Sunday, September 16, 2012

Terrorism Turmoil : आतंकवाद का जलजला





आतंकवाद का जलजला :: Aatankvaad Ka Jaljalaa

By : PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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आतंकवाद का जलजला
 पी. के. खुराना


दिल्ली उच्च न्यायालय में दूसरे धमाके के बाद आगरा में भी दहशतगर्दों ने अपना खेल खेला और कई जानें गईं। हमेशा की तरह सरकार की तरफ से निरर्थक बयानबाज़ी का दौर चला और टीवी चैनल भी दो दिन के लिए व्यस्त हो गए। यह खेदजनक है कि आम भारतवासी को लगता है कि अब आतंकवाद हमारे जीवन का हिस्सा बनकर रह गया है और पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां और सरकार इसमें कुछ खास नहीं कर सकते। ये सब आपस में ही एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपने काम से छुटकारा पा लेने के आदी हो गये हैं। सरकार के पास न महंगाई का कोई इलाज है और न आतंकवाद का। महंगाई गरीबों की जान लेती है, पर आतंकवाद किसी को नहीं बख्शता, आतंकवादियों तक को नहीं!

आतंकवाद की दो किस्में हैं, घरेलू आतंकवाद और वैश्विक आतंकवाद। बहुत से देश वैश्विक आतंकवाद को अपने राजनीतिक, रणनीतिक, सामरिक या आर्थिक हित साधने के लिए भी प्रयोग करते हैं। आतंकवाद घरेलू हो या वैश्विक, वस्तुत: वह कानून व्यवस्था से जुड़ा सवाल है। पंजाब के स्व. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सदैव कहते थे कि आतंकवाद की समस्या कानून और व्यवस्था का प्रश्न है और इसे इसी ढंग से हल किया जाना चाहिए। उन्होंने पंजाब की जड़ों तक पैठे आतंकवाद को नेस्तनाबूद कर दिखाने का इतिहास बनाया।

यह सही है कि हमारे कई पड़ोसी देश आतंकवाद को जि़ंदा रखने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के जारी रहने के और भी कई कारण हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद के जारी रहने में आतंकवाद से जुड़े लोगों का ही नहीं राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों का भी स्वार्थ सधता है क्योंकि आतंकवाद के कारण ये सब मोटी कमाई करते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में असम सबसे बड़ा प्रदेश है जो आतंकवाद से त्रस्त है। असम में बंाग्लादेश से आने वाले लोगों को इसलिए नहीं रोका जाता क्योंकि वे कांग्रेस के लिए बड़ा वोट बैंक हैं। आतंकवादी और सरकार एक दूसरे के सहयोगी नहीं हैं, पर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से खत्म भी नहीं करना चाहते क्योंकि एक के अस्तित्व में ही दूसरे की कमाई है। इस प्रकार बांग्लादेशी घुसपैठिये, सरकार और आतंकवादियों के इस अव्यक्त गठजोड़ के कारण भारत में आ बसते हैं और यहीं बसे रह जाते हैं। आतंकवाद की समाप्ति के लिए सहायता के तौर पर राज्य को केंद्र से खरबों रुपये मिलते हैं। मगर यह सहायता राजनीतिज्ञों और अधिकारियों तक सीमित रह जाती है।

आतंकवाद से जुड़ा सच ऐसा है कि सहसा विश्वास नहीं होता। आतंकवादी नेताओं को विभिन्न स्रोतों से तगड़ा धन मिलता है। यही नहीं, आतंकवाद की रोकथाम के लिए सरकारों को केंद्र से भी बड़ी सहायता मिलती है। इस सहायता का अधिकांश भाग राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी डकार जाते हैं। यानी आतंकवाद फैलाने वाले और उसकी रोकथाम करने वाले, दोनों ही के लिए आतंकवाद मोटी कमाई का साधन है।

आतंकवादियों को समाज के कई वर्गों की सहानुभूति मिल जाती है। आतंकवादी उनकी भावनाओं का शोषण करते हैं और बड़े आतंकी नेता अपने लिए अकूत धन-संपदा इक_ी कर लेते हैं। कई आतंकवादी संगठनों को धर्म और मजहब के नाम पर बड़ा दान मिलता है। इसके अलावा बहुत से देश भी अपनी आवश्यकतानुसार किसी दुश्मन देश में आतंकवाद फैलाने के षडयंत्र में शामिल रहते हैं। आतंकवाद से जुड़े लगभग सभी संगठन नशे के व्यापार से भी जुड़े हुए हैं और हथियार खरीदने के लिए उन्हें यहीं से पैसा मिलता है।

आतंकवाद से जुडऩे वाले लोगों की बड़ी संख्या निचले वर्ग के लोगों की है। समाज से तरह-तरह के अत्याचार सह चुके ये दबे-कुचले लोग आतंकवादी बनकर शक्तिशाली महसूस करते हैं, पर साथ में इसमें धनलाभ की भी बड़ी भूमिका है। आतंकवादी यदि सरेंडर करे तो उसके पुनर्वास के लिए बैंक से कर्जा, ग्रांट आदि की सरकारी सहायता मिलती है, जो अन्यथा नहीं मिलती। बहुत से लोग इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आतंकवादी बनते हैं। आतंकवादी रहते हुए आतंकवादियों को विदेशों से जो पैसा मिलता है, उन्हें उसका हिसाब-किताब देने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जो लोग आतंकवाद का साथ देते हैं वे दोनों तरह से धनलाभ से आकर्षित होते हैं।

वैश्विक आतंकवाद अक्सर किसी ऐसे देश से जुड़ जाता है जो अपने विभिन्न हितों की खातिर आतंकवादियों को प्रश्रय देता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे ज्यादातर देशों में मुस्लिम बहुल आबादी है जिसके कारण पूरा मुस्लिम समुदाय ही बदनामी झेल रहा है। सच तो यह है कि मुस्लिम समुदाय को ही आतंक का पर्याय मान लेने से भी समस्या जटिल होती है और सरकारें समस्या के सही समाधान तक नहीं पहुंच पातीं।

मोटी बात यह है कि यदि हम आतंकवाद से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें आतंकवाद को देशद्रोह का दर्जा देना होगा और इसमें शामिल हर व्यक्ति और संगठन को देशद्रोही मानना होगा। आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार और समाज के सभी अंगों में समन्वय आवश्यक है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और सामाजिक संगठन, सभी को एकजुट होकर योजनाबद्ध तरीके से आतंकवाद का मुकाबला करना होगा। अपनी सुरक्षा एजेंसिंयों को सही प्रशिक्षण और स्वतंत्रता देनी होगी, उन्हें आधुनिकतम हथियारों से लैस करना होगा। पंजाब के अलावा हमारे सामने एक और बहुत अच्छा उदाहरण मौजूद है। 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जे.के.त्रिपाठी ने सन् 1999 में जब त्रिची के पुलिस कमिश्नर के रूप में कामकाज संभाला तो वहां सांप्रदायिक लावा उबल रहा था और उस ज्वालामुखी में विस्फोट कभी भी संभव था। उन्होंने अपनी निष्ठा और सूझबूझ से वहां की पुलिस के चरित्र में करिश्माई परिवर्तन ला दिया। लब्बोलुबाब यह कि आतंकवाद भी कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका समाधान संभव न हो पर उसके लिए गहन निरीक्षण, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास, धैर्य और अदम्य साहस की आवश्यकता है। क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ सोच से ही संभव नहीं होते, उनके लिए कदम-कदम पर लड़ाई लडऩी होती है और साथियों को साथ रखना होता है। यह भी सही है कि आतंकवाद के प्रतिरोध के लिए काफी पैसा खर्च होगा पर आतंकवाद जारी रहने से होने वाले नुकसान के मुकाबले में यह बहुत कम है और इस मामले में लापरवाही खतरनाक साबित हो रही है। आतंकवाद जारी रहने से पर्यटन पर बुरा असर पड़ता है, उद्योग धंधे बंद होते हैं, कामगरों को काम नहीं मिलता और उद्योगों को कामगर नहीं मिलते जिससे पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।

