खेल कोई खिलवाड़ नहीं है। पेशेवर खिलाड़ी बनने के लिए वर्षों की कड़ी मेहनत, साधना और अनुशासन की आवश्यकता होती है। महिला खिलाडिय़ों के लिए तो और भी परेशानियां हैं जहां उनके साथ-साथ उनके मायके और ससुराल सहित उनके पूरे परिवार का बलिदान भी जुड़ा होता है। ऐसा कोई भी खिलाड़ी जान-बूझकर अपने कैरियर को दांव पर नहीं लगाना चाहेगा। जब तक पूरे सिस्टम की खामियों को दूर नहीं किया जाता और अपेक्षित सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाई जातीं, खेल मंत्री अजय माकन का यह बयान कोई मायने नहीं रखता कि सभी दोषियों को दंडित किया जाएगा। नियम बनाने के साथ-साथ सुविधाएं उपलब्ध करवाना भी आवश्यक है, अन्यथा जो भी कार्यवाही होगी वह इस बुराई को रोक नहीं पायेगी, परिणामस्वरूप भविष्य में भी देश को शर्मिंदगी होती रहेगी, खिलाडिय़ों के जीवन के साथ खिलवाड़ होता रहेगा और उनके पदक पाने की आशा धूल-धूसरित होती रहेगी। 


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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

शिक्षा, नौकरी और रोज़गार :: Shiksha, Naukari Aur Rozgar





शिक्षा, नौकरी और रोज़गार :: Shiksha, Naukari Aur Rozgar


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PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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शिक्षा, नौकरी और रोज़गार
 पी. के. खुराना


नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के रोजगार के आंकड़े सामने आते ही विरोधी दलों ने शोर-शराबा शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें शोर मचाने के लिए एक आकर्षक मुद्दा मिल गया है। हालांकि योजना आयोग के मुख्य सलाहकार प्रणब सेन ने कहा है कि सैंपल में खामियां हो सकती हैं और सर्वे के नतीजों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2004-05 से लेकर 2009-10 के बीच यूपीए सरकार की नीतियों से प्रति वर्ष सिर्फ दो लाख रोजगार ही पैदा हुए हैं। एनएसएसओ के ही आकंड़े ये बताते हैं कि एनडीए के शासन यानि 1999-2000 से 2004-05 के बीच एक करोड़ बीस लाख रोजगार पैदा हुए। एनएसएसओ के 2004-05 से लेकर 2009-10 के रोजगार आंकड़ों से जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं, उनमें से एक यह भी है कि देश में 51 फीसदी श्रम शक्ति के पास स्वरोजगार है, यानि उसे सरकारी मशीनरी के जरिये काम नहीं मिला है।

अगर यूपीए के शासनकाल में साल में सिर्फ दो लाख रोजगारों का सृजन सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रमों की सीमा का द्योतक है। यूपीए सरकार के पहले शासनकाल में मनरेगा को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया और इससे साल में सौ दिन रोजगार की गांरटी मिली। लेकिन गरीबी हटाने और रोजगार बढ़ाने के इस कार्यक्रम से असली मकसद नहीं सध रहा है। मनरेगा सिर्फ रोजगार मुहैया करा रहा है इसका सृजन नहीं कर रहा है। इसके अलावा यह कार्यक्रम भ्रष्टाचार का शिकार बन चुका है। परियोजनाओं में काम हो चाहे न हो, सरकार के खजाने से पैसा निकल जाता है और यह उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता है, जिनके लिए यह कार्यक्रम लाया गया था।

विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार नए रोज़गार के सृजन में असमर्थ रही है और यह सरकारी योजनाओं की बड़ी असफलता है। आंकड़ों के आधार पर विपक्ष का आरोप यह भी है कि 15.6 फीसदी स्थायी कर्मचारियों की तुलना में 33.5 फीसदी कर्मचारी कैजुअल हैं। यानी, अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ती जा रही है जिससे बाद में कभी बड़ा श्रमिक असंतोष पैदा हो सकता है। इसी कड़ी का अगला आरोप है कि महिला कर्मचारियों को समान काम के लिए भी अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। सर्वे की यह रिपोर्ट निश्चय ही सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और सरकार फिर से बचाव की मुद्रा में है क्योंकि समावेशी विकास का उसका नारा इस रिपोर्ट से ठुस्स हो कर रह गया है, और सरकार कितनी भी सफाइयां दे ले, विपक्ष के पास उसकी आलोचना के लिए एक तगड़ा मुद्दा हाथ आ गया है।

