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Sunday, March 21, 2010

जनता, संवाददाता और कानून

लेखक और संवाददाता में कई बुनियादी फर्क हैं। कोई कहानीकार सत्यकथाएं लिख सकता है, सत्य पर आधारित कथाएं लिख सकता है, जिनमें सत्य और कल्पना का रुचिकर संगम हो। अपनी कल्पनाशक्ति से पूरा का पूरा कथानक गढ़ सकने के लिए भी वह पूर्णत: स्वतंत्र होता है। संवाददाता को यह स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं है। साहित्य विशुद्ध सूचना नहीं है परंतु समाचार विशुद्घ सूचना है, अत: इसका तथ्यपरक होना नितांत आवश्यक है। इसमें कल्पना की ज्यादा गुंजायश नहीं है। अक्सर समाचारों में संवाददाता अपनी टिप्पणियां नहीं जोड़ता, पर किसी घटना का विश्लेषण करते समय अथवा उसकी पृष्ठभूमि बताते समय उसे कुछ सीमा तक यह स्वतंत्रता हासिल है। समाचारों में किसी एक घटना-विशेष का विवरण होता है इस कारण उस घटना से जुड़े लोगों के नामों का उल्लेख भी समाचारों में आता है। ध्यान देने की बात यह है कि जब हम किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख करते हुए उसके बारे में कुछ लिखते हैं तो उसके सम्मान, उसकी प्रतिष्ठा और उसकी निजता के अधिकारों का प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो उठता है। एक दूसरा अंतर यह है कि एक लेखक को बिना किसी समय सीमा के अपनी रचना पूरी करने का अधिकार है जबकि संवाददाता को समय सीमा के भीतर रहकर ही काम करना होता है। उसकी योग्यता ही इसमें निहित है कि वह अपने क्षेत्र में घटने वाली हर महत्वपूर्ण घटना की जानकारी अपने समाचारपत्र को तुरंत दे। परंतु संवाददाता को एक सुविधा भी है। लेखक को सजग रहकर अपने लेखन के लिए विषय ढूंढऩे पड़ते हैं और उन्हें पठनीय बनाने के लिए उनमें कल्पना के रंग भरने पड़ते हैं जिसमें ज्यादा कौशल की आवश्यकता होती है जबकि संवाददाता चूंकि घटी हुई घटनाओं का ब्योरा देता है, अत: उसे सिर्फ भाषा, शब्दों के प्रयोग तथा सूचनाओं की पूरी जानकारी की आवश्यकता होती है। पत्रकारिता एक प्रकार से जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य है और दोनों का लक्ष्य लोकरंजन एवं लोक कल्याण ही है।

मूल आवश्यकता यह है कि संवाददाता को अपने व समाचार में उल्लिखित लोगों के कानूनी अधिकारों तथा सीमाओं की जानकारी हो, अन्यथा यह संभव है कि वह किसी की मानहानि कर बैठे और फिर अदालतों के चक्कर काटता रहे। संवाददाता की ओर से किसी गैरजिम्मेदार व्यवहार के कारण उसे अपनी नौकरी भी गंवानी पड़ सकती है।

संवाददाताओं को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला वर्ग उन संवाददाताओं का है जो किसी समाचार पत्र के पूर्णकालिक कर्मचारी हैं और सिर्फ उसी समाचारपत्र के लिए कार्य करते हैं। संवाददाताओं की दूसरी श्रेणी अंशकालिक संवाददाताओं की है जो एक (या अधिक) अखबारों के लिए कार्य करते हैं और उन्हें एक निश्चित धनराशि के अतिरिक्त प्रकाशित समाचारों पर पारिश्रमिक भी मिलता है। अपवादों को छोड़ दें तो इन दोनों वर्गों के पत्रकारों को केंद्र, राज्य अथवा जिला स्तर की सरकारी मान्यता एवं कई अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं। मान्यता-प्राप्त संवाददाताओं में भी दो तरह के लोग होते हैं, एक वे जिन्हें पूर्ण एक्रीडिटेशन प्राप्त है जबकि दूसरे वर्ग के संवाददाता रिकग्नाइज्ड तो होते हैं पर वे एक्रिडिटेटिड नहीं होते।

तीसरे वर्ग में हम उन संवाददाताओं को रख सकते हैं जो किसी अखबार विशेष से जुड़े हुए नहीं हैं और वे स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए एक साथ कई अखबारों को अपने समाचार भिजवाते हैं। स्वतंत्र संवाददाताओं को मात्र प्रकाशित समाचारों पर ही पारिश्रमिक या मानदेय मिलता है, हालांकि ऐसे अखबारों की कोई कमी कभी नहीं रही जो समाचार प्रकाशित करने के बावजूद न पारिश्रमिक देते हैं, न सूचना देते हैं और न ही प्रकाशित समाचार की कतरन अथवा अखबार की प्रति भिजवाते हैं। ऐसे संवाददाताओं के पारिश्रमिक का मामला बहुत कुछ संवाददाता की स्थिति और अखबार-विशेष की नीति पर भी निर्भर करता है।

एक सफल संवाददाता को अपने उत्तरदायित्वों तथा अपनी सीमाओं का स्पष्टï ज्ञान होना चाहिए। अखबारों में प्रकाशित समाचारों पर लोगों को विश्वास होता है और सामान्य जन पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ता है, अत: एक संवाददाता को यह याद रखना चाहिए कि पत्रकारिता लोगों को जोडऩे के लिए है, तोडऩे के लिए नहीं। यह एक मान्य तथ्य है कि एक झूठ सौ बार बोलने से वह झूठ भी सच जैसा प्रभावी बन जाता है अत: यह ध्यान रखने की बात है कि अखबार को किसी दुष्प्रचार का साधन नहीं बनने देना चाहिए। समाज को सूचनाएं -- सही सूचनाएं -- देना संवाददाता का पावन कर्तव्य है। समाचार निष्पक्ष और मर्यादित होने चाहिएं ताकि उनसे समाज में अव्यवस्था या उत्तेजना न फैले। आधुनिकता के इस युग में अधिकांश देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है। भारतवर्ष में भी संवाददाताओं को खासी स्वतंत्रता प्राप्त है। परंतु संवाददाताओं को यह याद रखना चाहिए कि उनकी स्वतंत्रता किसी दूसरे की स्वतंत्रता में खलल नहीं डाल सकती। इसके अतिरिक्त संवाददाताओं को कुछ कानूनी प्रावधानों का भी ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। इनका मोटा-मोटा विवरण इस प्रकार है ::

# बलात्कार का समाचार देते समय समाचार में बलात्कार की शिकार महिला का नाम नहीं दिया जा सकता।
# दंगे अथवा तनाव की स्थिति में किसी संप्रदाय विशेष का जिक्र नहीं किया जा सकता। उत्तेजना व अशांति भडक़ाना भी जुर्म है।
# किसी सांसद द्वारा संसद में अथवा किसी विधायक द्वारा विधानसभा में कही गई किसी आपत्तिजनक बात के कारण संबद्घ सांसद अथवा विधायक पर मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता परंतु उसकी कही गयी बात को ज्यों का त्यों छाप देने पर संवाददाता पर मुकद्दमा चलाया जा सकता है। कुछ विधानसभाओं ने प्रस्ताव पास करके संवाददाताओं को भी इस मामले में संरक्षण देने का प्रावधान बना रखा है अत: संवाददाता को इस संबंध में अपने राज्य के नियमों की जानकारी होना आवश्यक है। वैसे भी एक व्यक्ति दूसरे की आलोचना में कोई अपशब्द इस्तेमाल करे तो उसके शब्दों को हम हूबहू नहीं छाप सकते, छापें तो मानहानि का दावा हो सकता है। लिखित शब्द की कीमत ज्यादा होती है, लिखित अथवा प्रकाशित बात से हम प्रतिबद्घ हो जाते हैं, इसलिए लिखते समय भाषा, उसके संतुलन तथा कहीं न फंसने वाली शब्दावली का प्रयोग आवश्यक है।
# आरोपों की पुष्टि न हो सकने की स्थिति में आरोपी का नाम लिखने के बजाए ‘एक मंत्री’ अथवा ‘एक बड़े अधिकारी’ आदि लिखना चाहिए।
# अदालती फैसलों की सीमित आलोचना ही संभव है। इस आलोचना में जज या मजिस्ट्रेट की नीयत पर संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता वरना वह अदालत की तौहीन मानी जाएगी।
# कोई मामला अदालत के विचाराधीन होने पर उसके पक्ष-विपक्ष में टिप्पणी नहीं की जा सकती।
# समाचारों में अश्लीलता एवं अभद्रता नहीं होनी चाहिए। गरिमा का ध्यान रखना जरूरी है।
# राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मामलों में सूचना का अधिकार असीमित नहीं है। राष्टï्रीय सुरक्षा एवं उसके हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
# बहुत से अखबारों की नीति है कि वे वीभत्स चित्र (मृतकों आदि के चित्र) नहीं छापते। औचित्य की दृष्टिï से भी वीभत्स रस से बचना चाहिए।
# यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे पर कोई आरोप लगाए (चाहे वह हस्ताक्षरित बयान ही क्यों न हो) तो देखना चाहिए कि वे आरोप प्रथम दृष्ट्या छपने लायक भी हैं या नहीं। इसके अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि आरोप लगाने वाले व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा कैसी है? वह कितना जिम्मेदार व्यक्ति है? जिस पर आरोप लगाया जा रहा है, उसकी व्यक्तिगत-सामाजिक स्थिति कैसी है? वगैरह, वगैरह। अन्यथा ऐसे आरोपों का जिक्र करते समय किसी का नाम न लेने की सुरक्षित राह अपनानी चाहिए।
# इसी प्रकार समाचार लिखते समय संवाददाता द्वारा किसी को आतंकित करने के लिए, ब्लैकमेल करने के लिए, किसी की प्रतिष्ठा को अकारण चोट पहुंचाने के लिए, कोई लाभ प्राप्त करने के इरादे से, व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण, बदनीयती से अथवा तथ्यों के विपरीत किसी बात का उल्लेख नहीं करना चाहिए। ऐसा होने पर उसके विरुद्घ अदालती कार्यवाही की जा सकती है। यूं इस मामले में व्यावहारिक स्थिति यह है कि किसी संवाददाता के विरुद्घ मानहानि का दावा कर देना आसान नहीं है। मानहानि का दावा करने वाले व्यक्ति को हर पेशी पर अदालत में उपस्थित होना पड़ता है और अदालतों के चक्कर में काफी समय बर्बाद करना पड़ता है जिसके कारण हर व्यक्ति मानहानि का दावा करने अथवा दावा करने के बाद उसे चलाते रह पाने का साहस नहीं कर पाता।

