Tuesday, February 1, 2011

Yatha Praja, Tatha Raja ! :: यथा प्रजा, तथा राजा !

Yatha Praja, Tatha Raja !

By :
P.K.Khurana
(expanded name : Pramod Krishna Khurana)

 प्रमोद कृष्ण खुराना



यथा प्रजा, तथा राजा !
 पी. के. खुराना

एक ज़माना था जब कहा जाता था -- ‘यथा राजा, तथा प्रजा!’, यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदला, शासन के तरीके बदले, यहां तक कि शासकों की नियुक्ति के तरीके बदले और लोकतंत्र के ज़माने में प्रजा ही अपने भाग्य विधाता जन-प्रतिनिधियों की भाग्य विधाता बन बैठी। आज के ज़माने में व्यावहारिक स्थिति ऐसी है कि इस पर ‘यथा प्रजा, तथा राजा!’ की उक्ति ही सटीक लगती है। मतलब यह है कि प्रजा जैसी होगी, देश की बागडोर थामने वाले शासकों को भी वैसा ही होना पड़ेगा।

मेरा ध्यान इस ओर तब गया जब याहू ग्रुप्स पर पीआर प्वायंट के मॉडरेटर श्री श्रीनिवासन ने इस समूह के सदस्यों को एक ईमेल भेज कर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा संसद में उपस्थिति और कामकाज के विश्लेषण से अवगत करवाया। उन्होंने ये आंकड़े सांसदों के व्यवहार, कामकाज आदि का विश्लेषण देने वाली उत्कृष्ट वेबसाइट पीआरएसइंडिया से लिये थे। यह विश्लेषण वस्तुत: आंखें खोल देने वाला है।

चुनाव के समय राजनीतिक दल, कार्यकर्ता और मीडिया बहुत शोर मचाते हैं लेकिन चुनाव के बाद हम अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के कामकाज की समीक्षा करना भूल जाते हैं। हर कंपनी अपने छोटे से छोटे कर्मचारी के कामकाज की समीक्षा करती है लेकिन यह दुखद स्थिति है कि हम अपने प्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा संभव है लेकिन मीडिया भी इस ओर से उदासीन ही रहा है। परिणाम यह है कि हमारे प्रतिनिधि जनता की उदासीनता का लाभ उठाते हैं और राजनीतिक दल ऐसे लोगों को भी टिकट दने से गुरेज़ नहीं करते जिनका प्रदर्शन संतोषजनक न रहा हो। यहां तक कि विधानसभाओं और लोकसभा में ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष चुना जाता रहा है जिन्हें बहुत सक्रिय अथवा कुशल नहीं माना जाता था।

हमारी संसद लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर बनी है। लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है और देश के मतदाता सीधे मतदान से इन प्रतिनिधियों को चुनते हैं। दूसरी ओर, राज्यसभा का कार्यकाल छ: वर्ष का होता है और हर दो वर्ष बाद इसके एक-तिहाई सदस्य रिटायर हो जाते हैं। विभिन्न विधानसभाओं के सदस्य इन्हें चुनते हैं, और कुछ सदस्य राष्ट्रपति द्वारा भी मनोनीत किये जाते हैं। भारत के उपराष्ट्रपति इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं जबकि राज्यसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव सदन के सदस्यों में से होता है।

13 दिसंबर, 2010 को राज्यसभा के शीतकालीन अधिवेशन के समापन के समय राज्यसभा के कुल 242 सदस्य थे जिनमें विभिन्न विधान सभाओं द्वारा चुने गये 231 सदस्य तथा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये 11 सदस्य शामिल हैं। इनमें से कुछ सदस्य सन् 2005 से सदन के सदस्य हैं और उनका कार्यकाल इसी वर्ष समाप्त हो जाएगा। राज्यसभा के के सदस्य होने के बावजूद उपाध्यक्ष सवाल नहीं पूछते। इसी प्रकार सरकार के प्रतिनिधि होने के नाते मंत्रिगण भी सवाल नहीं पूछते। उपाध्यक्ष, मंत्रिगण और राज्यसभा में विपक्ष के नेता को हाजिरी रजिस्टर पर उपस्थिति दर्ज करने की आवश्यकता नहीं होती। अत: वर्तमान में केवल 228 सदस्यों को ही हाजिरी दर्ज करने और सवाल पूछने की इज़ाजत है।