मीडिया में भी इस रिपोर्ट के विश्लेषण को लेकर तर्क-वितर्क का लंबा सिलसिला चला है। मीडिया के विभिन्न विश्लेषणों के जवाब में भारत के चीफ स्टैटीशियन श्री टीसीए अनंत तथा नैशनल सैंपल सर्वे के एडिशनल डायरेक्टर जनरल श्री राजीव मेहता ने कहा है कि सर्वे की रिपोर्ट का मीडिया का विश्लेषण भ्रामक है। इन दोनों अधिकारियों का तर्क है कि पिछले वर्षों में स्कूल और कालेज जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है। इसके साथ ही उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी अब ज्यादा लंबे समय तक कालेज में रहते हैं जिसके कारण नये रोज़गार में जाने का उनका प्रतिशत घटा है। पंद्रह वर्ष से कम के बच्चों के रोज़गार में जाने के आंकड़ों की प्रशंसा करते हुए ये दोनों अधिकारी इसे इस रूप में परिभाषित करते हैं कि देश में बाल श्रमिकों की संख्या कम हो रही है जो वस्तुत: एक अच्छा संकेत है।

आइये, अब स्थिति के कुछ और पहलओं का भी आकलन करें। सरकारी नौकरियों का एक पहलू यह है कि पिछले कुछ वर्षों से सरकार, सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की नियुक्तियां खुद करने के बजाए काम ठेके पर आबंटित करने लगी है। परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में भी आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो वस्तुत: सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। हमें समझना होगा कि किसी भी सरकार के लिए अंतहीन सरकारी नौकरियों का सृजन संभव नहीं है और देश की पूरी आबादी के लिए सरकारी नौकरियों के सृजन की आशा व्यर्थ है। स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि उदारीकरण के बाद से नए निजी संस्थान स्थापित हुए और उनमें बड़ी संख्या में नए लोगों को रोज़गार मिला। अत: सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिएं जो लोगों को नए उद्यम खोलने और चलाने में सहायक हों ताकि सरकार से इतर भी रोज़गार के अवसर पैदा हो सकें। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि हमारी शिक्षा प्रणाली नए उद्यमियों को जन्म दे सके और उनकी सफलता के लिए आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध करवा सके। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हमारे बिज़नेस स्कूल भी ज्य़ादातर विद्यार्थियों को पेशेवर (प्रोफेशनल) अथवा विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) तो बनाते हैं पर उसका फोकस विद्यार्थियों को उद्यमी (एंटरप्रेन्योर) बनाने की ओर नहीं है। पेशेवर अथवा विशेषज्ञ जब उद्यमी बनते हैं तो वे कई नए लोगों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रोज़गार देते हैं। विभिन्न शिक्षा संस्थानों और व्यावसायिक एवं पेशेवर संगठनों से हाथ मिलाकर सरकार इस काम को बेहतर अंजाम दे सकती है।

देखा गया है कि हमारे शिक्षा संस्थान और उनसे जुड़े अध्यापकगण अपने विद्यार्थियों को उद्यमी बनने की शिक्षा अथवा प्रेरणा नहीं देते। यदि हमारे शिक्षा संस्थान अपनी दृष्टिकोण बदलें तो विद्यार्थियों के सोचने का तरीका बदलेगा और ज्य़ादा से ज्य़ादा विद्यार्थी उद्यमी बनने के विकल्पों की आकर्षित होंगे जिससे बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर अंकुश लगेगा। हमें अब इसी ओर प्रयास करने की आवश्यकता है। रोज़गार का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी ही नहीं है। राजनीति के शोर-शराबे से गुमराह होने के बजाए हमें समस्या के हल की ओर ध्यान देने की जरूरत है। बेरोज़गारी से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि सरकारी नौकरियों के साथ-साथ रोज़गार के अन्य विकल्पों की ओर भी ध्यान दिया जाए और उनके विकास की दिशा में ठोस काम किए जाएं। 

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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Public, Legislators and Jan Lok Pal Bill !






