Wednesday, June 15, 2011

Janata, Janpratinidhi Aur Janlokpal Bill : जनता, जनप्रतिनिधि और जनलोकपाल बिल





Janata, Janpratinidhi Aur Janlokpal Bill : जनता, जनप्रतिनिधि और जनलोकपाल बिल

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India


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जनता, जनप्रतिनिधि और जनलोकपाल बिल
 पी. के. खुराना


कांग्रेस प्रवक्ता श्री मनीष तिवारी ने गांधीवादी समाजसेवी श्री अन्ना हज़ारे को अनिर्वाचित तानाशाह कहा है। मनीष तिवारी की इस प्रतिक्रिया से यूपीए सरकार और श्रीमती सोनिया गांधी भी सहमत नज़र आते हैं। मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी की इस प्रतिक्रिया के विश्लेषण के लिए इस प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

गांधीवादी समाजसेवी श्री अन्ना हजारे जब जंतर-मंतर पर बैठे थे तो श्री दिग्विजय सिंह और केंद्रीय मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कई तरह के सवाल खड़े किये थे। सरकार ने भी उनके आंदोलन को तमाशा समझा। पर जब बुजुर्ग अन्ना हजारे के समर्थन में सारा देश आ गया और मीडिया ने भी जम कर इस खबर को उछाला तो कांग्रेस और यूपीए सरकार को अपना दृष्टिकोण बदल कर समझौते के लिए तैयार होना पड़ा। श्री अन्ना हज़ारे को मिला समर्थन इतना अधिक और अप्रत्याशित था जिसका किसी को भी, खुद अन्ना जी को भी अनुमान नहीं था। शुरू में तो बाबा रामदेव तथा श्री श्री रविशंकर आदि ने भी सिर्फ संदेश भेजकर कन्नी काट ली थी। श्री अन्ना हज़ारे को मिले अपार समर्थन के बाद बाबा रामदेव इस आंदोलन से इसलिए जुड़े ताकि खुद उनका आंदोलन हाइजैक न हो जाए और सारा श्रेय अन्ना जी ही न ले जाएं।

श्री अन्ना हज़ारे के साथ शुरू से ही जुडऩे वालों में प्रमुख थे आरटीआई एक्टिविस्ट श्री अरविंद केजरीवाल, पूर्व पुलिस अधिकारी श्रीमती किरण बेदी और सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील श्री शशि भूषण तथा उनके सुपुत्र। इससे श्री अन्ना हज़ारे के आंदोलन को बल मिला और उसमें तार्किकता का समावेश हुआ। इस आंदोलन को जब देश के कोने कोने से जन समर्थन मिलने लगा तो राजनीतिज्ञों के कान खड़े हुए और पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री श्री ओम प्रकाश चौटाला तथा बाद में मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती ने मंच पर जाने का प्रयास किया लेकिन अन्ना हज़ारे और उनके समर्थकों ने इसे गैर-राजनीतिक बनाए रखा और उपरोक्त राजनीतिज्ञों को लगभग तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया। परिणामस्वरूप जनसामान्य में इस आंदोलन की प्रतिष्ठा और बढ़ी और यह नीतिविहीन विपक्ष का विरोध भर बनने से बच गया।

अंतत: मीडिया और जनता के मिले-जुले समर्थन ने सरकार को समझौता करने पर मजबूर कर दिया और सरकार ने जनलोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वाली समिति में सामाजिक प्रतिनिधियों के शामिल होने की शर्त मान ली।

कहा जाता है कि जब दो देशों के प्रधानमंत्री मिलकर किसी समझौते की घोषणा करते हैं तो वह सिर्फ एक नीतिगत घोषणा होती है। उसके बाद दोनों देशों के वरिष्ठ अधिकारी मिलजुल कर उस नीति के कार्यान्वयन की राह तैयार करते हैं जिसमें कई बारीकियों का ध्यान रखा जाता है और बार-बार उसे जांचना-परखना पड़ता है। श्री अन्ना हज़ारे के साथ सरकार के समझौते की घोषणा भी एक नीतिगत घोषणा थी जिसे अंतिम निर्णय नहीं माना जा सकता था जब तक कि उसके सभी प्रावधानों पर दोनों पक्षों की सहमति न हो जाए।

तभी घटनाक्रम में एक बड़ा मोड़ आया। बाबा रामदेव ने भी अपने आंदोलन की घोषणा कर दी। उनका आंदोलन स्पष्टत: गैर-राजनीतिक नहीं था हालांकि शब्दों के हेरफेर के साथ जनता को यह समझाने की कोशिश की गई कि श्री अन्ना हज़ारे का आंदोलन राजनीति-विरोधी था और बाबा रामदेव का आंदोलन गैर-राजनीतिक है। पर्दे के पीछे से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सामने गोविंदाचार्य उनके नीति निर्धारक नज़र आ रहे थे। योगगुरू बाबा रामदेव के समर्थकों की संख्या बहुत बड़ी है और उनके आंदोलन की शुरुआत से ही पैसे की जैसे बरसात-सी होने लगी। सारा इंतज़ाम पांच सितारा था और बाबा रामदेव ने आंदोलन की शुरुआत की तो श्री अन्ना हजारे ने उसे इसलिए समर्थन दिया क्योंकि दोनों का घोषित उद्देश्य एक ही था।

