Friday, July 22, 2011

शिक्षा, नौकरी और रोज़गार :: Shiksha, Naukari Aur Rozgar





शिक्षा, नौकरी और रोज़गार :: Shiksha, Naukari Aur Rozgar


By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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शिक्षा, नौकरी और रोज़गार
 पी. के. खुराना


नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के रोजगार के आंकड़े सामने आते ही विरोधी दलों ने शोर-शराबा शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें शोर मचाने के लिए एक आकर्षक मुद्दा मिल गया है। हालांकि योजना आयोग के मुख्य सलाहकार प्रणब सेन ने कहा है कि सैंपल में खामियां हो सकती हैं और सर्वे के नतीजों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2004-05 से लेकर 2009-10 के बीच यूपीए सरकार की नीतियों से प्रति वर्ष सिर्फ दो लाख रोजगार ही पैदा हुए हैं। एनएसएसओ के ही आकंड़े ये बताते हैं कि एनडीए के शासन यानि 1999-2000 से 2004-05 के बीच एक करोड़ बीस लाख रोजगार पैदा हुए। एनएसएसओ के 2004-05 से लेकर 2009-10 के रोजगार आंकड़ों से जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आये हैं, उनमें से एक यह भी है कि देश में 51 फीसदी श्रम शक्ति के पास स्वरोजगार है, यानि उसे सरकारी मशीनरी के जरिये काम नहीं मिला है।

अगर यूपीए के शासनकाल में साल में सिर्फ दो लाख रोजगारों का सृजन सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रमों की सीमा का द्योतक है। यूपीए सरकार के पहले शासनकाल में मनरेगा को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया और इससे साल में सौ दिन रोजगार की गांरटी मिली। लेकिन गरीबी हटाने और रोजगार बढ़ाने के इस कार्यक्रम से असली मकसद नहीं सध रहा है। मनरेगा सिर्फ रोजगार मुहैया करा रहा है इसका सृजन नहीं कर रहा है। इसके अलावा यह कार्यक्रम भ्रष्टाचार का शिकार बन चुका है। परियोजनाओं में काम हो चाहे न हो, सरकार के खजाने से पैसा निकल जाता है और यह उन लोगों तक नहीं पहुंच पाता है, जिनके लिए यह कार्यक्रम लाया गया था।

विपक्षी दलों का आरोप है कि सरकार नए रोज़गार के सृजन में असमर्थ रही है और यह सरकारी योजनाओं की बड़ी असफलता है। आंकड़ों के आधार पर विपक्ष का आरोप यह भी है कि 15.6 फीसदी स्थायी कर्मचारियों की तुलना में 33.5 फीसदी कर्मचारी कैजुअल हैं। यानी, अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ती जा रही है जिससे बाद में कभी बड़ा श्रमिक असंतोष पैदा हो सकता है। इसी कड़ी का अगला आरोप है कि महिला कर्मचारियों को समान काम के लिए भी अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। सर्वे की यह रिपोर्ट निश्चय ही सरकार के लिए एक बड़ा झटका है और सरकार फिर से बचाव की मुद्रा में है क्योंकि समावेशी विकास का उसका नारा इस रिपोर्ट से ठुस्स हो कर रह गया है, और सरकार कितनी भी सफाइयां दे ले, विपक्ष के पास उसकी आलोचना के लिए एक तगड़ा मुद्दा हाथ आ गया है।

मीडिया में भी इस रिपोर्ट के विश्लेषण को लेकर तर्क-वितर्क का लंबा सिलसिला चला है। मीडिया के विभिन्न विश्लेषणों के जवाब में भारत के चीफ स्टैटीशियन श्री टीसीए अनंत तथा नैशनल सैंपल सर्वे के एडिशनल डायरेक्टर जनरल श्री राजीव मेहता ने कहा है कि सर्वे की रिपोर्ट का मीडिया का विश्लेषण भ्रामक है। इन दोनों अधिकारियों का तर्क है कि पिछले वर्षों में स्कूल और कालेज जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है। इसके साथ ही उच्च शिक्षा के लिए विद्यार्थी अब ज्यादा लंबे समय तक कालेज में रहते हैं जिसके कारण नये रोज़गार में जाने का उनका प्रतिशत घटा है। पंद्रह वर्ष से कम के बच्चों के रोज़गार में जाने के आंकड़ों की प्रशंसा करते हुए ये दोनों अधिकारी इसे इस रूप में परिभाषित करते हैं कि देश में बाल श्रमिकों की संख्या कम हो रही है जो वस्तुत: एक अच्छा संकेत है।

आइये, अब स्थिति के कुछ और पहलओं का भी आकलन करें। सरकारी नौकरियों का एक पहलू यह है कि पिछले कुछ वर्षों से सरकार, सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारियों की नियुक्तियां खुद करने के बजाए काम ठेके पर आबंटित करने लगी है। परिणामस्वरूप सरकारी कार्यालयों में भी आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो वस्तुत: सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। हमें समझना होगा कि किसी भी सरकार के लिए अंतहीन सरकारी नौकरियों का सृजन संभव नहीं है और देश की पूरी आबादी के लिए सरकारी नौकरियों के सृजन की आशा व्यर्थ है। स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि उदारीकरण के बाद से नए निजी संस्थान स्थापित हुए और उनमें बड़ी संख्या में नए लोगों को रोज़गार मिला। अत: सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिएं जो लोगों को नए उद्यम खोलने और चलाने में सहायक हों ताकि सरकार से इतर भी रोज़गार के अवसर पैदा हो सकें। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि हमारी शिक्षा प्रणाली नए उद्यमियों को जन्म दे सके और उनकी सफलता के लिए आवश्यक प्रशिक्षण उपलब्ध करवा सके। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में हमारे बिज़नेस स्कूल भी ज्य़ादातर विद्यार्थियों को पेशेवर (प्रोफेशनल) अथवा विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) तो बनाते हैं पर उसका फोकस विद्यार्थियों को उद्यमी (एंटरप्रेन्योर) बनाने की ओर नहीं है। पेशेवर अथवा विशेषज्ञ जब उद्यमी बनते हैं तो वे कई नए लोगों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रोज़गार देते हैं। विभिन्न शिक्षा संस्थानों और व्यावसायिक एवं पेशेवर संगठनों से हाथ मिलाकर सरकार इस काम को बेहतर अंजाम दे सकती है।

देखा गया है कि हमारे शिक्षा संस्थान और उनसे जुड़े अध्यापकगण अपने विद्यार्थियों को उद्यमी बनने की शिक्षा अथवा प्रेरणा नहीं देते। यदि हमारे शिक्षा संस्थान अपनी दृष्टिकोण बदलें तो विद्यार्थियों के सोचने का तरीका बदलेगा और ज्य़ादा से ज्य़ादा विद्यार्थी उद्यमी बनने के विकल्पों की आकर्षित होंगे जिससे बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर अंकुश लगेगा। हमें अब इसी ओर प्रयास करने की आवश्यकता है। रोज़गार का अर्थ सिर्फ सरकारी नौकरी ही नहीं है। राजनीति के शोर-शराबे से गुमराह होने के बजाए हमें समस्या के हल की ओर ध्यान देने की जरूरत है। बेरोज़गारी से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि सरकारी नौकरियों के साथ-साथ रोज़गार के अन्य विकल्पों की ओर भी ध्यान दिया जाए और उनके विकास की दिशा में ठोस काम किए जाएं। 

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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

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