अभी तक हमारी सरकारों ने आतंकवाद के मामले में बहुत ढुलमुल रवैया अपनाया है। यूपीए सरकार तो इस मामले में पूरी तरह से विफल रही है। यह खेदजनक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा इस सरकार के एजेंडे में काफी नीचे है। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम था लेकिन उसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का मुद्दा शामिल ही नहीं था। जब तक सरकार इस मामले में मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं करेगी, आतंकवाद जारी रहेगा, निरपराध नागरिक काल-कवलित होते रहेंगे, जान-माल का नुकसान होता रहेगा और सरकार की बयानबाज़ी जारी रहेगी।

हमारी समस्या यह है कि हम आतंक के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही कर रहे हैं यानी आतंकवाद की किसी घटना के बाद जागते हैं, अन्यथा हमारी सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस और सरकार सोए रहते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। देखना यह है कि सरकार खुद जागती है या इसके लिए भी हमें किसी अन्ना हज़ारे की आवश्यकता होगी। 


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Pioneering Alternative Journalism in India : PK Khurana

गलत होता व्याकरण



गलत होता व्याकरण :: Galat Hota Vyaakaran

By :
PK Khurana
(Pramod Krishna Khurana)

प्रमोद कृष्ण खुराना

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गलत होता व्याकरण
 पी. के. खुराना

हर भारतीय चाहता है कि भारतवर्ष उन्नति करे, एक विकसित देश बने और देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की सारी सुविधाएं मौजूद हों। इसके लिए हमें गहन विचार की आवश्यकता है। गड़बड़ सिर्फ यह है कि हम सिर्फ विचार ही करते रह जाते हैं, उससे आगे नहीं बढ़ते। भारत में हम चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, सम्मेलन करते हैं, सेमिनार करते हैं खूब बातें करते हैं और इस तरह जताते हैं मानो किसी भी जनसुविधा का सुधार हमारा काम न हो, और नतीजतन बिलकुल भी कार्य नहीं करते हैं।

श्री सी. के. प्रह्लाद ने एक बार इन्फोसिस के चीफ मेंटर श्री नारायणमूर्ति से कहा था – ‘विकासशील देश होना महज एक मानसिकता है।’ श्री नारायणमूर्ति की तरह मैं भी इस कथन से सहमत हूं। श्री नारायणमूर्ति कहते हैं कि सत्तर के दशक में जब वे फ्रांस गए तो उन्होंने विकसित देश और विकासशील देश की मानसिकता का फर्क स्पष्ट देखा। फ्रांस में हर कोई इस तरह दिखाता है मानो जनसुविधाएं सुधारने पर चर्चा करना, बहस करना और उस दिशा में फटाफट काम करना उनका ही काम हो। भारत में हम इसके एकदम विपरीत काम करते हैं। हम या तो उदासीनता का प्रदर्शन करते हैं या फिर सिर्फ चर्चा करते रह जाते हैं। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री भी भाषण करते हैं तो वे कहते हैं – ‘गरीबी दूर होनी चाहिए!’ मानो, भारत की गरीबी दूर करना बराक ओबामा का काम हो!

आज हमारी मानसिकता गलत है, व्याकरण गलत है। ‘ऐसा होना चाहिए’, ‘वैसा होना चाहिए’ आदि को छोड़कर हमें अब ‘मैं करूंगा’ पर आने की ज़रूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि पुराना ज़माना पुराना था, वह बीत गया। अब ज़माना बदल गया है। नये दौर और नये ज़माने की ज़रूरतें नई होती हैं, समस्याएं नई होती हैं और नई समस्याओं के समाधान पुराने नहीं हो सकते।

अलग-अलग समय में अलग-अलग चीजों का महत्व होता है। कभी बड़ी जनसंख्या एक वरदान था क्योंकि उससे श्रमशक्ति बढ़ जाती थी, फिर एक ज़माना ऐसा आया जब ज़मीन और खेती संपदा के कारण बने। उसके बाद कारखाने और मिल बड़ी संपदा बन गए। आज के ज़माने में सूचना, ज्ञान और नेटवर्किंग संपदा हैं। पुराना ज़माना बीत जाए तो उसकी यादों से चिपके रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता। अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को सुखद बनाना तो सार्थक है पर सुनहरे अतीत पर घमंड करना और वर्तमान की उपेक्षा करना हानिकारक है। समस्या यह है कि भारतवर्ष में सोने की चिडिय़ा के अतीत की कहानियां सुनना-सुनाना तो आम बात है पर वर्तमान का विश्लेषण करना और नये ज़माने की आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं को शिक्षित करना, योजना बनाना और कार्य संपन्न करना शायद दूसरी दुनिया के लोगों पर छोड़ दिया गया है।

हम सोने की चिडिय़ा थे। हमने शून्य का आविष्कार किया, गिनती उसी से बनी। पुरातन काल में हमारा विज्ञान उन्नत था। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि पांच हज़ार वर्ष पूर्व भी हमारे यहां विमान थे। ऐसा माना जाता है कि रावण के पास पुष्पक विमान था और वह दूर की यात्राएं वायुमार्ग से करता था। हमारी युद्ध कला बहुत उन्नत थी, हमारे योद्धाओं के पास अग्निबाण जैसे आग बरसाने वाले या पानी बरसाने वाले या नागपाश की तरह बांध लेने वाले अस्त्र-शस्त्र थे। हमारी चिकित्सा पद्धति भी बहुत उन्नत थी। हमारे वैज्ञानिक, भूगोलविद्, खगोलविद् आदि विद्वानों ने संसार को ज्ञान और आविष्कारों का एक बड़ा खज़ाना दिया है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें अपनी विरासत पर गर्व होना ही चाहिए। इसमें कुछ भी गलत अथवा अस्वाभाविक नहीं है। पर क्या इतना ही काफी है?

