Sunday, February 19, 2012

गलत होता व्याकरण




गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना


हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 

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