By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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Congress spokesman Manish Tiwari had dubbed Gandhian and anti-corruption crusader Anna Hazare as an “unelected dictator”. The UPA Government and Congress chief Sonia Gandhi seem to agree with Tiwari. However, before we delve into the issue, it is essential to understand the sequence of events that has led the Dr Manmohan Singh government and Congress party to come out so strongly against Hazare.

When Hazare had started his campaign against corruption at Jantar-Mantar, Congress leader Digvijay Singh and Cabinet Minister Kapil Sibal had raised several questions on his protest. Even the government had termed Hazare’s crusade a mockery. However, when the entire nation and the media came out in large numbers to support Hazare, Congress and UPA had to turn around to strike a compromise.

The support that Hazare got from all quarters was so overwhelming and unprecedented that no one, including Anna, had expected it.

Initially, spiritual leaders Baba Ramdev and Sri Sri Ravi Shankar had offered support but only in the form of press statements. But the extraordinary support that Anna got brought Ramdev into the forefront of things – probably because the astute Baba did not want the campaign against corruption, which was originally started by him, to be hijacked by Hazare. He could not let all the credit go to Anna, after all.

Among those who supported Anna right from the beginning include RTI activist Arvind Kejriwal, former super cop Kiran Bedi and veteran Supreme Court lawyer Shashi Bhushan along with his advocate son Prashant Bhushan. The support from these big-wigs became the strong point for Anna’s crusade.

When support started pouring in from various quarters, shrewd politicians were forced to sit up and take notice. Former Chief Minister of Haryana Om Prakash Chautala was the first one who tried to cash in on the campaign that had assumed the proportions of a mass movement. He was soon followed by former Chief Minister of Madhya Pradesh Uma Bharti. But Hazare and his men continued to protest in a peaceful way, keeping politics out of the agenda. They even went a step ahead and dismissed Chautala and Bharti somewhat contemptuously.

As a result, the campaign won accolades from all corners and people’s trust in it was upheld. It was also saved from being a pointless protest against the opposition.

Mass and media support forced the government into a compromise which agreed to include social leaders into the committee set up to frame the draft Lok Pal Bill.

It is often said when the prime ministers of two nations together announce an agreement, it is nothing but a policy decision. Later, senior officials of both the countries together frame an implementation plan which needs to be reviewed repeatedly in order to make it flawless. Similarly, the government’s compromise with Hazare was also a policy announcement and cannot be taken to be the final decision until all provisions are agreed upon by both the sides.

At this juncture, things took a dramatic turn. Baba Ramdev announced his own campaign against corruption. The campaign, clearly, was not non-political, as was being portrayed.

Somehow, with a shrewd play of words, efforts were made to make the masses believe that Hazare’s protest was anti-political while that of Ramdev was non-political. However, the role of Rashtriya Swamsewak Sangh (RSS) and Govindacharya as policy makers of Ramdev’s campaign was clear right from the very beginning.

Yoga guru Ramdev has a huge following across India and cash flowed freely right from the onset for his campaign. All arrangements were five-star. Anna Hazare lent support to Ramdev because the initial aim of both, Ramdev and him, was the same.

To avoid any misinterpretation, Hazare offered support to Ramdev but the latter’s list of demands was so long and ambiguous that it threatened to cast its shadow on the achievements of Hazare’s campaign.

How dissimilar both the campaigns were from each other, and how contradicting their aims were, is now clear. Perhaps, both the protests were opposing in nature.

Ramdev’s campaign lost fizz soon after government action against him forced him to flee. At this, the government lost no time in declaring that it would not bow down to pressures from non-elected people and that, the final decision would eventually be of the elected representatives.

The intentions of the UPA Government were as it is not too good. The fate of Ramdev’s campaign added fuel to fire. The government, which was determined to dodge Anna and his supporters, first launched an offensive against the Yoga Guru and later, against the Gandhian Anna.

Congress spokesman Manish Tiwari went a step ahead and dubbed Hazare an “unelected tyrant”. Tiwari perhaps forgot that this was the first time since Independence that the powers were vested in the hands of Congress chief Sonia Gandhi and not at the Centre.

Another noteworthy fact is that not all of Tiwari’s associates in the National Advisory Council (NAC) are elected members. In fact, they are not even accountable to the public. These IAS officers, who have gained entry into the NAC through bureaucracy, behave like ‘super ministers’. Can Tiwari explain what authority these ‘unelected’ people have to pass directions to the country’s elected leaders? And if they are doing so, then why is there objection over inclusion of social representatives in the draft committee of a Bill?