श्री नारायणमूर्ति उन गिने-चुने भारतीयों में से एक हैं जो पूर्ण पारदर्शिता में विश्वास रखते हैं। खुद उनका जीवन एक खुली किताब है। वे एक अच्छे इन्सान ही नहीं, एक आदर्श देशभक्त भी हैं और उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसे वे न करते हों, या जिसे करने में वे विश्वास न करते हों। श्री नारायणमूर्ति ने अनेक बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों, दक्षिणपंथियों, मध्यमार्गियों, वामपंथियों से बात की, अध्ययन किया, निरीक्षण किया, डाटा इकट्ठा किया और दुनिया में गरीबी मिटाने और आर्थिक विकास के मूलभूत उपायों का विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले। उनका निष्कर्ष था कि गरीबी की समस्या का एकमात्र समाधान अच्छी आय वाली नौकरियों के अवसर पैदा करना है। इसके लिए ऐसे उद्यमी चाहिएं जो धारणाओं को अवसर और धन में बदल सकें। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और तथाकथित बिजनेस स्कूल भी विद्यार्थियों को नौकरी के लिए या अच्छे वेतन वाली नौकरी के लिए तो तैयार करते हैं पर वे उन्हें उद्यमी नहीं बनाते। ज्यादातर शिक्षित व्यक्ति क्लर्क, अफसर, मैनेजर या चीफ मैनेजर बनने का सपना देखते हैं, उद्यमी बनने का नहीं। नौकरीपेशा व्यक्ति को सिर्फ स्वयं को रोजगार मिलता है जबकि उद्यमी अपने साथ-साथ कई अन्य लोगों के रोज़गार का भी कारण बनता है। गरीबी दूर करने का यह रामबाण उपाय है।

इसके साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि विकास गरीबों की कीमत पर नहीं हो सकता। हमें सहृदय पूंजीवाद और इन्क्लूसिव डेवेलपमेंट को अपनाना होगा। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किये जाएं। रोज़गार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा माडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह नयी सामाजिक व्यवस्था, दृष्टिकोण में परिवर्तन तथा सोशल इन्नोवेशन से संभव है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं।

जब मैं सामाजिक व्यवस्था की बात करता हूं तो मेरी कल्पना में राजा अग्रसेन आते हैं जिनके राज्य में यह नियम था कि यदि वहां कोई बाहरी व्यक्ति आये तो राज्य का हर व्यक्ति उसे एक रुपया और एक ईंट भेंट स्वरूप देता था ताकि उन ईंटों से वह अपना घर बना सके और उन रुपयों से अपना व्यवसाय जमा सके। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जहां हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए योगदान देता था। इसी तरह सहृदय पूंजीवाद के माध्यम से वंचितों के विकास के लिए साधन बनाने होंगे। सहृदय पूंजीवाद में लाभ के धन का एक भाग समाज और देश के विकास में लगता है। यह तभी संभव है जब हम ‘चाहिए’ का व्याकरण छोड़कर ‘मैं करूंगा’ का व्याकरण अपना लें, तभी हम उन्नति कर सकेंगे और एक विकसित देश बन सकेंगे। 



सोशल मीडिया का नया युग




सोशल मीडिया का नया युग
          -- पी. के. खुराना

The Dawn of a New Era in Social Media
By : PK Khurana

(pkk@lifekingsize.com)

कंप्यूटर का आविष्कार एक चमत्कार था, इंटरनेट एक और चमत्कार था और इसके बाद सोशल मीडिया भी एक चमत्कार था। एक और वेबसाइट टॉक2सेलेब्स.कॉ(talk2celebs.com) ने सोशल मीडिया में एक नये युग की शुरुआत की है। इसे ज़रा विस्तार से समझने की आवश्यकता है। सोशल मीडिया के इस ज़माने में हम ब्लॉग, फेसबुक, आर्कुट, नेटलॉग, ट्विटर आदि सोशल मीडिया साइटों के ज़रिये हम दुनिया भर से जुड़ गए हैं और हमारे मित्रों की संख्या हज़ारों में भी हो सकती है। सूचनाओं के प्रसार की गति अविश्वसनीय रूप से तेज़ हो गई है और सोशल मीडिया जनमत बनाने या जनमत को प्रभावित करने का एक उपयोगी और कारगर हथियार बन कर उभरा है। इंटरनेट और ईमेल ने हमारे जीवन के ढंग में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया था पर सोशल मीडिया ने तो एक कदम आगे जाकर सारी दुनिया को हमारी दहलीज पर ला दिया है। सोशल मीडिया ने कई सार्थक बहसों को जन्म दिया है और कई सामाजिक अभियानों को मजबूती प्रदान की है। हम सोशल मीडिया से जुड़े हों या न, हम सोशल मीडिया के पक्ष में हों या विरोध में, पर यह अब हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है और हम इससे बच नहीं सकते।

इंटरनेट, सोशल मीडिया और स्मार्टफोन की त्रिवेणी ने अब एक ऐसी शक्तिपीठ की रचना की है कि उसके सामने पारंपरिक मीडिया का तेज फीका पड़ गया है। प्रतिष्ठित, प्रसिद्ध एवं विशिष्ट व्यक्तियों के लिए ट्विटर को अपनाना इसलिए आसान था क्योंकि यहां केवल 140 अक्षरों में ही अपनी बात समाप्त कर देने की स्वतंत्रता है, जो कहीं और संभव नहीं थी। सोशल नेटवर्किंग साइटों पर, बिना किसी खर्च के, मित्रों और प्रशंसकों के माध्यम से सेकेंडों में करोड़ों लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की सुविधा ने इसे एकदम से ग्राह्य बना दिया।

एक तरफ सोशल मीडिया ने प्रसिद्ध लोगों को अपने प्रशंसकों से जुड़ने का अवसर दिया तो दूसरी तरफ प्रशंसकों और सामान्य जन को भी प्रसिद्ध लोगों के मन में झांकने और उनके विचार जानने का मौका मिला। स्टार और सेलेब्रिटी माने जाने वाले विशिष्ट व्यक्ति पहले तो वेबसाइट और ब्लॉग के माध्यम से लोगों से जुड़े, परंतु वहां पहुंच सीमित थी क्योंकि जो व्यक्ति आपकी वेबसाइट पर नहीं आया, उसे आपके बारे में जानने का मौका नहीं मिलता था। फिर आर्कुट और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों ने तो जैसे धूम ही मचा दी। फेसबुक के साथ ही यूट्यूब, फ्लिकर और ट्विटर की लोकप्रियता भी बढ़ती चली गई और सोशल मीडिया साइटें हमारी जीवन का अभिन्न अंग बन गईं। हाल ही में पिंटेरेस्ट की चर्चा भी बढ़ी है, हालांकि अभी उसे सेलेब्रिटी स्टेटस नहीं मिला है। सोशल मीडिया साइटों में ट्विटर की अपनी अलग पहचान बन गई है क्योंकि व्यस्त लोगों के लिए भी अपने स्मार्टफोन से ही सिर्फ 140 अक्षरों में अपनी बात ट्वीट कर देने के लिए समय निकालना कठिन नहीं है और कई सेलेब्रिटीज़ तो दिनमें कई-कई बार ट्वीट करते हैं। अब यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि आज लगभग सभी विशिष्टजन ट्वीट की भाषा में बोलते हैं, और उनके करोड़ों-करोड़ों प्रशसंक पूरी निष्ठा से उनके ट्वीट पढ़ते हैं, उस पर चर्चा करते हैं, टिप्पणी करते हैं, टिप्पणियों पर टिप्पणी करते हैं। अपने मनपसंद सेलेब्रिटी से दोतरफा संवाद का ऐसा और कोई माध्यम नहीं है।

अमरीकी गायिका लेडी गागा के ट्विटर एकाउंट पर प्रशंसकों की संख्या 2,78,48,540 है जो सऊदी अरेबिया, आस्ट्रेलिया और ग्रीस की सम्मिलित आबादी से भी ज़्यादा है। कनाडा की पॉप संगीतकार जस्टीन बीबर के ट्विटर एकाउंट पर प्रशंसकों की संख्या 2,59,33,400 है। अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ट्विटर पर सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ हैं और उनके प्रशंसकों की संख्या 1,80,99,382 है जबकि फुटबाल खिलाड़ी क्रिस्टियानो रोनाल्डो के ट्विटर एकाउंट पर उनके प्रशंसकों की संख्या 1,20,73,467 है। भारतवर्ष में लोककथाओं के नायकों की मानिंद प्रसिद्ध अमिताभ बच्चन के हर ट्वीट को पढ़ने के लिए 31,78,881 लोगों का बड़ा समूह हमेशा बेताब दिखता है। अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा और बालीवुड के बादशाह शाहरुख खान के ऑनलाइन प्रशंसकों की संख्या भी बहुत से नामी-गिरामी अखबारों से बहुत-बहुत ज्यादा है।