कानूनी नियम सभी संवाददाताओं के लिए एक जैसे हैं चाहे वे किसी अखबार के संवाददाता हों अथवा किसी टीवी चैनल या केबल टीवी के प्रतिनिधि हों। मुख्य बात है मर्यादा और संयम के साथ रचनात्मक समाचार दिये जाएं। किसी भ्रष्टाचार अथवा षड्यंत्र के भंडाफोड़ का समाचार देते समय भी संयमित भाषा तथा तथ्यों पर आधारित जानकारी का प्रयोग करना चाहिए। भारतीय प्रेस परिषद् ने इस विषय में विस्तृत निर्देश जारी किये हैं। अगले अध्याय में भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा जारी दिशा-निर्देश हू-ब-हू दिये जा रहे हैं। हर संवाददाता को इन नियमों की जानकारी होनी चाहिए और उनका पालन करना चाहिए।

मेहनत, लगन और अभ्यास से हर काम में सफलता पाई जा सकती है। पत्रकारिता का क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। यह एक प्रतिष्ठिïत व्यवसाय है और इससे जुड़े लोगों का भविष्य उज्ज्वल है। साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि इस व्यवसाय की प्रतिबद्धता समाज और देश के प्रति है। समाज में स्वस्थ माहौल, पारस्परिक सदाशयता तथा शांति की स्थापना में योगदान पत्रकार एवं समाचारपत्र का कर्तव्य है। संवाददाता की लेखनी का भटकाव समाज में विषाक्त माहौल न बनाये, यह आवश्यक है। पत्रकार की कलम अन्याय, दमन, ज्यादती, राष्ट्रघात, शोषण, विषमता एवं विद्वेष को बढ़ावा देने वाली शक्तियों के खिलाफ चलनी चाहिए। यह कहना समीचीन होगा कि पत्रकार की कलम न अटके, न भटके, न रुके और न झुके बल्कि मानवता के हित में चलती रहे तभी इस व्यवसाय को अपनाने की सार्थकता है। ***



अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...

Wednesday, March 10, 2010

लेखन, पत्रकारिता और शैली पुस्तिका

पीके खुराना

शैली पुस्तिका ऐसे नियमों और प्रयोगों का एक संकलन होती है जिसमें उन शब्दों की चर्चा होती है जिनके एक से ज्यादा रूप प्रचलन में होते हैं या हो सकते हैं। जैसे हिंदी में बरतन लिखा जाता है और बर्तन भी। अमरीका लिखा जाता है और अमेरिका भी। ऐसे दोहरे-तिहरे रूपों की समस्या सिर्फ भाषा और वर्तनी में ही नहीं होती। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय नामों के उच्चारण, माप-तौल की प्रणालियों, विराम चिन्हों के प्रयोगों और अक्षरों के आकार-प्रकार में भी होती है। शैली पुस्तिका में इनके मानक और मान्य रूप दिए जाते हैं। ऐसी प्रविष्टियां सौ-पचास नहीं होतीं, बल्कि हजारों में भी हो सकती हैं। लेखन या प्रकाशन में वे सारे प्रयोग, जिनकी वजह से भ्रम हो सकता है, उनके बारे में स्पष्ट निर्देश शैली पुस्तिका में दिये जाते हैं। शैली पुस्तिका का उद्देश्य होता है आपके लेखन, संपादन और प्रकाशन में एकरूपता लाना। यह एक संदर्भ ग्रंथ है जिसके आधार पर किसी पत्र अथवा पत्रिका की भाषा का मानकीकरण (स्टैंडर्डाइज़ेशन) किया जाता है। अंग्रेज़ी में इसे स्टाइल बुक या स्टाइल मैन्युअल कहा जाता है।

किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह सारी चीजें याद रखे। विदेशों में हर लेखक, संपादक और प्रकाशन समूह अपने लिए स्टाइल बुक अवश्य रखते हैं। वहां बिना शैली पुस्तिका के अखबार और पत्रिकाएं निकाली ही नहीं जातीं। भारत में अब तक हमारा संपादन और प्रकाशन इतना वैज्ञानिक और व्यवस्थित नहीं रहा है। लेकिन अब नये युग की शुरुआत हो रही है। अनके संस्थाएं अपनी-अपनी शैली पुस्तिकाएं विकसित कर रही हैं।

शैली पुस्तिका किसी भाषा में तब जरूरी हो जाती है जब वह भाषा जनसंचार का साधन बनती है। एक ऐसी भाषा के लिए जो अनेक समुदायों से बने एक बहुत बड़े समाज के बीच संचार माध्यम है, एकरूपता का अनुशासन और सटीक प्रयोग का बंधन आवश्यक है ताकि नए शब्दों और उनके अर्थों को लेकर कोई भ्रम न रहे। अखबारों के लिए तो यह और भी आवश्यक है क्योंकि वह अपने पाठकों के एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुंचता है। इसलिए उसके प्रस्तुत करने के ढंग और शब्दों के प्रयोगों में एकरूपता होनी ही चाहिए। अखबार के दफ्तर में बहुत बड़ी तादाद में लोग काम करते हैं। उनमें से कई एक ही क्षेत्र और विषय पर काम करते हैं। अगर उनके काम में एकरूपता नहीं हुई तो वहां अराजकता होगी।

हिंदी एक जीवंत भाषा है जिसने न सिर्फ अपने में विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक धाराओं को संजो रखा है, बल्कि उसका संपर्क देश-विदेश की दूसरी अनेक भाषाओं से भी बना हुआ है। भाषा के सही-सही प्रयोग के लिए तथा उन प्रयोगों में एकरूपता बनाये रखने के लिए अंग्रेज़ी, उर्दू, अरबी और संस्कृत तथा अन्य भाषाओं के शब्दों के हिज्जों के बारे में स्पष्ट नियमों का उल्लेख आवश्यक है।

भाषा को विद्वान भाषा-शास्त्री नहीं बनाते, भाषा बोलने वाले लोग बनाते हैं। वही शब्दों को अर्थ देते हैं और उन्हीं के लगातार बरतने से नए मुहावरे बनते हैं। व्याकरण वाले भाषा की बहती नदी के किनारे तटबंध बांध सकते हैं, कहीं पुल बना सकते हैं, लेकिन वे उसी का नियम बना सकते हैं जो चलन एवं बहाव में है, और जो लगातार बहता है वह लगातार बदलता भी रहता है। शब्दों को ढालने और घिसने का काम कानून से नहीं, प्रचलन से ही होता है।

कुछ वर्ष पूर्व तक पत्रकारिता में संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रचलन था। इस मामले में हिंदी अखबारों में पंजाब केसरी का अपना अलख रुख रहा है। पंजाब केसरी में शुरू से ही सदैव बोलचाल वाली आसान हिंदी का प्रयोग होता रहा है। दैनिक भास्कर ने इससे भी एक कदम आगे बढक़र हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेज़ी शब्दों का समावेश किया। शेष अखबारों ने शुरू में तो इसे भाषा का भ्रष्टाचार कहा और माना पर समय के साथ-साथ वे बदले और अन्य अखबारों ने भी इसे अपना लिया। आज आपको हिंदी के अखबारों में अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार मिलेगी, कभी-कभार तो अनावश्यक भी, पर अब यह चलता है।

