Sunday, February 19, 2012

Crisis, Opportunity & Development :: संकट, अवसर और विकास




Crisis, Opportunity & Development :: संकट, अवसर और विकास


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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संकट, अवसर और विकास
-- पी. के. खुराना

भारत एक विकासशील देश है। नब्बे के दशक में जब उदारवाद आया तो विदेशी कंपनियों को भारत के मध्य वर्ग में एक बड़ा बाज़ार दिखा और यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्टोर फटाफट खुलने आरंभ हो गये, परंतु ऊंचे किराये, ऊंची तनखाहों वाला स्टाफ और महंगे सामान से अटे स्टोर ग्राहकों की राह देखते रह गये। विभिन्न मॉल भी इसलिए असफल हुए क्योंकि वे मूलरूप से ऊंची क्रयशक्ति वाले ग्राहकों की आवश्यकताओं की ही पूर्ति करते थे। परिणाम यह हुआ कि लोग मॉल में सामान खरीदने के बजाए पिकनिक मनाने के लिए जाने लगे। मॉल के फूड कोर्ट में तो ग्राहक थे पर अन्य स्टोर ग्राहकों को ज्य़ादा आकर्षित नहीं कर सके। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को धीरे-धीरे समझ में आया कि भारतीय मध्य वर्ग बड़ा अवश्य है पर उसकी क्रयशक्ति सीमित है। तब एक और धारणा ने बल पकड़ा कि भारतीय ग्राहक गरीब है और उसे अन्य क्षेत्रों के सफल उत्पादों का तामझामरहित, सीधा-सादा संस्करण चाहिए। साम्राज्यवादी मानसिकता का यह ऐसा उदाहरण है जो दिखने में तो तर्कसंगत लगता है पर व्यावहारिक नहीं है। गुज़रे समय के अनुभव ने इसे भी सिद्ध कर दिया है। वस्तुत: ग्रामीणों को सिटी बैंक का 'गरीब संस्करण' नहीं चाहिए था, उन्हें ग्रामीण बैंक चाहिए था। उन्हें भारतीय आवश्यकताओं और नज़रिये वाले उत्पादों और सेवाओं की आवश्यकता थी।

आज भारत की अर्थव्यवस्था दबाव में है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य भी उत्साहजनक नहीं है, मुद्रा के रूप में रुपये का बुरा हाल है, आयात महंगा हो गया है, निर्यात हो नहीं रहा, महंगाई बढ़ रही है, बेरोज़गारी की दर बढ़ रही है, भ्रष्टाचार चरम पर है और आम नागरिक असहाय है। सरकार गठबंधन की विवशताओं की दुहाई दे रही है और विपक्ष सरकार की हर नीति की आलोचना कर रहा है। समाजसेवी अन्ना हज़ारे के आंदोलन में चाहे वक्ती ही सही, पर ठहराव आया है और अभी यह कह पाना मुश्किल है कि भविष्य की करवट कैसी होगी।

इस बीच सभी औद्योगिक संघ एक स्वर में सुधारों में तेजी लाने की वकालत कर रहे हैं और वर्तमान अव्यवस्था के लिए सरकार की ढुलमुल नीति को दोष दे रहे हैं। उद्योगपतियों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों में आर्थिक सुधार की दिशा में उठाये गए कदमों की गति धीमी हुई है या रुकी रही है। उद्योग संघों के इस नज़रिये के आलोचक कहते हैं कि अगर खुली अर्थव्यवस्था ही सब समस्याओं का समाधान होती तो अमेरिका और यूरोप में मंदी न आती। इन आलोचकों का मानना है कि केंद्रीय बैंक के महंगाई रोकने के कदमों का विरोध करने वाले मुनाफा बटोरने की हवस से ग्रस्त उद्योगपति सिर्फ अपने लाभ के लिए कम ब्याज दरों की वकालत कर रहे हैं। उनके अनुसार समस्याओं का मूल एफडीआई की अनुमति न होना नहीं है बल्कि गरीबी है जिसे दूर करने में सरकार विफल रही है और उद्योगपतियों को उसमें कोई रुचि नहीं है। कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि खेती को लाभदायक बनाने के लिए उसे सीधी आय का समर्थन दिया जाना चाहिए क्योंकि खेती लाभप्रद हुई तो देश की अर्थव्यवस्था खुद-ब-खुद पटरी पर आ जाएगी।

