Friday, February 26, 2010

पत्रकारिता में अनुवाद

पीके खुराना


पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों की भाषा पर अच्छी पकड़ होना एक अनिवार्य आवश्यकता है। भाषा पर पकड़ होने से भावों की अभिव्यक्ति सरलता से हो पाती है और भाषा में प्रवाह रहता है। शब्दों के सही चयन से भाषा की दुरूहता जाती रहती है और पाठक की रुचि बनी रहती है।

भाषायी पत्रकार की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उसे बहुत सी सामग्री अंग्रेज़ी में मिलती है जिसे अपने पत्र की भाषा में अनुवाद करना आवश्यक होता है। पत्रकार कोई समाचार लिख रहा हो, लेख या रिपोर्ताज बना रहा हो या कुछ भी अन्य सामग्री तैयार कर रहा हो, यदि उसकी संदर्भ सामग्री अंग्रेज़ी में है तो उसे अपने पत्र की भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी का भी जानकार होना आवश्यक है। अंग्रेज़ी की जानकारी के बिना भाषायी पत्रकारिता में भी बहुत ऊँचे पहुंच पाना अब आसान नहीं रह गया है। इसके विपरीत, भाषा पर पकड़ के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाने की बहुत आशंका रहती है।

भाषायी पत्रकारिता में अनुवाद की कला की जानकारी की आवश्यकता दो रूपों में रहती है। पहली, जब लेखक किसी संदर्भ सामग्री का सहारा लेकर अपनी कोई मौलिक रचना, समाचार, लेख, रिपोतार्ज, विश्लेषण, व्यंग्य अथवा कुछ और लिख रहा हो और संदर्भ सामग्री पत्र अथवा पत्रिका की भाषा में न हो। दूसरी, जब अनुवादक किसी मूल कृति का हूबहू अनुवाद कर रहा हो। दोनों ही स्थितियों में अनुवाद की कला में महारत, लेखक की रचना को सुबोध औऱ रुचिकर बना देती है।

अपनी बात कहने के लिए हम यह मान लेते हैं कि अनुवादक किसी हिंदी समाचारपत्र के लिए कार्यरत है और उसे अंग्रेज़ी से मूल सामग्री का अनुवाद करना है। अनुवादक अक्सर इस भ्रम का शिकार रहते हैं कि वे अंग्रेज़ी का कामचलाऊ ज्ञान होने तथा हिंदी का कुछ गहरा ज्ञान होने की स्थिति में भी अच्छा अनुवाद कर सकते हैं। इससे भी बड़ी भूल वे तब करते हैं जब वे यह मान लेते हैं कि विषय-वस्तु के ज्ञान के बिना अथवा मूल सामग्री की विषय-वस्तु को समझे बिना भी वे सही-सही अनुवाद कर सकते हैं।
पहली बात तो यह है कि हर भाषा का अपना व्याकरण होता है जिसके कारण उस भाषा की वाक्य-रचना अलग प्रकार की हो सकती है। दूसरे हर भाषा में भावाभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त मुहावरे, लोकोक्तियों तथा वाक्यांशों (फ्रेज) का अपना महत्व होता है और उन्हें समझे बिना सही-सही अनुवाद संभव ही नहीं है। इसी प्रकार हर भाषा में धीरे-धीरे कुछ विदेशी शब्द भी घुसपैठ बना लेते हैं और वे बोलचाल की भाषा में रच-बस जाते हैं। भाषा के इस ज्ञान के बिना अनुवाद करने में न केवल परेशानी हो सकती है बल्कि अशुद्धियों की मात्रा भी बढ़ सकती है। उदाहरणार्थ हिंदी में उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी के बहुत से शब्द इस प्रकार आ मिले हैं कि न केवल आम आदमी उन्हें हिंदी के ही शब्द मानता है बल्कि अब तो वे हिंदी शब्दकोष का भाग भी बन गये हैं। कयास, कवायद, स्कूल, टिकट, रेल आदि ऐसे ही विदेशी शब्द हैं जो हिंदी भाषा में धड़ल्ले से प्रयुक्त होने के कारण अब हिंदी का ही भाग हैं।