पूरे हिंदी इलाके में भी एक ही भाषा नहीं बोली जाती। अवधी के मूल संस्कार वालों की हिंदी वही नहीं है जो मगही के बोलने वालों की है। अंतर सिर्फ उच्चारण का ही नहीं, शब्दों के प्रयोग, मुहावरों और शब्दों का भी है। पंजाबी के संस्कार वाले की हिंदी, पटना के लोगों को समझ ही न आए, ऐसा तो नहीं है, लेकिन वह उन्हें अटपटी जरूर लगती है, और ऐसे कई शब्द हैं जो उन्हें समझ नहीं आते। इसी विविधता के कारण एक अखबार में एक मानक भाषा का प्रयोग नितांत आवश्यक है।

यह संतोष की बात है कि हिंदी पत्रकारिता अब भाषा और साहित्य के दुराग्रहों से निकल कर उन सब क्षेत्रों में फैलने और उन्हें समेटने की कोशिश कर रही है जिनमें हिंदी बोलने वालों की रुचि है। पत्रकारिता में शब्दों, वाक्यांशों, मुहावरों और लोकोक्तियों के एक-से प्रयोग से अखबार का अपना एक अलग चरित्र बनता है और पाठक को भी उसमें सुविधा रहती है। जो अखबार अपनी शैली पुस्तिका विकसित करता है और लगातार नई जरूरतों के अनुसार उसमें संशोधन और परिवर्तन करता है, वह दरअसल अपने को एक चरित्र, एक पहचान देने की कोशिश करता है।

क्या होती है शैली पुस्तिका?
शैली पुस्तिका के नियम पांच या दस नहीं होते। शोधकर्ताओं की एक टीम सालों काम करती है। वे देखते हैं कि संपादन करने या कापी फाइल करने वालों के सामने क्या-क्या परेशानियां आती हैं, मशीन पर क्या-क्या संभव है, पढऩे वाले के सामने क्या समस्याएं होती हैं, व्याकरण में क्या नियम हैं, प्रचलन में क्या है। इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर वे एक ऐसी किताब तैयार करते हैं जो प्रकाशन में लगे व्यक्तियों के लिए एक संविधान की तरह हो।

अपने अखबार में हम ‘एक-सा’ लिखेंगे या ‘एक सा’, यानी, हाइफन लगाएंगे या नहीं, ‘डेमोक्रेसी’लिखेंगे, ‘डैमोक्रेसी’लिखेंगे या फिर ‘डिमाक्रेसी’लिखेंगे। कुछ लोग शैली पुस्तिका के नाम से बिदक सकते हैं। वे समझते हैं कि यह व्याकरण की किताब है। वे इसे नियमों की ऐसी किताब मान सकते हैं जो उनके लेखन पर अंकुश लगा देगी और उन्हें एक खास ढांचे में लिखने को बाध्य करेगी। परंतु यह अंकुश न होकर एक बेहद मददगार दोस्त की तरह काम करती है और काम के समय शब्दों के प्रयोग में अनावश्यक भ्रम को दूर करती है।

शैली पुस्तिका, संपादकों, उपसंपादकों के लिए अत्यंत आवश्यक दस्तावेज है। मान लीजिए, आप पीटीआई की एक खबर लेना चाहते हैं। तो खबर के साथ पीटीआई का नाम आप लिखेंगे या नहीं। लिखेंगे तो कहां? शुरू में, अंत में, डेटलाइन के बाद, खबर के ऊपर। लिखेंगे तो कितना? पूरा नाम, सिर्फ एजेंसी, या कुछ और? शैली पुस्तिका में इन सबका एक रूप निश्चित कर दिया जाता है। इसी तरह यह भी बताया जाता है कि अपने अखबार में आप ‘अमरीका’लिखेंगे या ‘अमेरिका’, ताकि यह न हो कि ऊपर के पैरे में अमरीका लिखा जाए और नीचे के पैरे में अमेरिका। भाषा में अन्य भी कई उलझनें सामने आती हैं। नई या नयी? बैसाख या वैशाख? दोनों रूप प्रचलित हैं। यहां सही-गलत का सवाल नहीं है, शैली पुस्तिका के माध्यम से यह तय किया जाता है कि आप अपने अखबार में कौन सा एक रूप प्रयोग करेंगे।

शैली पुस्तिका का उद्देश्य आपको भाषा शास्त्र या साहित्य का विद्वान बनाना नहीं होता। इसका काम भाषा से संबंधित जटिल समस्याओं का हल ढूंढऩा भी नहीं होता। इसका एकमात्र उद्देश्य होता है आपको इन उलझनों से बचाना, आपके लिए एक सीधा-सादा रास्ता बनाना ताकि आप अपनी सामग्री सुविधापूर्वक प्रयोग कर सकें, आपके प्रकाशन में एकरूपता हो और उसकी एक अलग पहचान बन सके।

शैली पुस्तिका मात्र एक ढांचा है जिसमें बताया जाता है कि भाषा की अशुद्धियों से ले कर पृष्ठ विन्यास (पेज ले-आउट) तक के बारे में आप क्या-क्या चीजें तय करें और उन्हें किस तरह रखें कि जरूरत पडऩे पर उन्हें आसानी से ढूंढ़ा जा सके।

इस अध्याय में हम आम प्रयोग में आने वाले कुछ शब्दों के प्रयोग के बारे में होने वाले भ्रम का समाधान कर रहे हैं। परंतु यदि आपके अखबार की अपनी कोई अलग स्टाइल बुक है तो हो सकता है कि इनमें से कुछ शब्दों के बारे में वहां भिन्न नियम हों। उस स्थिति में आपको अपने अखबार की स्टाइल बुक के नियम ही अपनाने चाहिएं। अण्डा या अंडा, चञ्चल या चंचल, सम्पादक या संपादक; दोनों में से कौन सा रूप प्रयुक्त होगा, यह आपकी स्टाइल बुक तय करेगी।

कुछ सामान्य नियम
हिंदी के किसी शब्द में जब ‘आई’प्रत्यय (सफिक्स) लगता है तो उसके पहले आने वाले द्विरुक्त (दो बार आने वाले) व्यंजन को एक कर दिया जाता है। जैसे, खट्टा से खटाई (खट्टाई नहीं)। इसी तरह, यदि उस शब्द के प्रथम व्यंजन में दीर्घ स्वर की मात्रा हो, तो वह ह्रस्व में बदल जाती है। जैसे, मीठा से मिठाई, ढीठ से ढिठाई, आदि।

यह लिखना गलत है कि ‘अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए।’जाने की इजाजत दी जाती है, अनुमति दी जाती है। आज्ञा में आदेश की ध्वनि है, अनुमति की नहीं। आज्ञा पालन करने वाला आज्ञा मांग कर नहीं लेता।

उपाधि : उपाधि वितरित नहीं की जाती, दी जाती है, प्रदान की जाती है। उपाधि, सम्मान और पुरस्कार में फर्क है। पद्म विभूषण सम्मान है, उपाधि या पुरस्कार नहीं। पद्म विभूषण से सम्मानित किया जाता है, पद्म विभूषण प्रदान नहीं किया जाता। डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की जाती है और डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित (जब यह मानद उपाधि होती है) भी किया जाता है।

अंतरराष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय / अंतर्देशीय : अंतरराष्ट्रीय का अर्थ है दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच। यह शब्द अंतर और राष्ट्रीय के योग से बना है। अंतर का अर्थ होता है ‘के बीच’, ‘के मध्य’। अंतर्राष्ट्रीय शब्द अंत: और राष्ट्रीय के योग से बना है। अंत: का विसर्ग र से मिल कर र्र बन जाता है। अंत: का अर्थ है ‘के भीतर’, ‘के अंदर’। अंतर्राष्ट्रीय का अर्थ है राष्ट्र के भीतर। इसी तरह, अंतर्देशीय का अर्थ है देश के भीतर। यह अंग्रेज़ी के इनलैंड का मान्य हिंदी पर्याय है।

जब अंग्रेज़ी अभिव्यक्ति और हिंदी अभिव्यक्ति के ढंग में फर्क नहीं किया जाता तब भी गलतियां होती हैं। जैसे ‘आई एम टु गो टु सी माई फादर’ का अनुवाद हुआ ‘मुझे मेरे पिता को देखने जाना है’। लेकिन हिंदी में यहां ‘मेरे’का प्रयोग नहीं होता। सही वाक्य होगा, ‘मुझे अपने पिता को देखने जाना है।’

पहले उत्तर भारत के बड़े हिस्से में चैक, प्रैस, सैक्टर आदि लिखा जाता था, अब ज्य़ादातर अखबारों ने इनकी जगह चेक, प्रेस, सेक्टर आदि लिखना आरंभ कर दिया है, अत: ऐसे शब्दों के यही रूप मान्य हो गये हैं।