However, we should not ignore the other aspect of the system of public partnership. For example: If a situation turns violent, riots break out and several innocent lives are lost, who will be accountable – elected representatives or social servants? Is the fear unfounded that yet another public figure might adopt the path of hunger strike to blackmail the government into accepting his demands? And in case Anna’s Lok Pal Bill is framed but is fraught with problems, then who will be answerable?

Hence, logically speaking, the extent of public participation should be clearly defined to avoid anarchy-like situation in the times to come.

Today, however, the situation is different. There is widespread corruption in the country and the government is not ready to resolve the issue. This is a peculiar situation. Hence, Anna’s intervention has been wholeheartedly welcomed.

Questions have been raised and fingers have been pointed at Hazare as well but the Ramdev episode drew much flak. The Yoga Guru’s statements and his acts have endangered Hazare’s achievements as well.

It is time to make a wise and carefully thought-over decision as to what degree and form of public participation is required to keep the government’s autocratic activities under check. If a decision in this regard is not made immediately, the nation will have to suffer anarchy in the times to come. 

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Pioneeering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Sportspersons and Doping Shame!




By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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Failure of the country’s leading athletes in doping test has the nation seething with anger and shame. One after the other, sportspersons are failing the dope test. Like Mandeep Kaur and Sini Jose, Ashwini Akkunji, too, was found to have used anabolic steroids. Unfortunately, the shocking revelation comes with a realisation that perhaps the sporting careers of these athletes are now on the verge of collapse.

In case the athletes are found guilty during further investigations as well, they would not be allowed to participate in the forthcoming Olympics.

It was not very long ago when ‘Golden Girls’ Mandeep Kaur, Sini Jose, Ashwini along with Manjeet Kaur, were the toast of the nation when they won gold in the 2010 Commonwealth Games in New Delhi and later repeated their sterling performance at Asian Games in China. The nation had pinned great hopes on the girls to win glory in London Olympics next year. However, with the doping scandal casting its ugly shadow on the athletes’ names, India’s hopes have dashed yet again.

Since the inception of the National Anti-Doping Agency in 2009, out of a total of 6,607 sportspersons, as many as 242 have been found to be guilty of doping.

In 2010, 12 sportspersons were found guilty of using banned drugs just ahead of the Commonwealth Games at New Delhi.

Shockingly, since 2001, as many as 25 Indian weightlifters have been pronounced guilty of taking banned drugs. The menace was found to be so widespread among Indian sportspersons that members of the Indian Weightlifters’ Federation were barred from Commonwealth Games of 2006. Even during the 2010 Commonwealth Games, the weightlifters were allowed to participate only after paying hefty fines.

Ukrainian coach Yuri Ogorodnik was shown the door after he admitted to have advised Mandeep Kaur, Sini and Ashwini to take dietary supplements. Sports Minister Ajay Maken has assured of stringent action against all accused. However, it remains to be seen who all make it to Maken’s list of “accused”.

Legendary athlete ‘Flying Sikh’ Milkha Singh, gold medallist at the Asian and Commonwealth Games 1958, has said in a statement that along with strict action against the dope cheats, all cash incentives and awards given to them should be taken back as well to serve as a deterrent to other athletes. However, there are many grey areas that lie between perceptions and truth. Classic cases of such grey areas are perhaps the sportspersons who have been pronounced guilty of doping.

According to Rahul Bhatnagar, director, World Anti-Doping Agency, there is a detailed list of banned substances on the agency’s official website. However, fact of the matter is that the list is in English, a language that is alien to numerous Indian sportspersons. Moreover, the website uses scientific names for banned substances, which are very different from the generic names used by the manufacturers of dietary supplements and drugs.

Quite often, a banned substance can be found in over 200 drugs with absolutely no indication of its presence on the packaging of the drug. Even the official website of the National Anti-Doping Agency does not specify the commercial names of drugs in which these banned substances are used. The list is so long that it is almost impossible for even a qualified doctor to keep a record of all the names and expecting the same from a sportsperson would not be fair. The loopholes in the system make sportspersons fall prey to them.