जैसे-जैसे मध्यवर्ग का विस्तार हो रहा है, मोबाइल फोन धारकों की संख्या बढ़ती जा रही है। मोबाइल फोन सस्ते होते जा रहे हैं और स्मार्टफोन अब एक आम चीज़ हैं। अब तो बहुत से 3-जी कंपैटिबल फोन भी इतने सस्ते हैं कि हर कोई उन्हें खरीद सकता है। इसके कारण भी इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग तेज़ी से बढ़ा है। सोशल मीडिया के इस उपभोग का ही परिणाम है कि अब प्रसिद्ध व्यक्तियों के ऑनलाइन प्रशंसकों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि ये सेलेब्रिटी हस्तियां स्वयं एक माध्यम बनकर खुद भी 'मीडिया' की श्रेणी में आ गए हैं।

बदलती परिस्थितियों के अनुरूप नई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदैव नई सुविधाओं, सेवाओं और उत्पादों की आवश्यकता रही है और विश्व में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं रही जो नई आवश्यकताओं को समझ कर नई सुविधा, नई सेवा या नए उत्पाद प्रस्तुत करते रहे हैं और उसे दुनिया ने हाथों-हाथ लिया है। इसी तरह की एक वेबसाइट टॉक2सेलेब्स.कॉम है। इस वेबसाइट की खासियत यह है कि इसमें दुनिया भर के सेलेब्रिटीज़ के फेसबुक, ट्विटर, नेटलॉग, आर्कुट व यूट्यूब आदि लिंक शामिल हैं जहां आप किसी भी सेलेब्रिटी के सोशल मीडिया साइट पर उनसे चैट कर सकते हैं, कमेंट कर सकते हैं, कमेंट पर कमेंट कर सकते हैं और उसे अपने मित्रों के साथ शेयर कर सकते हैं। टॉक2सेलेब्स.कॉम के साथ सोशल मीडिया का एक और नया युग (The Dawn of a New Era in Social Media) शुरू हुआ है। सेलेब्रिटीज़ के विचारों और कामों से समाज प्रभावित होता है, प्रेरित होता है। टॉक2सेलेब्स.कॉम ने पहली बार सभी सेलेब्रिटीज़ को एक ही मंच पर ला दिया है। यही नहीं इसमें हॉलीवुड, बॉलीवुड, राजनीति, व्यवसाय, पत्रकारिता, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों के विशिष्ट जनों का समावेश है।

सोशल मीडिया की खासियत यह है कि इसके माध्यम से आप समाचार पा सकते हैं और समाचार दे सकते हैं। यह दो-तरफा संवाद है जहां आपको दुनिया भर की खबरें मिलती हैं और आप दुनिया भर को अपनी खबर दे सकते हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि सोशल मीडिया ऐसा अखबार है जिसे खरीदना नहीं पड़ता और जिसके प्रकाशन पर भी आपको कोई खर्च नहीं करना पड़ता। इसके अलावा सोशल मीडिया के माध्यम से आप दुनिया के हर कोने से एक साथ जुड़ जाते हैं। सोशल मीडिया की इसी खूबी ने इसे इतना खास बना दिया है कि सारी दुनिया सोशल मीडिया में सिमट गई है। इसी कड़ी में टॉक2सेलेब्स.कॉम ने एक नये युग की शुरुआत तो की है, पर क्या यह किसी अगले चमत्कार की वजह भी बन पायेगा? यह देखना अभी बाकी है कि इस कड़ी का अगला चमत्कार क्या होगा। ***

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Saturday, April 14, 2012

Well-in-time Day :: वैल-इन-टाइम डे





वैल-इन-टाइम डे
• पी.के. खुराना

हमने पश्चिम से बहुत कुछ सीखा है। बहुत-से मामलों में हम सिर्फ नकल ही कर रहे हैं, जबकि कई अन्य मामलों में हमने सिर्फ नकल से आगे बढ़कर उस कार्य-संस्कृति को भी आत्मसात किया है या काम के पीछे की कहानी को भी समझा और अपनाया है। इस बात का खुलासा करूं तो शायद तमिलनाडु के शहर मदुरै में स्थित अरविंद आई हास्पिटल का उदाहरण सर्वाधिक सटीक है। अरविंद आई हास्पिटल की अंतरराष्ट्रीय पहचान है क्योंकि यह लगभग न के बराबर के खर्च में आंखों के इलाज और अंधता दूर करने के मिशन से काम कर रहा है।

अरविंद आई हास्पिटल मात्र लाभ के लिए काम करने के बजाए जनसेवा की भावना से काम कर रहा है और आज यह मात्र एक अस्पताल नहीं बल्कि एक ख्यात जनसेवा संस्थान के रूप में जाना जाता है। अरविंद आई हास्पिटल में कार्यरत डाक्टर अन्य अस्पतालों के डाक्टरों की अपेक्षा कहीं ज्य़ादा आप्रेशन करते हैं। इस प्रकार ज्यादा कुशलता (एफिशेन्सी) के कारण इस इकोनामी आफ स्केल का लाभ मिलता है, यानी इसका लाभ ज्यादा मार्जिन में नहीं बल्कि ज्य़ादा से ज्य़ादा संख्या में आप्रेशन करने में है। जनसेवा की भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण इस बात में है कि अरविंद आई हास्पिटल विश्व के किसी भी अन्य अस्पताल को अपने मैनेजमेंट सिस्टम दिखाने और बताने से गुरेज़ नही करता, तो भी उनका अनुभव यह है कि अन्य अस्पतालों से आये लोग ‘तकनीक’ तो समझ लेते हैं, पर अरविंद आई हास्पिटल की आत्मा, यानी संस्कृति को नहीं अपनाते, यही कारण है कि वे इस शानदार प्रबंधन प्रणाली का पूरा लाभ नहीं ले पाते। रणबीर कपूर की प्रसिद्ध फिल्म ‘राकेट सिंह’ भी यही संदेश दोहराती है कि किसी काम को पूर्णता में सीखने-समझने में ही लाभ है। पश्चिम से सीखी जाने वाली बातों पर भी यही नियम लागू होता है।

जगद्गुरू कहे जाने वाले भारतवर्ष में अब हम ज़ोर-शोर से मदर्स डे, फादर्स डे, वैलेंटाइन डे आदि मनाने लग गए हैं। पिछले कई वर्षों की तरह इस वर्ष भी देश के कई हिस्सों में 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे ज़ोर-शोर से मनाया गया। प्यार के फरिश्ते संत वैलेटाइन की स्मृति में मनाए जाने वाले इस दिन को मीडिया ने और भी ज्य़ादा उत्साह से मनाया। भारतवर्ष के लिए यह सिलसिला अब नया नहीं रहा। कोई भी ‘दिवस’ मनाने के पीछे एक उद्देश्य होता है, कभी वह पूर्वजों के बलिदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है, कभी बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न है और कभी रिश्तों की मजबूती का प्रयास या नए रिश्ते गढऩे का अवसर होता है।