हिंदी में प्रचलित वे सभी शब्द जो अंग्रेज़ी के ‘ए’ अक्षर से शुरू होते हैं और जिनका उच्चारण ‘ऐ’से होता है, देवनागरी में ‘ए’से लिखे जाते हैं। जैसे बोला जाता है ‘ऐक्ट’, लेकिन लिखा जाता है ‘एक्ट’। इसी तरह ऐडमिरल को एडमिरल, ऐडमिनिस्ट्रेटर को एडमिनिस्ट्रेटर, ऐडिशनल को एडिशनल आदि ही लिखा जाता है।

‘कृपया’ लिखा जाएगा, ‘कृप्या’ नहीं। ‘कुआं’ सही है, ‘कुंआ’ नहीं।

अंग्रेज़ी उच्चारण के प्रभाव से बहुत से लोग शहरों व प्रदेशों के नाम का उच्चारण अंग्रेज़ी की तरह से करते हैं, जबकि लिखित में हिंदी के पुराने रूप ही सही माने जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘केरल’सही प्रयोग है, ‘केरला’या ‘केराला’नहीं। इसी तरह ‘कुरुक्षेत्र’सही रूप है, ‘कुरुक्षेत्रा’ नहीं।

गाइड सही रूप है, गाईड नहीं। गाउन सही है, गाऊन नहीं। क्लब सही है, कल्ब नहीं। ‘हँस’और ‘हंस’ अलग अर्थों वाले दो अलग-अलग शब्द हैं, पर मशीन की अड़चन के कारण इन्हें एक ही तरह से, यानी हंस, लिख दिया जाता है। हिंदी में दुकान और दूकान दोनों प्रचलित हैं, ज्यादातर अखबार दुकान का प्रयोग करते हैं।

आतंक में त के बाद अनुनासिक की ध्वनि है। लोग बिंदु लगाने में अक्सर भूल कर जाते हैं। यदि हम जान लें कि अन्त की जगह अंत, अण्डा की जगह अंडा, चञ्चल की जगह चंचल, और सम्पादक के लिए संपादक लिखा जा सकता है तो इस भूल से बच जायेंगे।
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों के अंत में इ या उ हमेशा ह्रस्व होता है, लेकिन हिंदी में उसे हमेशा दीर्घ लिखते हैं। जैसे, अंग्रेज़ी का आइ, हाइ आदि हिंदी में आई, हाई आदि लिखा जाता है।

उर्दू शब्दों की वर्तनी
उर्दू और हिंदी के अपने शब्द लगभग समान हैं लेकिन उर्दू में अरबी और फारसी से जो शब्द आए हैं, उनका प्रयोग जब हिंदी में होता है तो हिज्जे और प्रयोग को लेकर कई बार उलझनें पैदा होती हैं। अरबी, फारसी और उर्दू के ऐसे शब्दों के प्रयोग के कुछ नियम यहां दिये जा रहे हैं।

उर्दू से नुक्ते वाले क, ख, ग, ज और फ की ध्वनियां हिंदी में आई हैं। इन ध्वनियों के लिए नुक्ते का प्रयोग किया जाता था, लेकिन अब सरलीकरण के चलते तथा हिंदी वालों में उर्दू-फारसी की जानकारी न होने के कारण नुक्ते का चलन लगभग बंद हो गया है और इनकी जगह हिंदी के बिना नुक्ते वाले यानी साधारण ढंग से लिखे गए क, ख, ग, ज और फ से ही काम चलाया जाता है।

अरबी-फारसी के जिन शब्दों के अंत में विसर्ग आता है वे हिंदी में अकार में बदल जाते हैं, जैसे, उम्द: का उम्दा, आदि।

फारसी के बहुत से शब्दों ‘जहाँ’, ‘जाँ’, ‘जमीं’आदि में अनुनासिकत्व का प्रयोग होता है। हिंदी में इनकी जगह जहान, जान, जमीन आदि रूप प्रचलित हैं। इन्हें इसी रूप में लिखा जाना चाहिए। ***




अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’ के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...

Friday, February 26, 2010

पत्रकारिता में स्पेशलाइज़ेशन

पीके खुराना

पत्रकारिता में समाचार, रिपोर्ताज, फीचर आदि कई विधाएं हैं। हर व्यक्ति किसी न किसी विधा में स्पेशलिस्ट बन सकता है। कोई अच्छे समाचार लिख सकता है और कोई दूसरा बढिय़ा फीचर लिख सकता है। कुछ लोग हरफनमौला भी हो सकते हैं, होते ही हैं। अकेले खबरों की ही बात करें तो बीट वितरण भी स्पेशलाइज़ेशन की ही एक प्रकार है कि आप एक क्षेत्र के अधिक से अधिक लोगों के संपर्क में हैं, उस क्षेत्र के लोग आपको जानते हैं और आप उन्हें जानते हैं, इसलिए वांछित जानकारी बिना ज्य़ादा मेहनत के आपको मिल जाती है। बीट वितरण का दूसरा लाभ यह है कि उस क्षेत्र विशेष से संबंधित आपका ज्ञान बढ़ जाता है और उसकी शब्दावली पर आपकी पकड़ हो जाती है। इससे उस विषय विशेष में आपकी विशेषज्ञता बन जाती है।

बीट वितरण में ही कुछ आप अपने लिए कुछ अलग प्रकार की बीट भी चुन सकते हैं। उससे भी आपकी विशेषज्ञता बढ़ेगी, आपके लेखन में धार आयेगी, गहराई आयेगी और आपकी प्रसिद्धि बढ़ेगी।

मार्केटिंग के कुछ नियम ऐसे हैं जिन्हें यदि हम लेखन से जोड़ कर देखें तो लेखकों की प्रसिद्घि और सफलता में उनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता। मार्केटिंग का एक महत्वपूर्ण नियम “निश मार्केटिंग” के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है किसी विशिष्ट ग्राहकवर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक विशिष्ट उत्पाद का उत्पादन और विपणन। जैसे वॉटर प्योरीफायर, इंस्टेंट कॉफी आदि। एक विशेष किस्म के ग्राहकवर्ग के लिए इन वस्तुओं का उत्पादन आरंभ किया गया और अपनी नवीन विशेषताओं के कारण ये वस्तुएं एक खास ग्राहकवर्ग में लोकप्रिय हुईं। निश मार्केटिंग के नियमानुसार किसी विशिष्ट ग्राहकवर्ग की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उनके लिए किसी विशिष्ट उत्पाद का निर्माण अथवा उत्पादन किया जाता है। वह उत्पादन चूंकि किसी एक खास ग्राहकवर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है अत: उस ग्राहकवर्ग में वह तुरंत लोकप्रिय हो जाता है। वस्तुत: देखें तो साहित्य की हर नयी विधा तथा किसी भी एक विधा में कोई नया प्रयोग निश मार्केटिंग के नियम का ही विस्तार है। कोई सामाजिक उपन्यास पढऩा पसंद करता है तो कोई दूसरा केवल जासूसी उपन्यास ही पढ़ता है। दोनों किस्म के पाठकों का एक अलग वर्ग है। कला फिल्मों और व्यावसायिक फिल्मों का अलग दर्शकवर्ग है। यह निश मार्केटिंग के नियम के उपयोग का सटीक उदाहरण है।

यूं कहा जाना चाहिए कि जीवन गतिमान है और जीवन के हर क्षेत्र में नयी आवश्यकताएं जन्मती रहती हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नये प्रयोग होते रहते हैं। जो प्रयोग किसी विशिष्ट आवश्यकता की पूर्ति में सफल होते हैं वे लोकप्रिय भी होते हैं और उनका प्रचलन बना रहता है, अन्य धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं।

पेशेवर पत्रकारों से समाचार-लेखन की बात करते समय इसकी चर्चा का एक विशिष्ट उद्देश्य है। किसी भी क्षेत्र में जब कोई नया प्रयोग होता है और अगर वह लोकप्रिय होने में सफल हो जाता है तो उसके रचयिता को न केवल तात्कालिक प्रसिद्घि मिलती है बल्कि अक्सर उस क्षेत्र में उसका नाम सदा-सदा के लिए अमर हो जाता है। पत्रकारिता का क्षेत्र इसका अपवाद नहीं है। पत्रकारिता में भी जब कोई नया प्रयोग लोकप्रिय हुआ तो उसे प्रचलित करने वाले पत्रकारों को अलग पहचान मिली है।

नया प्रयोग नई बहस को जन्म देता है, नयी बात चर्चा का विषय बनती है और चर्चित हो जाने के कारण ऐसा नया प्रयोग अधिकाधिक लोगों की जानकारी में आता है और यदि वह गुणवत्ता की कसौटियों पर खरा उतरता हो तो सफल और प्रसिद्घ भी हो जाता है।