इसी स्थिति को अब एक और नज़रिये से देखेंगे तो बात समझ में आ जाएगी। मान लीजिए कि अनुवादक अंग्रेज़ी भाषी व्यक्ति है और उसे अंग्रेज़ी का तो अच्छा ज्ञान है परंतु हिंदी का ज्ञान किताबी ही है। किताबी हिंदी का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को शायद कभी कवायद और कयास जैसे शब्दों से वास्ता न पड़े और यदि उसे हिंदी भाषा में प्रयुक्त इन शब्दों का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की आवश्यकता पड़े तो वह संभवत: कठिनाई में पड़ जाएगा।

अनुवाद तब बेमज़ा और बेजान हो जाता है जब उसमें सिर्फ किताबी शब्द प्रयोग होने लगते हैं। अपनी मातृभाषा में मूलरूप में लिखने वाला लेखक न केवल किताबी शब्दों का प्रयोग करता है बल्कि भाषा में रवानगी लाने के लिए वह बोलचाल के आम शब्दों का प्रयोग भी अनजाने करता चलता है। कभी यह सायास होता है और कभी अनायास हो जाता है। इससे न केवल भाषा में विविधता आ जाती है बल्कि यह रुचिकर भी हो जाती है, जबकि अनुवादक अक्सर किताबी शब्दों का प्रयोग ज़्यादा करते हैं जिससे भाषा बोझिल और दुरूह हो जाती है और पाठक को स्पष्ट नज़र आता है कि यह मूल रूप से उसी भाषा में लिखी गई रचना नहीं है, बल्कि अनुवाद है। अनूदित रचना का मज़ा इससे जाता रहता है।

पर ये मामूली बातें हैं और अनुवादक यदि सतर्क और ज़िम्मेदार हो तो थोड़े-से अभ्यास से ऐसी छोटी-मोटी कठिनाईयों से आसानी से पार पा सकता है, पर विषय के गहन ज्ञान के बिना अथवा मूल सामग्री की विषय-वस्तु को समझे बिना सही-सही अनुवाद कर पाना असंभव है। विषय वस्तु को समझे बिना अनुवादक ‘इंडिया बिकेम फ्री ऑन फिफ्टीन्थ ऑफ आगस्ट’ का अनुवाद ‘भारतवर्ष पंद्रह अगस्त को मुफ्त हो गया’ अथवा ‘रेलवे स्लीपर्स ड्राउन्ड’ का हिंदी अनुवाद ‘रेलवे स्टेशन पर सोने वाले बह गए’ भी कर सकते हैं। अर्थ के अनर्थ का यही अर्थ है !

आखिर क्या है अनुवाद ?

अनुवाद कैसे करें, या सही-सही अनुवाद कैसे करें, यह जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि अनुवाद है क्या ? यदि किसी द्वारा कही हुई कोई बात आप दोहरा रहे हैं तो आप अनुवाद कर रहे हैं क्योंकि अनुवाद का अर्थ ही है -- ‘पुन: कथन, या किसी के कहने के बाद कहना।’

यदि किसी ने फूल न देखा हो और आपको उसे फूल, उसकी बनावट, रंग-रूप आदि के बारे में बताना पड़े तो यह समझाना-बुझाना भी अनुवाद के दायरे में आयेगा। भाषान्तर या अनुवाद दरअसल प्रतीकांतर का ही एक रूप है -- एक भाषा के प्रतीक को दूसरी भाषा के समकक्ष प्रतीक द्वारा व्यक्त करने का विज्ञान, जो साथ में कला भी है। अनुवाद शब्द का मूल अर्थ ‘पश्चात कथन’ और सार्थक पुनरावृत्ति भले ही रहा हो, पर बाद में वह किसी शब्द, वाक्य या पुस्तक को दूसरी भाषा में प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त होने लगा।

आज के युग में अनुवाद का महत्व पहले की तुलना में कहीं अधिक हो गया है। साहित्य और विज्ञान के हर क्षेत्र में इतना काम और व्यावहारिक ज्ञान का संचय हो रहा है कि उससे अनभिज्ञ नहीं रहा जा सकता। यह काम इतनी तेजी से हो रहा है कि दूसरी भाषाओं में उपलब्ध ज्ञानराशि प्राप्त करने का सतत् प्रयत्न करते रहना आवश्यक हो गया है, जो अनुवाद के जरिए ही संभव है।