यदि राज्यसभा के सदस्यों की कारगुज़ारी की समीक्षा की जाए तो आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के श्री टी. सुब्बारामी रेड्डी पहले स्थान पर हैं जिन्होंने 500 बार विभिन्न मुद्दों पर बहस में भाग लिया या सवाल पूछे और निजी बिल पेश किये। सदन में उनकी उपस्थिति 72 प्रतिशत रही है। वे जून, 2008 से राज्यसभा के सदस्य हैं। अप्रैल, 2008 से राज्यसभा के सदस्य, बिहार से जनता दल (युनाइटिड) के श्री एन. के. सिंह दूसरे स्थान पर रहे। उन्होंने कुल 495 बार सवाल पूछे या बहस में भाग लिया। सदन में उनकी उपस्थिति का प्रतिशत 82 रहा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से पश्चिम बंगाल से राज्यसभा के सदस्य श्री आर. सी. सिंह जून, 2008 में चुने गए थे। राज्यसभा में उनकी उपस्थिति 92 प्रतिशत रही है और वे 462 बार सवाल पूछ कर या विभिन्न बहसों में भाग लेकर तीसरे स्थान पर रहे हैं। मध्य प्रदेश से भाजपा के श्री प्रभात झा ने भी 462 बार सवाल पूछे या राज्यसभा के वाद-विवाद में हिस्सा लिया। कारगुज़ारी के मामले में चौथे स्थान पर आंके गये श्री झा अप्रैल, 2008 से राज्यसभा के सदस्य हैं और उनकी उपस्थिति 64 प्रतिशत रही है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत स्वतंत्र सदस्य हिन्दुस्तान टाइम्स की श्रीमती शोभना भरतिया की उपस्थिति का प्रतिशत 83 है। वे फरवरी, 2006 से सदन की सदस्या हैं तथा इस दौरान 424 बार सवाल पूछ कर वे राज्यसभा की पांचवीं सबसे सक्रिय सदस्य आंकी गई हैं।

जून, 2006 से राज्यसभा के सदस्य कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल महासचिव, मीडिया विभाग के प्रमुख तथा मुख्य प्रवक्ता श्री जनार्दन द्विवेदी शायद सदन में मंत्रियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं और उन्होंने शत-प्रतिशत उपस्थिति के बावजूद आज तक एक बार भी एक भी सवाल नहीं पूछा और न ही कोई निजी बिल पेश किया। अब तक वे सिर्फ एक बार एक बहस में हिस्सा लेने के लिए खड़े हुए हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव और कांग्रेस थिंक-टैंक के प्रमुख सदस्य श्री अहमद पटेल गुजरात से राज्यसभा के सदस्य हैं और उन्होंने भी आज तक राज्य सभा में कोई सवाल नहीं पूछा जबकि वे अगस्त 2005 से राज्यसभा के सदस्य हैं और उनकी सदस्यता इसी वर्ष समाप्त हो जाएगी। इन दोनों नेताओं को कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल नेता होने के कारण संदेह लाभ मिल सकता है परंतु गुजरात से भाजपा के सदस्य श्री सुरेंद्र मोतीलाल पटेल और पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के श्री स्वप्न साधन बोस के बारे में क्या कहें, जो अगस्त 2005 से राज्यसभा में होने के बावजूद प्रश्नों के मामले में आज तक अपना खाता ही नहीं खोल पाये। यदि ये कुछ और माह इसी प्रकार चुप्पी साधे रहे तो वे कुछ भी न पूछने का रिकार्ड बनाने वाले सदस्य बन जाएंगे। श्री बोस की उपस्थिति भी निराशाजनक रूप से सिर्फ 19 प्रतिशत ही रही है। इनसे भी आगे आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के डा. दासारी नारायण राव हैं जो सन् 2006 से राज्यसभा में हैं लेकिन उनकी उपस्थिति सिर्फ 4 प्रतिशत रही है और जब कभी वे सदन में आये भी, तो उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा। शायद ये भी चुप्पी और अनुपस्थिति का एक और इतिहास बनाने की फिराक में हैं।

आंध्र प्रदेश से कांग्रेस के श्री टी. सुब्बारामी रेड्डी जहां सर्वाधिक सक्रिय सदस्य आंके गए हैं वहीं आंध्र प्रदेश से ही कांग्रेस के ही एक अन्य सदस्य डा. दासारी नारायण राव फिस्सडियों के शिरोमणि बने हैं। उनका यह व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना तो है ही, शोचनीय भी है।

इस विश्लेषण से हमें एक ही सीख मिलती है कि हम अपने प्रतिनिधियों की कारगुज़ारी पर लगातार नज़र रखें और अगली बार उन्हें वोट देने से पहले उनकी कारगुज़ारी को भी ध्यान में रखें। पार्टी, क्षेत्र और जाति को ध्यान में न रखकर यदि हम अपने प्रतिनिधियों की कुशलता और प्रदर्शन की ओर ध्यान देंगे तभी देश में सुराज आयेगा। याद रखिए -- ‘यथा प्रजा, तथा राजा!’ हम यदि नहीं बदलेंगे तो हम इन्हें भी नहीं बदल पायेंगे। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शहरी मतदाता, खासकर पढ़े-लिखे लोग मतदान इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि सरकारें बदलने से उनका कुछ भी बदलने वाला नहीं है। हमें अपनी इस सोच को भी बदलना होगा। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश राजनीतिज्ञों को काबू कर सकते हैं। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। ***

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