पश्चिम से, या कहीं से भी अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है। दिमाग की खिड़की खुली रखने पर ही हम रोशनी अंदर आने दे सकते हैं। हमें भारत को जगद्गुरू कहने में गर्व होता है। जगद्गुरू बने रहने के लिए आंतरिक विकास एक आवश्यक शर्त है। आज जगद्गुरू भारत को हर अच्छी बात सीखने के लिए तैयार होना होगा, चाहे वह पश्चिम से आये या जापान, चीन अथवा ताइवान से।

पश्चिमी संस्कृति से समय की पाबंदी जीवन का एक हिस्सा है। भारतवर्ष में हम पश्चिम से मिलने वाली आसान चीजों की नकल कर रहे हैं लेकिन लाभदायक बातों को सीखने की कोशिश कुछ कम कर रहे हैं। समय की पाबंदी जीवन में सफलता के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। लेकिन हमारी परियोजनाएं हमेशा अलग ही कहानी कहती हैं। कोई भी सरकारी परियोजना समय पर पूरी नहीं होती, समय पर पूरी न होने के कारण उनकी कीमत कई-कई गुणा बढ़ जाती है। बहुत-सी परियोजनाएं इसलिए अधर में लटक जाती हैं कि सत्तासीन दल बदल गया। भारतवर्ष में सरकारी परियोजनाओं में समय की पाबंदी का कोई महत्व नहीं है। सरकारी लोगों के लिए आई.एस.टी. का मतलब ‘इंडियन स्टैंडर्ड टाइम’ नहीं बल्कि ‘इंडियन स्ट्रैचेबल टाइम’ है। सरकारी डिक्शनरी वाले ‘समय’ को आप रबड़ की तरह जितना चाहें लंबा खींच सकते हैं।

स्ट्रैचेबल टाइम की इस फिलासफी ने भारत का बहुत नुकसान किया है। अनुशासनहीनता, काम के प्रति गैर-जिम्मेदारी का स्थाई भाव हमारी कार्य-संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। इसके इलाज के लिए अब हमें वैलेंडाइन डे की तरह ‘वैल-इन-टाइम-डे’ मनाना शुरू करने की आवश्यकता है।

जापान में सुनामी के समय कुछ अधिकारियों को रिएक्टरों को बंद करने का कार्य सौंपा गया। अपनी जान की परवाह किये बिना उन लोगों ने किस तल्लीनता और शालीनता से वह कर्तव्य निभाया, यह सारी दुनिया ने देखा। चीन और ताईवान का सामान दुनिया भर के बाजारों में कैसे बढ़त बना रहा है, यह हम सब के सामने है। भारतीय त्योहारों और भारतीय संस्कृति से जुड़ा चीनी और ताईवान सामान भारत भी इतना सटीक, उपयोगी और सार्थक होता है कि आश्चर्य होता है कि किसी भारतीय ने ऐसा क्यों नहीं सोचा?

लगभग 25 वर्ष पूर्व रीडर्स डाइजेस्ट के हिंदी संस्करण ‘सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट’ में एक लेख छपा था जिसमें यह बताया गया था कि भारतवर्ष में अंग्रेजों के शासनकाल के समय में मुंबई (तब बंबई) म्युनिसिपल कारपोरेशन के भवन के निर्माण के लिए ठेका दिया गया। वह निर्माण तय समय से पूर्व पूरा हुआ, तय बजट से कम खर्च में पूरा हुआ और भवन के उद्घाटन के समय उस पर लगी उद्घाटन पट्टिका में उपरोक्त दोनों तथ्यों का जिक्र शामिल था। क्या इस उदाहरण से तथा चीन, जापान और ताईवान के उदाहरणों से हम कुछ सीख सकते हैं ?

हरियाणा में पूर्व मंत्री तथा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे श्री फूल चंद मुलाना समय की पाबंदी के लिए जाने जाते हैं। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप समय की पाबंदी का नियम कैसे निभा पाते हैं, कैसे हर आयोजन में आप समय पर पहुंच जाते हैं। इसका उत्तर दिखने में जितना साधारण था, उन शब्दों में उतनी ही गहराई भी है। श्री मुलाना ने मुझे कहा, “मैं वैसे ही हर जगह समय पर पहुंचता हूं, जैसे हर दूसरा आदमी देर से पहुंचता है!” उनका अभिप्राय यह था कि समय पर पहुंचना उतना ही आसान है, जितना देर से पहुंचना, यानी समय की पाबंदी मात्र एक आदत है। शुरू में हर आदत अनुशासन से बनती है, बाद में वह सिर्फ एक आदत होती है और हमारा अवचेतन मस्तिष्क उसे अपना लेता है तो वह सामान्य रुटीन बन जाती है।

मैं फिर कहना चाहूंगा कि पश्चिम से, या कहीं से भी अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है। दिमाग की खिड़की खुली रखने पर ही हम रोशनी अंदर आने दे सकते हैं। हमें भारत को जगद्गुरू कहने में गर्व होता है। जगद्गुरू बने रहने के लिए आंतरिक विकास एक आवश्यक शर्त है। आज जगद्गुरू भारत को हर अच्छी बात सीखने के लिए तैयार होना होगा, चाहे वह पश्चिम से आये या जापान, चीन अथवा ताइवान से। ***

Well-in-time Day
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Responsibility Should be Fixed Personally :: व्यक्तिगत हो जिम्मेदारी





व्यक्तिगत हो जिम्मेदारी
• पी. के. खुराना

बात तो राजस्थान की है, पर लागू सारे देश पर होती है। राजस्थान उच्च न्यायालय में रामगढ़ बांध के भराव के मुद्दे पर सुनवाई चल रही है। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने कुछ सरकारी अधिकारियों को गवाही के लिए बुलाया है। मुकद्दमे चलते हैं तो गवाह बुलाए ही जाते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। पर इस मामले में एक बात नई अवश्य है, और वह यह है कि न्यायालय ने जिन अधिकारियों को तलब किया है उन्हें उनके पदनाम (डेजिगनेशन) से नहीं, बल्कि उनके नाम से सम्मन भेजे गए हैं। सरकारी अधिकारियों को नामजद करके सम्मन भेजने का यह काम नया है और यदि यह एक स्थापित प्रथा बन जाए तो देश का बहुत भला हो सकता है।

निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले श्री गुलाब कोठारी एक प्रतिष्ठित संपादक हैं और पत्रकारिता में वे तथ्यपरक पत्रकारिता के पक्षधर रहे हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय के इस मामले का हवाला देते हुए श्री कोठारी ने कई विचारणीय मुद्दे उठाए हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई न्यायालय किसी अधिकारी को उनके नाम के बजाए उनके पद के नाम से सम्मन भेजता है तो अधिकारी उसकी परवाह नहीं करते, क्योंकि सम्मन आते रहते हैं और अधिकारी बदलते रहते हैं। निर्णय कोई व्यक्ति लेता है और सम्मन उसकी जगह किसी नये आये अधिकारी को मिल जाता है। इससे व्यक्ति की जिम्मेदारी आयद नहीं होती और अधिकारी लोग गलतियों अथवा भ्रष्टाचार के बावजूद सज़ा से बच निकलते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि यदि नामजद नोटिस देना शुरू हो गया तो अधिकारीगण न्यायालय की अवहेलना अथवा अवमानना का दुस्साहस नहीं कर पायेंगे और अपनी जिम्मेदारी निभाने में कुछ ज्य़ादा मुस्तैदी दिखाएंगे।