किसी भी कृति का जीवंत अनुवाद एक दुष्कर कार्य है क्योंकि हर भाषा की अपनी व्यवस्था होती है, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ होते हैं, जिनको अन्य भाषाओं में व्यक्त करने वाले समानार्थी शब्द नहीं होते। अक्सर अन्य भाषाएं ऐसे शब्दों को तोड़-मरोड़ कर या ज्यों का त्यों अपना लेती हैं। इससे अनुवाद बोझिल नहीं होता और लेखक का मूल अभिप्राय भी नष्ट नहीं होता।

अनुवाद के प्रकार
विषय और स्वरूप के अनुसार अनुवादों का व्यावहारिक वर्गीकरण किया जा सकता है। यह तीन प्रकार का है :

शब्दानुवाद
इस कोटि के आदर्श अनुवाद में कोशिश की जाती है कि मूल भाषा के प्रत्येक शब्द और अभिव्यक्ति की इकाई (पद, पदबंध, मुहावरा, लोकोक्ति, उपवाक्य अथवा वाक्य आदि) का अनुवाद लक्ष्य भाषा में करते हुए मूल के भाव को संप्रेषित किया जाए। दूसरे शब्दों में, अनुवाद न तो मूल पाठ की किसी अभिव्यक्त इकाई को छोड़ सकता है और न अपनी ओर से कुछ जोड़ सकता है। अनुवाद का यह प्रकार गणित, ज्योतिष, विज्ञान और विधि साहित्य के अधिक अनुकूल पड़ता है।

भावानुवाद
इस प्रकार के अनुवाद में भाव, अर्थ औऱ विचार पर अधिक ध्यान दिया जाता है लेकिन ऐसे शब्दों, पदों या वाक्यांशों की उपेक्षा नहीं की जाती जो महत्वपूर्ण हों। ऐसे अनुवाद से सहज प्रवाह बना रहता है। पत्रकार अक्सर इसका सहारा लेते हैं।

सारानुवाद
यह आवश्यकतानुसार संक्षित या अति संक्षिप्त होता है। भाषणों, विचार गोष्ठियों और संसद के वादविवाद का प्रस्तुतिकरण इसी कोटि का होता है।

अनुवाद की प्रक्रिया
अनुवाद की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक भाषा की पाठ-सामग्री दूसरी भाषा में व्यक्त की जाती है। जिस भाषा में सामग्री उपलब्ध है, वह मूल भाषा है तथा जिस भाषा में अनुवाद होना है, उसे लक्ष्य भाषा कहा जाता है।

अनुवाद की प्रक्रिया की तीन अवस्थाएं मानी गयी है -- मूल सामग्री की विश्लेषण, अंतरण और पुनर्रचना या पुनर्गठन। स्रोत भाषा की सामग्री का सही अर्थ निर्धारित करने के बाद अनुवादक लक्ष्य भाषा में उसकी समानार्थी स्वाभाविक अभिव्यक्ति खोजता है। समानार्थी अभिव्यक्ति दो प्रकार की हो सकती है -- ठीक वही अर्थ देने वाली (एकार्थी) अथवा निकटतम अर्थ देने वाली। अंग्रेज़ी के फादर और मदर के लिए पिता-माता एकार्थी अभिव्यक्तियां हैं लेकिन अंग्रेज़ी के अंकल के लिए हिंदी में बहुत से शब्द हैं, ताऊ, चाचा, मामा आदि।

व्यावहारिक भाषा के ज्ञान के बिना सही अनुवाद संभव नहीं। इसके अतिरिक्त पत्रकारिता का अनुवाद एक अनुभव-आश्रित कार्य है। पत्रकारिता में अनुवाद के समय, अनुवाद के नियम-कानून पहले लागू होते हैं, फिर अनुवाद के। अनुवादक को अपनी सूझ-बूझ और समाचार प्रस्तुतिकरण के तकाज़ों को ध्यान में रखकर अनुवाद करना होता है। अनूदित समाचार में भी एक लय होती है, भाषा और पदों का सुघड़ संयोजन होता है।