At National Institute of Sports, Patiala, sportspersons are given special anti-doping lectures. However, with English as the medium of instruction, the lectures fail to serve the purpose as most of the players are not very well educated. Others come from areas like South and North-East India and do not even understand Hindi. Hence, it is extremely unfair to expect the sportspersons to have a deep understanding of the list of banned substances.

Another important factor is to have a proper team of physiotherapist, masseur, recovery expert and specialist doctors, along with appropriate arrangements for ice-bath for the players. Only then will the sportspersons be able to get proper physical training else they will suffer serious injuries.

Unfortunately, the Indian sports scene is marred by an acute lack of proper facilities for the players. In such scenario, the sportspersons have to depend upon the advice and guidance of senior players, private doctors and experts. And when they fail the dope test, no one, but they themselves, stand to lose.

Sports is no child’s play. It takes years of hard work, dedication and discipline to become a professional sportsperson of repute. It is all the more difficult for women sportspersons who have their own families as well as their husband’s families to take care of. No player intentionally ruins his/ her sporting career.

Sports Minister Ajay Maken should understand that not much can be achieved by giving sweeping statements about punishing dope cheats. There is an urgent need to revamp and reform the Indian sports scene if the sporting fraternity is to be purged of the dope shame which has been haunting the country for ages now. Else, hundreds of sportspersons will continue to fall prey to the loopholes in the system and ruin their sporting careers, bringing shame to their motherland in the bargain. 



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Pioneeering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Sunday, July 3, 2011

Education, Job and Employment : शिक्षा, नौकरी और रोज़गार





Shiksha, Naukari Aur Rozgar : शिक्षा, नौकरी और रोज़गार

By : P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)


प्रमोद कृष्ण खुराना

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शिक्षा, नौकरी और रोज़गार
 पी. के. खुराना

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के रोजगार के आंकड़े सामने आते ही विरोधी दलों ने शोर-शराबा शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें शोर मचाने के लिए एक आकर्षक मुद्दा मिल गया है। हालांकि योजना आयोग के मुख्य सलाहकार प्रणब सेन ने कहा है कि सैंपल में खामियां हो सकती हैं और सर्वे के नतीजों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2004-05 से लेकर 2009-10 के बीच यूपीए सरकार की नीतियों से प्रति वर्ष सिर्फ दो लाख रोजगार ही पैदा हुए हैं। एनएसएसओ के ही आकंड़े ये बताते हैं कि एनडीए के शासन यानि 1999-2000 से 2004-05 के बीच एक करोड़ बीस लाख रोजगार पैदा हुए। एनएसएसओ के 2004-05 से लेकर 2009-10 के रोजगार आंकड़ों से जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं, उनमें से एक यह भी है कि देश में 51 फीसदी श्रम शक्ति के पास स्वरोजगार है, यानि उसे सरकारी मशीनरी के जरिये काम नहीं मिला है।

अगर यूपीए के शासनकाल में साल में सिर्फ दो लाख रोजगारों का सृजन सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रमों की सीमा का द्योतक है। यूपीए सरकार के पहले शासनकाल में मनरेगा को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया और इससे साल में सौ दिन रोजगार की गांरटी मिली। लेकिन गरीबी हटाने और रोजगार बढ़ाने के इस कार्यक्रम से असली मकसद नहीं सध रहा है। मनरेगा सिर्फ रोजगार मुहैया करा रहा है इसका सृजन नहीं कर रहा है। इसके अलावा यह कार्यक्रम भ्रष्टाचार का शिकार बन चुका है। परियोजनाओं में काम हो चाहे न हो, सरकार के खजाने से पैसा निकल जाता है और यह उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता है, जिनके लिए यह कार्यक्रम लाया गया था।

विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार नए रोज़गार के सृजन में असमर्थ रही है और यह सरकारी योजनाओं की बड़ी असफलता है। आंकड़ों के आधार पर विपक्ष का आरोप यह भी है कि 15.6 फीसदी स्थायी कर्मचारियों की तुलना में 33.5 फीसदी कर्मचारी कैजुअल हैं। यानी, अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ती जा रही है जिससे बाद में कभी बड़ा श्रमिक असंतोष पैदा हो सकता है। इसी कड़ी का अगला आरोप है कि महिला कर्मचारियों को समान काम के लिए भी अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। सर्वे की यह रिपोर्ट निश्चय ही सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और सरकार फिर से बचाव की मुद्रा में है क्योंकि समावेशी विकास का उसका नारा इस रिपोर्ट से ठुस्स हो कर रह गया है, और सरकार कितनी भी सफाइयां दे ले, विपक्ष के पास उसकी आलोचना के लिए एक तगड़ा मुद्दा हाथ आ गया है।

