Saturday, October 29, 2011

Wellness Prosperity & Success :: स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता

Wellness Prosperity & Success

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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pkk@lifekingsize.com


स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता
 पी. के. खुराना

बहुत साल पहले मुझे जनसामान्य में पीजीआई के नाम से विख्यात, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में आयोजित एक सेमिनार में शामिल विश्व भर के डाक्टरों के विचार सुनने का मौका मिला जिसमें बताई गई बातों का सार यह था कि व्यक्ति जवानी में सफलता के लिए अथक मेहनत करता है। अक्सर उसे घर से दूर रहना पड़ता है, शहर, राज्य या देश छोड़ कर परदेसी होना पड़ता है, पर करियर की सफलता के आदमी यह सब बर्दाश्त करता है, दिन रात मेहनत करता है और खुश होता है कि वह सफलता की सीढिय़ां चढ़ता चल रहा है। जवानी में शरीर अपने ऊपर हुई इन ज्य़ादतियों को बर्दाश्त करता चलता है पर चालीस की उम्र के बाद शरीर में भिन्न-भिन्न बीमारियों के लक्षण उभरने लगते हैं, आदमी दवाइयों पर निर्भर होने लगता है और जब व्यक्ति इतना अनुभवी हो जाता है कि लोग-बाग उसके ज्ञान का लोहा मानने लगते हैं और वह और भी तेजी से उन्नति कर सकता है तब शारीरिक व्याधियां उसकी राह में रोड़ा बनना शुरू हो जाती हैं, व्यक्ति की कार्यक्षमता घटनी शुरू हो जाती है और वह उस उन्नति से महरूम रह जाता है, जिसके कि वह काबिल है, या फिर वह अपने शरीर की आवश्यकताओं की और ज्य़ादा उपेक्षा करने लगता है और अंतत: अगले कुछ सालों में और भी ज्य़ादा बड़ी बीमारियों से घिर जाता है।

कहा गया है कि आदमी पहले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गंवाता है, फिर स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए धन खर्च करता है और अंतत: दोनों गंवा लेता है। बहुत से मामलों में यह विश्लेषण एकदम सटीक है। यह सच है कि धन कमाना आसान नहीं है, धन चला जाए तो उसकी भरपाई में बड़ी मुश्किलें आती हैं, कई बार तो दोबारा उस स्तर तक पहुंच पाना संभव ही नहीं हो पाता, या धन कमाना शुरू होने पर छूट गए अवसरों की भरपाई भी शायद हमेशा संभव नहीं होती तो भी यह सच है कि धन कमाने के अवसर आते रह सकते हैँ पर ज्य़ादा धन कमाने की धुन में शरीर को ऐसी बहुत सी बीमारियां लग जाती हैं जो जीवन भर साथ नहीं छोड़तीं। फिर न आप नमक खा सकते हैं, न मीठा। कई तरह की इच्छाओं को लेकर मन मारना पड़ता है और जीवन का असली स्वाद पीछे रह जाता है।

हमारे स्कूलों में फिजि़कल एजुकेशन एक विषय भर है, विद्यार्थियों को उसकी असली आवश्यकता से कभी परिचित नहीं करवाया जाता। सर्दियों के दिनों में भी छोटे-छोटे बच्चे बिस्तर से बाहर निकलते ही स्कूल के लिए तैयार होने लगते हैं, व्यायाम या योग के लिए उनके जीवन में कोई जगह नहीं होती, न ही उन्हें नियमित व्यायाम का महत्व ढंग से सिखाया जाता है। मां-बाप जीवन निर्वाह के लिए पैसा कमाने की चक्की में पिस रहे होते हैं और बच्चे स्कूलों में किताबों में सिर खपाते रह जाते हैं। परिणाम यह होता है कि पढ़ाई खत्म होते ही आदमी नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में पड़ जाता है और व्यायाम को सिरे से उपेक्षित कर देता है।