अनुवाद और अर्थ
‘अनुवाद और अर्थ’ शीर्षक शायद गलत है। दरअसल हमें कहना चाहिए अनुवाद में अनर्थ। आप ने अखबारों में अक्सर पढ़ा होगा -- ‘न्यायाधीश ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा’। पहली नज़र में हो सकता है कि आपको कुछ न खटके। परंतु यह अनुवादक के अज्ञान के कारण प्रचलित अशुद्ध अनुवाद का बेहतरीन नमूना है। जब न्यायाधीश कहता है कि उसने अपना ‘जजमेंट रिजर्व’ रखा है तो इसका मतलब यह नही होता कि फैसला लिखकर अलमारी में बंद किया गया है जो अमुक दिन सुनाया जायेगा। दरअसल इसका मतलब यह है कि निर्णय बाद में लिखा और सुनाया जायेगा। जब लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) अपनी रूलिगं (निर्णय) आगे के लिए टाल देता है तब भी यही स्थिति होती है। अत: लिखा जाना चाहिए -- निर्णय ‘स्थगित’ या ‘मुल्तवी’ कर दिया गया है। सटीक और सहज अनुवाद के लिए दोनों भाषाओं की विषमताओं की जानकारी होनी चाहिए। थोड़ा ध्यान देने से अनुवादक ऐसी तमाम चूकों से बच सकते हैं जो अनुवाद के समय चुपके से घुस आती हैं।

कई बार स्थान भेद की जानकारी होने से अनुवाद में बड़ी सहायता मिलती है। भारत में वित्तमंत्री जो कार्य करते हैं वही काम ब्रिटेन में ‘चांसलर ऑफ एक्सचेकर’ करते हैं। इसी तरह अमेरिका के सेक्रेट्री आफ स्टेट को विदेशमंत्री कहा जाना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत मंत्रियों को सेक्रेट्री कहा जाता है, उन्हें हम मंत्री ही कहेंगे, सचिव नहीं।
अमेरिका में राज्यों के गवर्नर की स्थिति भारत के राज्यपालों से अलग होती है। वहां वे निर्वाचित होते हैं, इसलिए अनुवाद न करना ही बेहतर होगा।

अमेरिकी और ब्रितानी अंग्रेज़ी का फर्क भी ध्यान में रखना आवश्यक है। एक बार पाकिस्तान ने अमेरिका से रेलवे स्लीपर खरीदे। उनको अमेरिका में ‘टाई’ कहते हैं क्योंकि वह दोनों पटरियों को बांधे रहता है। अमेरिका की अखबार में छपी इस खबर के आधार पर एक पाकिस्तानी उर्दू अखबार में संपादकीय छपा, जिसमें गले में बांधने वाली टाई की खरीद की निंदा की गई थी।

अखबार और पुस्तकें देखने पर आप पायेंगे कि वर्तनी की एकरूपता का कोई सार्वदेशिक मानक (स्टैंडर्ड) नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी स्तर पर प्रयास नहीं हुआ, लेकिन मत-वैभिन्य और वर्तनी के प्रति लापरवाही के कारण अराजकता जैसी स्थिति है। वस्तुत: इस मामले में छपाई और लेखकीय सुविधा के कारण सरलीकरण की प्रवृत्ति बलवती हुई है। बहुत से अखबार अपने यहां कुछ खास शब्दों व नामों आदि की वर्तनी निश्चित कर लेते हैं और उस अखबार में उन शब्दों के लिए उसी वर्तनी का प्रयोग होता है। इससे मानकीकरण बढ़ता है और अराजकता घटती है।

अंग्रेजी के तमाम संक्षिप्त रूप इतने चल गए हैं कि हिंदी की सहज प्रकृति के अनुरूप संक्षिप्तीकरण का आग्रह पिछड़ जाता है। मसलन थाने में प्राथमिक रिपोर्ट के लिए एफआईआर का प्रयोग धड़ल्ले से होता है। इसी तरह वीडियो आमफहम शब्द बन जाता है। अब तो अखबारों ने पूरे के पूरे अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। यहां तक कि अध्यापक की जगह टीचर और ऐसे ही अन्य शब्दों का इस्तेमाल बढ़ गया है। इस संबंध में यही कहा जाना चाहिए कि जनस्वीकृति सबसे बड़ा प्रमाण होता है, भले ही वह नियमानुकूल हो या न हो।