मीडिया में भी इस रिपोर्ट के विश्लेषण को लेकर तर्क-वितर्क का लंबा सिलसिला चला है। मीडिया के विभिन्न विश्लेषणों के जवाब में भारत के चीफ स्टैटीशियन श्री टीसीए अनंत तथा नैशनल सैंपल सर्वे के एडिशनल डायरेक्टर जनरल श्री राजीव मेहता ने कहा है कि सर्वे की रिपोर्ट का मीडिया का विश्लेषण भ्रामक है। इन दोनों अधिकारियों का तर्क है कि पिछले वर्षों में स्कूल और कालेज जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है। इसके साथ ही उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी अब ज्यादा लंबे समय तक कालेज में रहते हैं जिसके कारण नये रोज़गार में जाने का उनका प्रतिशत घटा है। पंद्रह वर्ष से कम के बच्चों के रोज़गार में जाने के आंकड़ों की प्रशंसा करते हुए ये दोनों अधिकारी इसे इस रूप में परिभाषित करते हैं कि देश में बाल श्रमिकों की संख्या कम हो रही है जो वस्तुत: एक अच्छा संकेत है।

आइये, अब स्थिति के कुछ और पहलओं का भी आकलन करें। सरकारी नौकरियों का एक पहलू यह है कि पिछले कुछ वर्षों से सरकार, सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की नियुक्तियां खुद करने के बजाए काम ठेके पर आबंटित करने लगी है। परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में भी आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो वस्तुत: सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। हमें समझना होगा कि किसी भी सरकार के लिए अंतहीन सरकारी नौकरियों का सृजन संभव नहीं है और देश की पूरी आबादी के लिए सरकारी नौकरियों के सृजन की आशा व्यर्थ है। स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि उदारीकरण के बाद से नए निजी संस्थान स्थापित हुए और उनमें बड़ी संख्या में नए लोगों को रोज़गार मिला। अत: सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिएं जो लोगों को नए उद्यम खोलने और चलाने में सहायक हों ताकि सरकार से इतर भी रोज़गार के अवसर पैदा हो सकें। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि हमारी शिक्षा प्रणाली नए उद्यमियों को जन्म दे सके और उनकी सफलता के लिए आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध करवा सके। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हमारे बिज़नेस स्कूल भी ज्य़ादातर विद्यार्थियों को पेशेवर (प्रोफेशनल) अथवा विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) तो बनाते हैं पर उसका फोकस विद्यार्थियों को उद्यमी (एंटरप्रेन्योर) बनाने की ओर नहीं है। पेशेवर अथवा विशेषज्ञ जब उद्यमी बनते हैं तो वे कई नए लोगों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रोज़गार देते हैं। विभिन्न शिक्षा संस्थानों और व्यावसायिक एवं पेशेवर संगठनों से हाथ मिलाकर सरकार इस काम को बेहतर अंजाम दे सकती है।

देखा गया है कि हमारे शिक्षा संस्थान और उनसे जुड़े अध्यापकगण अपने विद्यार्थियों को उद्यमी बनने की शिक्षा अथवा प्रेरणा नहीं देते। यदि हमारे शिक्षा संस्थान अपनी दृष्टिकोण बदलें तो विद्यार्थियों के सोचने का तरीका बदलेगा और ज्य़ादा से ज्य़ादा विद्यार्थी उद्यमी बनने के विकल्पों की आकर्षित होंगे जिससे बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर अंकुश लगेगा। हमें अब इसी ओर प्रयास करने की आवश्यकता है। रोज़गार का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी ही नहीं है। राजनीति के शोर-शराबे से गुमराह होने के बजाए हमें समस्या के हल की ओर ध्यान देने की जरूरत है। बेरोज़गारी से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि सरकारी नौकरियों के साथ-साथ रोज़गार के अन्य विकल्पों की ओर भी ध्यान दिया जाए और उनके विकास की दिशा में ठोस काम किए जाएं। 

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Education, Job and Employment : Shiksha, Naukari Aur Rozgar