कानूनी जिम्मेदारी से बचने के लिए आज अधिकारीगण अपने लिखे आदेशों और पत्रों पर दस्तखत करते हैं, मुहर भी लगाते हैं और अपना पदनाम तो लिखते हैं पर नाम नहीं लिखते। इससे यदि किसी मामले में भ्रष्टाचार हुआ हो, पक्षपात हुआ हो, लापरवाही हुई हो या जाने-अनजाने गलती हुई हो तो संबंधित अधिकारी की जिम्मेदारी आयद कर पाना आसान नहीं होता। अधिकारियों के पास कानूनी रूप से जिम्मेदारी से बचने का यह आसान उपाय है जिसका वे लगातार दुरुपयोग करते हैं, और करते चले जा रहे हैं। इस चालाकी के चलते अधिकारी और राजनेता सब गड़बडिय़ों के बावजूद कानून की गिरफ्त से बच निकलते हैं क्योंकि इसके कारण उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी आयद नहीं हो पाती।
नाम के बजाए सिर्फ पदनाम से काम करने की प्रथा के परिणामस्वरूप अक्सर सम्मन तामील ही नहीं होते। किसी एक अधिकारी के नामजद न होने की वजह से उसके आला अधिकारी भी उसके सम्मन की तामील के लिए कुछ नहीं कर पाते। अधिकारियों के नामजद होने की स्थिति में सम्मन तामील करवाने की जिम्मेदारी उसके वरिष्ठ अधिकारियों पर डाली जा सकती है। नामजद अधिकारी की फरारी की स्थिति में भी तुरंत आवश्यक कार्यवाही की जा सकती है।

केवल पदनाम या डेजिगनेशन के प्रयोग का एक और परिणाम यह भी है कि यदि कोई अधिकारी कोई गड़बड़ी करने के बाद तबादले पर चला जाए, प्रमोट हो जाए या रिटायर हो जाए और गड़बड़ी का पता बाद में चले तो सम्मन तत्कालीन अधिकारी के नाम पर जाने के बजाए उसकी जगह पर नये आये अधिकारी को जारी किये जाएंगे, जिसका उस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है। न्यायालय में मामला चलने पर भी न तो पुराने अधिकारी को तलब किया जाता है और न ही उसकी जगह नये आये अधिकारी को दोषी ठहराया जा सकता है।

दूसरा सवाल यह है कि जिस आदेश अथवा पत्र पर किसी अधिकारी का नाम नहीं है, उसकी कानूनी वैधता क्या है। होना तो यह चाहिए कि जानबूझ कर अपना नाम देने से बचने वाले ऐसे हर अधिकारी एवं राजनेता के विरुद्ध कार्यवाही हो और नाम न देना निषिद्ध हो जाए। यह नियम केवलसरकारी अधिकारियों पर ही लागू न हो बल्कि मंत्रियों, जिला परिषदों के अधिकारियों और पंचों-सरपंचों के आदेशों, परिपत्रों और पत्रों पर भी लागू होना चाहिए। बहुत बार सरकारी अधिकारियों की ओर से कई तरह के पत्र नागरिकों को मिलते हैं। कई बार नागरिकों को धमकाने के लिए भी दुर्भावनावश कई पत्र जारी किये जाते हैं। यदि वे गलत हैं, कानून के विरुद्ध हैं, कानून की अवहेलना करते हैं या कानून का दुरुपयोग करते प्रतीत होते हैं तो शिकायत किसकी होगी? यदि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले का नाम होगा तो उस व्यक्ति विशेष की शिकायत संभव है, जो कि अन्यथा संयोग पर निर्भर करेगी। ऐसा एक गलत पत्र किसी निर्दोष नागरिक को बेतरह परेशान कर सकता है, उसके तलुवे घिसवा सकता है जबकि अधिकारी का कुछ भी नहीं बिगड़ता।

बहुत बार नेतागण किसी ट्रस्ट में ट्रस्टी बनने के लिए, अधिकारीगण कहीं से कोई स्वार्थ पूरा करने या रिश्वत लेने का जुगाड़ बनाने के लिए या कसी शिकायत से अपना पिंड छुड़वाने के लिए अनाप-शनाप नोटिस जारी करवा देते हैं, जिन पर अधिकारी के पद का हवाला तो होता है पर किसी का नाम नहीं होता। ऐसे हर पत्र की कानूनी वैधता समाप्त कर दी जानी चाहिए।

जब तक किसी आदेश पर, परिपत्र पर या पत्र पर पत्र लिखने वाले या आदेश जारी करने वाले का नाम नहीं होगा तब तक यह गड़बड़ी चलती रहेगी। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि केवल पदनाम की कानूनी परिपाटी को बदला जाए। ऐसे में तबादला हो जाने, प्रमोशन हो जाने या रिटायर हो जाने की स्थिति में भी वही अधिकारी नामजद होगा जिसने पत्र या आदेश जारी किया होगा। जब व्यक्तिगत जिम्मेदारी आयद होने की प्रथा सुदृढ़ होगी तो प्रशासनिक भ्रष्टाचार और ज्य़ादतियों की रोकथाम हो सकेगी। इसी प्रकार किसी मामले में पदनामधारी अधिकारी कानून की अवहेलना करता है या न्यायालय के आदेश को लागू नहीं करवाता है तो उस अधिकारी को पदनाम के साथ-साथ नामजद बुलाया जाना ही न्यायसंगत है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति विशेष की जि़म्मेदारी के आधार पर निर्णय होने चाहिएं। लोकतंत्र में न्याय की भूमिका सर्वोपरि है। कानून और दंड के भय से ही बहुत सा कार्य सही चलता है।

आम आदमी तो मरते दम तक कोर्ट जाता है और उसके मरने के बाद उसके बच्चे भी न्यायालय में जूतियां घिसते रह जाते हैं। इस दृष्टि से सरकारी पदों पर बैठे लोगों को भी नामजद पार्टी बनाना और तबादला, प्रमोशन या सेवानिवृत्ति के बाद भी नामजद व्यक्ति को बुलाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।

श्री गुलाब कोठारी के उठाये ये मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये सिर्फ बहस के मुद्दे नहीं हैं, इन पर कार्यवाही होनी चाहिए। इसी में लोकतंत्र की सफलता है और देश का भला है। ***

Individual Responsibility
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Responsibility Should be Fixed Personally

Sunday, April 1, 2012

Information, News & Technique : सूचना, समाचार और तकनीक





सूचना, समाचार और तकनीक
 पी. के. खुराना


इसमें कोई शक नहीं है कि सूचना और समाचार हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और आज भी टीवी तथा समाचारपत्र, सूचना एवं समाचार देने के प्राथमिक स्रोत हैं। आज भी समाचारपत्र और टीवी, अपने तथा समाचार एजेंसियों के नेटवर्क के ज़रिये समाचार इकट्ठे करते हैं। लोग समाचार जानना चाहते हैं, समाचारपत्र और टीवी समाचार को ‘रूप’ और ‘आकार’ देते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सूचना एवं समाचार के प्राथमिक स्रोत होने के बावजूद वे अपने इस ‘उत्पाद’ से वह लाभ नहीं ले पा रहे हैं जो शायद उन्हें मिलना चाहिए था।