एक खेल संवाददाता को खेल से जुड़ी शब्दावली का समग्र ज्ञान होना आवश्यक है, आर्थिक संवाददाता को न केवल तत्संबंधी शब्दावली का ही ज्ञान होना चाहिए बल्कि उसे उनके सही अर्थ और प्रयोग की पूरी जानकारी होना भी आवश्यक है। अपराध संवाददाता को पुलिस और कोर्ट-कचहरी में प्रयोग होने वाले शब्दों की जानकारी के साथ-साथ कानून की विभिन्न धाराओं तथा उनके प्रभाव की जानकारी होना भी आवश्यक है अन्यथा उनके समाचार में गहराई नहीं आ पायेगी। ऐसे समाचारों को अनुवाद करने वाले अनुवादक को भी कानून की धाराओं और उनके प्रयोग और अर्थ का कम से कम कामचलाऊ ज्ञान तो होना ही चाहिए अन्यथा अनुवाद के अशुद्ध होने की आशंका बनी रहेगी। वाक्य में भी सही शब्दों के चयन की प्रक्रिया को समझे बिना, अनुवाद अशुद्ध हो सकता है। हम यह तो कह सकते हैं कि ‘अनुवाद के अशुद्ध होने की आशंका बनी रहेगी’ पर इसे ‘अनुवाद के अशुद्ध होने की संभावना बनी रहेगी’ नही कहा जाना चाहिए, क्योंकि ‘संभावना’ एक पॉज़िटिव, एक विधायी, एक धनात्मक शब्द है जबकि ‘आंशका’ एक नेगेटिव यानि ऋणात्मक शब्द है।

भाषा एक प्रवहमान वस्तु है। जनसामान्य के प्रयोग से यह नये-नये रूप धरती रहती है। पुराने शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, वे नये रूप और नये अर्थ धारण कर लेते हैं। अनुवाद की शुद्धता के लिए अनुवादक को इस परिवर्तन का ज्ञान होना चाहिए। साहित्य और पत्रकारिता में आज हम हिजड़ों के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग करने लगे हैं, कभी यह शब्द हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के निवासियों के लिए अति पीड़ादायक होता पर आज बोलचाल की भाषा का भाग बन कर यह शब्द इसी अर्थ में रुढ़ हो गया है। भारतीय भाषाओं के कई शब्द अंग्रेजी शब्द कोष में स्थान पा गए हैं। समय बीतने के साथ एक ही भाषा के कुछ शब्दों के अर्थ भी अक्सर बदल जाते हैं और वे नये-नये रूपों में सामने आते रहते हैं। अक्सर भाषाविद् इस पर ऐतराज करते हैं और नया अर्थ स्वीकार करने में हिचकते हैं, पर फिर लगातार प्रयोग से जब कोई शब्द नये अर्थ में रूढ़ हो जाता है तो विद्वजन भी नये रूप को स्वीकार कर लेते हैं। भावार्थ यह है कि रचना के मूल रचयिता को ही भाषा का समग्र ज्ञान होना आवश्यक नहीं है, बल्कि अनुवाद को भी शब्दों के सही-सही प्रयोग के लिए रचना की मूल भाषा और अनुवाद की भाषा पर पूरी पकड़ होना नितांत आवश्यक है।

भाषा के ज्ञान की तरह ही विषय-वस्तु का ज्ञान भी अनुवाद का अनिवार्य तत्व है। ‘कोआपरेटिव सोसायटी’ का अनुवाद ‘सहकारी संस्था’ ही हो सकता है ‘सहयोगी संस्था’ नहीं। इसी तरह यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विषय बदल जाने पर एक ही शब्द का अर्थ भी बदल सकता है। अपराध संवाददाता के लिए किसी शब्द का अर्थ जो होगा, आवश्यक नही कि वाणिज्य संवाददाता के लिए उस शब्द का अर्थ भी वही हो। भिन्न क्षेत्रों के लिए एक ही शब्द का अर्थ अलग-अलग होना सामान्य सी बात है। इसे समझे बिना अनुवाद अधूरा और अशुद्ध होने की आशंका बढ़ जाती है।

विज्ञापन एजेंसियों तथा जनसंपर्क सलाहकार कंपनियों में एक प्रथा है कि ग्राहक कंपनियों के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को ग्राहक कंपनी के कामकाज तथा शैली की अधिकाधिक जानकारी दी जाती है। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए जाते हैं अथवा उन्हें ग्राहक कंपनी के कार्यालय में रहकर उनके कामकाज को समझने का अवसर दिया जाता है। अनुवादक को ऐसी सुविधा मिलना शायद न संभव है और न व्यावहारिक, ऐसे में अनुवादक के लिए एक ही तरीका बचता है कि वह संबंधित विषय पर उपलब्ध साहित्य का अधिकाधिक मनन करे और विषय की गहराई में जाये। इससे अनुवाद में सरलता आ जाती है और उसमें मूल रचना का प्रवाह और ताज़गी भी बने रहते हैं।

