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Sunday, September 16, 2012

गलत होता व्याकरण



गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Please write to me at :
pkk@lifekingsize.com

गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना

हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 



Sunday, March 25, 2012

Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !






Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !

 पी. के. खुराना


मेरे मित्र डा. एस.पी.एस.ग्रेवाल, ‘ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट’ के नाम से आंखों का एक अस्पताल चलाते हैं जिसकी शाखाएं, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में हैं। ज्वायंट कमीशन इंटरनैशनल नाम की स्वतंत्र अमरीकी संस्था अमरीका से बाहर के विभिन्न अस्पतालों को गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र (क्वालिटी सर्टिफिकेट) देती है। ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट की खासियत यह है कि यह विश्व का चौथा ऐसा आंखों का अस्पताल था जिसे जेसीआई का गुणवत्ता प्रमाणपत्र मिला था, जो विश्व भर में अस्पतालों के लिए सबसे बड़ा गुणवत्ता प्रमाणपत्र माना जाता है। उसी दौरान जब मैं एक बार ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट के टायलेट में गया तो वहां मैंने एक चेकलिस्ट टंगी देखी जिस पर टायलेट की दुरुस्ती से संबंधित प्वायंट्स लिखे हुए थे और उन्हें टिक किया गया था। ये प्वायंट थे, फ्लश ठीक चल रही है, पेपर रोल लगा है, पेपर नेपकिन हैं, सीट को कीटाणुरहित किया गया है, इत्यादि-इत्यादि।

इससे भी पहले सन् 2003 में जब मेरे ज्येष्ठ सुपुत्र सुमित खुराना ने प्रतिष्ठित थापर विश्वविद्यालय से इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग करने के बाद हमारे पारिवारिक व्यवसाय में कदम रखा तो उसने हमारी कंपनी के हर कर्मचारी के कामकाज की विस्तृत चेकलिस्ट बनाई थी जिसमें ऐसे चरणों का जिक्र था जो दो दशक के अनुभव के बावजूद खुद मुझे भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थे, लेकिन चेकलिस्ट के कारण एकदम से स्पष्ट हो गए। तब से लगातार हम अपने हर काम से पहले चेकलिस्ट अवश्य बनाते हैं। चेकलिस्ट की सहायता हम तब भी लेते हैं जब वह काम हम दस हजारवीं बार कर रहे हों। इससे किसी गलती अथवा काम की पूर्णता में कमी की आशंका कम से कम हो जाती है।

हाल ही में भारतीय मूल के अमरीकी सर्जन डा. अतुल गवांडे की पुस्तक ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ प्रकाशित हुई है जिसमें चेकलिस्ट की महत्ता को विस्तार से रेखांकित किया गया है। किसी भी काम में गलतियों से बचने के लिए चेकलिस्ट एक बहुत साधारण दिखने वाला असाधारण कदम है। वस्तुत: यह इतना साधारण नज़र आता है कि हम अक्सर इसकी महत्ता की उपेक्षा कर देते हैं।

‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ डा. अतुल गवांडे की तीसरी पुस्तक है। इससे पहले उन्होंने ‘कंप्लीकेशन्स’ और ‘बैटर’ नामक दो पुस्तकें लिखी हैं, जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ भी एक असाधारण पुस्तक है जो किसी भी काम में गलतियों की रोकथाम और काम में पूर्ण सफलता के लिए आवश्यक सावधानियों को रेखांकित करती है।