यह कहना गलत नहीं है कि इस समय सरकार का नज़रिया पूंजीवादी है और कंपनियों के लिए राहत पैकेज के आंकड़े इतने चौंकाने वाले हैं कि दिमाग घूम जाता है। जीटीएल का बिल 22,000 करोड़ रुपये का है, एयर इंडिया को 30,000 करोड़ रुपये की आवश्यकता है और किंगफिशर एयरलाइन्स की देनदारियां 6,500 करोड़ रुपये की हैं और भारतीय स्टेट बैंक उसे 'मदद' देने की योजना पर काम कर रहा है। यह तो उसी पुरानी कहावत को चरितार्थ करता है कि यदि आप पर लाखों रुपये का कर्ज है तो आप संकट में हैं पर यदि आप पर अरबों रुपये का कर्ज है तो यह बैंक की समस्या है। यह सही है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक खर्च में 30-40 हजार करोड़ रुपये का खर्च होगा लेकिन कंपनियों के लिए राहत पैकेज के मुकाबले में यह राशि कुछ भी नहीं है।

मैंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया है कि खैरात से गरीबी दूर नहीं हो सकती। हमें गरीबों का सब्सिडी और आरक्षण की बैसाखी देने के बजाए उन्हें रोज़परक तथा उद्यमिता की शिक्षा और साधन देने होंगे जो उन्हें गरीबी के अभिशाप से मुक्ति दिला सके। इसके अलावा सरकार के सभी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भ्रष्टाचार में फंसकर अप्रभावी हो जाते हैं और अंतत: अमीरों को और अमीर बनाने के काम आते हैं।

यदि हम पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से सहमत नहीं हैं और सरकार की लोक कल्याणकारी नीतियों में भी खामियां देखते हैं तो हमारे पास कौन सा रास्ता बचता है ? उत्तर है कि हमें मध्यमार्गी होना होगा।

सन् 2011 में संकट में फंसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए नया साल, नई ज़मीन, नये विचार और नए लक्ष्य तय करने का साल होना चाहिए। एक तरह से हम एक टिपिंग प्वायंट, यानी बदलाव की धुरी पर खड़े हैं। संकट के समय ही नये अवसरों की खोज होती है। हमें इस संकट को अवसर में बदलना होगा।

हमें आर्थिक सुधार तेजी से लागू करने होंगे, निर्यात के नये बाज़ार खोजने होंगे, आयात को नियंत्रित करने की रणनीति बनानी होगी, कर सुधार लागू करने होंगे, बुनियादी ढांचा मजबूत बनाने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, युवा वर्ग को प्रतिभा और कौशल उन्नयन से सज्जित करना होगा, घरेलू क्षेत्र में मांग को बढ़ाना होगा, कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे।

राजकोषीय हालात दुरुस्त करने के लिए खर्च में इस तरह से कटौती करनी होगी कि इस कटौती के कारण ही मंदी के हालात न बन जाएं। विकसित देशों की खराब वित्तीय स्थिति से सबक लेकर हमें आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार नीतियां बनानी होंगी। मार्च में विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद केंद्र सरकार नीतिगत फैसले लेने की गति तेज़ कर सकती है और केवल आर्थिक सुधार ही नहीं बल्कि तमाम जरूरी विधेयकों को कानून में बदल सकती है। पिछले दो साल से पॉलिसी पैरालाइसिस का आरोप झेल रही सरकार मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देकर इस आरोप से मुक्त हो सकती है।

दूसरी ओर उद्योग जगत को भी मुनाफाखोरी की हवस छोड़कर सस्ते उत्पाद विकसित करने होंगे जो आम आदमी की पहुंच में हों। उद्योग जगत की ओर से बुनियादी ढांचा सुदृढ़ करने के लिए कुछ विशेष नहीं किया जा रहा है। सारे काम सिर्फ सरकार के ही नहीं हैं। उद्योग जगत को इस ओर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है।

यह कहना मुश्किल है कि केंद्र की यूपीए सरकार ऐसा करेगी या नहीं, या कर पायेगी या नहीं। पर आज हमारे सामने एक बड़ा संकट है और इस संकट को अवसर में बदलने का अवसर भी है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारी सरकार और उद्योग जगत मिलकर इस अवसर का लाभ उठायेंगे। ***



“Alternative Journalism”, “Alternative Journalism in India”, “Pioneering Alternative Journalism”, वैकल्पिक पत्रकारिता, भारतवर्ष में वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रवर्तक पी. के. खुराना

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