इंटरनेट और स्मार्ट फोन के संगम ने समाचार जानने के तरीकों में भारी परिवर्तन कर दिया है। समाचारपत्रों के इंटरनेट संस्करण अब मोबाइल फोन हैंडसेट तथा टेबलेट पर भी उपलब्ध हैं और अब विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपने मोबाइल फोन अथवा टेबलेट के माध्यम से समाचार पढ़ता है। सफर में चल रहे लोग तथा व्यस्त एग्जीक्यूटिव समाचारपत्र का छपा हुआ संस्करण देखने के बजाए उसका ऑनलाइन संस्करण देखने के आदी होते जा रहे हैं। इसका सीधा सा परिणाम यह है कि सूचना और समाचार जानने की बढ़ती मांग का लाभ समाचारपत्र इंडस्ट्री को होने के बजाए इंटरनेट और तकनीक कंपनियों को हो रहा है।

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रोजेक्ट फार एक्सीलेंस इन जर्नलिज़्म के तहत सन् 2012 की ‘स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडिया’ हाल ही में जारी की गई है। अमरीका में मीडिया इंडस्ट्री की वार्षिक रिपोर्ट का यह नौवां संस्करण है, जो हर वर्ष अमरीकी पत्रकारिता और मीडिया इंडस्ट्री के रुझानों की छानबीन करता है। इस वर्ष के अध्ययन में मोबाइल टेक्नालॉजी और सोशल मीडिया के समाचारों पर प्रभाव को विशेष रूप से शामिल किया गया है।

इस अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन और टेबलेट का प्रयोग करने वाले लोग दिन में कई बार अपने फोन या टेबलेट पर समाचार देखते हैं। यही नहीं, कंप्यूटर अथवा लैपटाप का प्रयोग करने वाले लोगों में से 34 प्रतिशत लोग अपने स्मार्टफोन पर भी समाचार देखते हैं और स्मार्टफोन का प्रयोग करने वाले लोगों में से 27 प्रतिशत लोग अपने टेबलेट पर भी समाचार देखते हैं। अमरीका में समाचार जानने की इच्छा रखने वाला ऑनलाइन वर्ग बढ़ता जा रहा है और समाचारपत्रों की प्रसार संख्या तथा विज्ञापन से होने वाली आय घटती जा रही है। सन् 2000 से अब तक इसमें 43 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है, और अब अमरीका में अधिकतर लोग यह विश्वास करते हैं कि अगले 5 वर्षों में समाचारपत्रों का घरों में वितरण बाधित हो सकता है।

समाचारों के ऑनलाइन पाठक वर्ग में इस वर्ष 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई और विज्ञापनों से होने वाली आय में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई। विज्ञापन पर किये जाने वाले कुल खर्च का 40 प्रतिशत अकेले गूगल के हिस्से में जाता है और ऑनलाइन विज्ञापन बाज़ार का 68 प्रतिशत गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट और एओएल में ही बंट जाता है। दूसरी ओर, समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की आय घटी है और समाचारपत्रों को विज्ञापनों से होने वाली आय घटकर 1984 के स्तर पर आ गई है, वह भी तब जब इसमें महंगाई के प्रभाव को शामिल नहीं किया गया है। सन् 2011 के आखिरी तीन महीनों यानी अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में ऐप्पल के हालीडे सीज़न की आय 46 अरब डालर थी जब इसी साल पूरे वर्ष के दौरान दैनिक समाचारपत्रों की विज्ञापन और प्रसार से होने वाली कुल आय 34 अरब डालर थी।

यह तो स्पष्ट है कि अमरीका में समाचारपत्रों का भविष्य स्पष्ट नहीं है और कोई एक ही कार्य-योजना सभी समाचारपत्रों की मुश्किलें दूर करने के लिए काफी नहीं है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि अब मीडिया इंडस्ट्री को अपने कार्यक्षेत्र को दोबारा से परिभाषित करने की आवश्यकता है। समाचारपत्र कभी मात्र जनहित के लिए समाचार देते थे, अब उसी रूप में वह स्थिति तो नहीं रही, पर अब भी समाचारपत्र उद्योग की महत्ता समाप्त नहीं हुई है। ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ के नियमानुसार मीडिया उद्योग को जिंदा रहने के लिए आय के स्रोतों तथा कुल आय में वृद्धि की आवश्यकता है।

प्रसिद्ध अमरीकी मीडिया विश्लेषक श्री रयान फ्रैंक का मानना है कि मीडिया उद्योग के पराभव का कारण यह है कि वह पूरी तस्वीर को न देखकर, मार्केटिंग दृष्टिदोष (मार्केटिंग मायोपिया) से ग्रस्त है और मीडिया उद्योग ग्राहक-केंद्रित (कस्टमर ओरिएंटेड) होने के बजाए उत्पाद-केंद्रित (प्राडक्ट ओरिएंटेड) हो गया है। श्री फ्रैंक का मत है कि मीडिया उद्योग को अब राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय होने के बजाए ‘क्षेत्रीय’ और ‘स्थानीय’ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा स्थानीय सूचना, जानकारी एवं समाचारों का विश्वसनीय स्रोत बनना चाहिए। उनका मानना है कि मीडिया उद्योग को ‘इनीशिएटिव, इन्नोवेशन और इन्वेस्ट’ के मंत्र पर चलकर ही अपनी मौजूदा कठिनाइयों से राहत मिल सकती है। समाचारपत्रों को स्थानीय समुदाय के लिए मोबाइल एप्लीकेशन्स (मोबाइल ऐप्स) का विकास करना चाहिए ताकि वे स्थानीय लोगों के लिए प्रासंगिक बने रहें। यही नहीं, वे समाचारों व सूचनाओं को आकार देने में इंटरनेट के पिछलग्गू की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व की स्थिति में आयें तथा समाचारों एवं शेष सामग्री के माध्यम से जनमत निर्माण में स्वतंत्र भूमिका निभाएं।

इसी तरह विज्ञापनदाताओं के लिए प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें पाठकों के बारे में अधिकाधिक जानकारी होनी चाहिए, यानी, उनके पास सही-सही ‘रीडर प्रोफाइल’ होना लाभदायक होगा। यह इस हद तक होना चाहिए कि उन्हें पता हो कि उनकी कौन सी पाठिका कब गर्भवती होकर तद्नुसार खरीदारी कर रही है।

मीडिया उद्योग को शोध एवं विकास (रिसर्च एंड डेवलेपमेंट) में निवेश पर ज़ोर देते हुए श्री फ्रैंक कहते हैं कि गूगल अपनी प्रयोगशाला में शोध एवं विकास पर बहुत ध्यान देता है तथा भविष्य के रुझान को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि बदलने के लिए भी वह लगातार निवेश करता है। डिजिटल क्षेत्र में गूगल के अग्रणी रहने का यही रहस्य है और मीडिया इंडस्ट्री को इससे सीख लेनी चाहिए।

श्री रयान फ्रैंक मानते हैं कि मीडिया उद्योग को सभी संभावनाओं पर विचार करते हुए अपनी रणनीति तय करनी चाहिए ताकि उसका क्षय रुके और विकास संभव हो सके। देखना यह है कि ‘स्टेट आफ दि न्यूज़ मीडिया’ अध्ययन से भारतीय मीडिया उद्योग क्या सीख लेता है ? ***

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Sunday, March 25, 2012

Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !






Significance of the Checklist ! :: चेकलिस्ट का महत्व !

