Tuesday, March 1, 2011

दुख की दीक्षा

Dukh Ki Deeksha

By :
Pramod Krishna Khurana
(Popularly known as P.K.Khurana)

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 प्रमोद कृष्ण खुराना

फादर वालेस का एक उपदेश मेरे जीवन का प्रेरणा-स्रोत रहा है। उनके उस उपदेश को मैं उनके ही शब्दों में उद्घृत कर रहा हूं।

छोटे बालक की भावनाएं कोमल होती हैं। दुनिया की दूषित बुराइयों तक उसकी नजर नहीं पहुंचती और इसलिए अपने निर्दोष एवं निश्छल अज्ञान में वह सुरक्षित रहता है। प्रौढ़ आदमी संसार की उन बुराइयों को देखता है, उनका अहसास करता है लेकिन उसका जीवन कठोर बन चुका है इसलिए वह उस दुख को सहज भाव से पचा सकता है। असली मुसीबत और करुणाजनक हालत तो उस नौजवान की है जिसकी निगाह अभी-अभी लंबी हुई है, तीक्ष्ण बनी है, संसार के भेदभाव और दुनिया के दुखों तक पहुंचने लगी है लेकिन उसकी भावनाएं पहले जैसी कोमल ही हैं। कच्ची भावनाओं से भरा जीवन एकाएक दुखों से लद जाए तो उस भार को सहन करने में वह कैसे समर्थ होगा?

घर पर अचानक दुख का पहाड़ टूट पड़ा। अमंगल की छाया तन गई, गृहलक्ष्मी सबको बिलखता छोडक़र हमेशा के लिए चली गई। लेकिन घर का मुखिया अपना दुख अपने भीतर ही छिपाकर दूसरों को ढाढ़स बंधाता है। ... और वह छोटा अबोध बच्चा हमोशा की तरह खेलता है, खाता-पीता और सोता है। उसे क्या पता कि ‘दूसरे गांव गई मां’ अब कभी लौटकर नहीं आयेगी। उसकी मीठी आवाज वह कभी नहीं सुन पायेगा। उसके क्लांत शरीर पर उसके वात्सल्य भरे हाथ का स्पर्श कभी नहीं होगा।

दूसरी ओर घर का बड़ा लडक़ा, वह नौजवान पुत्र इस दुख को समझ तो सकता है पर उसे सहने और उस पर काबू पाने की शक्ति अभी उसमें विकसित नहीं हो पायी है। काम-काज में डूबकर मन को दूसरी ओर लगाकर दुख भुलाने की कला से वह अनभिज्ञ है। अनभिज्ञ न भी हो तो भी उसे आजमाने को उसका दिल आज तैयार नहीं। समय बीतने के साथ दुख कम होता जाता है इसकी जानकारी भी उसे नहीं है। इसलिए कोई उससे यह सब कहे भी तो वह मानेगा नहीं, उल्टे बुरा मनाएगा तथा और भी दुखी हो जाएगा। मां का पवित्र स्मरण कभी कम हो सकता है, उसके जाने से जीवन में जो रिक्तता आई है उसकी क भी पूर्ति हो सकती है--ऐसे विचार मात्र से उसे गहरा आघात लगेगा। दुख को वह पूरा का पूरा सामने देखता है, लेकिन उसे थोड़ा हल्का बना दे ऐसे संयोगो को देख पाने में वह असमर्थ है। उन्हें वह स्वीकारने को भी तैयार नहीं है।

दुख पूरा और आश्वासन शून्य, बोझ भारी और कंधे कोमल, दिल नाजुक और घाव घातक। ऐसी हालत में घर में आ खड़ी हुई उस विपदा का सबसे गहरा आघात बड़े लडक़े पर हो और वह जिंदगी भर उसे सालता रहे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
कठिनाई भरे जीवन में प्रौढ़ों की-सी कठोरता आ ही जाती है। ऐसे लोग जीवन का संघर्ष सहज ही झेल जाते हैं। ऐसी प्रौढ़ता जैसे भी हो जल्दी से जल्दी विकसित हो, यह आवश्यक है। इसके बिना संसार में खड़े रहना एक प्रकार से विनाश को अपने हाथों खींचकर लाने जैसा है।

हमें याद रखना चाहिए कि जीवन है तो सुख भी मिलेंगे और दुख भी आयेंगे। अच्छाइयां भी देखेंगे और बुराइयों से भी सामना होगा। कभी हम आश्चर्यचकित होंगे तो कभी स्तब्ध भी रह जाएंगे। जीवन के उतार-चढ़ाव जीवन की सच्चाइयां हैं। उन्हें समझने, उनका विश्लेषण करने, नई स्थितियों के अनुसार नई दिनचर्या तय करने में ही समझदारी है। इसमें कठिनाई तो होगी ही, जो अभाव बना है वह खलेगा भी, पर चूंकि उसे भरने का और कोई चारा नहीं है इसलिए हमें उस अभाव के साथ ही जीना सीखना होगा। यही जीवन है, जीवन का सच है।

कभी हमारे साथ कोई अन्याय हो जाता है या हमसे कोई भूल हो जाती है तो जीवन के उन कमजोर क्षणों में धीरज रखकर कुछ समय गुजर जाने देना सदैव श्रेयष्कर होता है। कुछ समय के बाद जब मन निर्मल हो जाए, अपमान की चोट या अपराध बोध कुछ कम हो जाए तो यह सोचना चाहिए कि जीवन को संवारने के लिए अब क्या किया जाए।

अपने साथ अन्याय होने पर खुद को कमजोर और असहाय मान लेना गलत है। अपमान में जलते रहकर मन पर बोझ डाले रखने से कुछ नहीं होता। इसके बजाए खुद को शक्तिशाली बनाकर योजनाबद्घ तरीके से अन्याय का प्रतिकार करना ही एकमात्र उपाय है।

यदि भूलवश कुछ कदाचार हो जाए तो अपराध बोध से भरकर पछताने के बजाए उस कदाचार को भुलाकर जीवन में सदाचार उतार लेना ही सही हल है। एक भूल से सीख लेकर किसी दूसरी भूल से दूर रहने में ही बुद्घिमानी है।

एक भूल हुई इसलिए नम्रता आई। नम्रता सद्व्यवहार का आवश्यक लक्षण है। एक भूल हो गई, इसलिए अब सावधानी बरतने की आवश्यकता और महत्व सामने आया। हमसे भूल हुई तो दूसरे लोगों की भूल समझने, उन्हें सहन करने और माफ करने की दृष्टिï विकसित हुई। यह दृष्टि ही उद्घार की दृष्टि है। आज की इस एक भूल से कल की अधिक विकट परिस्थितियों में रक्षण मिल सकता है। एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए लेकिन उससे मिले अनुभव से अब आगे की बड़ी परीक्षाओं में अच्छी तरह पास हुआ जा सकेगा। एक बार हार गए पर इस पहली हार से शेष जीवन संग्राम में अंतिम जीत हासिल की जा सकेगी।

भ्रमित मन को आराम दीजिए, व्याकुल मन को शांत होने दीजिए, घायल हृदय के घाव को भरने दीजिए। कदाचार अथवा भूल के ताप से पीड़त होने पर प्रायश्चित यह होना चाहिए कि हम दोबारा भूल न दोहराएं, दोबारा गलती न करें, कदाचार में शामिल न हों तथा दूसरों की भूल को भी उदार हृदय से स्वीकार करें। अगर हम ऐसा कर सकें तो सच मानिए, दुख की दीक्षा, दुख का यह सबक, अभिशाप नहीं बल्कि जीवन के लिए वरदान बन जाएगा। 

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