यह खेदजनक है कि व्यायाम हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग नहीं बन पाया है जिससे स्वास्थ्य संबंधी सारी व्याधियां पैदा हो रही हैं, और जब तक व्यक्ति कुछ सफल होकर जीवन का आनंद लेने के काबिल होता है तब उसके शरीर को कोई न कोई ऐसी बीमारी लग चुकी होती है कि वह जीवन के आनंद से महरूम रहने के लिए विवश हो जाता है।

देश भर में बहुत से जिम और योग केंद्र हैं लेकिन दोनों में आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। बहुत से जिम बच्चों को नशीली दवाओं की आदत डालने के लिए बदनाम हुए और योग केंद्रों के अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित कर्णधार व्यक्ति की क्षमता और उम्र की परवाह किये बिना सबको एक जैसा पाठ पढ़ाते हुए कई बार उन्हें नई व्याधियों का उपहार दे डालते हैं। बहुत से योग गुरू योग कैंप का आयोजन करते हैं पर ये शिविर इतनी छोटी अवधि के होते हैं कि उनसे लोगों में नई आदतें स्थाई नहीं हो पातीं। योग कैंप की समाप्ति के बाद फिर से वही पुरानी दिनचर्या आरंभ हो जाती है और शिविर का कोई स्थाई लाभ लोगों को नहीं मिल पाता। योग कैंप की महत्ता को सिरे से नकारना तो गलत है पर इन्हें ज्य़ादा उपयोगी बनाने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों से स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को लेकर मेरी बातचीत से मुझे जो समझ में आया उसका सार यह है कि यदि हम हर सुबह लगभग एक घंटा और रात को खाना खाने से पहले आधा घंटा सैर करें तो हम उम्र भर अधिकांश बीमारियों से बचे रह सकते हैं। ब्रिस्क वॉक के नाम से जानी जाने वाली यह सैर साधारण से कुछ तेज़ चाल में पूरी की जाती है। हालांकि इस मामले में मतैक्य नहीं है तो भी ज्य़ादातर डॉक्टरों का यह मानना है कि ब्रिस्क वॉक, जॉगिंग से भी ज्य़ादा सुरक्षित और लाभदायक है। इस संबंध में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले बीस मिनट की सैर के बाद ही हमारे शरीर के अंग खुलने शुरू होते हैं और सैर का असली लाभ उसके बाद मिलता है, अत: सैर की अवधि 40 मिनट से 60 मिनट के बीच रहना आवश्यक है। इससे कम अवधि की सैर का लाभ कम होगा। सवेरे की सैर करने वाले व्यक्तियों के लिए रात्रि सैर की आधे घंटे की अवधि भी काफी है। रात्रि की सैर को लेकर भी कई भ्रम हैं। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि रात्रि के भोजन से पूर्व ब्रिस्क वॉक दवाई की तरह है। भोजन के बाद तेज़ सैर नहीं की जानी चाहिए। यदि आप रात्रि के भोजन के बाद सैर के लिए निकलते हैं तो टहलने जैसा होना चाहिए जिसका उद्देश्य यह है कि खाना खाते ही बिस्तर पर नहीं जाना चाहिए बल्कि नींद से पहले खाना पचने का समय मिलना चाहिए।

प्रसिद्ध योग गुरू स्वामी लालजी महाराज शायद अकेले ऐसे योगाचार्य हैं जो स्वास्थ्य रक्षा में योग, जिम और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समन्वय की वकालत करते हैं। जिम में व्यायाम करते हुए यदि व्यक्ति श्वास-प्रक्रिया पर भी नियंत्रण करे तो व्यायाम का लाभ दोगुणा हो सकता है। बहुत से डाक्टर भी अब यह स्वीकार करते हैं कि यदि चिकित्सा विज्ञान में योग का भी समावेश हो जाए तो रोगी को ज्य़ादा लाभ होता है। डा. पूनम नायर द्वारा संचालित, चंडीगढ़ योग सभा और पीजीआई में ही इस संबंध में लगभग दो साल तक चले एक अध्ययन में यह पाया गया कि योग की सहायता से रोगियों में तनाव कम हुआ, रोग से छुटकारा पाने में आसानी हुई और लाभ स्थाई रहा। यही नहीं, पीजीआई में खुद डाक्टरों और नर्सों को भी जब योग क्रियाएं करवाई गईं तो उनमें तनाव की कमी आई और वे ज्यादा कुशलता से अपनी ड्यूटी निभा सकने में सक्षम पाये गए। स्पष्ट है कि हम अपने जीवन में योग और व्यायाम को भी उतार पायें तो जीवन कहीं ज्य़ादा स्वस्थ, संपन्न और खुशहाल हो सकता है। ***

