Sunday, January 22, 2012

No Subsidy Can Remove Poverty -- गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'






No Subsidy Can Remove Poverty : गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'

Garibi Nahin Hataa Sakti Koi Khairat ! : गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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गरीबी नहीं हटा सकती कोई 'खैरात'!
 पी. के. खुराना


धारणा के स्तर पर हमारा देश एक लोककल्याणकारी राज्य, एक 'वेलफेयर स्टेट' है। धारणा के स्तर पर हम पूंजीवादी नहीं हैं। यह सही भी है क्योंकि किसी आम आदमी के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि प्रगति के सारे सोपानों के बावजूद 35 करोड़ से भी अधिक भारतीय अशिक्षित हैं, 32 करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं और 25 करोड़ देशवासियों को सामान्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं है और देश के 51 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही सही प्रतीत होती है।

सन् 1956 में भारत सरकार ने एक योजना बनाई थी जिसके अनुसार अगले 25 वर्षों में भारत को गरीबी मुक्त राष्ट्र बनना था। सन् 1981 में वे 25 साल पूरे हो गए, पर सपना अब भी अधूरा है जबकि 1981 के बाद 30 और साल गुज़र चुके हैं। इस समय हमारी सबसे बड़ी समस्या है सर्वाधिक गरीबी का जीवन जी रहे वंचितों के लिए भोजन की व्यवस्था करना, उससे ऊपर के लोगों के जीवन के स्तर में सुधार लाने के लिए स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना और किफायती शिक्षा की व्यवस्था करना तथा शेष समाज की आवश्यकताओं के लिए कृषि में नई तकनीकों का लाभ लेना, भूमि अधिग्रहण कानून को सभी संबंधित पक्षों के लिए लाभदायक बनाना तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना उद्योगों का विस्तार करना।

गरीबी दूर करने के नाम पर हमारे देश में आरक्षण और सब्सिडी का जो नाटक चल रहा है उसने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है। हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। दूसरी ओर, आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया भर में भारत में आरक्षण का प्रतिशत सर्वोच्च है और हमारा देश एकमात्र ऐसा देश बन गया है जहां लोग पिछड़ा कहलाने के लिए आंदोलन करते हैं। परिणामस्वरूप, आज लोग मेहनत, ज्ञान और ईमानदारी की तुलना में पिछड़ेपन को उन्नति का साधन मानते हैं। सच्चाई यह है कि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

अभी पिछले सप्ताह ही वरिष्ठ पत्रकार श्री टी एन नाइनन ने अपने एक लेख में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पैदा हुई इस स्थिति का विस्तार से जायज़ा लिया है। उन्होंने उदाहरण दिया है कि दिल्ली में पेट्रेाल की कीमत 65 रुपये प्रति लीटर है, डीज़ल 41 प्रति लीटर में बिकता है जबकि इस वर्ग में उच्चतम सब्सिडी के कारण मिट्टी के तेल की कीमत 17 रुपये प्रति लीटर है। परिणाम यह है कि दिल्ली में बिकने वाले कुल पेट्रोल में कम से कम आधे पेट्रोल में मिट्टी के तेल की मिलावट होती है। इतने बड़े स्तर पर मिलावट का यह खेल सिर्फ इसलिए चल पाता है क्योंकि इस खेल में राजनेता, अधिकारी, पुलिस और व्यापारियों का साझा गिरोह है जो गरीबों की सब्सिडी को लूट ले जाता है और गरीबों के नाम पर मिली यह खैरात अमीरों में बंट जाती है।

अमीरों से पैसा छीनकर गरीबों में बांटने की अवधारणा इस हद तक विकृत हुई कि स्व. इंदिरा गांधी के ज़माने में आयकर की दर 97 प्रतिशत तक जा पहुंची। सत्तानवे प्रतिशत! यानी, अगर आप मेहनत करके सौ रुपये कमाएं तो सत्तानवे रुपये सरकार छीन लेती थी और आपके पास बचते थे तीन रुपये! क्या आप नहीं समझ सकते कि टैक्स की इस अतर्कसंगत प्रथा ने ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था का सूत्रपात किया और आज शायद पक्ष और विपक्ष का एक भी राजनीतिज्ञ, सरकार का एक भी बड़ा अधिकारी और बड़े व्यापारियों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसके पास काला धन न हो। ऐसे में किसी एक व्यक्ति को दोष देना पेड़ की पत्तियों को दोष देने के समान है जबकि बुराई जड़ों में है। किसानों के लिए मुफ्त बिजली, बीपीएल परिवारों के लिए सस्ता राशन, स्कूलों मे मिड-डे मील, नरेगा, कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आम आदमी के नाम पर बनने वाली योजनाओं का असली लाभ अमीरों को मिलता है और गरीब लोग लाइनों में खड़े अपनी बारी का इंतज़ार करते रह जाते हैं।

सवाल यह है कि यदि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से लाभ नहीं मिल रहा है तो क्या किया जाए? इसके लिए आवश्यक है कि गरीब और वंचित लोगों को रोज़गारपरक तथा उद्यमिता की शिक्षा दी जाए। उनकी स्किल बढ़े, वे कमाने लायक बन सकें और उत्पादकता में भी योगदान दें। दलितों को आरक्षण और गरीबों को सब्सिडी की बैसाखी देने के बजाए उन्हें रोज़ी-रोटी कमाने के लायक बनाया जाए। देश में सरकारी नौकरियों की कमी हो सकती है, नौकरियों की भी कमी हो सकती है लेकिन रोज़गार की कमी नहीं है। मुंबई के डिब्बेवाले एक आदर्श उदाहरण हैं। दूसरा उदाहरण सोशल इन्नोवेशन का है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं। हिंदुस्तान लीवर ने आंध्र प्रदेश में विधवा महिलाओं को घर-घर जाकर अपने उत्पाद बेचने की ट्रेनिंग दी जिससे कंपनी की बिक्री बढ़ी और जरूरतमंद विधवाओं को सम्मानप्रद रोज़गार मिला। कई एनजीओ और सहकारी संस्थाएं भी सम्मानप्रद रोज़गार की इस मुहिम में शामिल हैं। लिज्जत पापड़, अमुल डेयरी आदि इसके बढिय़ा उदाहरण हैं।

बीपीएल परिवारों को रोटी या पैसा देने मात्र से यह समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट यानी ऐसे विकास की आवश्यकता है जिसमें उन लोगों की हिस्सेदारी हो जिन्हें वाजिब लागत पर भोजन नहीं मिलता, सार्वजनिक परिवहन नहीं मिलता, अस्पताल की सुविधा नहीं मिलती, या जिनके पास घर नहीं हैं। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह सोशल इन्नोवेशन से संभव है और यह गरीबी दूर करने का शायद सबसे बढिय़ा उपाय है। हमें इसी विचार को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। 