सन् 2002 में प्रकाशित उनकी प्रथम पुस्तक ‘कंप्लीकेशन्स’ बोस्टन के एक अस्पताल में रेजिडेंट सर्जन के रूप में उनके अनुभवों का संग्रह है। अक्सर डाक्टरों पर काम का बहुत बोझ होता है और जटिल आपरेशनों में उन्हें तुरत-फुरत निर्णय लेना होता है। दबाव की उन स्थितियों में भूल हो जाना या गलती हो जाना आम बात है। लेकिन एक छोटी-सी भूल अथवा गलती किसी रोगी की जान ले सकती है। ये डाक्टर भी इन्सान हैं जो जटिलतम परिस्थितियों में सैकेंडों में निर्णय लेने के लिए विवश हैं। इन्सान के रूप में हम गलतियों के पुतले हैं, अत: गलतियों की रोकथाम हमारे लिए सदैव से एक बड़ी चुनौती रही है। डा. गवांडे का कहना है कि वे इस बात में रुचि ले रहे थे कि लोग असफल क्यों होते हैं, समाज का पतन क्यों होता है, और इसकी रोकथाम कैसे की जा सकती है। अमरीका में जनस्वास्थ्य नीति के एक प्रमुख चिंतक के रूप में उभरे डा. अतुल गवांडे की दूसरी पुस्तक ‘बैटर’ यह बताती है कि डाक्टर लोग सर्जरी के समय किस तरह गलतियों से बच सकते हैँ और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सर्जरी के समय कोई महत्वपूर्ण छूट न जाए।

उनकी हालिया पुस्तक ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ एक कदम आगे बढ़कर पूर्ण विस्तार से बताती है कि यदि डाक्टर लोग काम की पूर्णता और शुद्धता, यानी, ‘कॉग्नीटिव नेट’ का पालन करते हुए जटिल आपरेशनों से पहले चेकलिस्ट बना लें तो केवल स्मरणशक्ति पर निर्भर रहने के कारण होने वाली भूलों से बचा जा सकता है और कई कीमती जानें बचाई जा सकती हैं। उनके इस विचार को विश्व के आठ अलग-अलग अस्पतालों में टेस्ट किया गया और यह आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि उन अस्पतालों में आपरेशन के बाद की मृत्यु दर में 50 प्रतिशत तक की कमी आ गई। पचास प्रतिशत! यह एक दुखदायी परंतु कड़वा सच है कि अस्पतालों में होने वाली मौतों का 50 प्रतिशत डाक्टरों की छोटी-छोटी भूलों और गलतियों से होता है, और इन गलतियों अथवा भूलों की रोकथाम करके बहुत से रोगियों की जानें बचाई जा सकती हैं।

डा. गवांडे ने दो और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। अमरीका के कनेक्टिकट में स्थित हार्टफोर्ड अस्पताल में लगभग 50 वर्ष पूर्व लगी एक आग के बाद लोगों ने डाक्टरों अथवा अस्पताल प्रबंधन पर दोष मढऩे के बजाए बार-बार आग लगने के कारणों का पता लगाने का प्रयत्न किया तो अस्पताल में प्रयुक्त पेंट और सीलिंग की टाइलें अग्निरोधक नहीं थे और आग लगने की अवस्था में लोगों को बाहर निकालने की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण थी। इन परिणामों के बाद चेकलिस्ट एक विस्तृत चेकलिस्ट बनी और अमरीका में अस्पतालों के भवन निर्माण के नियमों में आवश्यक परिवर्तन किये गये।

दूसरी, और उससे भी कहीं ज्य़ादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि गलतियों की रोकथाम न की जाए तो समय बीतने के साथ-साथ हम जीवन में गलतियों और भूलों को जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। किसी कोर्स की पुस्तक संभावित गलतियों का जिक्र नहीं करती, कोई अध्यापक किसी कक्षा में गलतियों से बचने के तरीकों पर बात नहीं करता, और यहां तक कि जानलेवा गलतियां भी सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। चेकलिस्ट की सहायता से हम उन गलतियों से बच सकते हैं।

डा. गवांडे के इस अनुभव में मैं सिर्फ इतना जोडऩा चाहूंगा कि जीवन के हर क्षेत्र में चेकलिस्ट का महत्व है। नौकरी में, व्यवसाय में, प्रशासन में, यात्रा में, हर जगह चेकलिस्ट का महत्व है और यदि हम इस छोटी-सी सावधानी का ध्यान रखें तो हम बहुत सी अनावश्यक असफलताओं से बच सकते हैं। ***

Significance of the Checklist
By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

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Sunday, February 19, 2012

गलत होता व्याकरण




गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना


हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 

Saturday, October 29, 2011

Wellness Prosperity & Success :: स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता

Wellness Prosperity & Success

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता
 पी. के. खुराना

बहुत साल पहले मुझे जनसामान्य में पीजीआई के नाम से विख्यात, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में आयोजित एक सेमिनार में शामिल विश्व भर के डाक्टरों के विचार सुनने का मौका मिला जिसमें बताई गई बातों का सार यह था कि व्यक्ति जवानी में सफलता के लिए अथक मेहनत करता है। अक्सर उसे घर से दूर रहना पड़ता है, शहर, राज्य या देश छोड़ कर परदेसी होना पड़ता है, पर करियर की सफलता के आदमी यह सब बर्दाश्त करता है, दिन रात मेहनत करता है और खुश होता है कि वह सफलता की सीढिय़ां चढ़ता चल रहा है। जवानी में शरीर अपने ऊपर हुई इन ज्य़ादतियों को बर्दाश्त करता चलता है पर चालीस की उम्र के बाद शरीर में भिन्न-भिन्न बीमारियों के लक्षण उभरने लगते हैं, आदमी दवाइयों पर निर्भर होने लगता है और जब व्यक्ति इतना अनुभवी हो जाता है कि लोग-बाग उसके ज्ञान का लोहा मानने लगते हैं और वह और भी तेजी से उन्नति कर सकता है तब शारीरिक व्याधियां उसकी राह में रोड़ा बनना शुरू हो जाती हैं, व्यक्ति की कार्यक्षमता घटनी शुरू हो जाती है और वह उस उन्नति से महरूम रह जाता है, जिसके कि वह काबिल है, या फिर वह अपने शरीर की आवश्यकताओं की और ज्य़ादा उपेक्षा करने लगता है और अंतत: अगले कुछ सालों में और भी ज्य़ादा बड़ी बीमारियों से घिर जाता है।

कहा गया है कि आदमी पहले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गंवाता है, फिर स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए धन खर्च करता है और अंतत: दोनों गंवा लेता है। बहुत से मामलों में यह विश्लेषण एकदम सटीक है। यह सच है कि धन कमाना आसान नहीं है, धन चला जाए तो उसकी भरपाई में बड़ी मुश्किलें आती हैं, कई बार तो दोबारा उस स्तर तक पहुंच पाना संभव ही नहीं हो पाता, या धन कमाना शुरू होने पर छूट गए अवसरों की भरपाई भी शायद हमेशा संभव नहीं होती तो भी यह सच है कि धन कमाने के अवसर आते रह सकते हैँ पर ज्य़ादा धन कमाने की धुन में शरीर को ऐसी बहुत सी बीमारियां लग जाती हैं जो जीवन भर साथ नहीं छोड़तीं। फिर न आप नमक खा सकते हैं, न मीठा। कई तरह की इच्छाओं को लेकर मन मारना पड़ता है और जीवन का असली स्वाद पीछे रह जाता है।

हमारे स्कूलों में फिजि़कल एजुकेशन एक विषय भर है, विद्यार्थियों को उसकी असली आवश्यकता से कभी परिचित नहीं करवाया जाता। सर्दियों के दिनों में भी छोटे-छोटे बच्चे बिस्तर से बाहर निकलते ही स्कूल के लिए तैयार होने लगते हैं, व्यायाम या योग के लिए उनके जीवन में कोई जगह नहीं होती, न ही उन्हें नियमित व्यायाम का महत्व ढंग से सिखाया जाता है। मां-बाप जीवन निर्वाह के लिए पैसा कमाने की चक्की में पिस रहे होते हैं और बच्चे स्कूलों में किताबों में सिर खपाते रह जाते हैं। परिणाम यह होता है कि पढ़ाई खत्म होते ही आदमी नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में पड़ जाता है और व्यायाम को सिरे से उपेक्षित कर देता है।

यह खेदजनक है कि व्यायाम हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग नहीं बन पाया है जिससे स्वास्थ्य संबंधी सारी व्याधियां पैदा हो रही हैं, और जब तक व्यक्ति कुछ सफल होकर जीवन का आनंद लेने के काबिल होता है तब उसके शरीर को कोई न कोई ऐसी बीमारी लग चुकी होती है कि वह जीवन के आनंद से महरूम रहने के लिए विवश हो जाता है।