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Saturday, October 22, 2011

जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man









जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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जनता का सशक्तिकरण
पी. के. खुराना



जापानी मूल के प्रसिद्ध अमरीकी लेखक राबर्ट टी. कियोसाकी मेरे मनपसंद लेखक और विचारक हैं। उनकी प्रथम पुस्तक 'रिच डैड पुअर डैडÓ ने ही विश्व भर में तहलका मचा दिया। वर्तमान शिक्षा पद्धति पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैंैं, ''स्कूल में मैंने दो चुनौतियों का सामना किया। पहली तो यह कि स्कूल मुझ पर नौकरी पाने की प्रोग्रामिंग करना चाहता था। स्कूल में सिर्फ यह सिखाया जाता है कि पैसे के लिए काम कैसे किया जाता है। वे यह नहीं सिखाते हैं कि पैसे से अपने लिए काम कैसे लिया जाता है। दूसरी चुनौती यह थी कि स्कूल लोगों को गलतियां करने पर सजा देता था। हम गलतियां करके ही सीखते हैं। साइकिल चलाना सीखते समय मैं बार-बार गिरा। मैंने इसी तरह सीखा। अगर मुझे गिरने की सजा दी जाती तो मैं साइकिल चलाना कभी नहीं सीख पाता।“

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें लोगों के साथ चलने, लोगों को साथ लेकर चलने, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी होने, प्रयोगधर्मी होने से रोकती है। गलतियां करने वाले को सज़ा देकर हमारी शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों में भय की मानसिकता भर देती है। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें स्वस्थ रहना नहीं सिखाती, स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक अच्छी आदतें हम स्कूल में नहीं सीखते। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने सभी साधनों का प्रयोग करना भी नहीं सिखाती। पूंजी एक बहुत बड़ा साधन है पर हमारी शिक्षा हमें पूंजी के उपयोग का तरीका नहीं सिखाती। हमारी शिक्षा हमें पैसे के लिए काम करना सिखाती है, पैसे से काम लेना नहीं सिखाती।

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने कर्तव्यों का बोध नहीं देती, अपने नागरिक अधिकारों का ज्ञान नहीं देती। यह शिक्षा प्रणाली हममें नैतिक साहस पैदा नहीं करती। वर्तमान शिक्षा पद्धति न तो हमें अच्छा नागरिक बनना सिखाती है और न ही सफल व्यक्ति बनना। यह शिक्षा सशक्तिकरण की शिक्षा नहीं, पंगुता की शिक्षा है।

हमारी शासन व्यवस्था इतनी लचर है कि सूचना के अधिकार के बावजूद हमें समय पर सूचनाएं नहीं मिल पातीं, पूरी सूचनाएं नहीं मिल पातीं और यदि कोई अधिकारी इसमें रोड़े अटकाता है तो नागरिकों के पास उसके प्रभावी प्रतिकार का कोई उपाय नहीं है। शिक्षा का अधिकार लागू होने का क्या मतलब है? यदि उसके लिए आवश्यक प्रबंध न किये जाएं, आवश्यक संख्या में स्कूल और अध्यापक न हों तो शिक्षा के अधिकार का कानून बना देने से क्या होगा?

हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। हमारी पूरी कर-प्रणाली ही अतर्कसंगत और उद्यमिता विरोधी है। सच तो यह है कि टैक्स व्यवस्था की कमियों के कारण ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है।

आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं जबकि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

हमारे देश में उद्यमिता के लिए प्रोत्साहन के नाम पर जो कुछ किया जाता है वह सब एक बहुत बड़ा मज़ाक है। कोई नया उद्योग लगाने में इतनी अड़चनें हैं और इतने विभागों से अन्नापत्ति प्रमाणपत्र (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) लेना होता है कि अन्नापत्ति प्रमाणपत्र लेने में ही सालों-साल लग जाते हैं। दूसरी ओर, हम लोग भी अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति उदासीन रहकर प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं के रहमोकरम की आदी हो गए हैं। हम अपने जनप्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा करने के बाद उन्हें वोट देने के बजाए, किसी नारे के पीछे लगकर, जाति अथवा क्षेत्र की राजनीति से प्रभावित होकर अथवा किसी एक दल से बंधकर अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं।

उपरोक्त सभी व्यवस्थाएं नागरिक के रूप में हमें कमज़ोर करती हैं और हम दूसरों की कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। इस स्थिति को बदलने का एक ही तरीका है कि शिक्षा का सही स्वरूप तय किया जाए, उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाए, कर प्रणाली को तर्कसंगत बनाया जाए, सस्ता राशन, सब्सिडी और आरक्षण की जगह वंचितों के सशक्तिकरण के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी तय की जाए और रिश्वतखोरों, भ्रष्टाचारियों व बलात्कारियों के लिए कड़ी सजा सुनिश्चित की जाए।

यह सब कैसे होगा? इसका एक ही तरीका है कि हम जागें, अपने आसपास के लोगों में जागरूकता का भाव जगाएं। यह संतोष का विषय है कि सरकार और शेष राजनीतिक दलों के तिरस्कारपूर्ण रवैये के बावजूद गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे को देश भर से अच्छा समर्थन मिल रहा है। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर अन्ना की खूब चर्चा है। लेकिन क्या इतना ही काफी है? बाबा अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल में जनता की भागीदारी की बात मनवा कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। हालांकि सरकार ने बाद में इस जीत पर पानी फेर दिया पर लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है और 16 अगस्त से जनता की यह लड़ाई अपने दूसरे चरण में कर चुकी है। इस लड़ाई से तुरंत कोई बड़ी जीत हासिल करना शायद मुश्किल है। लड़ाई अभी लंबी चलने की आशंका है, तो भी यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि अन्ना जी को बिना शर्त जनता का पूर्ण समर्थन मिल रहा है। इस आंदोलन को सफल बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है। छोटी-छोटी उपलब्धियां मिलकर बड़ी जीत में बदल जाती हैं। हमें इसी दिशा में काम करना है ताकि देश के विकास के शेष अवरोधों को भी दूर किया जा सके। 


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Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल







Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

Write to me at :
pkk@lifekingsize.com



वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल
 पी. के. खुराना


'वॉल स्ट्रीट विरोध' को कई नए नाम मिल गए हैं और अब इसे 'आक्युपाई वॉल स्ट्रीट' के अलावा 'हम 99 प्रतिशत हैं', 'टी पार्टी विरोध' तथा 'अक्तूबर क्रांति' आदि नामों से भी जाना जाने लगा है। वॉल स्ट्रीट और पूंजीवाद के विरोध में उपजे इस आंदोलन ने अब भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया है और यह अमरीका की सीमाओं को लांघकर इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड, जर्मनी, स्पेन, ग्रीस और रोम तक में फैल गया है। हर जगह से प्रदर्शनकारी घरों से बाहर निकल रहे हैं और पूंजीवाद के विरोध में एकजुट होकर इस अनूठे आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि इस आंदोलन की अगुवाई कोई एक व्यक्ति या समूह नहीं कर रहा है और ये लोग यह भी साफ नहीं कर पाये हैं कि उन्हें क्या चाहिए, तथा जो चाहिए वह कैसे संभव होगा, तो भी आंदोलन के प्रति लोगों का समर्थन बढ़ रहा है।