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Thursday, November 24, 2011

एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women

एकल महिलाओं की समस्याएं :: Problems of Single Women

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Alternative Journalism
वैकल्पिक पत्रकारिता

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एकल महिलाओं की समस्याएं
-- पी. के. खुराना

हाल ही में नई दिल्ली में महिलाओं के एक संघ की सदस्या महिलाएं समाज और सरकार के रवैये के प्रति अपना विरोध जताने के लिए इकट्ठी हुईं। देश की राजधानी दिल्ली के लिए यह कोई नई बात नहीं है कि किसी संगठन के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए आए। इन महिलाओं के विरोध प्रदर्शन में भी ऐसा कुछ उल्लेखनीय अथवा खास नहीं था, अगर कुछ खास था तो वह था इस संगठन की प्रकृति और इसके उद्देश्य जिसने मुझे महिलाओं की एक और समस्या पर फिर से सोचने के लिए विवश किया।

'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' नामक इस संगठन की सदस्या महिलाओं में विधवाएं, परित्यक्ताएं, तलाकशुदा महिलाएं व ऐसी अविवाहित महिलाएं शामिल हैं जो अपने परिवार और समाज से उपेक्षापूर्ण व्यवहार का दंश झेल रही हैं। इनमें से अधिकांश ग्रामीण पृष्ठभूमि की साधनहीन महिलाएं हैं जिनके पास अपनी कठिनाइयां बताने का कोई उपाय नहीं था। यह संगठन ऐसी महिलाओं के अधिकारों की वकालत ही नहीं करता बल्कि उन्हें अधिकारों के प्रति शिक्षित भी करता है। इससे भी बड़ी बात, यह सिर्फ ऐसी वंचिता महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने के साथ-साथ उनके ससुराल पक्ष के परिवारों को काउंसलिंग के माध्यम से उनके बीच की गलतफहमियां दूर करके परिवारों को जोडऩे का प्रयत्न भी करता है। यानी, 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' अधिकारों की वकालत करते हुए सिर्फ झगड़ा बढ़ाने का ही काम नहीं करता, बल्कि झगड़ा निपटाने का रचनात्मक प्रयत्न भी करता है।

अपने ममतामयी दृष्टिकोण के लिए जानी जाने वाली महिलाएं विपरीत स्थितियों में खुद कितनी उपेक्षा का शिकार होती हैं, इसकी कहानी सचमुच अजीब है। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिये जाते हैं। विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है लेकिन परित्यक्ताओं, तलाक शुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्य़ादा जागरूक नहीं हैं।

एकल महिलाओं को हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवैतनिक कामकाज के अलावा यौन शोषण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांवों में उन्हें सहारा देने वाला कोई नहीं होता, समाज की रूढि़वादिता और संस्कार उन्हें विरोध करने से रोकते हैं और वे असहाय पिसती रह जाती हैं। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार ऐसी महिलाओं की संख्या तीन करोड़ साठ लाख के आसपास थी और इनमें से अधिकांश विधवाएं थीं। सन् 2011 में संपन्न जनगणना में एकल महिलाओं की गिनती का विवरण अभी नहीं आया है।

यही नहीं, जिन परिवारों में मर्द लोग कामकाज के सिलसिले में शहर से बाहर रहने को विवश हैं वहां उनकी पत्नियां घर में अकेली पड़ जाती हैं और कई तरह की समस्याएं झेलती हैं लेकिन ज़ुबान नहीं खोल पातीं। घर से बाहर रह रहा मर्द अगर कठिनाइयां झेल कर पैसे कमाता है तो घर में अकेली पड़ गई उसकी पत्नी भी कई तरह से अपमान और उपेक्षा का शिकार हो रही हो सकती है। महिलाओं की शारीरिक बनावट के कारण उनकी समस्याएं अलग हैं। यही नहीं, उनकी भावनात्मक सोच भी पुरुषों से अलग होती है और अक्सर पुरुष उसे नहीं समझ पाते। इसके कारण भी कई बार महिलाओं को कई तरह की कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। इससे भी ज्य़ादा बड़ी समस्या तब आती है जब रोज़गार के सिलसिले में मर्द शहर से बाहर जाता है और वहीं पर दूसरा विवाह कर लेता है। ऐसे बहुत से पुरुष अपनी पहली पत्नी को अक्सर पूरी तरह से बिसरा देते हैं या फिर दोनों महिलाओं से झूठ बोलते रह सकते हैं।

हिमाचल प्रदेश निवासी 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्या निर्मल चंदेल इस पहाड़ी राज्य की महिलाओं की इस व्यथा का बखान करते हुए कहती हैं कि हिमाचल प्रदेश में रोज़गार की बहुलता न होने के कारण मर्दों का राज्य से बाहर प्रवास जितना आम है, नये शहर में बस कर आधुनिका महिलाओं अथवा महिला सहकर्मियों से दूसरी शादी भी कम आम नहीं है। हिमाचल प्रदेश जैसे कम आबादी वाले छोटे से राज्य से ही 'राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच' की सदस्याओं की संख्या 9,000 से कुछ ही कम है। इसीसे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में महिलाएं शोषण और उपेक्षा का शिकार हो रही हैं।

महिलाओं की एक अन्य समस्या को भी पुरुष अक्सर नहीं समझ पाते और अक्सर उसका परिणाम यह होता है कि पूरा परिवार बिखर जाता है। करियर के जाल में फंसा पुरुष वर्ग पत्नी और परिवार की उपेक्षा की गंभीरता को समझ ही नहीं पाता, कई बार तो तब तक जब परिवार टूट ही न जाए या टूटने के कगार पर ही न पहुंच जाए। तब भी पुरुष लोग यह नहीं समझ पाते कि वे कहां गलत थे। वे तो तब भी यही मान रहे होते हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे थे वह परिवार की भलाई, खुशी और समृद्धि के ही लिए था। यहां पतियों और पत्नियों का नज़रिया एकदम अलग-अलग नज़र आता है। पत्नियां पैसा कम और पति का साथ ज्य़ादा चाहती हैं और पति यह मानते रह जाते हैं कि यदि उनके पास धन होगा तो वे पत्नी के लिए सारे सुख खरीद सकेंगे। बिना यह समझे कि उनकी पत्नी की भावनात्मक आवश्यकताएं भी हैं और उनकी पूर्ति के लिए उन्हें पति के पैसे की नहीं, बल्कि पति के संसर्ग और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता है।

हमारा देश तेजी से विकास कर रहा है, हमारे जीवन स्तर में सुधार हो रहा है लेकिन सोच बदलने में समय लग रहा है, खासकर ग्रामीण इलाकों में अभी भी रुढि़वादिता का बोलबाला है। अब समय आ गया है कि हम पुरुष समाज को महिलाओं की आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित करें और महिलाओं के प्रति ज्य़ादा सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाएं ताकि समाज के दोनों अंगों का समान विकास संभव हो सके और समाज में संतुलन बना रहे। ***