गलतफहमियों से बचने के लिए श्री अन्ना हज़ारे को बाबा रामदेव का समर्थन तो करना पड़ा, पर बाबा रामदेव ने मांगों की इतनी बड़ी और लगभग अस्पष्ट सूची पेश कर दी कि उसके कारण श्री अन्ना हज़ारे के आंदोलन की उपलब्धि पर भी पानी पडऩे की आशंकाएं स्पष्ट थीं। अब यह स्वयंसिद्ध है कि दोनों आंदोलनों का तरीका भिन्न था, उद्देश्य भिन्न था और शायद परस्पर विरोधी भी था। बाबा रामदेव पर सरकारी कार्यवाही के बाद उनके भाग निकलने से बाबा के आंदोलन की हवा तो निकल गई, उन पर कई तरह के आरोप भी लगे और सरकार को यह कहने का अवसर मिल गया कि गैर-निर्वाचित लोगों की ब्लैकमेलिंग के आगे सरकार नहीं झुकेगी तथा अंतिम निर्णय चुने हुए प्रतिनिधियों का होगा।

सरकार की नीयत तो पहले से ही खराब थी। बाबा के आंदोलन के हश्र के बाद सरकार ने समाजसेवी अन्ना हज़ारे और उनके समर्थकों को भी दरकिनार करने की ठान ली और एक तरफ तो मंत्रियों और कांग्रेस पदाधिकारियों ने बाबा रामदेव पर हमला बोला दूसरी तरफ श्री अन्ना हज़ारे के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया और कांग्रेस प्रवक्ता श्री मनीष तिवारी ने उन्हें अनिर्वाचित तानाशाह की संज्ञा दे डाली। हालांकि वे भूल गए कि देश में आजादी के बाद यह पहला मौका है जब सत्ता संसद के हाथों में नहीं बल्कि सोनिया गांधी के हाथों में स्थित है। यह भी कम बड़ी बात नहीं है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् या नैशनल एडवाइज़री काउंसिल (एनएसी) में उनके सभी साथी निर्वाचित नहीं हैं और न ही वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं। यही कारण है कि बहुत बार हमें 'एनएसी की मंजूरी के लिए सरकार तीन विधेयक भेजेगी’, 'वन अधिकार मसले पर एनएसी ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय की खिंचाई की’ जैसी खबरें भी देखने को मिलती हैं। नौकरशाही से एनएसी के सदस्य बने आईएएस अधिकारी सुपर मंत्रियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। क्या श्री मनीष तिवारी बता सकते हैं कि ये कौन अनिर्वाचित लोग हैं जो जनप्रतिनिधियों को हुक्म देते हैं ? यदि वे ऐसा कर सकते हैं तो किसी कानून का मसौदा तैयार करने में समाज के जिम्मेदार लोगों की भागीदारी पर ऐतराज क्यों ?

परंतु, हमें जनता की भागीदारी की व्यवस्था के दूसरे पहलू को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। मान लीजिए कि कभी कोई स्थिति विस्फोटक रुख अख्तियार कर ले, दंगे हो जाएं और कई जानें चली जाएं तो जवाबदेही किसकी होगी ? चुने हुए जनप्रतिनिधियों की या समाजसेवी लोगों की ? क्या यह आशंका गलत है कि अब कोई अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति भूख हड़ताल की धमकी देकर सरकार को सचमुच ब्लैकमेल ही करने पर नहीं उतर आयेगा ? मान लीजिए यदि श्री अन्ना हज़ारे के समर्थन वाला जन लोकपाल बिल बन गया और उसकी वजह से समस्याएं आईं तो हम जवाबतलबी किससे करेंगे ? अत: जनता की भागीदारी की एक सुनिश्चित सीमा और व्याख्या होनी चाहिए ताकि भविष्य में कभी अराजकता की स्थिति न बने। आज स्थिति दूसरी है। भ्रष्टाचार अंतहीन हो जाने की वजह से देश परेशान है और सरकार भ्रष्टाचार दूर करने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं लग रही है। यह एक विशिष्ट स्थिति है। इसमें श्री अन्ना हज़ारे की दखलअंदाज़ी का देश भर ने स्वागत किया है। सवाल उन पर भी उठे हैं, लेकिन बाबा रामदेव प्रकरण पर ज्यादा सवाल उठे हैं और उनके काम और बयानों से श्री अन्ना हजारे की उपलब्धियां भी चौपट होती नज़र आ रही हैं। अत: हमें सोच-समझ कर तय करना होगा कि सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिए निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का स्वरूप क्या हो ? यदि ऐसा अभी नहीं किया गया तो अंतत: इससे भी अराजकता ही फैलेगी। 

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