वॉल स्ट्रीट से शुरू हुए प्रदर्शन को अब कारपोरेट अमरीका के खिलाफ आम अमरीकियों के आक्रोश के रूप में देखा जा रहा है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अमरीकी प्रशासन हमेशा कारपोरेट जगत के हितों का संरक्षण करता है अत: कारपोरेट जगत की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, अमीरों पर ज्य़ादा टैक्स लगना चाहिए और देश के 99% लोगों पर 1% लोगों का नियंत्रण खत्म होना चाहिए। प्रदर्शनकारी गोल्डमैन सैक्स, जनरल इलैक्ट्रिक और बैंक ऑफ अमेरिका जैसी संस्थाओं का भी विरोध कर रहे हैं।

मोटे तौर पर यह आंदोलन आर्थिक असमानता के विरुद्ध है जिसमें अमीर और भी ज्य़ादा अमीर, और गरीब और भी ज्य़ादा गरीब होते जा रहे हैं। पूंजीवाद के इस दौर में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमरीका में समाज के सबसे ऊपर के पायदान के 1% लोग देश की 42% वित्तीय संपत्ति को नियंत्रित करते हैं। अमरीका की 70% वित्तीय संपत्ति का नियंत्रण शीर्ष 5% लोगों के पास है। कारपोरेट लाभ सर्वोच्च स्तर पर होने के बावजूद बेरोज़गारी अपने चरम पर है। बड़ी कंपनियों के सीईओ का वेतन सामान्य कर्मचारी के मुकाबले 350 गुणा ज्य़ादा है। सन् 1990 के बाद सीईओ का वेतन 300 गुणा बढ़ा है, कंपनियों का लाभ दोगुणा हो गया है जबकि सामान्य कर्मचारियों का वेतन औसतन सिर्फ 4 से 6 गुणा ही बढ़ा है। महंगाई समायोजित करने के बाद यह बढ़ोत्तरी लगभग शून्य हो जाती है। अमरीका की आधी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का सिर्फ 2.5 प्रतिशत हिस्सा है। यही नहीं, सर्वाधिक आमदनी वाले लोग कम टैक्स का आनंद ले रहे हैं।
सवाल यह है कि इस आर्थिक असमानता में पूंजीवाद का दोष कितना है? इससे पहले हम साम्यवाद को असफल होता देख चुके हैं। कभी विश्व, अमरीका और रूस दो महाशक्तियों में बंटा होता था। साम्यवादी रूस का इतना विघटन हुआ कि वह अमरीका का मोहताज हो गया और आज अमरीका विश्व की अकेली महाशक्ति है। चीन उसे चुनौती तो दे रहा है पर अभी वह अमरीका के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए चीन ने बहुत सी पूंजीवादी नीतियां अपनायी हैं।

अपने ही देश की बात करें तो यहां उदारवाद की शुरुआत सन् 1991 से हुई, लेकिन उससे पहले भी देश की अर्थव्यवस्था का 57% नियंत्रण मात्र 1% आबादी वाले जैन समाज के पास रहा है। सच तो यह है कि देश की शासन व्यवस्था कैसी भी हो, वह अमीर को और ज्य़ादा अमीर और गरीब को और ज्य़ादा गरीब बनाती ही है। एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं। मान लीजिए कुल पांच व्यक्ति एक दौड़ में हिस्सा ले रहे हों, उनमें से एक व्यक्ति पैदल हो, दूसरा साइकिल पर हो, तीसरा स्कूटर पर हो, चौथा कार पर हो और पांचवां हवाई जहाज़ पर हो तो समय बीतने के साथ-साथ प्रतियोगियों में फासला बढ़ता चला जाएगा और अंतत: पैदल चलने वाला या साइकिल पर चलने वाला पूरा ज़ोर लगाकर दौड़ते हुए भी दौड़ से बाहर होने की स्थिति में रहेगा। स्कूटर पर चलने वाले को आप निम्न मध्य वर्ग और कार पर चलने वाले को आप उच्च मध्य वर्ग मान सकते हैं। हवाई जहाज़ का खर्च उठा सकने की कूवत निश्चय ही 1% लोगों तक ही सीमित रहेगी जो दौड़ में हर किसी को पछाड़ेंगे ही। आर्थिक संपन्नता का यह अंतर साम्यवाद या पूंजीवाद के कारण नहीं है। यह अंतर साधनों की उपलब्धता और सामर्थ्य के कारण बना और बढ़ा है, और इस असमानता को दूर करने के लिए हमें राजनीतिक व्यवस्था बदलने के बजाए सामाजिक व्यवस्था बदलने, लोगों का नज़रिया बदलने और जनसामान्य को आर्थिक रूप से शिक्षित करने की आवश्यकता है। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त असमानता की खाई पाटने के लिए हमें इन तीनों सूत्रों को ज़रा बारीकी से समझना होगा।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर स्तर का व्यक्ति हर नये व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था।