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Saturday, October 29, 2011

Wellness Prosperity & Success :: स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता

Wellness Prosperity & Success

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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स्वास्थ्य, समृद्धि और सफलता
 पी. के. खुराना

बहुत साल पहले मुझे जनसामान्य में पीजीआई के नाम से विख्यात, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑव मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में आयोजित एक सेमिनार में शामिल विश्व भर के डाक्टरों के विचार सुनने का मौका मिला जिसमें बताई गई बातों का सार यह था कि व्यक्ति जवानी में सफलता के लिए अथक मेहनत करता है। अक्सर उसे घर से दूर रहना पड़ता है, शहर, राज्य या देश छोड़ कर परदेसी होना पड़ता है, पर करियर की सफलता के आदमी यह सब बर्दाश्त करता है, दिन रात मेहनत करता है और खुश होता है कि वह सफलता की सीढिय़ां चढ़ता चल रहा है। जवानी में शरीर अपने ऊपर हुई इन ज्य़ादतियों को बर्दाश्त करता चलता है पर चालीस की उम्र के बाद शरीर में भिन्न-भिन्न बीमारियों के लक्षण उभरने लगते हैं, आदमी दवाइयों पर निर्भर होने लगता है और जब व्यक्ति इतना अनुभवी हो जाता है कि लोग-बाग उसके ज्ञान का लोहा मानने लगते हैं और वह और भी तेजी से उन्नति कर सकता है तब शारीरिक व्याधियां उसकी राह में रोड़ा बनना शुरू हो जाती हैं, व्यक्ति की कार्यक्षमता घटनी शुरू हो जाती है और वह उस उन्नति से महरूम रह जाता है, जिसके कि वह काबिल है, या फिर वह अपने शरीर की आवश्यकताओं की और ज्य़ादा उपेक्षा करने लगता है और अंतत: अगले कुछ सालों में और भी ज्य़ादा बड़ी बीमारियों से घिर जाता है।

कहा गया है कि आदमी पहले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गंवाता है, फिर स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए धन खर्च करता है और अंतत: दोनों गंवा लेता है। बहुत से मामलों में यह विश्लेषण एकदम सटीक है। यह सच है कि धन कमाना आसान नहीं है, धन चला जाए तो उसकी भरपाई में बड़ी मुश्किलें आती हैं, कई बार तो दोबारा उस स्तर तक पहुंच पाना संभव ही नहीं हो पाता, या धन कमाना शुरू होने पर छूट गए अवसरों की भरपाई भी शायद हमेशा संभव नहीं होती तो भी यह सच है कि धन कमाने के अवसर आते रह सकते हैँ पर ज्य़ादा धन कमाने की धुन में शरीर को ऐसी बहुत सी बीमारियां लग जाती हैं जो जीवन भर साथ नहीं छोड़तीं। फिर न आप नमक खा सकते हैं, न मीठा। कई तरह की इच्छाओं को लेकर मन मारना पड़ता है और जीवन का असली स्वाद पीछे रह जाता है।

हमारे स्कूलों में फिजि़कल एजुकेशन एक विषय भर है, विद्यार्थियों को उसकी असली आवश्यकता से कभी परिचित नहीं करवाया जाता। सर्दियों के दिनों में भी छोटे-छोटे बच्चे बिस्तर से बाहर निकलते ही स्कूल के लिए तैयार होने लगते हैं, व्यायाम या योग के लिए उनके जीवन में कोई जगह नहीं होती, न ही उन्हें नियमित व्यायाम का महत्व ढंग से सिखाया जाता है। मां-बाप जीवन निर्वाह के लिए पैसा कमाने की चक्की में पिस रहे होते हैं और बच्चे स्कूलों में किताबों में सिर खपाते रह जाते हैं। परिणाम यह होता है कि पढ़ाई खत्म होते ही आदमी नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में पड़ जाता है और व्यायाम को सिरे से उपेक्षित कर देता है।

यह खेदजनक है कि व्यायाम हमारी दिनचर्या का अभिन्न अंग नहीं बन पाया है जिससे स्वास्थ्य संबंधी सारी व्याधियां पैदा हो रही हैं, और जब तक व्यक्ति कुछ सफल होकर जीवन का आनंद लेने के काबिल होता है तब उसके शरीर को कोई न कोई ऐसी बीमारी लग चुकी होती है कि वह जीवन के आनंद से महरूम रहने के लिए विवश हो जाता है।

देश भर में बहुत से जिम और योग केंद्र हैं लेकिन दोनों में आपस में कोई सामंजस्य नहीं है। बहुत से जिम बच्चों को नशीली दवाओं की आदत डालने के लिए बदनाम हुए और योग केंद्रों के अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित कर्णधार व्यक्ति की क्षमता और उम्र की परवाह किये बिना सबको एक जैसा पाठ पढ़ाते हुए कई बार उन्हें नई व्याधियों का उपहार दे डालते हैं। बहुत से योग गुरू योग कैंप का आयोजन करते हैं पर ये शिविर इतनी छोटी अवधि के होते हैं कि उनसे लोगों में नई आदतें स्थाई नहीं हो पातीं। योग कैंप की समाप्ति के बाद फिर से वही पुरानी दिनचर्या आरंभ हो जाती है और शिविर का कोई स्थाई लाभ लोगों को नहीं मिल पाता। योग कैंप की महत्ता को सिरे से नकारना तो गलत है पर इन्हें ज्य़ादा उपयोगी बनाने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों से स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को लेकर मेरी बातचीत से मुझे जो समझ में आया उसका सार यह है कि यदि हम हर सुबह लगभग एक घंटा और रात को खाना खाने से पहले आधा घंटा सैर करें तो हम उम्र भर अधिकांश बीमारियों से बचे रह सकते हैं। ब्रिस्क वॉक के नाम से जानी जाने वाली यह सैर साधारण से कुछ तेज़ चाल में पूरी की जाती है। हालांकि इस मामले में मतैक्य नहीं है तो भी ज्य़ादातर डॉक्टरों का यह मानना है कि ब्रिस्क वॉक, जॉगिंग से भी ज्य़ादा सुरक्षित और लाभदायक है। इस संबंध में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले बीस मिनट की सैर के बाद ही हमारे शरीर के अंग खुलने शुरू होते हैं और सैर का असली लाभ उसके बाद मिलता है, अत: सैर की अवधि 40 मिनट से 60 मिनट के बीच रहना आवश्यक है। इससे कम अवधि की सैर का लाभ कम होगा। सवेरे की सैर करने वाले व्यक्तियों के लिए रात्रि सैर की आधे घंटे की अवधि भी काफी है। रात्रि की सैर को लेकर भी कई भ्रम हैं। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि रात्रि के भोजन से पूर्व ब्रिस्क वॉक दवाई की तरह है। भोजन के बाद तेज़ सैर नहीं की जानी चाहिए। यदि आप रात्रि के भोजन के बाद सैर के लिए निकलते हैं तो टहलने जैसा होना चाहिए जिसका उद्देश्य यह है कि खाना खाते ही बिस्तर पर नहीं जाना चाहिए बल्कि नींद से पहले खाना पचने का समय मिलना चाहिए।