अनुवाद के लिए विषय-विशेष से संबधित शब्दकोष भी उपलब्ध हैं। हिंदी से अंग्रेज़ी, अंग्रेज़ी से हिन्दी, हिन्दी से हिन्दी तथा अंग्रेज़ी से अंग्रेज़ी के अच्छे शब्दकोषों के अतिरिक्त दोनों भाषाओं के पर्यायवाची शब्दकोषों (थिसारस) का अब कोई अभाव नहीं है। इसी तरह विषय-विशेष के शब्दकोष अर्थात् वाणिज्यिक शब्दकोष (बिजनेस डिक्शनरी), चिकित्सकीय शब्दकोष (मेडिकल डिक्शनरी), विधि शब्दावली (लीगल ग्लासरी) आदि भी आसानी से उपलब्ध हैं। अनुवादक के पास इनका अच्छा संग्रह होना चाहिए।
अनुवाद का एक नियम याद रखिए। यदि किसी अंग्रेज़ी शब्द का हिंदी में अनुवाद करना है और आपको भाव की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति के लिए शब्दकोष से सही शब्द नहीं मिल पा रहा हो तो या तो मूल अंग्रेज़ी शब्द के अंग्रेज़ी समानार्थक खोजिए और फिर उनका हिंदी अर्थ देखिए या फिर हिंदी में दिये गए अनुवाद के हिंदी समानार्थक खोजिए और उनमें से सही शब्द चुन लीजिए या दोनों विधियों को मिला कर अपने मतलब का शब्द ढूंढ़ लीजिए।

उपरोक्त विवेचित नियमों का सार रूप कुछ यूं होगा ::
• सही और शुद्ध अनुवाद के लिए रचना की मूल भाषा तथा जिस विषय में अनुवाद होना है, उसका अच्छा ज्ञान होना आवश्यक है।
• रचना के विषय का आधारभूत ज्ञान अच्छे अनुवाद में सहायक होता है।
• रचना-विशेष की विषय-सामग्री को समझना अच्छे अनुवाद की अनिवार्य शर्त है।
• मूल रचना की भाषा तथा अनुवाद की भाषा अथवा लक्ष्य भाषा में प्रयुक्त मुहावरों, लोकोक्तियों, वाक्याशों तथा उसमें समा चुके विदेशी शब्दों का ज्ञान भी आवश्यक है।
• अनुवाद में किताबी शब्दों के अनावश्यक प्रयोग से बचना चाहिए।
• यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अनुवाद में प्रयुक्त शब्द रचना की भावना से मेल खाते हों।
• यदि अनुवाद के समय मूल रचना में प्रयुक्त किसी शब्द का सही स्थानापन्न न मिल रहा हो तो अनुवाद की भाषा (लक्ष्य भाषा) में उसके अर्थ के पर्यायवाची ढ़ूढ़ने से सही शब्द मिल सकता है।
• यदि अनुवाद के समय मूल रचना में प्रयुक्त किसी शब्द का सही स्थानापन्न न मिल रहा हो तो मूल रचना की भाषा (लक्ष्य भाषा) में उसके अर्थ के पर्यायवाची ढूढ़ने से सही अनुवाद मिल सकता हैं।
• उपरोक्त दोनों विधियों को मिलाकर काम करने से अनुवाद में प्रयोग के लिए सही शब्द मिल सकता है।
• रचना की मूल भाषा, लक्ष्य भाषा तथा रचना की मूल भाषा से लक्ष्य भाषा वाले शब्द कोष व पर्यायवाची कोष अनुवादक के कार्य में सहायक होते हैं।
• अनुवादक के पास विषय-विशेष के शब्दकोषों का अच्छा संग्रह होना भी उपयोगी रहता है।

अनुवाद के लिए सही शब्द की खोज समय खाने वाला समय काम तो है ही, इसमें थोड़ा-सा श्रम भी है पर इस मेहनत का फल यह होगा कि आपका अनुवाद रूचिकर, बोधगम्य और प्रवहमान होगा और यूं लगेगा कि रचना मूल रूप से अनुवाद की भाषा में ही लिखी गई है। आखिर अनुवाद का उद्देश्य भी तो यही है।



अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’ के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...

No comments:

Post a Comment