 पी. के. खुराना


मेरे मित्र डा. एस.पी.एस.ग्रेवाल, ‘ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट’ के नाम से आंखों का एक अस्पताल चलाते हैं जिसकी शाखाएं, चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में हैं। ज्वायंट कमीशन इंटरनैशनल नाम की स्वतंत्र अमरीकी संस्था अमरीका से बाहर के विभिन्न अस्पतालों को गुणवत्ता संबंधी प्रमाणपत्र (क्वालिटी सर्टिफिकेट) देती है। ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट की खासियत यह है कि यह विश्व का चौथा ऐसा आंखों का अस्पताल था जिसे जेसीआई का गुणवत्ता प्रमाणपत्र मिला था, जो विश्व भर में अस्पतालों के लिए सबसे बड़ा गुणवत्ता प्रमाणपत्र माना जाता है। उसी दौरान जब मैं एक बार ग्रेवाल आई इंस्टीट्यूट के टायलेट में गया तो वहां मैंने एक चेकलिस्ट टंगी देखी जिस पर टायलेट की दुरुस्ती से संबंधित प्वायंट्स लिखे हुए थे और उन्हें टिक किया गया था। ये प्वायंट थे, फ्लश ठीक चल रही है, पेपर रोल लगा है, पेपर नेपकिन हैं, सीट को कीटाणुरहित किया गया है, इत्यादि-इत्यादि।

इससे भी पहले सन् 2003 में जब मेरे ज्येष्ठ सुपुत्र सुमित खुराना ने प्रतिष्ठित थापर विश्वविद्यालय से इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग करने के बाद हमारे पारिवारिक व्यवसाय में कदम रखा तो उसने हमारी कंपनी के हर कर्मचारी के कामकाज की विस्तृत चेकलिस्ट बनाई थी जिसमें ऐसे चरणों का जिक्र था जो दो दशक के अनुभव के बावजूद खुद मुझे भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थे, लेकिन चेकलिस्ट के कारण एकदम से स्पष्ट हो गए। तब से लगातार हम अपने हर काम से पहले चेकलिस्ट अवश्य बनाते हैं। चेकलिस्ट की सहायता हम तब भी लेते हैं जब वह काम हम दस हजारवीं बार कर रहे हों। इससे किसी गलती अथवा काम की पूर्णता में कमी की आशंका कम से कम हो जाती है।

हाल ही में भारतीय मूल के अमरीकी सर्जन डा. अतुल गवांडे की पुस्तक ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ प्रकाशित हुई है जिसमें चेकलिस्ट की महत्ता को विस्तार से रेखांकित किया गया है। किसी भी काम में गलतियों से बचने के लिए चेकलिस्ट एक बहुत साधारण दिखने वाला असाधारण कदम है। वस्तुत: यह इतना साधारण नज़र आता है कि हम अक्सर इसकी महत्ता की उपेक्षा कर देते हैं।

‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ डा. अतुल गवांडे की तीसरी पुस्तक है। इससे पहले उन्होंने ‘कंप्लीकेशन्स’ और ‘बैटर’ नामक दो पुस्तकें लिखी हैं, जिनकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ भी एक असाधारण पुस्तक है जो किसी भी काम में गलतियों की रोकथाम और काम में पूर्ण सफलता के लिए आवश्यक सावधानियों को रेखांकित करती है।

सन् 2002 में प्रकाशित उनकी प्रथम पुस्तक ‘कंप्लीकेशन्स’ बोस्टन के एक अस्पताल में रेजिडेंट सर्जन के रूप में उनके अनुभवों का संग्रह है। अक्सर डाक्टरों पर काम का बहुत बोझ होता है और जटिल आपरेशनों में उन्हें तुरत-फुरत निर्णय लेना होता है। दबाव की उन स्थितियों में भूल हो जाना या गलती हो जाना आम बात है। लेकिन एक छोटी-सी भूल अथवा गलती किसी रोगी की जान ले सकती है। ये डाक्टर भी इन्सान हैं जो जटिलतम परिस्थितियों में सैकेंडों में निर्णय लेने के लिए विवश हैं। इन्सान के रूप में हम गलतियों के पुतले हैं, अत: गलतियों की रोकथाम हमारे लिए सदैव से एक बड़ी चुनौती रही है। डा. गवांडे का कहना है कि वे इस बात में रुचि ले रहे थे कि लोग असफल क्यों होते हैं, समाज का पतन क्यों होता है, और इसकी रोकथाम कैसे की जा सकती है। अमरीका में जनस्वास्थ्य नीति के एक प्रमुख चिंतक के रूप में उभरे डा. अतुल गवांडे की दूसरी पुस्तक ‘बैटर’ यह बताती है कि डाक्टर लोग सर्जरी के समय किस तरह गलतियों से बच सकते हैँ और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सर्जरी के समय कोई महत्वपूर्ण छूट न जाए।

उनकी हालिया पुस्तक ‘द चेकलिस्ट मेनिफेस्टो’ एक कदम आगे बढ़कर पूर्ण विस्तार से बताती है कि यदि डाक्टर लोग काम की पूर्णता और शुद्धता, यानी, ‘कॉग्नीटिव नेट’ का पालन करते हुए जटिल आपरेशनों से पहले चेकलिस्ट बना लें तो केवल स्मरणशक्ति पर निर्भर रहने के कारण होने वाली भूलों से बचा जा सकता है और कई कीमती जानें बचाई जा सकती हैं। उनके इस विचार को विश्व के आठ अलग-अलग अस्पतालों में टेस्ट किया गया और यह आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया कि उन अस्पतालों में आपरेशन के बाद की मृत्यु दर में 50 प्रतिशत तक की कमी आ गई। पचास प्रतिशत! यह एक दुखदायी परंतु कड़वा सच है कि अस्पतालों में होने वाली मौतों का 50 प्रतिशत डाक्टरों की छोटी-छोटी भूलों और गलतियों से होता है, और इन गलतियों अथवा भूलों की रोकथाम करके बहुत से रोगियों की जानें बचाई जा सकती हैं।

डा. गवांडे ने दो और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। अमरीका के कनेक्टिकट में स्थित हार्टफोर्ड अस्पताल में लगभग 50 वर्ष पूर्व लगी एक आग के बाद लोगों ने डाक्टरों अथवा अस्पताल प्रबंधन पर दोष मढऩे के बजाए बार-बार आग लगने के कारणों का पता लगाने का प्रयत्न किया तो अस्पताल में प्रयुक्त पेंट और सीलिंग की टाइलें अग्निरोधक नहीं थे और आग लगने की अवस्था में लोगों को बाहर निकालने की प्रक्रिया भी दोषपूर्ण थी। इन परिणामों के बाद चेकलिस्ट एक विस्तृत चेकलिस्ट बनी और अमरीका में अस्पतालों के भवन निर्माण के नियमों में आवश्यक परिवर्तन किये गये।

दूसरी, और उससे भी कहीं ज्य़ादा महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि गलतियों की रोकथाम न की जाए तो समय बीतने के साथ-साथ हम जीवन में गलतियों और भूलों को जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं। किसी कोर्स की पुस्तक संभावित गलतियों का जिक्र नहीं करती, कोई अध्यापक किसी कक्षा में गलतियों से बचने के तरीकों पर बात नहीं करता, और यहां तक कि जानलेवा गलतियां भी सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। चेकलिस्ट की सहायता से हम उन गलतियों से बच सकते हैं।

डा. गवांडे के इस अनुभव में मैं सिर्फ इतना जोडऩा चाहूंगा कि जीवन के हर क्षेत्र में चेकलिस्ट का महत्व है। नौकरी में, व्यवसाय में, प्रशासन में, यात्रा में, हर जगह चेकलिस्ट का महत्व है और यदि हम इस छोटी-सी सावधानी का ध्यान रखें तो हम बहुत सी अनावश्यक असफलताओं से बच सकते हैं। ***

Significance of the Checklist
By : PK Khurana
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