देश भर में बहुत से जिम और योग केंद्र हैं लेकिन दोनों में आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। बहुत से जिम बच्चों को नशीली दवाओं की आदत डालने के लिए बदनाम हुए और योग केंद्रों के अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित कर्णधार व्यक्ति की क्षमता और उम्र की परवाह किये बिना सबको एक जैसा पाठ पढ़ाते हुए कई बार उन्हें नई व्याधियों का उपहार दे डालते हैं। बहुत से योग गुरू योग कैंप का आयोजन करते हैं पर ये शिविर इतनी छोटी अवधि के होते हैं कि उनसे लोगों में नई आदतें स्थाई नहीं हो पातीं। योग कैंप की समाप्ति के बाद फिर से वही पुरानी दिनचर्या आरंभ हो जाती है और शिविर का कोई स्थाई लाभ लोगों को नहीं मिल पाता। योग कैंप की महत्ता को सिरे से नकारना तो गलत है पर इन्हें ज्य़ादा उपयोगी बनाने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों से स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को लेकर मेरी बातचीत से मुझे जो समझ में आया उसका सार यह है कि यदि हम हर सुबह लगभग एक घंटा और रात को खाना खाने से पहले आधा घंटा सैर करें तो हम उम्र भर अधिकांश बीमारियों से बचे रह सकते हैं। ब्रिस्क वॉक के नाम से जानी जाने वाली यह सैर साधारण से कुछ तेज़ चाल में पूरी की जाती है। हालांकि इस मामले में मतैक्य नहीं है तो भी ज्य़ादातर डॉक्टरों का यह मानना है कि ब्रिस्क वॉक, जॉगिंग से भी ज्य़ादा सुरक्षित और लाभदायक है। इस संबंध में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले बीस मिनट की सैर के बाद ही हमारे शरीर के अंग खुलने शुरू होते हैं और सैर का असली लाभ उसके बाद मिलता है, अत: सैर की अवधि 40 मिनट से 60 मिनट के बीच रहना आवश्यक है। इससे कम अवधि की सैर का लाभ कम होगा। सवेरे की सैर करने वाले व्यक्तियों के लिए रात्रि सैर की आधे घंटे की अवधि भी काफी है। रात्रि की सैर को लेकर भी कई भ्रम हैं। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि रात्रि के भोजन से पूर्व ब्रिस्क वॉक दवाई की तरह है। भोजन के बाद तेज़ सैर नहीं की जानी चाहिए। यदि आप रात्रि के भोजन के बाद सैर के लिए निकलते हैं तो टहलने जैसा होना चाहिए जिसका उद्देश्य यह है कि खाना खाते ही बिस्तर पर नहीं जाना चाहिए बल्कि नींद से पहले खाना पचने का समय मिलना चाहिए।

प्रसिद्ध योग गुरू स्वामी लालजी महाराज शायद अकेले ऐसे योगाचार्य हैं जो स्वास्थ्य रक्षा में योग, जिम और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समन्वय की वकालत करते हैं। जिम में व्यायाम करते हुए यदि व्यक्ति श्वास-प्रक्रिया पर भी नियंत्रण करे तो व्यायाम का लाभ दोगुणा हो सकता है। बहुत से डाक्टर भी अब यह स्वीकार करते हैं कि यदि चिकित्सा विज्ञान में योग का भी समावेश हो जाए तो रोगी को ज्य़ादा लाभ होता है। डा. पूनम नायर द्वारा संचालित, चंडीगढ़ योग सभा और पीजीआई में ही इस संबंध में लगभग दो साल तक चले एक अध्ययन में यह पाया गया कि योग की सहायता से रोगियों में तनाव कम हुआ, रोग से छुटकारा पाने में आसानी हुई और लाभ स्थाई रहा। यही नहीं, पीजीआई में खुद डाक्टरों और नर्सों को भी जब योग क्रियाएं करवाई गईं तो उनमें तनाव की कमी आई और वे ज्यादा कुशलता से अपनी ड्यूटी निभा सकने में सक्षम पाये गए। स्पष्ट है कि हम अपने जीवन में योग और व्यायाम को भी उतार पायें तो जीवन कहीं ज्य़ादा स्वस्थ, संपन्न और खुशहाल हो सकता है। ***

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