यदि आप पत्रकारिता के क्षेत्र को ही अपनी कर्मभूमि बनाना चाहते हैं तो खूब अध्ययन कीजिए। अध्ययन के बाद मनन और चिंतन कीजिए कि क्या आप किसी नयी विधा में लिख सकते हैं, क्या आप किसी विधा में कोई नया प्रयोग कर सकते हैं, क्या आप किसी नये प्रयोग में कोई और नयी बात जोड़ सकते हैं? विशद अध्ययन के बिना इन प्रश्नों का समाधान संभव नहीं है। अध्ययन, मनन और चिंतन ही वे साधन हैं जो आपको अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं। आपकी शैली अथवा विषयवस्तु की प्रस्तुति का कोई नया एवं मौलिक ढंग भी आपकी सफलता एवं प्रसिद्घि का कारण बन सकते हैं।

लेखन में वैशिष्ट्य आसानी से नहीं आता। इसके लिए अभ्यास, प्रयास और अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। हममें से बहुतों ने पेड़ से पका फल गिरते हुए देखा होगा, पर अकेला न्यूटन ही पेड़ से सेब नीचे गिरता देखकर इतना चकित हुआ कि विश्व को गुरुत्वाकर्षण का सिद्घांत मिला। गुरुत्वाकर्षण के सिद्घांत की जानकारी होने के कारण ही कई अन्य आविष्कार संभव हुए। यदि आप भी चाहते हैं कि आप पत्रकारिता में कोई नया प्रयोग कर सकें या किसी विषय विशेष पर विशेषज्ञता हासिल कर सकें तो आपको अध्ययन, मनन और चिंतन के अलावा जागरूक और कल्पनाशील भी होना होगा। कल्पनाशक्ति से ही आप नये विचारों को जन्म दे सकते हैं।

हम पहले ही कह चुके हैं कि बीट वितरण भी एक प्रकार की विशेषज्ञता है। परंतु बीट के अंदर भी विशेषज्ञता या सुपर स्पेशलाइज़ेशन संभव है। सुपर स्पेशलाइज़ेशन का अर्थ है कि आपने अपने कर्मक्षेत्र को कुछ और संकुचित कर लिया, छोटा कर लिया और उसमें ज्य़ादा गहरे उतर गए।

आपने नेत्र विशेषज्ञ या आई-स्पेशलिस्ट सुन रखे होंगे। अगर आंखों के चिकित्सकों में सुपर स्पेशलाइज़ेशन की बात करें तो कोई डॉक्टर आंखों के पर्दे (रेटिना) का विशेषज्ञ हो सकता है, कोई भैंगेपन (स्क्विंट) का स्पेशलिस्ट हो सकता है और कोई अन्य आंखों की प्लास्टिक सर्जरी यानी, ऑक्युलोप्लास्टी का विशेषज्ञ हो सकता है। ये सब विशेषज्ञ आंखों से संबंधित रोगों के विशेषज्ञ हैं लेकिन पूरी आंख के बजाए आंख के किसी विशेष हिस्से के स्पेशलिस्ट हैं, इसलिए इन्हें सुपर स्पेशलिस्ट कहा जाता है। आप भी पत्रकारिता में किसी एक बीट का और भी ज्य़ादा विभाजन करके सुपर स्पेशलिस्ट पत्रकार बन सकते हैं।

अगर हम अपराध बीट का उदाहरण लें तो आप महिला अपराध, महिला उत्पीडऩ, महिलाओं पर होने वाले अत्याचार ही नहीं, आप महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों का सहारा लेकर महिलाओं द्वारा अपने पतियों पर अत्याचार आदि के आंकड़े इकट्ठे कर कई अनूठे समाचार बना सकते हैं। इन आंकड़ों की सहायता से आप महिला अपराध विशेषज्ञ बन सकते हैं और कई रुचिकर और सूचनाप्रद समाचार लिख सकते हैं।

सजायाफ्ता अपराधियों का इतिहास जानकर आप उनके अपराधी बनने और अपराधी बने रहने के कारणों का विश्लेषण कर सकते हैं, भोले-भाले लोगों को अपराध क्षेत्र में धकेलने वाले लोगों का पता निकाल सकते हैं, अपराध के नये अड्डों के बारे में जानकारी इकट्ठी कर सकते हैं। इन आंकड़ों की सहायता से अपराध से संबंधित आपके समाचारों में ज्य़ादा गहराई आयेगी।

बड़े शहरों में प्राइवेट डिटेक्टिव, यानी, निजी जासूसी संस्थाएं होती हैं। उनके संचालकों से आपको यह जानकारी मिल सकती है कि उनके ग्राहक किस तरह के लोगों की जासूसी करवाते हैं। क्या पति-पत्नी एक दूसरे की जासूसी करवाते हैं, या एक बिजनेसमैन दूसरे बिजनेसमैन के रहस्य जानने को लालायित है, या एक ही बिजनेस का पार्टनर अपने दूसरे पार्टनर की जासूसी करवा रहा है। इस प्रकार मिली जानकारी न केवल रुचिकर होगी बल्कि सूचनाप्रद और ज्ञानवर्धक भी होगी।

बाहुबली राजनीतिज्ञों अथवा अपराधी राजनीतिज्ञों के आंकड़े और उनसे साक्षात्कार करके आप अलग दुनिया में पहुंच जाएंगे।
एक ही बीट की चीरफाड़ करके उसके विशेषज्ञ बनने के अलावा आप कई ऐसी बीटों पर भी काम कर सकते हैं जो ज्य़ादा सामान्य नहीं हैं। मसलन, उड्डयन (एविएशन), जंगलात, ग्राहक मामले, पर्यटन, प्रादेशिक विशिष्टताएं आदि ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर सभी पत्रकार नहीं लिखते। आप अपने लिए अपने पसंद की ऐसी कोई अनयूज़ुअल, असामान्य बीट खुद चुन सकते हैं। उस क्षेत्र के तथ्यों का अध्ययन कीजिए, विशेषज्ञों से मिलिए, इंटरनेट पर जाइए और गूगल और विकीपीडिया की सहायता लीजिए। आपकी जानकारियों का भंडार बढ़ जाएगा और समाचार लिखने के लिए नये विषयों की कमी नहीं रहेगी।

अपने जिले के हर बस अड्डे के निर्माण के साल, उसके रखरखाव, उसमें उपलब्ध सुविधाओं का आदि के विवरण इकट्ठे करके आप नए समाचार बना सकते हैं।

यदि आप शिक्षा बीट पर हैं तो नये जमाने के कैरियर के अवसरों पर जानकारी इकट्ठी कर सकते हैं। कॉल सेंटर, बीपीओ, ऐनिमेशन, वेब डिज़ाइनिंग, वेब साल्यूशन्स आदि नये जमाने के कैरियर हैं। आपके क्षेत्र में इस तरह की शिक्षा या प्रशिक्षण देने वाले कितने संस्थान हैं, उनमें कितने विद्यार्थी हैं, पिछले सालों के विद्यार्थियों का जॉब कहां लगा, वेतन का एवरेज क्या रहा, मंदी या तेज़ी में उनकी प्लेसमेंट अथवा वेतन पर कितना और कैसा असर पड़ा, आदि तथ्यों से कई समाचार बनाए जा सकते हैं।

अखबार के पिछले छ: महीनों के अंक उठाएं, उनमें किन समस्याओं पर समाचार दिये गए हैं, उन समस्याओं पर क्या कार्यवाही हुई, कितनी समस्याओं का समाधान हो सका, कितनी समस्याएं ज्यों की त्यों बरकरार हैं, उनके निवारण न हो पाने का कारण क्या है? संबंधित पीड़ित लोगों से मिलिए, अधिकारियों से मिलिए। इस तरह की फालो-अप स्टोरी की जा सकती है।

बहुत सी ऐसी समस्याएं होती हैं जिनका सामान्य जीवन में संवाददाताओं को पता नहीं चल पाता परंतु चुनाव के दिनों में वे समस्याएं मुखरित हो जाती हैं। चुनाव के दिनों में बहुत से प्रत्याशी अपनी-अपनी किस्मत आजमा रहे होते हैं, अमूमन हर प्रमुख प्रत्याशी की कहीं न कहीं मजबूत पकड़ होती है, उस क्षेत्र के लोग अपनी समस्याएं उन प्रत्याशियों को बताते हैं, प्रत्याशी उन समस्याओं के बारे में बयान देते हैं और उन्हें हल करने का वायदा करते हैं। यदि प्रत्याशियों के प्रेस नोट पढ़े जाएं, उनसे संबंधित छपे हुए समाचार पढ़े जाएं तो आपको अपने ही शहर की कई नई समस्याओं की जानकारी हो जाएगी और आप उन पर समाचार बना सकेंगे।

आपके प्रदेश में क्षेत्र की कोई विशेषता हो, उसके कारण वहां के नागरिकों की कुछ अपने किस्म की समस्याएं हों, रीति-रिवाज़ हों तो उन को समाचारों का विषय बनाया जा सकता है। आप पहाड़ी प्रदेश के रहने वाले हैं या रेगिस्तानी प्रदेश के, आपका प्रदेश समुद्र के किनारे है या भूकंप के इलाके में है, आपके प्रदेश में गरीबी ज्यादा है या संपन्नता ज्यादा, पानी की बहुलता है या कमी है, शिक्षा का केंद्र है या इस मामले में पिछड़ा हुआ है, आदि-आदि विशेषताओं की जानकारी से समाचारों को नए एंगल मिल सकते हैं।

आप जागरूक और कल्पनाशील हों, तो नये विचारों की कमी नहीं है, सूचना के स्रोतो की कमी नहीं है। यह काम कुछ अधिक मेहनत जरूर मांगता है, पर इतनी सी एकस्ट्रा मेहनत आपको अलग किस्म का संवाददाता बना देती है, आपकी प्रसिद्धि में चार चांद लगते हैं और आपकी उन्नति की राह आसान हो जाती है।


अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’ के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...