दृष्टिकोण बदलने की बात करें तो हमें यह समझना होगा कि समाज के दोनों वर्गों को अपना-अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। संपन्न वर्ग को सदाशय होना होगा और अमीरी की दौड़ में पिछड़ रहे लोगों को धन की महत्ता को समझना और अपने संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करना सीखना होगा। आइये, दोनों मुद्दों पर ज़रा और विस्तार से बात करें।

आज कारपोरेट सेक्टर सामाजिक उत्तरदायित्व की बात करता तो है, पर यह उसका फोकस नहीं है। बहुत कम कारपोरेट घराने ऐसे हैं जो सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन को अपनी नीति में प्राथमिकता का स्थान देते हैं। हमें यह दृष्टिकोण बदलना होगा। कारपोरेट नेताओं को इस ओर ज्य़ादा ध्यान देना होगा वरना जो स्थिति आज अमरीका में कारपोरेट सेक्टर की है वह विश्व के शेष हर देश में भी होगी जो किसी क्रांति में बदल सकती है। यदि कारपोरेट सेक्टर इस स्थिति से बचना चाहता है तो उसे समाज कल्याण को प्राथमिकता देनी ही होगी। इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायण मूर्ति के शब्दों में कहूं तो हमें सहृदय पूंजीवाद अपनाना होगा।

दूसरी ओर, अमीरी की दौड़ में पीछे चल रहे लोगों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो अमीर होना चाहता है पर अमीरों से घृणा करता है। आज दुनिया में दो ही जातियां हैं, एक अमीर जाति और दूसरी गरीब जाति। दुर्भाग्यवश दोनों जातियां एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं और गरीब लोग अमीरों की मेहनत और काबलियत से सीखने के बजाए उनसे घृणा करते हैं और अमीर लोग गरीबों को अपने सामने कुछ नहीं समझते। वस्तुत: सही आर्थिक शिक्षा के अभाव में गरीब लोग गरीब रह जाते हैं और मध्यवर्गीय लोग भी अपने स्तर से ज्य़ादा ऊपर नहीं जा पाते। आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को अपने पैसे को काम में लाना और पैसे से पैसा बनाना नहीं सिखाती।

हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। परिणाम यह होता है कि शिक्षित होने के कारण उन्हें तो रोजगार मिल जाता है पर यह आवश्यक नहीं है कि रोजगार के नये अवसरों के सृजन में उनकी कोई बड़ी भूमिका हो, जबकि उद्यमी न केवल अपने लिए रोज़गार का सृजन करता है बल्कि अपने साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उद्यमियों को ज्यादा जोखिम बर्दाश्त करने पड़ते हैं, ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, सफलता के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है, पर जब वे सफल होना शुरू कर देते हैं तो उनकी राह आसान होती चलती है। समस्याओं से उनका भी वास्ता पड़ता है पर वे किसी भी समस्या अथवा चुनौती से घबराने के बजाए उसके समाधान के एक से अधिक हल खोजने का प्रयास करते हैं और सबसे बेहतर विकल्प को आजमाते हैं। उनकी यह प्रतिभा उनकी आदत बन जाती है और सफल होना उनकी नियति। अत: हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो व्यक्ति को नेतृत्व करने, सोचे-समझे जोखिम लेने और उद्यमी बनने के लिए भी तैयार करे। इससे गरीबी तो दूर होगी ही, राजनीतिक स्वतंत्रता भी सार्थक हो सकेगी, देश विकास की राह पर तेज़ी से बढ़ेगा और कारपोरेट सेक्टर के प्रति जनता में असंतोष की भावना भी नहीं होगी। 

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