प्रसिद्ध योग गुरू स्वामी लालजी महाराज शायद अकेले ऐसे योगाचार्य हैं जो स्वास्थ्य रक्षा में योग, जिम और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समन्वय की वकालत करते हैं। जिम में व्यायाम करते हुए यदि व्यक्ति श्वास-प्रक्रिया पर भी नियंत्रण करे तो व्यायाम का लाभ दोगुणा हो सकता है। बहुत से डाक्टर भी अब यह स्वीकार करते हैं कि यदि चिकित्सा विज्ञान में योग का भी समावेश हो जाए तो रोगी को ज्य़ादा लाभ होता है। डा. पूनम नायर द्वारा संचालित, चंडीगढ़ योग सभा और पीजीआई में ही इस संबंध में लगभग दो साल तक चले एक अध्ययन में यह पाया गया कि योग की सहायता से रोगियों में तनाव कम हुआ, रोग से छुटकारा पाने में आसानी हुई और लाभ स्थाई रहा। यही नहीं, पीजीआई में खुद डाक्टरों और नर्सों को भी जब योग क्रियाएं करवाई गईं तो उनमें तनाव की कमी आई और वे ज्यादा कुशलता से अपनी ड्यूटी निभा सकने में सक्षम पाये गए। स्पष्ट है कि हम अपने जीवन में योग और व्यायाम को भी उतार पायें तो जीवन कहीं ज्य़ादा स्वस्थ, संपन्न और खुशहाल हो सकता है। ***

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Saturday, October 22, 2011

जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man









जनता का सशक्तिकरण :: Empowering the Common Man


By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना


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जनता का सशक्तिकरण
पी. के. खुराना



जापानी मूल के प्रसिद्ध अमरीकी लेखक राबर्ट टी. कियोसाकी मेरे मनपसंद लेखक और विचारक हैं। उनकी प्रथम पुस्तक 'रिच डैड पुअर डैडÓ ने ही विश्व भर में तहलका मचा दिया। वर्तमान शिक्षा पद्धति पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैंैं, ''स्कूल में मैंने दो चुनौतियों का सामना किया। पहली तो यह कि स्कूल मुझ पर नौकरी पाने की प्रोग्रामिंग करना चाहता था। स्कूल में सिर्फ यह सिखाया जाता है कि पैसे के लिए काम कैसे किया जाता है। वे यह नहीं सिखाते हैं कि पैसे से अपने लिए काम कैसे लिया जाता है। दूसरी चुनौती यह थी कि स्कूल लोगों को गलतियां करने पर सजा देता था। हम गलतियां करके ही सीखते हैं। साइकिल चलाना सीखते समय मैं बार-बार गिरा। मैंने इसी तरह सीखा। अगर मुझे गिरने की सजा दी जाती तो मैं साइकिल चलाना कभी नहीं सीख पाता।“

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें लोगों के साथ चलने, लोगों को साथ लेकर चलने, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी होने, प्रयोगधर्मी होने से रोकती है। गलतियां करने वाले को सज़ा देकर हमारी शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों में भय की मानसिकता भर देती है। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें स्वस्थ रहना नहीं सिखाती, स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक अच्छी आदतें हम स्कूल में नहीं सीखते। हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने सभी साधनों का प्रयोग करना भी नहीं सिखाती। पूंजी एक बहुत बड़ा साधन है पर हमारी शिक्षा हमें पूंजी के उपयोग का तरीका नहीं सिखाती। हमारी शिक्षा हमें पैसे के लिए काम करना सिखाती है, पैसे से काम लेना नहीं सिखाती।

हमारी शिक्षा प्रणाली हमें अपने कर्तव्यों का बोध नहीं देती, अपने नागरिक अधिकारों का ज्ञान नहीं देती। यह शिक्षा प्रणाली हममें नैतिक साहस पैदा नहीं करती। वर्तमान शिक्षा पद्धति न तो हमें अच्छा नागरिक बनना सिखाती है और न ही सफल व्यक्ति बनना। यह शिक्षा सशक्तिकरण की शिक्षा नहीं, पंगुता की शिक्षा है।

हमारी शासन व्यवस्था इतनी लचर है कि सूचना के अधिकार के बावजूद हमें समय पर सूचनाएं नहीं मिल पातीं, पूरी सूचनाएं नहीं मिल पातीं और यदि कोई अधिकारी इसमें रोड़े अटकाता है तो नागरिकों के पास उसके प्रभावी प्रतिकार का कोई उपाय नहीं है। शिक्षा का अधिकार लागू होने का क्या मतलब है? यदि उसके लिए आवश्यक प्रबंध न किये जाएं, आवश्यक संख्या में स्कूल और अध्यापक न हों तो शिक्षा के अधिकार का कानून बना देने से क्या होगा?

हमारे नेता सब्सिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीज़ल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सब्सिडी की आवश्यकता ही न रहे। सब्सिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापिस भी ले लेती है। हमारी पूरी कर-प्रणाली ही अतर्कसंगत और उद्यमिता विरोधी है। सच तो यह है कि टैक्स व्यवस्था की कमियों के कारण ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है।

आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं जबकि सब्सिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाए समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोज़गार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाए उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है, और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है।

हमारे देश में उद्यमिता के लिए प्रोत्साहन के नाम पर जो कुछ किया जाता है वह सब एक बहुत बड़ा मज़ाक है। कोई नया उद्योग लगाने में इतनी अड़चनें हैं और इतने विभागों से अन्नापत्ति प्रमाणपत्र (नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट) लेना होता है कि अन्नापत्ति प्रमाणपत्र लेने में ही सालों-साल लग जाते हैं। दूसरी ओर, हम लोग भी अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति उदासीन रहकर प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं के रहमोकरम की आदी हो गए हैं। हम अपने जनप्रतिनिधियों के व्यवहार और कामकाज के प्रति उदासीन रहते हैं। सदन में प्रतिनिधियों की उपस्थिति, बहस में भागीदारी, निजी बिल आदि बहुत से तरीकों से उनके कामकाज की समीक्षा करने के बाद उन्हें वोट देने के बजाए, किसी नारे के पीछे लगकर, जाति अथवा क्षेत्र की राजनीति से प्रभावित होकर अथवा किसी एक दल से बंधकर अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं।