पत्रकारिता में अनुवाद

पीके खुराना


पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों की भाषा पर अच्छी पकड़ होना एक अनिवार्य आवश्यकता है। भाषा पर पकड़ होने से भावों की अभिव्यक्ति सरलता से हो पाती है और भाषा में प्रवाह रहता है। शब्दों के सही चयन से भाषा की दुरूहता जाती रहती है और पाठक की रुचि बनी रहती है।

भाषायी पत्रकार की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि उसे बहुत सी सामग्री अंग्रेज़ी में मिलती है जिसे अपने पत्र की भाषा में अनुवाद करना आवश्यक होता है। पत्रकार कोई समाचार लिख रहा हो, लेख या रिपोर्ताज बना रहा हो या कुछ भी अन्य सामग्री तैयार कर रहा हो, यदि उसकी संदर्भ सामग्री अंग्रेज़ी में है तो उसे अपने पत्र की भाषा के अतिरिक्त अंग्रेज़ी का भी जानकार होना आवश्यक है। अंग्रेज़ी की जानकारी के बिना भाषायी पत्रकारिता में भी बहुत ऊँचे पहुंच पाना अब आसान नहीं रह गया है। इसके विपरीत, भाषा पर पकड़ के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाने की बहुत आशंका रहती है।

भाषायी पत्रकारिता में अनुवाद की कला की जानकारी की आवश्यकता दो रूपों में रहती है। पहली, जब लेखक किसी संदर्भ सामग्री का सहारा लेकर अपनी कोई मौलिक रचना, समाचार, लेख, रिपोतार्ज, विश्लेषण, व्यंग्य अथवा कुछ और लिख रहा हो और संदर्भ सामग्री पत्र अथवा पत्रिका की भाषा में न हो। दूसरी, जब अनुवादक किसी मूल कृति का हूबहू अनुवाद कर रहा हो। दोनों ही स्थितियों में अनुवाद की कला में महारत, लेखक की रचना को सुबोध औऱ रुचिकर बना देती है।

अपनी बात कहने के लिए हम यह मान लेते हैं कि अनुवादक किसी हिंदी समाचारपत्र के लिए कार्यरत है और उसे अंग्रेज़ी से मूल सामग्री का अनुवाद करना है। अनुवादक अक्सर इस भ्रम का शिकार रहते हैं कि वे अंग्रेज़ी का कामचलाऊ ज्ञान होने तथा हिंदी का कुछ गहरा ज्ञान होने की स्थिति में भी अच्छा अनुवाद कर सकते हैं। इससे भी बड़ी भूल वे तब करते हैं जब वे यह मान लेते हैं कि विषय-वस्तु के ज्ञान के बिना अथवा मूल सामग्री की विषय-वस्तु को समझे बिना भी वे सही-सही अनुवाद कर सकते हैं।
पहली बात तो यह है कि हर भाषा का अपना व्याकरण होता है जिसके कारण उस भाषा की वाक्य-रचना अलग प्रकार की हो सकती है। दूसरे हर भाषा में भावाभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त मुहावरे, लोकोक्तियों तथा वाक्यांशों (फ्रेज) का अपना महत्व होता है और उन्हें समझे बिना सही-सही अनुवाद संभव ही नहीं है। इसी प्रकार हर भाषा में धीरे-धीरे कुछ विदेशी शब्द भी घुसपैठ बना लेते हैं और वे बोलचाल की भाषा में रच-बस जाते हैं। भाषा के इस ज्ञान के बिना अनुवाद करने में न केवल परेशानी हो सकती है बल्कि अशुद्धियों की मात्रा भी बढ़ सकती है। उदाहरणार्थ हिंदी में उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी के बहुत से शब्द इस प्रकार आ मिले हैं कि न केवल आम आदमी उन्हें हिंदी के ही शब्द मानता है बल्कि अब तो वे हिंदी शब्दकोष का भाग भी बन गये हैं। कयास, कवायद, स्कूल, टिकट, रेल आदि ऐसे ही विदेशी शब्द हैं जो हिंदी भाषा में धड़ल्ले से प्रयुक्त होने के कारण अब हिंदी का ही भाग हैं।

इसी स्थिति को अब एक और नज़रिये से देखेंगे तो बात समझ में आ जाएगी। मान लीजिए कि अनुवादक अंग्रेज़ी भाषी व्यक्ति है और उसे अंग्रेज़ी का तो अच्छा ज्ञान है परंतु हिंदी का ज्ञान किताबी ही है। किताबी हिंदी का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को शायद कभी कवायद और कयास जैसे शब्दों से वास्ता न पड़े और यदि उसे हिंदी भाषा में प्रयुक्त इन शब्दों का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की आवश्यकता पड़े तो वह संभवत: कठिनाई में पड़ जाएगा।

अनुवाद तब बेमज़ा और बेजान हो जाता है जब उसमें सिर्फ किताबी शब्द प्रयोग होने लगते हैं। अपनी मातृभाषा में मूलरूप में लिखने वाला लेखक न केवल किताबी शब्दों का प्रयोग करता है बल्कि भाषा में रवानगी लाने के लिए वह बोलचाल के आम शब्दों का प्रयोग भी अनजाने करता चलता है। कभी यह सायास होता है और कभी अनायास हो जाता है। इससे न केवल भाषा में विविधता आ जाती है बल्कि यह रुचिकर भी हो जाती है, जबकि अनुवादक अक्सर किताबी शब्दों का प्रयोग ज़्यादा करते हैं जिससे भाषा बोझिल और दुरूह हो जाती है और पाठक को स्पष्ट नज़र आता है कि यह मूल रूप से उसी भाषा में लिखी गई रचना नहीं है, बल्कि अनुवाद है। अनूदित रचना का मज़ा इससे जाता रहता है।

पर ये मामूली बातें हैं और अनुवादक यदि सतर्क और ज़िम्मेदार हो तो थोड़े-से अभ्यास से ऐसी छोटी-मोटी कठिनाईयों से आसानी से पार पा सकता है, पर विषय के गहन ज्ञान के बिना अथवा मूल सामग्री की विषय-वस्तु को समझे बिना सही-सही अनुवाद कर पाना असंभव है। विषय वस्तु को समझे बिना अनुवादक ‘इंडिया बिकेम फ्री ऑन फिफ्टीन्थ ऑफ आगस्ट’ का अनुवाद ‘भारतवर्ष पंद्रह अगस्त को मुफ्त हो गया’ अथवा ‘रेलवे स्लीपर्स ड्राउन्ड’ का हिंदी अनुवाद ‘रेलवे स्टेशन पर सोने वाले बह गए’ भी कर सकते हैं। अर्थ के अनर्थ का यही अर्थ है !

आखिर क्या है अनुवाद ?

अनुवाद कैसे करें, या सही-सही अनुवाद कैसे करें, यह जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि अनुवाद है क्या ? यदि किसी द्वारा कही हुई कोई बात आप दोहरा रहे हैं तो आप अनुवाद कर रहे हैं क्योंकि अनुवाद का अर्थ ही है -- ‘पुन: कथन, या किसी के कहने के बाद कहना।’

यदि किसी ने फूल न देखा हो और आपको उसे फूल, उसकी बनावट, रंग-रूप आदि के बारे में बताना पड़े तो यह समझाना-बुझाना भी अनुवाद के दायरे में आयेगा। भाषान्तर या अनुवाद दरअसल प्रतीकांतर का ही एक रूप है -- एक भाषा के प्रतीक को दूसरी भाषा के समकक्ष प्रतीक द्वारा व्यक्त करने का विज्ञान, जो साथ में कला भी है। अनुवाद शब्द का मूल अर्थ ‘पश्चात कथन’ और सार्थक पुनरावृत्ति भले ही रहा हो, पर बाद में वह किसी शब्द, वाक्य या पुस्तक को दूसरी भाषा में प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त होने लगा।

आज के युग में अनुवाद का महत्व पहले की तुलना में कहीं अधिक हो गया है। साहित्य और विज्ञान के हर क्षेत्र में इतना काम और व्यावहारिक ज्ञान का संचय हो रहा है कि उससे अनभिज्ञ नहीं रहा जा सकता। यह काम इतनी तेजी से हो रहा है कि दूसरी भाषाओं में उपलब्ध ज्ञानराशि प्राप्त करने का सतत् प्रयत्न करते रहना आवश्यक हो गया है, जो अनुवाद के जरिए ही संभव है।

किसी भी कृति का जीवंत अनुवाद एक दुष्कर कार्य है क्योंकि हर भाषा की अपनी व्यवस्था होती है, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ होते हैं, जिनको अन्य भाषाओं में व्यक्त करने वाले समानार्थी शब्द नहीं होते। अक्सर अन्य भाषाएं ऐसे शब्दों को तोड़-मरोड़ कर या ज्यों का त्यों अपना लेती हैं। इससे अनुवाद बोझिल नहीं होता और लेखक का मूल अभिप्राय भी नष्ट नहीं होता।

अनुवाद के प्रकार
विषय और स्वरूप के अनुसार अनुवादों का व्यावहारिक वर्गीकरण किया जा सकता है। यह तीन प्रकार का है :

शब्दानुवाद
इस कोटि के आदर्श अनुवाद में कोशिश की जाती है कि मूल भाषा के प्रत्येक शब्द और अभिव्यक्ति की इकाई (पद, पदबंध, मुहावरा, लोकोक्ति, उपवाक्य अथवा वाक्य आदि) का अनुवाद लक्ष्य भाषा में करते हुए मूल के भाव को संप्रेषित किया जाए। दूसरे शब्दों में, अनुवाद न तो मूल पाठ की किसी अभिव्यक्त इकाई को छोड़ सकता है और न अपनी ओर से कुछ जोड़ सकता है। अनुवाद का यह प्रकार गणित, ज्योतिष, विज्ञान और विधि साहित्य के अधिक अनुकूल पड़ता है।

भावानुवाद
इस प्रकार के अनुवाद में भाव, अर्थ औऱ विचार पर अधिक ध्यान दिया जाता है लेकिन ऐसे शब्दों, पदों या वाक्यांशों की उपेक्षा नहीं की जाती जो महत्वपूर्ण हों। ऐसे अनुवाद से सहज प्रवाह बना रहता है। पत्रकार अक्सर इसका सहारा लेते हैं।

सारानुवाद
यह आवश्यकतानुसार संक्षित या अति संक्षिप्त होता है। भाषणों, विचार गोष्ठियों और संसद के वादविवाद का प्रस्तुतिकरण इसी कोटि का होता है।

अनुवाद की प्रक्रिया
अनुवाद की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक भाषा की पाठ-सामग्री दूसरी भाषा में व्यक्त की जाती है। जिस भाषा में सामग्री उपलब्ध है, वह मूल भाषा है तथा जिस भाषा में अनुवाद होना है, उसे लक्ष्य भाषा कहा जाता है।

अनुवाद की प्रक्रिया की तीन अवस्थाएं मानी गयी है -- मूल सामग्री की विश्लेषण, अंतरण और पुनर्रचना या पुनर्गठन। स्रोत भाषा की सामग्री का सही अर्थ निर्धारित करने के बाद अनुवादक लक्ष्य भाषा में उसकी समानार्थी स्वाभाविक अभिव्यक्ति खोजता है। समानार्थी अभिव्यक्ति दो प्रकार की हो सकती है -- ठीक वही अर्थ देने वाली (एकार्थी) अथवा निकटतम अर्थ देने वाली। अंग्रेज़ी के फादर और मदर के लिए पिता-माता एकार्थी अभिव्यक्तियां हैं लेकिन अंग्रेज़ी के अंकल के लिए हिंदी में बहुत से शब्द हैं, ताऊ, चाचा, मामा आदि।

व्यावहारिक भाषा के ज्ञान के बिना सही अनुवाद संभव नहीं। इसके अतिरिक्त पत्रकारिता का अनुवाद एक अनुभव-आश्रित कार्य है। पत्रकारिता में अनुवाद के समय, अनुवाद के नियम-कानून पहले लागू होते हैं, फिर अनुवाद के। अनुवादक को अपनी सूझ-बूझ और समाचार प्रस्तुतिकरण के तकाज़ों को ध्यान में रखकर अनुवाद करना होता है। अनूदित समाचार में भी एक लय होती है, भाषा और पदों का सुघड़ संयोजन होता है।

अनुवाद और अर्थ
‘अनुवाद और अर्थ’ शीर्षक शायद गलत है। दरअसल हमें कहना चाहिए अनुवाद में अनर्थ। आप ने अखबारों में अक्सर पढ़ा होगा -- ‘न्यायाधीश ने अपना निर्णय सुरक्षित रखा’। पहली नज़र में हो सकता है कि आपको कुछ न खटके। परंतु यह अनुवादक के अज्ञान के कारण प्रचलित अशुद्ध अनुवाद का बेहतरीन नमूना है। जब न्यायाधीश कहता है कि उसने अपना ‘जजमेंट रिजर्व’ रखा है तो इसका मतलब यह नही होता कि फैसला लिखकर अलमारी में बंद किया गया है जो अमुक दिन सुनाया जायेगा। दरअसल इसका मतलब यह है कि निर्णय बाद में लिखा और सुनाया जायेगा। जब लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) अपनी रूलिगं (निर्णय) आगे के लिए टाल देता है तब भी यही स्थिति होती है। अत: लिखा जाना चाहिए -- निर्णय ‘स्थगित’ या ‘मुल्तवी’ कर दिया गया है। सटीक और सहज अनुवाद के लिए दोनों भाषाओं की विषमताओं की जानकारी होनी चाहिए। थोड़ा ध्यान देने से अनुवादक ऐसी तमाम चूकों से बच सकते हैं जो अनुवाद के समय चुपके से घुस आती हैं।

कई बार स्थान भेद की जानकारी होने से अनुवाद में बड़ी सहायता मिलती है। भारत में वित्तमंत्री जो कार्य करते हैं वही काम ब्रिटेन में ‘चांसलर ऑफ एक्सचेकर’ करते हैं। इसी तरह अमेरिका के सेक्रेट्री आफ स्टेट को विदेशमंत्री कहा जाना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत मंत्रियों को सेक्रेट्री कहा जाता है, उन्हें हम मंत्री ही कहेंगे, सचिव नहीं।
अमेरिका में राज्यों के गवर्नर की स्थिति भारत के राज्यपालों से अलग होती है। वहां वे निर्वाचित होते हैं, इसलिए अनुवाद न करना ही बेहतर होगा।

अमेरिकी और ब्रितानी अंग्रेज़ी का फर्क भी ध्यान में रखना आवश्यक है। एक बार पाकिस्तान ने अमेरिका से रेलवे स्लीपर खरीदे। उनको अमेरिका में ‘टाई’ कहते हैं क्योंकि वह दोनों पटरियों को बांधे रहता है। अमेरिका की अखबार में छपी इस खबर के आधार पर एक पाकिस्तानी उर्दू अखबार में संपादकीय छपा, जिसमें गले में बांधने वाली टाई की खरीद की निंदा की गई थी।

अखबार और पुस्तकें देखने पर आप पायेंगे कि वर्तनी की एकरूपता का कोई सार्वदेशिक मानक (स्टैंडर्ड) नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी स्तर पर प्रयास नहीं हुआ, लेकिन मत-वैभिन्य और वर्तनी के प्रति लापरवाही के कारण अराजकता जैसी स्थिति है। वस्तुत: इस मामले में छपाई और लेखकीय सुविधा के कारण सरलीकरण की प्रवृत्ति बलवती हुई है। बहुत से अखबार अपने यहां कुछ खास शब्दों व नामों आदि की वर्तनी निश्चित कर लेते हैं और उस अखबार में उन शब्दों के लिए उसी वर्तनी का प्रयोग होता है। इससे मानकीकरण बढ़ता है और अराजकता घटती है।

अंग्रेजी के तमाम संक्षिप्त रूप इतने चल गए हैं कि हिंदी की सहज प्रकृति के अनुरूप संक्षिप्तीकरण का आग्रह पिछड़ जाता है। मसलन थाने में प्राथमिक रिपोर्ट के लिए एफआईआर का प्रयोग धड़ल्ले से होता है। इसी तरह वीडियो आमफहम शब्द बन जाता है। अब तो अखबारों ने पूरे के पूरे अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। यहां तक कि अध्यापक की जगह टीचर और ऐसे ही अन्य शब्दों का इस्तेमाल बढ़ गया है। इस संबंध में यही कहा जाना चाहिए कि जनस्वीकृति सबसे बड़ा प्रमाण होता है, भले ही वह नियमानुकूल हो या न हो।