उपरोक्त सभी व्यवस्थाएं नागरिक के रूप में हमें कमज़ोर करती हैं और हम दूसरों की कृपा पर निर्भर हो जाते हैं। इस स्थिति को बदलने का एक ही तरीका है कि शिक्षा का सही स्वरूप तय किया जाए, उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाए, कर प्रणाली को तर्कसंगत बनाया जाए, सस्ता राशन, सब्सिडी और आरक्षण की जगह वंचितों के सशक्तिकरण के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं, शासन व्यवस्था में जनता की सार्थक भागीदारी तय की जाए और रिश्वतखोरों, भ्रष्टाचारियों व बलात्कारियों के लिए कड़ी सजा सुनिश्चित की जाए।

यह सब कैसे होगा? इसका एक ही तरीका है कि हम जागें, अपने आसपास के लोगों में जागरूकता का भाव जगाएं। यह संतोष का विषय है कि सरकार और शेष राजनीतिक दलों के तिरस्कारपूर्ण रवैये के बावजूद गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे को देश भर से अच्छा समर्थन मिल रहा है। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर अन्ना की खूब चर्चा है। लेकिन क्या इतना ही काफी है? बाबा अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल में जनता की भागीदारी की बात मनवा कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। हालांकि सरकार ने बाद में इस जीत पर पानी फेर दिया पर लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है और 16 अगस्त से जनता की यह लड़ाई अपने दूसरे चरण में कर चुकी है। इस लड़ाई से तुरंत कोई बड़ी जीत हासिल करना शायद मुश्किल है। लड़ाई अभी लंबी चलने की आशंका है, तो भी यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि अन्ना जी को बिना शर्त जनता का पूर्ण समर्थन मिल रहा है। इस आंदोलन को सफल बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है। छोटी-छोटी उपलब्धियां मिलकर बड़ी जीत में बदल जाती हैं। हमें इसी दिशा में काम करना है ताकि देश के विकास के शेष अवरोधों को भी दूर किया जा सके। 


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Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल







Wall Street Agitation : वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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pkk@lifekingsize.com



वॉल स्ट्रीट विरोध से उपजे सवाल
 पी. के. खुराना


'वॉल स्ट्रीट विरोध' को कई नए नाम मिल गए हैं और अब इसे 'आक्युपाई वॉल स्ट्रीट' के अलावा 'हम 99 प्रतिशत हैं', 'टी पार्टी विरोध' तथा 'अक्तूबर क्रांति' आदि नामों से भी जाना जाने लगा है। वॉल स्ट्रीट और पूंजीवाद के विरोध में उपजे इस आंदोलन ने अब भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया है और यह अमरीका की सीमाओं को लांघकर इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड, जर्मनी, स्पेन, ग्रीस और रोम तक में फैल गया है। हर जगह से प्रदर्शनकारी घरों से बाहर निकल रहे हैं और पूंजीवाद के विरोध में एकजुट होकर इस अनूठे आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि इस आंदोलन की अगुवाई कोई एक व्यक्ति या समूह नहीं कर रहा है और ये लोग यह भी साफ नहीं कर पाये हैं कि उन्हें क्या चाहिए, तथा जो चाहिए वह कैसे संभव होगा, तो भी आंदोलन के प्रति लोगों का समर्थन बढ़ रहा है।

वॉल स्ट्रीट से शुरू हुए प्रदर्शन को अब कारपोरेट अमरीका के खिलाफ आम अमरीकियों के आक्रोश के रूप में देखा जा रहा है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अमरीकी प्रशासन हमेशा कारपोरेट जगत के हितों का संरक्षण करता है अत: कारपोरेट जगत की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, अमीरों पर ज्य़ादा टैक्स लगना चाहिए और देश के 99% लोगों पर 1% लोगों का नियंत्रण खत्म होना चाहिए। प्रदर्शनकारी गोल्डमैन सैक्स, जनरल इलैक्ट्रिक और बैंक ऑफ अमेरिका जैसी संस्थाओं का भी विरोध कर रहे हैं।

मोटे तौर पर यह आंदोलन आर्थिक असमानता के विरुद्ध है जिसमें अमीर और भी ज्य़ादा अमीर, और गरीब और भी ज्य़ादा गरीब होते जा रहे हैं। पूंजीवाद के इस दौर में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमरीका में समाज के सबसे ऊपर के पायदान के 1% लोग देश की 42% वित्तीय संपत्ति को नियंत्रित करते हैं। अमरीका की 70% वित्तीय संपत्ति का नियंत्रण शीर्ष 5% लोगों के पास है। कारपोरेट लाभ सर्वोच्च स्तर पर होने के बावजूद बेरोज़गारी अपने चरम पर है। बड़ी कंपनियों के सीईओ का वेतन सामान्य कर्मचारी के मुकाबले 350 गुणा ज्य़ादा है। सन् 1990 के बाद सीईओ का वेतन 300 गुणा बढ़ा है, कंपनियों का लाभ दोगुणा हो गया है जबकि सामान्य कर्मचारियों का वेतन औसतन सिर्फ 4 से 6 गुणा ही बढ़ा है। महंगाई समायोजित करने के बाद यह बढ़ोत्तरी लगभग शून्य हो जाती है। अमरीका की आधी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का सिर्फ 2.5 प्रतिशत हिस्सा है। यही नहीं, सर्वाधिक आमदनी वाले लोग कम टैक्स का आनंद ले रहे हैं।
सवाल यह है कि इस आर्थिक असमानता में पूंजीवाद का दोष कितना है? इससे पहले हम साम्यवाद को असफल होता देख चुके हैं। कभी विश्व, अमरीका और रूस दो महाशक्तियों में बंटा होता था। साम्यवादी रूस का इतना विघटन हुआ कि वह अमरीका का मोहताज हो गया और आज अमरीका विश्व की अकेली महाशक्ति है। चीन उसे चुनौती तो दे रहा है पर अभी वह अमरीका के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए चीन ने बहुत सी पूंजीवादी नीतियां अपनायी हैं।

अपने ही देश की बात करें तो यहां उदारवाद की शुरुआत सन् 1991 से हुई, लेकिन उससे पहले भी देश की अर्थव्यवस्था का 57% नियंत्रण मात्र 1% आबादी वाले जैन समाज के पास रहा है। सच तो यह है कि देश की शासन व्यवस्था कैसी भी हो, वह अमीर को और ज्य़ादा अमीर और गरीब को और ज्य़ादा गरीब बनाती ही है। एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं। मान लीजिए कुल पांच व्यक्ति एक दौड़ में हिस्सा ले रहे हों, उनमें से एक व्यक्ति पैदल हो, दूसरा साइकिल पर हो, तीसरा स्कूटर पर हो, चौथा कार पर हो और पांचवां हवाई जहाज़ पर हो तो समय बीतने के साथ-साथ प्रतियोगियों में फासला बढ़ता चला जाएगा और अंतत: पैदल चलने वाला या साइकिल पर चलने वाला पूरा ज़ोर लगाकर दौड़ते हुए भी दौड़ से बाहर होने की स्थिति में रहेगा। स्कूटर पर चलने वाले को आप निम्न मध्य वर्ग और कार पर चलने वाले को आप उच्च मध्य वर्ग मान सकते हैं। हवाई जहाज़ का खर्च उठा सकने की कूवत निश्चय ही 1% लोगों तक ही सीमित रहेगी जो दौड़ में हर किसी को पछाड़ेंगे ही। आर्थिक संपन्नता का यह अंतर साम्यवाद या पूंजीवाद के कारण नहीं है। यह अंतर साधनों की उपलब्धता और सामर्थ्य के कारण बना और बढ़ा है, और इस असमानता को दूर करने के लिए हमें राजनीतिक व्यवस्था बदलने के बजाए सामाजिक व्यवस्था बदलने, लोगों का नज़रिया बदलने और जनसामान्य को आर्थिक रूप से शिक्षित करने की आवश्यकता है। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त असमानता की खाई पाटने के लिए हमें इन तीनों सूत्रों को ज़रा बारीकी से समझना होगा।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर स्तर का व्यक्ति हर नये व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था।

दृष्टिकोण बदलने की बात करें तो हमें यह समझना होगा कि समाज के दोनों वर्गों को अपना-अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। संपन्न वर्ग को सदाशय होना होगा और अमीरी की दौड़ में पिछड़ रहे लोगों को धन की महत्ता को समझना और अपने संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करना सीखना होगा। आइये, दोनों मुद्दों पर ज़रा और विस्तार से बात करें।

आज कारपोरेट सेक्टर सामाजिक उत्तरदायित्व की बात करता तो है, पर यह उसका फोकस नहीं है। बहुत कम कारपोरेट घराने ऐसे हैं जो सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन को अपनी नीति में प्राथमिकता का स्थान देते हैं। हमें यह दृष्टिकोण बदलना होगा। कारपोरेट नेताओं को इस ओर ज्य़ादा ध्यान देना होगा वरना जो स्थिति आज अमरीका में कारपोरेट सेक्टर की है वह विश्व के शेष हर देश में भी होगी जो किसी क्रांति में बदल सकती है। यदि कारपोरेट सेक्टर इस स्थिति से बचना चाहता है तो उसे समाज कल्याण को प्राथमिकता देनी ही होगी। इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायण मूर्ति के शब्दों में कहूं तो हमें सहृदय पूंजीवाद अपनाना होगा।

दूसरी ओर, अमीरी की दौड़ में पीछे चल रहे लोगों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो अमीर होना चाहता है पर अमीरों से घृणा करता है। आज दुनिया में दो ही जातियां हैं, एक अमीर जाति और दूसरी गरीब जाति। दुर्भाग्यवश दोनों जातियां एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं और गरीब लोग अमीरों की मेहनत और काबलियत से सीखने के बजाए उनसे घृणा करते हैं और अमीर लोग गरीबों को अपने सामने कुछ नहीं समझते। वस्तुत: सही आर्थिक शिक्षा के अभाव में गरीब लोग गरीब रह जाते हैं और मध्यवर्गीय लोग भी अपने स्तर से ज्य़ादा ऊपर नहीं जा पाते। आज हमारे देश की शिक्षा प्रणाली व्यक्ति को अपने पैसे को काम में लाना और पैसे से पैसा बनाना नहीं सिखाती।

हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। परिणाम यह होता है कि शिक्षित होने के कारण उन्हें तो रोजगार मिल जाता है पर यह आवश्यक नहीं है कि रोजगार के नये अवसरों के सृजन में उनकी कोई बड़ी भूमिका हो, जबकि उद्यमी न केवल अपने लिए रोज़गार का सृजन करता है बल्कि अपने साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उद्यमियों को ज्यादा जोखिम बर्दाश्त करने पड़ते हैं, ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, सफलता के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा लंबे समय तक इंतजार करना पड़ता है, पर जब वे सफल होना शुरू कर देते हैं तो उनकी राह आसान होती चलती है। समस्याओं से उनका भी वास्ता पड़ता है पर वे किसी भी समस्या अथवा चुनौती से घबराने के बजाए उसके समाधान के एक से अधिक हल खोजने का प्रयास करते हैं और सबसे बेहतर विकल्प को आजमाते हैं। उनकी यह प्रतिभा उनकी आदत बन जाती है और सफल होना उनकी नियति। अत: हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो व्यक्ति को नेतृत्व करने, सोचे-समझे जोखिम लेने और उद्यमी बनने के लिए भी तैयार करे। इससे गरीबी तो दूर होगी ही, राजनीतिक स्वतंत्रता भी सार्थक हो सकेगी, देश विकास की राह पर तेज़ी से बढ़ेगा और कारपोरेट सेक्टर के प्रति जनता में असंतोष की भावना भी नहीं होगी। 

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Thursday, September 29, 2011

Terrorism Tumult : आतंकवाद का जलजला







आतंकवाद का जलजला :: Aatankvaad Ka Jaljalaa

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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आतंकवाद का जलजला
 पी. के. खुराना


दिल्ली उच्च न्यायालय में दूसरे धमाके के बाद आगरा में भी दहशतगर्दों ने अपना खेल खेला और कई जानें गईं। हमेशा की तरह सरकार की तरफ से निरर्थक बयानबाज़ी का दौर चला और टीवी चैनल भी दो दिन के लिए व्यस्त हो गए। यह खेदजनक है कि आम भारतवासी को लगता है कि अब आतंकवाद हमारे जीवन का हिस्सा बनकर रह गया है और पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां और सरकार इसमें कुछ खास नहीं कर सकते। ये सब आपस में ही एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपने काम से छुटकारा पा लेने के आदी हो गये हैं। सरकार के पास न महंगाई का कोई इलाज है और न आतंकवाद का। महंगाई गरीबों की जान लेती है, पर आतंकवाद किसी को नहीं बख्शता, आतंकवादियों तक को नहीं!