एक खेल संवाददाता को खेल से जुड़ी शब्दावली का समग्र ज्ञान होना आवश्यक है, आर्थिक संवाददाता को न केवल तत्संबंधी शब्दावली का ही ज्ञान होना चाहिए बल्कि उसे उनके सही अर्थ और प्रयोग की पूरी जानकारी होना भी आवश्यक है। अपराध संवाददाता को पुलिस और कोर्ट-कचहरी में प्रयोग होने वाले शब्दों की जानकारी के साथ-साथ कानून की विभिन्न धाराओं तथा उनके प्रभाव की जानकारी होना भी आवश्यक है अन्यथा उनके समाचार में गहराई नहीं आ पायेगी। ऐसे समाचारों को अनुवाद करने वाले अनुवादक को भी कानून की धाराओं और उनके प्रयोग और अर्थ का कम से कम कामचलाऊ ज्ञान तो होना ही चाहिए अन्यथा अनुवाद के अशुद्ध होने की आशंका बनी रहेगी। वाक्य में भी सही शब्दों के चयन की प्रक्रिया को समझे बिना, अनुवाद अशुद्ध हो सकता है। हम यह तो कह सकते हैं कि ‘अनुवाद के अशुद्ध होने की आशंका बनी रहेगी’ पर इसे ‘अनुवाद के अशुद्ध होने की संभावना बनी रहेगी’ नही कहा जाना चाहिए, क्योंकि ‘संभावना’ एक पॉज़िटिव, एक विधायी, एक धनात्मक शब्द है जबकि ‘आंशका’ एक नेगेटिव यानि ऋणात्मक शब्द है।

भाषा एक प्रवहमान वस्तु है। जनसामान्य के प्रयोग से यह नये-नये रूप धरती रहती है। पुराने शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, वे नये रूप और नये अर्थ धारण कर लेते हैं। अनुवाद की शुद्धता के लिए अनुवादक को इस परिवर्तन का ज्ञान होना चाहिए। साहित्य और पत्रकारिता में आज हम हिजड़ों के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग करने लगे हैं, कभी यह शब्द हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के निवासियों के लिए अति पीड़ादायक होता पर आज बोलचाल की भाषा का भाग बन कर यह शब्द इसी अर्थ में रुढ़ हो गया है। भारतीय भाषाओं के कई शब्द अंग्रेजी शब्द कोष में स्थान पा गए हैं। समय बीतने के साथ एक ही भाषा के कुछ शब्दों के अर्थ भी अक्सर बदल जाते हैं और वे नये-नये रूपों में सामने आते रहते हैं। अक्सर भाषाविद् इस पर ऐतराज करते हैं और नया अर्थ स्वीकार करने में हिचकते हैं, पर फिर लगातार प्रयोग से जब कोई शब्द नये अर्थ में रूढ़ हो जाता है तो विद्वजन भी नये रूप को स्वीकार कर लेते हैं। भावार्थ यह है कि रचना के मूल रचयिता को ही भाषा का समग्र ज्ञान होना आवश्यक नहीं है, बल्कि अनुवाद को भी शब्दों के सही-सही प्रयोग के लिए रचना की मूल भाषा और अनुवाद की भाषा पर पूरी पकड़ होना नितांत आवश्यक है।

भाषा के ज्ञान की तरह ही विषय-वस्तु का ज्ञान भी अनुवाद का अनिवार्य तत्व है। ‘कोआपरेटिव सोसायटी’ का अनुवाद ‘सहकारी संस्था’ ही हो सकता है ‘सहयोगी संस्था’ नहीं। इसी तरह यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विषय बदल जाने पर एक ही शब्द का अर्थ भी बदल सकता है। अपराध संवाददाता के लिए किसी शब्द का अर्थ जो होगा, आवश्यक नही कि वाणिज्य संवाददाता के लिए उस शब्द का अर्थ भी वही हो। भिन्न क्षेत्रों के लिए एक ही शब्द का अर्थ अलग-अलग होना सामान्य सी बात है। इसे समझे बिना अनुवाद अधूरा और अशुद्ध होने की आशंका बढ़ जाती है।

विज्ञापन एजेंसियों तथा जनसंपर्क सलाहकार कंपनियों में एक प्रथा है कि ग्राहक कंपनियों के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को ग्राहक कंपनी के कामकाज तथा शैली की अधिकाधिक जानकारी दी जाती है। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए जाते हैं अथवा उन्हें ग्राहक कंपनी के कार्यालय में रहकर उनके कामकाज को समझने का अवसर दिया जाता है। अनुवादक को ऐसी सुविधा मिलना शायद न संभव है और न व्यावहारिक, ऐसे में अनुवादक के लिए एक ही तरीका बचता है कि वह संबंधित विषय पर उपलब्ध साहित्य का अधिकाधिक मनन करे और विषय की गहराई में जाये। इससे अनुवाद में सरलता आ जाती है और उसमें मूल रचना का प्रवाह और ताज़गी भी बने रहते हैं।

अनुवाद के लिए विषय-विशेष से संबधित शब्दकोष भी उपलब्ध हैं। हिंदी से अंग्रेज़ी, अंग्रेज़ी से हिन्दी, हिन्दी से हिन्दी तथा अंग्रेज़ी से अंग्रेज़ी के अच्छे शब्दकोषों के अतिरिक्त दोनों भाषाओं के पर्यायवाची शब्दकोषों (थिसारस) का अब कोई अभाव नहीं है। इसी तरह विषय-विशेष के शब्दकोष अर्थात् वाणिज्यिक शब्दकोष (बिजनेस डिक्शनरी), चिकित्सकीय शब्दकोष (मेडिकल डिक्शनरी), विधि शब्दावली (लीगल ग्लासरी) आदि भी आसानी से उपलब्ध हैं। अनुवादक के पास इनका अच्छा संग्रह होना चाहिए।
अनुवाद का एक नियम याद रखिए। यदि किसी अंग्रेज़ी शब्द का हिंदी में अनुवाद करना है और आपको भाव की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति के लिए शब्दकोष से सही शब्द नहीं मिल पा रहा हो तो या तो मूल अंग्रेज़ी शब्द के अंग्रेज़ी समानार्थक खोजिए और फिर उनका हिंदी अर्थ देखिए या फिर हिंदी में दिये गए अनुवाद के हिंदी समानार्थक खोजिए और उनमें से सही शब्द चुन लीजिए या दोनों विधियों को मिला कर अपने मतलब का शब्द ढूंढ़ लीजिए।

उपरोक्त विवेचित नियमों का सार रूप कुछ यूं होगा ::
• सही और शुद्ध अनुवाद के लिए रचना की मूल भाषा तथा जिस विषय में अनुवाद होना है, उसका अच्छा ज्ञान होना आवश्यक है।
• रचना के विषय का आधारभूत ज्ञान अच्छे अनुवाद में सहायक होता है।
• रचना-विशेष की विषय-सामग्री को समझना अच्छे अनुवाद की अनिवार्य शर्त है।
• मूल रचना की भाषा तथा अनुवाद की भाषा अथवा लक्ष्य भाषा में प्रयुक्त मुहावरों, लोकोक्तियों, वाक्याशों तथा उसमें समा चुके विदेशी शब्दों का ज्ञान भी आवश्यक है।
• अनुवाद में किताबी शब्दों के अनावश्यक प्रयोग से बचना चाहिए।
• यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अनुवाद में प्रयुक्त शब्द रचना की भावना से मेल खाते हों।
• यदि अनुवाद के समय मूल रचना में प्रयुक्त किसी शब्द का सही स्थानापन्न न मिल रहा हो तो अनुवाद की भाषा (लक्ष्य भाषा) में उसके अर्थ के पर्यायवाची ढ़ूढ़ने से सही शब्द मिल सकता है।
• यदि अनुवाद के समय मूल रचना में प्रयुक्त किसी शब्द का सही स्थानापन्न न मिल रहा हो तो मूल रचना की भाषा (लक्ष्य भाषा) में उसके अर्थ के पर्यायवाची ढूढ़ने से सही अनुवाद मिल सकता हैं।
• उपरोक्त दोनों विधियों को मिलाकर काम करने से अनुवाद में प्रयोग के लिए सही शब्द मिल सकता है।
• रचना की मूल भाषा, लक्ष्य भाषा तथा रचना की मूल भाषा से लक्ष्य भाषा वाले शब्द कोष व पर्यायवाची कोष अनुवादक के कार्य में सहायक होते हैं।
• अनुवादक के पास विषय-विशेष के शब्दकोषों का अच्छा संग्रह होना भी उपयोगी रहता है।

अनुवाद के लिए सही शब्द की खोज समय खाने वाला समय काम तो है ही, इसमें थोड़ा-सा श्रम भी है पर इस मेहनत का फल यह होगा कि आपका अनुवाद रूचिकर, बोधगम्य और प्रवहमान होगा और यूं लगेगा कि रचना मूल रूप से अनुवाद की भाषा में ही लिखी गई है। आखिर अनुवाद का उद्देश्य भी तो यही है।



अर्जुन शर्मा एवं पीके खुराना द्वारा संयुक्त रूप से लिखित तथा ‘इन्नोवेशन मिशनरीज़’ के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "व्यावहारिक पत्रकारिता" से ...