आतंकवाद की दो किस्में हैं, घरेलू आतंकवाद और वैश्विक आतंकवाद। बहुत से देश वैश्विक आतंकवाद को अपने राजनीतिक, रणनीतिक, सामरिक या आर्थिक हित साधने के लिए भी प्रयोग करते हैं। आतंकवाद घरेलू हो या वैश्विक, वस्तुत: वह कानून व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। पंजाब के स्व. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सदैव कहते थे कि आतंकवाद की समस्या कानून और व्यवस्था का प्रश्न है और इसे इसी ढंग से हल किया जाना चाहिए। उन्होंने पंजाब की जड़ों तक पैठे आतंकवाद को नेस्तनाबूद कर दिखाने का इतिहास बनाया।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जि़ंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के जारी रहने के और भी कई कारण हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद के जारी रहने में आतंकवाद से जुड़े लोगों का ही नहीं राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों का भी स्वार्थ सधता है क्योंकि आतंकवाद के कारण ये सब मोटी कमाई करते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा प्रदेश है जो आतंकवाद से त्रस्त है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं। आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है।

आतंकवाद से जुड़ा सच ऐसा है कि सहसा विश्वास नहीं होता। आतंकवादी नेताओं को विभिन्न स्रोतों से तगड़ा धन मिलता है। यही नहीं, आतंकवाद की रोकथाम के लिए सरकारों को केंद्र से भी बड़ी सहायता मिलती है। इस सहायता का अधिकांश भाग राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी डकार जाते हैं। यानी आतंकवाद फैलाने वाले और उसकी रोकथाम करने वाले, दोनों ही के लिए आतंकवाद मोटी कमाई का साधन है।

आतंकवादियों को समाज के कई वर्गों की सहानुभूति मिल जाती है। आतंकवादी उनकी भावनाओं का शोषण करते हैं और बड़े आतंकी नेता अपने लिए अकूत धन-संपदा इक_ी कर लेते हैं। कई आतंकवादी संगठनों को धर्म और मजहब के नाम पर बड़ा दान मिलता है। इसके अलावा बहुत से देश भी अपनी आवश्यकतानुसार किसी दुश्मन देश में आतंकवाद फैलाने के षडयंत्र में शामिल रहते हैं। आतंकवाद से जुड़े लगभग सभी संगठन नशे के व्यापार से भी जुड़े हुए हैं और हथियार खरीदने के लिए उन्हें यहीं से पैसा मिलता है।

आतंकवाद से जुडऩे वाले लोगों की बड़ी संख्या निचले वर्ग के लोगों की है। समाज से तरह-तरह के अत्याचार सह चुके ये दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धनलाभ की भी बड़ी भूमिका है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

वैश्विक आतंकवाद अक्सर किसी ऐसे देश से जुड़ जाता है जो अपने विभिन्न हितों की खातिर आतंकवादियों को प्रश्रय देता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे ज्यादातर देशों में मुस्लिम बहुल आबादी है जिसके कारण पूरा मुस्लिम समुदाय ही बदनामी झेल रहा है। सच तो यह है कि मुस्लिम समुदाय को ही आतंक का पर्याय मान लेने से भी समस्या जटिल होती है और सरकारें समस्या के सही समाधान तक नहीं पहुंच पातीं।

मोटी बात यह है कि यदि हम आतंकवाद से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें आतंकवाद को देशद्रोह का दर्जा देना होगा और इसमें शामिल हर व्यक्ति और संगठन को देशद्रोही मानना होगा। आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार और समाज के सभी अंगों में समन्वय आवश्यक है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और सामाजिक संगठन, सभी को एकजुट होकर योजनाबद्ध तरीके से आतंकवाद का मुकाबला करना होगा। अपनी सुरक्षा एजेंसिंयों को सही प्रशिक्षण और स्वतंत्रता देनी होगी, उन्हें आधुनिकतम हथियारों से लैस करना होगा। पंजाब के अलावा हमारे सामने एक और बहुत अच्छा उदाहरण मौजूद है। 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जे.के.त्रिपाठी ने सन् 1999 में जब त्रिची के पुलिस कमिश्नर के रूप में कामकाज संभाला तो वहां सांप्रदायिक लावा उबल रहा था और उस ज्वालामुखी में विस्फोट कभी भी संभव था। उन्होंने अपनी निष्ठा और सूझबूझ से वहां की पुलिस के चरित्र में करिश्माई परिवर्तन ला दिया। लब्बोलुबाब यह कि आतंकवाद भी कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान संभव न हो पर उसके लिए गहन निरीक्षण, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास, धैर्य और अदम्य साहस की आवश्यकता है। क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ सोच से ही संभव नहीं होते, उनके लिए कदम-कदम पर लड़ाई लडऩी होती है और साथियों को साथ रखना होता है। यह भी सही है कि आतंकवाद के प्रतिरोध के लिए काफी पैसा खर्च होगा पर आतंकवाद जारी रहने से होने वाले नुकसान के मुकाबले में यह बहुत कम है और इस मामले में लापरवाही खतरनाक साबित हो रही है। आतंकवाद जारी रहने से पर्यटन पर बुरा असर पड़ता है, उद्योग धंधे बंद होते हैं, कामगरों को काम नहीं मिलता और उद्योगों को कामगर नहीं मिलते जिससे पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।

अभी तक हमारी सरकारों ने आतंकवाद के मामले में बहुत ढुलमुल रवैया अपनाया है। यूपीए सरकार तो इस मामले में पूरी तरह से विफल रही है। यह खेदजनक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा इस सरकार के एजेंडे में काफी नीचे है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम था लेकिन उसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का मुद्दा शामिल ही नहीं था। जब तक सरकार इस मामले में मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करेगी, आतंकवाद जारी रहेगा, निरपराध नागरिक काल-कवलित होते रहेंगे, जान-माल का नुकसान होता रहेगा और सरकार की बयानबाज़ी जारी रहेगी।

हमारी समस्या यह है कि हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही कर रहे हैं यानी आतंकवाद की किसी घटना के बाद जागते हैं, अन्यथा हमारी सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस और सरकार सोए रहते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। देखना यह है कि सरकार खुद जागती है या इसके लिए भी हमें किसी अन्ना हज़ारे की आवश्यकता होगी। 


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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

Wednesday, September 21, 2011

Idea That Will Change Our Life : आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया





Idea That Will Change Our Life : आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया

By :
P. K. Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

Pioneering Alternative Journalism in India

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आइडिया, जो बदल दे हमारी दुनिया
 पी.के. खुराना



बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन का दूसरा चरण पूरा हुआ। इस बीच कई नाटक हुए, सरकार ने कई रुख बदले, हर जगह मात खाई और अंतत: अन्ना हज़ारे का जादू संसद के सिर चढ़कर बोला। यह अन्ना हज़ारे का जलाल ही था कि मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल की बयानबाज़ी पर लगाम लग सकी। स्थाई समिति का गठन हो गया है और यह समिति लोकपाल बिल के सभी प्रारूपों का अध्ययन करके अपनी सिफारिशें देगी। समिति की सिफारिशें आने के बाद ही पता चल पायेगा कि सरकार वाकई जनलोकपाल बिल के प्रति गंभीर है या यह भी उसकी ओर से समय बर्बाद करने और जनता के गुस्से को ठंडा होने का वक्त देने की ही एक तिकड़म थी।

वस्तुस्थिति यह है कि अगर जनलोकपाल बिल की कुछ सिफारिशों को सरकार अपने बिल में शामिल कर ले और एक शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति स्वीकार कर ले तो भी यह सिर्फ एक छोटी जीत है। सब जानते हैं कि शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति से भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम तो लगेगी पर इस अकेले कदम से भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता। पर यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि यह वह एक आइडिया है, जो हमारी दुनिया को बदल सकता है, क्योंकि शक्तिशाली लोकपाल के बाद ‘राइट टु रीकॉल’, ‘राइट टु रिजेक्ट’, ‘गारंटी विधेयक’, ‘जनमत विधेयक’ और ‘जनप्रिय विधेयक’ की बारी है। इन कानूनों के अस्तित्व में आने से सरकारी कर्मचारियों एवं जनप्रतिनिधियों पर आवश्यक अंकुश लगेगा, भ्रष्टाचार का अंत होगा, जनता की सर्वोच्चता स्थापित होगी और लोकतंत्र में ‘तंत्र’ के बजाए ‘लोक’ की महत्ता बढ़ेगी, जो अंतत: जनतंत्र को सार्थक बनाएगा। यदि ये कानून अमल में आएं तो जनता वास्तव में जनार्दन बन जाएगी और उन जनप्रतिनिधियों पर जनता की सुनवाई का दबाव बनेगा जो सिर्फ चुनाव के समय ही जनता के दरवाजे पर जाते हैं।

अभी स्थिति यह है कि यदि आपको चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद नहीं है तो आप या तो वोट देने जाते ही नहीं या वोटिंग मशीन पर किसी भी बटन को दबाकर अपने इस अति महत्वपूर्ण अधिकार का व्यर्थ उपयोग कर आते हैं। ‘राइट टु रिजेक्ट’ कानून हमें अधिकार देगा कि कोई भी उम्मीदवार हमारी पसंद का न होने पर हम वोटिंग मशीन पर दिये गए अतिरिक्त बटन को दबाकर उपलब्ध उम्मीदवारों के प्रति अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर दें। इससे राजनीतिक दलों पर बेदाग और प्रभावी उम्मीदवारों के चयन का दबाव बनेगा जो राजनीति की गंदगी दूर करने में सहायक होगा।

‘राइट टु रीकॉल’ भी जनता के पास एक महत्वपूर्ण हथियार होगा ताकि चुने जाने के बाद जनप्रतिनिधि निरंकुश न हो जाएं। यदि चुना हुआ प्रतिनिधि जनता की उपेक्षा करने लगे या मनमानी पर उतर आये तो जनता को उसे वापिस बुलाने का हक होगा। इससे जनप्रतिनिधियों पर विधानसभा अथवा संसद में अपना व्यवहार संयत रखने, विभिन्न सदनों में जनता की आवाज़ बनने तथा अपने क्षेत्र में विकास कार्य करवाने का दबाव बनेगा।

इसी प्रकार ‘गारंटी विधेयक’ नामक एक तीसरा कानून सरकारी अधिकारियों पर लागू होगा। यदि सरकारी कर्मचारी समय पर काम न करें, रिश्वत के जुगाड़ के लिए अकारण काम को टालते रहें तो उनका वेतन कटेगा या उन पर जुर्माना लगेगा या दोनों सजाएं भुगतनी पड़ सकती हैं। इससे सरकारी कर्मचारी निट्ठले और भ्रष्ट नहीं हो सकेंगे, नौकरशाही पर लगाम लगेगी और भ्रष्टाचार की प्रभावी रोकथाम होगी।

‘जनमत विधेयक’ का अर्थ है कि कोई भी कानून बनाने से पहले नागरिक समाज की राय ली जाएगी। एक निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से नागरिक समाज प्रस्ताविक विधेयक में संशोधन सुझा सकेगा या फिर उसे पूरी तरह से रद्द करवा सकेगा। इस प्रकार कोई भी बिल, कानून उसी रूप में बन सकेगा जिस रूप में जनता को उसकी आवश्यकता है।

‘जनप्रिय विधेयक’ का अर्थ है कि यदि नागरिक समाज कोई कानून बनावाना चाहता है, जो कि पहले से अस्तित्व में नहीं है, तो राज्य अथवा केंद्र के जनप्रतिनिधियों को वह कानून बनाना आवश्यक हो जाएगा।

इस समय भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जनसामान्य इस स्थिति से इतना नाराज़ है कि उसने अन्ना हज़ारे और उनके साथियों की हर गलती और कमी को नज़रअंदाज़ किया और सरकार के विरोध में ऐसी लहर बनाई कि सरकार को घुटने टेकने पड़े। सामान्यजन शायद जनलोकपाल बिल के प्रावधानों के बारे में ज्य़ादा नहीं जानते, जानना भी नहीं चाहते, वे सिर्फ भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना चाहते हैं। सरकार द्वारा बाबा अन्ना हज़ारे के आंदोलन के सामने घुटने टेकने का कोई संबंध जनलोकपाल बिल के गुणों-अवगुणों से नहीं है। आंदोलन को आम आदमी का समर्थन भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक नफरत के कारण मिला, न कि जनलोकपाल बिल के प्रति सकारात्मक समर्थन के। कहा जा सकता है कि यह आंदोलन वस्तुत: अन्नागिरी का सफल परीक्षण साबित हुआ है और अब इसे और भी मजबूती से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
एक ज़माना था जब कहा जाता था -- ‘यथा राजा, तथा प्रजा’। यानी यह माना जाता था कि राजा जैसा होगा, प्रजा वैसी ही हो जाएगी। समय बदला, निज़ाम बदला, शासन के तरीके बदले, यहां तक कि शासकों की नियुक्ति के तरीके बदले और लोकतंत्र के ज़माने में प्रजा ही अपने भाग्य विधाता जन-प्रतिनिधियों की भाग्य विधाता बन बैठी। आज के ज़माने में व्यावहारिक स्थिति ऐसी है कि इस पर ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ की उक्ति ही सटीक लगती है। मतलब यह है कि प्रजा जैसी होगी, देश की बागडोर थामने वाले शासकों को भी वैसा ही होना पड़ेगा।

आवश्यकता इस बात की है कि हम सरकारी कर्मचारियों, नौकरशाहों और अपने प्रतिनिधियों की कारगुज़ारी पर लगातार नज़र रखें। हम यदि नहीं बदलेंगे तो हम इन्हें भी नहीं बदल पायेंगे। एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि शहरी मतदाता, खासकर पढ़े-लिखे लोग मतदान इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि सरकारें बदलने से उनका कुछ भी बदलने वाला नहीं है। हमें अपनी इस सोच को भी बदलना होगा। हमें याद रखना होगा कि सरकारें कभी क्रांति नहीं लातीं। क्रांति की शुरुआत सदैव जनता की ओर से हुई है। अब जनसामान्य और प्रबुद्धजनों को एकजुट होकर एक शांतिपूर्ण क्रांति की नींव रखने की आवश्यकता है। ई-गवर्नेंस, शिक्षा का प्रसार, अधिकारों के प्रति जागरूकता और भय और लालच पर नियंत्रण से हम निरंकुश अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को काबू कर सकते हैं। यह अगर आसान नहीं है तो असंभव भी नहीं है। 


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